आश्रम को पूरी तरह एक व्यापारिक केंद्र बना दिया गया और हम समर्पित
साधकों को बिन पगार के नौकर के जैसा फायदा के लिये यूज किया जा रहा है ।।
आश्रम में जो भी समाज सेवा की प्रवृत्तियाँ ६ साल पहले होती थी वही आज भी हो रही है. गुरुदेव ने आश्रम को आत्मनिर्भर रखने पर जोर दिया है, दूसरी संस्थाओं की तरह दाताओं के आधार पर साधकों का निर्वाह न हो और निष्काम कर्म करके अपने अंतःकरण की शुद्धि करके आत्म ज्ञान पाने की योग्यता को बढाने के लिए ये प्रवृत्तियाँ चलाने का आदेश गुरुदेव ने दिया है. उनको जो व्यापारिक प्रवृत्ति कहते है वे अपने गुरु पर ही दोषारोपण करते है. प्रत्येक गुरु को किस ढंग से अपने शिष्यों को आगे बढ़ाना इस का निर्णय करने की स्वतंत्रता होती है. राम कृष्ण परमहंस अपने शिष्यों से विविध साधना कराते थे पर स्वामी विवेकानंद ने सन्यासियों को भी समाज सेवा में लगा दिए जो परम्परा से विरुद्ध था. आदि शंकराचार्य के द्वारा स्थापित संन्यास धर्म में समाज सेवा को कोई स्थान नहीं था. पर स्वामी विवेकानंद ने इस में परिवर्तन किया. जो आध्यात्मिक लक्ष्य वाले थे ऐसे संन्यासियों को भी समाज सेवा में लगा दिया क्योंकि वह उस समय की मांग थी. यह आध्यात्मिक प्रवृत्ति और समाज सेवा का समन्वय था. पर उस समय स्वामी विवेकानंद के कुछ गुरुभाइयों ने विरोध किया था पर जब उनको यह मालूम हुआ कि उनके गुरुने उनका हाथ स्वामी विवेकानंद के हाथ में सौंपा था तब वे शांत हो गए.
आत्मज्ञान पाने के लिए जब सत्यकाम जाबाल गुरु हारिद्रुमत गौतम के पास गए तब गुरु ने सत्यकाम को कोई साधना नहीं सिखाई, दुबली पतली ४०० गायें देकर कहा कि उनको जंगल में ले जाओ. जब १००० गायें हो जाए तब लौटना. तब सत्यकाम ने यह नहीं सोचा कि गुरु अपना गौधन बढाने के लिए मेरा एक बिना पगार के नौकर के रूप में उपयोग कर रहे है. गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके सत्यकाम जंगल में चले गए. जब १००० गायें हो गई तब सत्यकाम को ब्रह्ज्ञान के चार पादों का उपदेश एक बैल, अग्नि देव, एक हंस, और एक मदगु नामक पक्षी के द्वारा मिला और सत्यकाम को आत्मज्ञान हो गया.
हमारे गुरुदेव ने जो प्रवृत्तियाँ करने का आदेश दिया है वे तो समाज सेवा के उद्देश्य वाली सेवाएं है पर संत एकनाथ जब गुरु जनार्दन स्वामी की सेवा में थे तब उन्होंने समाज सेवा के कार्य नहीं किये, गुरु की व्यक्तिगत सेवा के कार्य किये. फिर भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि गुरु मेरा उपयोग एक बिना पगार के नौकर के रूप में कर रहे है. उन्होंने गुरुसेवा निष्काम भाव से की तो उनको गुरुकृपा से आत्मज्ञान हो गया.
हनुमानजी को भी उनके इष्ट श्री राम ने अपने निजी कार्य करने का आदेश दिया. सीताजी उनकी पत्नी थी और उनको खोजना कोई समाज सेवा का कार्य नहीं था, फिर भी हनुमानजी ने ऐसा नहीं सोचा कि रामजी मेरा उपयोग एक बिना पगार के नौकर के रूप में कर रहे है. उन्होंने इष्ट की प्रसन्नता के लिए सेवा की तो इष्ट की कृपा से उनको आत्म ज्ञान हो गया.
गुरुदेव के द्वारा जो सेवा दी गई हो उसको करनेवाले शिष्य को यदि ऐसा विचार आता है कि उसका उपयोग बिना पगार के नौकर के रूप में किया जाता है तो वह समर्पित साधक नहीं है, गुरुका शिष्य भी नहीं है. ऐसे लोग चाहे कितनी भी सेवा करें उनको निष्काम सेवा से जो लाभ अंतःकरण की शुद्धि के रूप में मिलना चाहिए, वह नहीं मिलेगा क्योंकि वे अपने आपको गुरु का सेवक नहीं मानते, बिना पगार का नौकर मानते है. ऐसे लोग बाहर से गुरु के शिष्य दीखते हो तो भी भीतर से गुरु के सिध्धांत का विरोध करते है इसलिए वे कालान्तर में मनमुखता के शिकार हो जाते है. और दूसरों को भी मनमुख करने का पाप करते है.