Monthly Archives: April 2016

प्रेम की मूर्ति और दया का समुद्रः सीता जी


(श्री सीता नवमीः 14 मई 2016)

राम जी ने रावण को स्वधाम पहुँचाने के बाद हनुमान जी को अशोक वाटिका में जा के सीता जी को विजय का संदेशा देकर आने की आज्ञा दी। हनुमान जी अशोक वाटिका पहुँचे, सीता माँ को साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया और कहाः “माँ ! प्रभु ने रावण का वध कर दिया है। श्री राम जी ने आपका कुशल पूछा है। आपके पातिव्रत धर्म के प्रभाव से ही युद्ध में श्रीराम जी यह महान विजय प्राप्त की है।”

श्री राम जी का संदेशा पाकर सीता जी का गला भर आया। आनंद के आँसू छलकाते हुए वे गदगद वाणी में बोलीं- “सौम्य वानरवीर ! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के कारण मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ किंतु इस भूमंडल पर ऐसी कोई वस्तु नहीं दिखती। मेरा आशीर्वाद है कि मेरे हनुमान को काल भी नहीं मार सकेगा।”

हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहाः “माँ ! राम जी का संदेश लेकर जब मैं पहली बार लंका में आया था, तब मैंने देखा था कि ये राक्षसियाँ मेरी माँ को बहुत त्रास दे रही थीं। ये बहुत कर्कश शब्द बोलती थीं, आपको बहुत डराती थीं, बहुत खिझाती थीं। माँ ! इन राक्षसियों को देखकर मुझे बहुत क्रोध आता है। आप आज्ञा दो तो मैं एक-एक राक्षसी को पीस दूँ।”

सीता जी बोलीं- “बेटा ! यह तू क्या माँगता है ? मेरा पुत्र होकर तू ऐसी माँग करता है ? वैर का बदला वैर से लेना उचित नहीं। ये बेचारी राजा के आश्रय में रहने के कारण पराधीन थीं। उस राक्षस की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। मैं इनके अपराधों को क्षमा करती हूँ। मैं तो ऐसा विचार करती हूँ कि अब मुझे अयोध्या जाना है, इतने अधिक दिन में इन राक्षसियों के साथ रही हूँ तो ये जो वरदान माँगे वह मुझको देना है। बेटा ! मैंने तो निश्चय किया है इन राक्षसियों को सुखी करके ही मैं यहाँ से जाऊँगी। ये बहुत दुःखी हैं। तू किसी भी राक्षसी को मारना नहीं।”

हनुमान जी ने सीता माँ की जय-जयकार की। सीता माँ को साष्टाँग प्रणाम करके हनुमान जी ने कहाः “ऐसी दया मैंने जगत में कहीं नहीं देखी। माँ ! आप जगन्माता हैं इसलिए आपको सब पर दया आती है।”

कैसा है सीता जी का विशाल हृदय ! सीता जी प्रेम की मूर्ति और दया का समुद्र थीं।

हे नित्य अवतार लेने वाले सर्वेश्वर ! तुम्हारी आह्लादिनी शक्ति में, महामाया में इतनी करूणा छुपी है कि अधम स्वभाव वाली, कष्ट देने वाली राक्षसियों को भी वे सुखी करके ही जाने का निश्चय करती हैं, फिर साक्षात तुम्हारा सान्निध्य पाने  वालों को तुम्हारा कितना कारूण्य-लाभ मिलता है यह वर्णन करने में कौन समर्थ है ? हे परमेश्वर ! हे करुणासिंधो, हे अंतरात्म-राम ! शीघ्र सभी को सान्निध्य-लाभ प्रदान करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 23, अंक 280

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श्रेष्ठ रोगहारी अमृत संजीवनीः ग्वारपाठा


 

