अञ्जीर की लाल, काली, सफेद और पीली ये चार प्रकार की जातियाँ पायी जाती हैं। इसके कच्चे फलों की सब्जी बनती है। पके अंजीर का मुरब्बा बनता है। अधिक मात्रा में अंजीर खाने से यकृत(Liver) एवं जठर को नुकसान होता है। बादाम खाने से अञ्जीर के दोषों का शमन होता है।
गुण-धर्मः पके, ताजे अञ्जीर गुण में शीतल, स्वाद में मधुर, स्वादिष्ट एवं पचने में भारी होते हैं। ये वायु एवं पित्तदोष का शमन करते हैं एवं रक्त की वृद्धि करते हैं। ये रस एवं विपाक में मधुर एवं शीतवीर्य होते हैं। भारी होने के कारण कफ एवं आमवात के रोगों की वृद्धि करते हैं एवं मंदाग्नि करते हैं। ये कृमि, हृदयपीड़ा, रक्त-पित्त, दाह एवं रक्तविकारनाशक हैं। ठंडे होने के कारण नकसीर फूटने में, पित्त रोगों में एवं मस्तक के रोगों में विशेष लाभप्रद होते हैं।
सूखे अंजीर में उपरोक्त गुणों के अलावा शरीर को स्निग्ध करने, वायु की गति को ठीक करने एवं श्वास रोग का नाश करने के गुण भी विद्यमान होते हैं।
सभी सूखे मेवों में देह को सबसे ज्यादा पोषण देने वाला मेवा अंजीर है। इसके अलावा यह देह की कांति तथा सौन्दर्य बढ़ाने वाला है, पसीना उत्पन्न करता है एवं गरमी का शमन करता है।
अंजीर को बादाम एवं पिस्ता के साथ खाने से बुद्धि बढ़ती है और अखरोट के साथ खाने से विष-विकार दूर होते हैं।
आधुनिक विज्ञत्रान के मतानुसार अंजीर बालकों की कब्जियत मिटाने के लिए विशेष उपयोगी है। कब्जियत के कारण जब मल आँतों में सड़ने लगता है, तब उसके जहरीले तत्त्व रक्त में मिल जाते हैं और रक्तवाही धमनियों में रूकावट डालते हैं जिससे शरीर के सभी अंगों में रक्त नहीं पहुँचता। इसके फलस्वरूप शरीर कमजोर हो जाता है एवं दिमाग, नेत्र, हृदय, जठर, बड़ी आँत आदि अंगों में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर दुबला-पतला होकर जवानी में ही वृद्धत्व नज़र आने लगता है। ऐसी स्थिति में अंजीर का उपयोग अत्यंत लाभदायी होता है। यह आँतों की शुद्धि करके रक्त बढ़ाता है एवं रक्त परिभ्रमण को सामान्य बनाता है।
किसी बालक ने काँच, पत्थर अथवा ऐसी अन्य कोई अखाद्य ठोस वस्तु निगल ली हो तो उसे रोज एक से दो अंजीर खिलायें। इससे वह वस्तु मल के साथ बाहर निकल जायेगी। अंजीर चबाकर खाना चाहिए।
अंजीर में विटामिन ʹएʹ पाया जाता है। इस कारण यह आँख के प्राकृतिक गीलेपन को बनाये रखता है।
औषधि प्रयोग
रक्तशुद्धि के लिएः 3-4 पके हुए अंजीर को छीलकर आमने-सामने दो चीरे लगा दें और उसमें मिश्री का चूर्ण भर दें एवं रात्रि को खुले आकाश में ओस से तर होने के लिए कहीं रख दें। प्रातःकाल उसका सेवन करें। इस प्रयोग से रक्त की गर्मी नष्ट होगी एवं रक्त शुद्ध होगा।
रक्तवृद्धिः 4 अंजीर एवं 11 सूखी काली द्राक्ष को 100 से 200 मि.ली. गाय के दूध में उबालें। एक उबाल आने पर वह दूध पी लें एवं अंजीर तथा द्राक्ष को चबाकर खा जायें। इससे कब्जियत दूर होती है, आँतों को बल मिलता है, भूख बढ़ती है एवं रक्त शुद्ध होता है। एक से दो महीने तक यह प्रयोग करें।
रक्तस्रावः शरीर के किसी भी भाग से रक्तस्राव होता हो तो 2 से 6 अंजीर को 50 मि.ली. पानी में भिगोकर पीस लें। इसके बाद उसमें 20 ग्राम दुर्वा घास का रस एवं 10 ग्राम मिश्री मिलाकर सुबह शाम पियें। ज्यादा रक्तस्राव हो तो खस एवं धनिया के पाउडर को पानी में पीसकर ललाट पर एवं हाथ-पैर के तलुओं में लेप करें। इससे लाभ होता है।
