(उज्जैन कुम्भः 22 अप्रैल से 21 मई 2016)
कुम्भ पर्व का इतिहास व उद्देश्य
अनादि काल से मानव अमरता की खोज करता चला आया। मरने वाले शरीर में अमर आत्मा छुपा है। देव, असुर – सब अमरता चाहते हैं। आपकी आसुरी वृत्ति भी अमर सुख, सदा सुख चाहती है और दैवी वृत्ति भई सुख चाहती है। समुद्र-मंथन में अमृत का घड़ा निकला और जयंत उसे ले भागा था। जो अमृत पियेंगे वे अमर हो जायेंगे इसलिए दैत्य, देवता – दोनों अमृत पीना चाहते थे। उनमें भीषण युद्ध छिड़ा, जो 12 दिनों तक चला। देवताओं के 12 दिन अर्थात् मानुषी लोक के 12 वर्ष। पृथ्वी की चार जगहों पर वह घड़ा छलका। तब से कुम्भ की परम्परा चली। वे स्थान हैं प्रयागराज, नासिक, अवंतिका (उज्जैन) और हरिद्वार। ऐसा नहीं कि जहाँ-जहाँ अमृत के छींटे पड़े, वहाँ अमृत सदैव बना हुआ है। किसी भी दिन हम गंगा जाकर नहायेंगे अथवा उज्जैन में नहायेंगे तो वही अमृत मिलेगा ? नहीं। निश्चित वर्षों के अंतराल में इन तीर्थों में ग्रह, वर्ष और राशि के मेल से आपके चित्त में सात्त्विक दशा उत्पन्न होती है, प्रसन्नता का प्राकट्य होता है और उन तीर्थों में नहाने से आपके अमर आत्मा की झलकें आती हैं, यह कुम्भ मेले की व्यवस्था है। चित्त में प्रसन्नता और छुपे हुए आत्म-अमृत का प्राकट्य ही कुम्भ पर्व का उद्देश्य है।
दुनिया का महान आश्चर्यः कुम्भ मेला
दुनिया में इतना बड़ा मेला और कहीं नहीं लगता है, जो कुम्भ की बराबरी कर सके। और इसमें तमाम मत-पंथ-मान्यताओं वाले, तमाम वर्ग जात वाले लोग एक ही उस अमर धारा की मधुरता में प्रसन्न होते हैं। ऐसा शांति और प्रसन्नता का एहसास न होता, अगर ये योग व व्यवस्था किसी की मति द्वारा कल्पित होते। कल्पित चीज का सुख ज्यादा देर नहीं ठहरता है। इसके पीछे शाश्वत सत्य के संकेत हैं और अमरता के उन आंदोलनों का लाभ होता है। इसलिए महीनों भर कोई मेला चल रहा है, दो-दो महीने मेला चलता रहे और हजारों नहीं, लाखों करोड़ों की तादाद में लोग….. और ऐरे-गैरे नहीं, यहाँ तो हजारों लाखों बुद्धिमान, समझदार लोग, हजारों-हजारों की संख्या में साधु-संत, महंत मंडलेश्वर आदि एकत्र होते हैं और महीनों-महीनोंभर इन स्थानों पर रहते हैं तो जरूर कुछ रहस्य है, जो ऐसे घोर कूड़-कपट, दंगे, मुकद्दमे आदि से भरे गंदे वातावरण में जीने वाला मानव सैलाब भी अमरता की कुछ बूँदें पाकर शांति, आनंद और माधुर्य का एहसास करता है।
धन्य है भारतीय संस्कृति और धन्य है दैवी और आसुरी वृत्तियों द्वारा विवेकरूपी मंदराचल और प्राण-अपानरूपी वासुकी का सहयोग लेकर मंथन करते-करते अपने चित्तरूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्था ! हम लोग सच में बहुत बड़भागी हैं जो अपने मूल अमृत स्वभाव आत्मा की ओर ले जाने वाला वातावरण और सत्संग भी मिलता है।
कुम्भ का विशेष लाभ
इस परम्परा से विशेष फायदा क्या हुआ कि जो अमृत छलका, अभी तो इसके बिंदु भी मिलने मुश्किल हैं, फिर भी उस जगह को महापुरुषों, ऋषियों, संतों ने पसंद किया। आम आदमी एक-एक साधु को, महापुरुष को कहाँ खोजता फिरेगा ? तो गिरि-गुफाओं के, हिमालय के और मठ-मंदिरों के सब संत आ जाते होंगे कुम्भ में।