ग्वारपाठा या घृतकुमारी स्वास्थ्यरक्षक, सौंदर्यवर्धक तथा रोगनिवारक गुणों से भरपूर है। यह शरीर को शुद्ध और सप्तधातुओं को पुष्ट कर रसायन का कार्य करता है। यह रोगप्रतिरोधक प्रणाली को मजबूत करने में अति उपयोगी एवं त्रिदोषशामक, जठराग्निवर्धक, बल, पुष्टि व वीर्य वर्धक तथा नेत्रों के लिए हितकारी है। यह यकृत के लिए वरदान स्वरूप है।

पीलिया, रक्ताल्पता, जीर्णज्वर (हड्डी का बुखार), तिल्ली (Spleen) की वृद्धि, नेत्ररोग, स्त्रीरोग, हर्पीज (herpes), वातरक्त (gout), जलोदर (ascites) घुटनों व अन्य जोड़ों का दर्द, जलन बालों का झड़ना, सिरदर्द, अफरा और कब्जियत आदि में यह उपयोगी है। पेट के पुराने रोग, चर्मरोग, गठिया व मधुमेह (diabetes) तथा बवासीर के रोगी को आमयुक्त (चिकने) रक्तस्राव में ग्वारपाठा बहुत लाभदायी है।

ग्वारपाठे पर नवीन शोधों के परिणाम

यह बिना किसी दुष्प्रभाव के सूजन एवं दर्द को मिटाता है तथा एलर्जी से उत्पन्न रोगों को दूर करता है।

यह रोगों से लड़ने में प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक) के रूप में काम करता है। यह सूक्ष्म कीटाणु, बैक्टीरिया, वायरस एवं फंगस के कीटाणुओं से लड़ने की क्षमता रखता है।

त्वचा की मृत एवं खराब कोशिकाओं को पुनः जीवित कर त्वचा को सुदृढ़ बनाता है। रक्त में बने थक्कों को साफ करते हुए खून के प्रवाह को सुचारू करता है।

यह कोलेस्ट्रोल को घटाता है। हृदय की कार्यक्षमता बढ़ाकर उसे मजबूती प्रदान करता है।

शरीर में ताकत एवं स्फूर्ति लाता है।

यकृत एवं गुर्दों को सुचारू रूप से कार्य करने में मदद करता है एवं शरीर के जहरी पदार्थों को निकालने में सहायता करता है।

इसमें यूरोनिक एसिड होता है, जो आँतों के अंदर की दीवाल को सुदृढ़ बनाता है।

औषधीय प्रयोग

बवासीरः ग्वारपाठे के गूदे में 2-3 ग्राम हल्दी व 20 ग्राम मिश्री मिला के सुबह शाम सेवन करें। इससे बवासीर व बवासीर के कारण दुर्बलता दूर होती है।

मोटापाः आधा गिलास गर्म पानी में ग्वारपाठे का गूदा व 1 नींबू मिला के खाली पेट सेवन करें।

पेट के रोग– इसके रस या गूदे में 5-5 ग्राम शहद व नींबू का रस मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से पेट के सभी विकारों में लाभ होता है।

उच्च रक्तचाप– तरबूज के ताजे रस में ग्वारपाठे का रस मिलाकर पीने से रक्त की कमी दूर होती है, उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है

हृदयरोग- 3 ग्राम अर्जुन की छाल के बारीक चूर्ण में ग्वारपाठे का रस मिलाकर सुबह-शाम सेवन करने से हृदयरोगों की सुरक्षा होती है।

कब्ज– इसका गूदा पीसकर उसमें थोड़ा काला नमक मिला के सेवन करने से लाभ होता है।

रस या गूदे की मात्रा- बच्चे 5 से 15 ग्राम तथा बड़े 15 से 25 ग्राम सुबह खाली पेट लें।

सावधानी– जिनकी आँतों में पेचिश हो, पुरानी बवासीर जिसमें मस्से अधिक फूले हुए हों, गुदामार्ग से रक्तस्राव होता है, अतिसार हो, शरीर अत्यंत दुर्बल हो, जिन स्त्रियों को मासिक स्राव अधिक होता हो, गर्भवती या बच्चे को दूध पिलाती हों, वे ग्वारपाठे का अधिक समय तक प्रयोग न करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 32 अंक 280