मंदाग्नि एवं उदररोगः जिनकी पाचनशक्ति मंद हो, दूध न पचता हो उन्हें 2 से 4 अंजीर रात्रि में पानी में भिगोकर सुबह चबाकर खाना चाहिए एवं वह पानी पी लेना चाहिए।
कब्जियतः प्रतिदिन 5 से 6 अंजीर को उसके टुकड़े करके 250 मि.ली. पानी में भिगो दें। सुबह उस पानी को उबालकर आधा कर दें और पी जायें। पीने के बाद अंजीर चबाकर खायें तो थोड़े ही दिनों में कब्जियत दूर होकर पाचनशक्ति बलवान होगी। बच्चों के लिए 1 से 3 अंजीर पर्याप्त हैं।
बवासीरः 2 से 4 अंजीर रात को पानी में भिगोकर सुबह खायें और सुबह भिगोकर शाम को खायें। इस प्रकार प्रतिदिन करने से खूनी बवासीर में लाभ होता है। अथवा, अंजीर, काली द्राक्ष (सूखी), हरड़ एवं मिश्री को समान मात्रा में लेकर उसे कूटकर सुपारी जितनी बड़ी गोली बना लें। प्रतिदिन सुबह-शाम एक-एक गोली का सेवन करने से भी लाभ होता है।
बहुमूत्रताः जिन्हें बार-बार ज्यादा मात्रा में ठंडी एवं सफेद रंग की पेशाब आती हो, कंठ सूखता हो, शरीर दुर्बल होती जा रही हो तो रोज प्रातःकाल 2 से 4 अंजीर खाने के बाद ऊपर से 10 से 15 ग्राम काला तिल चबा कर खायें। इससे आराम मिलता है।
मूत्रकृच्छता(मूत्राल्पता)- 1 या 2 अंजीर में 1 या 2 ग्राम कलमी सोडा मिलाकर प्रतिदिन सुबह खाने से मूत्राल्पता में लाभ होता है।
श्वास (गर्मी का दमा)- 6 ग्राम अंजीर एवं 3 ग्राम गोरख इमली का चूर्ण सुबह शाम खाने से इसमें लाभ होता है। श्वास के साथ खाँसी भी हो तो उसमें 2 ग्राम जीरे का चूर्ण मिलाकर लेने से ज्यादा लाभ होगा।
शीत ऋतु में देहपुष्टि हेतु अंजीरपाक
50 ग्राम सूखे अंजीर लेकर उसके 6-8 छोटे टुकड़े कर लें। 500 ग्राम देशी घी गर्म करके उसमें अंजीर के वे टुकड़े डालकर 200 ग्राम मिश्री का चूर्ण मिला दें। इसके पश्चात उसमें बड़ी इलायची 5 ग्राम, चारोली, बलदाणा एवं पिस्ता 10-10 ग्राम तथा 20 ग्राम बादाम के छोटे-छोटे टुकड़ों को ठीक ढंग से मिश्रित कर काँच की बर्नी में भर लें। अंजीर के टुकड़े घी में डुबे रहने चाहिए। घी कम लगे तो उसमें और ज्यादा घी डाल सकते हैं।
यह मिश्रण आठ दिन तक बर्नी में पड़े रहने से अंजीरपाक तैयार हो जाता है। इस अंजीरपाक को प्रतिदिन सुबह 10 से 20 ग्राम की मात्रा में खाली पेट खायें। शीत ऋतु में शक्ति संचय के लिए यह अत्यंत पौष्टिक पाक है। यह अशक्त एवं कमजोर व्यक्ति का रक्त बढ़ाकर धातु को पुष्ट करता है।
अश्वगंधा
अश्वगंधा एक बलवर्धक व पुष्टिदायक श्रेष्ठ रसायन है। यह मधुर व स्निग्ध होने के कारण वात का शमन करने वाली एवं रस, रक्त आदि सप्त धातुओं का पोषण करने वाली है। इससे विशेषतः मांस व शुक्रधातु की वृद्धि होती है।
इसमें कैल्शियम व लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में होते हैं। अतः कुपोषण के कारण बालकों में होने वाले सूखा रोग, मांसपेशियों व बुढ़ापे की कमजोरी, थकान, रोगों के बाद की कृशता आदि में यह अत्यंत उपयुक्त औषधि है। इसके निरन्तर उपयोग से शरीर का समग्र रूप से शोधन होता है एवं जीवनी शक्ति बढ़ती है। नित्य प्रातः 1 से 3 ग्राम चूर्ण दूध में मिलाकर लेने से शरीर में लाल रक्तकणों की वृद्धि होती है।
कुपोषण के कारण बालकों में होने वाले सूखा रोग में यह अत्यन्त लाभदायी औषधि है। इसका 1 से 3 ग्राम चूर्ण एक माह तक दूध, घी या पानी के साथ लेने से बालक का शरीर उसी प्रकार पुष्ट हो जाता है जैसे वर्षा होने पर फसल लहलहा उठते हैं।