ब्रह्मनिष्ठ संत की निगाह से जो तरंगे निकलती हैं, उनकी वाणी से जो शब्द निकलते हैं वे वातावरण को पावन करते हैं। संत के शरीर से जो तन्मात्राएँ निकलती हैं वे वातावरण में पवित्रता लाती हैं। अगर कुम्भ में सच्चे साधु-संत न आयें तो फिर देखो, कुम्भ का प्रभाव घट जायेगा। कुम्भ का प्रभाव संतों के कारण है।
भारतीय संस्कृति का, हिन्दू धर्म का जो यह पर्व है, यह कितने दिलों को जोड़ देता है ! और इतने अशांत वातावरण में भी सुख, शांति और आनंद के स्पंदन अभी भी महसूस होते हैं। इस कुम्भ की व्यवस्था में भगवान का हाथ है। जेबकतरे या कुछ अनाप-शनाप, खिंचाव-तनाव…. इनमें वासनाओं का, बेवकूफी का हाथ है लेकिन यह बेवकूफी नजरअंदाज करते हुए वह परमात्मा हमें देर-सवेर संत महापुरुषों के सत्संग से प्रभावित कर हमारा हृदय पावन करके अपने स्वरूप से मिलाना चाहता है, इसमें कुम्भ एक निमित्त हो सकता है।
कुम्भ स्नान की महत्ता
अश्वमेध सहस्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नाने तत्फलम्।। (विष्णु पुराण)
हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल एक बार कुम्भ स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।
कुम्भ पर्व के समय ग्रह, राशियों का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है और प्रयागराज, नासिक, अवंतिका (उज्जैन) और हरिद्वार – इन पुनीत जगहों पर, जहाँ अमृत-कलश छलका तथा जहाँ परम्परागत जप-तप-ध्यान होता रहा, आने से, नहाने से इतने सारे पुण्यों की प्राप्ति होती है लेकिन सावधान ! तीर्थों में ये बारह नियम भी पालने पड़ते हैं।
तीर्थ का पूरा लाभ पाने हेतु 12 नियम
1.हाथों का संयम। 2.पैरों का संयम। 3.मन को दूषित विचारों व चिंतन से बचाकर भगवत्चिंतन व भगवदीय प्रसन्नता बढ़ाने वाला चिंतन। 4.सत्संग व वेदांत शास्त्र का आश्रय। 5.तपस्या। 6.भगवान की कीर्ति व गुणों का गान। 7.परिग्रह का त्यागः गृहस्थ को कोई कुछ चीज दे तो उसे तीर्थ में दान नहीं लेना चाहिए (दान का न खायें) 8.हर परिस्थिति में आत्मसंतोष। 9.किसी प्रकार के अहंकार को न पोसें। 10.यह करूँगा, यह भोगूँगा, उधर जाऊँगा…. ऐसा चिंतन न करें। मैं कौन हूँ ? जन्म के पहले मैं कौन था, अभी कौन हूँ और बाद में कौन रहूँगा ? तो मैं तो वही चैतन्य आत्मा हूँ। मैं जन्म के पहले था, अभी हूँ और बाद में भी रहूँगा। – इस प्रकार अपने सच्चिदानंद स्वभाव में आने का प्रयत्न करें। 11.दम्भ, दिखावा न करें। 12.इऩ्द्रिय लोलुपता नहीं। कुछ भी खा लिया कि मजा आता है, कभी भी चले गये…. मौज-मजा मारने के लिए कुम्भ स्नान नहीं है। सच्चाई, सत्कर्म और प्रभु-स्नेह से तपस्या करके अतंरात्मा का माधुर्य उभारने के लिए और हृदय को प्रसन्नता दिलाने के लिए तथा सत्संग के रहस्य का प्रसाद पाने के लिए कुम्भ-स्नान है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 280
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