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चित्त रूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्थाः कुम्भ पर्व


(उज्जैन कुम्भः 22 अप्रैल से 21 मई 2016)

कुम्भ पर्व का इतिहास व उद्देश्य

अनादि काल से मानव अमरता की खोज करता चला आया। मरने वाले शरीर में अमर आत्मा छुपा है। देव, असुर – सब अमरता चाहते हैं। आपकी आसुरी वृत्ति भी अमर सुख, सदा सुख चाहती है और दैवी वृत्ति भई सुख चाहती है। समुद्र-मंथन में अमृत का घड़ा निकला और जयंत उसे ले भागा था। जो अमृत पियेंगे वे अमर हो जायेंगे इसलिए दैत्य, देवता – दोनों अमृत पीना चाहते थे। उनमें भीषण युद्ध छिड़ा, जो 12 दिनों तक चला। देवताओं के 12 दिन अर्थात् मानुषी लोक के 12 वर्ष। पृथ्वी की चार जगहों पर वह घड़ा छलका। तब से कुम्भ की परम्परा चली। वे स्थान हैं प्रयागराज, नासिक, अवंतिका (उज्जैन) और हरिद्वार। ऐसा नहीं कि जहाँ-जहाँ अमृत के छींटे पड़े, वहाँ अमृत सदैव बना हुआ है। किसी भी दिन हम गंगा जाकर नहायेंगे अथवा उज्जैन में नहायेंगे तो वही अमृत मिलेगा ? नहीं। निश्चित वर्षों के अंतराल में इन तीर्थों में ग्रह, वर्ष और राशि के मेल से आपके चित्त में सात्त्विक दशा उत्पन्न होती है, प्रसन्नता का प्राकट्य होता है और उन तीर्थों में नहाने से आपके अमर आत्मा की झलकें आती हैं, यह कुम्भ मेले की व्यवस्था है। चित्त में प्रसन्नता और छुपे हुए आत्म-अमृत का प्राकट्य ही कुम्भ पर्व का उद्देश्य है।

दुनिया का महान आश्चर्यः कुम्भ मेला

दुनिया में इतना बड़ा मेला और कहीं नहीं लगता है, जो कुम्भ की बराबरी कर सके। और इसमें तमाम मत-पंथ-मान्यताओं वाले, तमाम वर्ग जात वाले लोग एक ही उस अमर धारा की मधुरता में प्रसन्न होते हैं। ऐसा शांति और प्रसन्नता का एहसास न होता, अगर ये योग व व्यवस्था किसी की मति द्वारा कल्पित होते। कल्पित चीज का सुख ज्यादा देर नहीं ठहरता है। इसके पीछे शाश्वत सत्य के संकेत हैं और अमरता के उन आंदोलनों का लाभ होता है। इसलिए महीनों भर कोई मेला चल रहा है, दो-दो महीने मेला चलता रहे और हजारों नहीं, लाखों करोड़ों की तादाद में लोग….. और ऐरे-गैरे नहीं, यहाँ तो हजारों लाखों बुद्धिमान, समझदार लोग, हजारों-हजारों की संख्या में साधु-संत, महंत मंडलेश्वर आदि एकत्र होते हैं और महीनों-महीनोंभर इन स्थानों पर रहते हैं तो जरूर कुछ रहस्य है, जो ऐसे घोर कूड़-कपट, दंगे, मुकद्दमे आदि से भरे गंदे वातावरण में जीने वाला मानव सैलाब भी अमरता की कुछ बूँदें पाकर शांति, आनंद और माधुर्य का एहसास करता है।

धन्य है भारतीय संस्कृति और धन्य है दैवी और आसुरी वृत्तियों द्वारा विवेकरूपी मंदराचल और प्राण-अपानरूपी वासुकी का सहयोग लेकर मंथन करते-करते अपने चित्तरूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्था ! हम लोग सच में बहुत बड़भागी हैं जो अपने मूल अमृत स्वभाव आत्मा की ओर ले जाने वाला वातावरण और सत्संग भी मिलता है।