क्षयरोग व पक्षाघात में अन्य औषधियों के साथ बल्य के रूप में इसे गोघृत और मिश्री के साथ लिया जा सकता है। अश्वगंधा अत्यंत वाजीकारक अर्थात् शुक्रधातु की त्वरित वृद्धि करने वाला रसायन है। इसके 2 ग्राम चूर्ण को घी व मिश्री के साथ लेने से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है एवं वीर्यदोष दूर होते हैं।
एक ग्राम चूर्ण दूध व मिश्री के साथ लेने पर नींद अच्छी आती है। मानसिक या शारीरिक थकान के कारण नींद न आने पर इसका उपयोग किया जा सकता है।
अश्वगंधा, ब्राह्मी तथा जटामांसी समान मात्रा में मिलाकर इसका 1 से 3 ग्राम चूर्ण शहद के साथ लेने से उच्च रक्तचाप कम होने लगता है। इस प्रयोग से नींद भी अच्छी आती है। आहार में नमक कम लें।
गर्भाधारण के बाद चौथे, पाँचवें तथा छठें महीने में अश्वगंधा और शतावरी का एक-एक चम्मच चूर्ण समान मात्रा में मिलाकर सुबह-शाम गाय के दूध के साथ लेने से बालक का पोषण अच्छी तरह से होता है। प्रसूति के बाद भी वह प्रयोग चालू रखें। इससे बालक के पोषणार्थ आवश्यक कैल्शियम एवं लौह तत्त्व की पूर्ति होती है।
सभी लोग इस पौष्टिक वनस्पति का फायदा ले सकते हैं। हजारों-लाखों रूपयों की विदेशी औषधियाँ शरीर को उतना निर्दोष फायदा नहीं पहुँचातीं, उतना पोषण नहीं देतीं, जितना पोषण अश्वगंधा देती है। अश्वगंधा कम दाम पर सबी साधकों तक पहुँच सके ऐसी आज्ञा बापू जी ने औषध निर्माण केन्द्र व समितियों को दी है। बाजार में यह 28 रूपये का 80 ग्राम मिलता है लेकिन अपना औषध निर्माण केन्द्र 20 रूपये में 100 ग्राम देता है। यह अश्वगंधा बल-वीर्यवर्धक है, तमाम गुणों से युक्त है। मेथीपाक अथवा अन्य किसी भी पाक में डालकर इसका उपयोग कर सकते हैं।
सर्दी के लिए पौष्टिक किसी भी एक कि.ग्रा. पाक में 50 से 100 ग्राम अश्वगंधा डाल सकते हैं। इससे उस पाक की पौष्टिकता में कई गुना वृद्धि हो जायेगी।
(साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, जहाँगीरपुरा, वरियाव रोड, सूरत)
क्या आप जानते हैं साबूदाने की असलियत को ?
आमतौर पर साबूदाना शाकाहारी कहा जाता है तथा व्रत-उपवास में इसका काफी प्रयोग होता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि साबूदाना शाकाहार होने पर भी पवित्र नहीं है ?
यह सच है कि साबूदाना (Tapioca) ʹकसावाʹ के गूदे से बनाया जाता है परन्तु इसकी निर्माणविधि इतनी अपवित्र है कि इसे शाकाहार एवं स्वास्थ्यप्रद नहीं कहा जा सकता।
साबूदाना बनाने के लिए सबसे पहले कसावा को खुले मैदान में बनी कुण्डियों में डाला जाता है तथा रसायनों की सहायता से उन्हें लम्बे समय तक सड़ाया जाता है। इस प्रकार सड़ने से तैयार हुआ गूदा महीनों तक खुले आसमान के नीचे पड़ा रहता है। रात में कुण्डियों को गर्मी देने के लिए उनके आस-पास बड़े-बड़े बल्ब जलाये जाते हैं। इससे बल्ब के आसपास उड़ने वाले कई छोटे-छोटे जहरीले जीव भी इन कुण्डियों में गिरकर मर जाते हैं।
दूसरी ओर इस गूदे में पानी डाला जाता है जिससे उसमें सफेद रंग के करोड़ों लम्बे कृमि पैदा हो जाते हैं। इसके बाद उस गूदे को मजदूरों के पैरों के रौंदया जाता है। इस प्रक्रिया में गूदे में गिर हुए कीट पतंग तथा सफेद कृमि भी उसी में समा जाते हैं। यह प्रक्रिया कई बार दोहरायी जाती है।
इसके बाद कई मशीनों में डाला जाता है और मोती जैसे चमकीले दाने बनाकर साबूदाना का नाम-रूप दिया जाता है परन्तु इस चमक में अपवित्रता छिपी होती है जो सभी को नहीं दिखायी देती।
(संकलित)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 27-30 अंक 95
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