कुम्भ का विशेष लाभ

इस परम्परा से विशेष फायदा क्या हुआ कि जो अमृत छलका, अभी तो इसके बिंदु भी मिलने मुश्किल हैं, फिर भी उस जगह को महापुरुषों, ऋषियों, संतों ने पसंद किया। आम आदमी एक-एक साधु को, महापुरुष को कहाँ खोजता फिरेगा ? तो गिरि-गुफाओं के, हिमालय के और मठ-मंदिरों के सब संत आ जाते होंगे कुम्भ में।

ब्रह्मनिष्ठ संत की निगाह से जो तरंगे निकलती हैं, उनकी वाणी से जो शब्द निकलते हैं वे वातावरण को पावन करते हैं। संत के शरीर से जो तन्मात्राएँ निकलती हैं वे वातावरण में पवित्रता लाती हैं। अगर कुम्भ में सच्चे साधु-संत न आयें तो फिर देखो, कुम्भ का प्रभाव घट जायेगा। कुम्भ का प्रभाव संतों के कारण है।

भारतीय संस्कृति का, हिन्दू धर्म का जो यह पर्व है, यह कितने दिलों को जोड़ देता है ! और इतने अशांत वातावरण में भी सुख, शांति और आनंद के स्पंदन अभी भी महसूस होते हैं। इस कुम्भ की व्यवस्था में भगवान का हाथ है। जेबकतरे या कुछ अनाप-शनाप, खिंचाव-तनाव…. इनमें वासनाओं का, बेवकूफी का हाथ है लेकिन यह बेवकूफी नजरअंदाज करते हुए वह परमात्मा हमें देर-सवेर संत महापुरुषों के सत्संग से प्रभावित कर हमारा हृदय पावन करके अपने स्वरूप से मिलाना चाहता है, इसमें कुम्भ एक निमित्त हो सकता है।

कुम्भ स्नान की महत्ता

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेयशतानि च।

लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नाने तत्फलम्।। (विष्णु पुराण)

हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल एक बार कुम्भ स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।

कुम्भ पर्व के समय ग्रह, राशियों का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है और प्रयागराज, नासिक, अवंतिका (उज्जैन) और हरिद्वार – इन पुनीत जगहों पर, जहाँ अमृत-कलश छलका तथा जहाँ परम्परागत जप-तप-ध्यान होता रहा, आने से, नहाने से इतने सारे पुण्यों की प्राप्ति होती है लेकिन सावधान ! तीर्थों में ये बारह नियम भी पालने पड़ते हैं।

तीर्थ का पूरा लाभ पाने हेतु 12 नियम

1.हाथों का संयम। 2.पैरों का संयम। 3.मन को दूषित विचारों व चिंतन से बचाकर भगवत्चिंतन व भगवदीय प्रसन्नता बढ़ाने वाला चिंतन। 4.सत्संग व वेदांत शास्त्र का आश्रय। 5.तपस्या। 6.भगवान की कीर्ति व गुणों का गान। 7.परिग्रह का त्यागः गृहस्थ को कोई कुछ चीज दे तो उसे तीर्थ में दान नहीं लेना चाहिए (दान का न खायें) 8.हर परिस्थिति में आत्मसंतोष। 9.किसी प्रकार के अहंकार को न पोसें। 10.यह करूँगा, यह भोगूँगा, उधर जाऊँगा…. ऐसा चिंतन न करें। मैं कौन हूँ ? जन्म के पहले मैं कौन था, अभी कौन हूँ और बाद में कौन रहूँगा ? तो मैं तो वही चैतन्य आत्मा हूँ। मैं जन्म के पहले था, अभी हूँ और बाद में भी रहूँगा। – इस प्रकार अपने सच्चिदानंद स्वभाव में आने का प्रयत्न करें। 11.दम्भ, दिखावा न करें। 12.इऩ्द्रिय लोलुपता नहीं। कुछ भी खा लिया कि मजा आता है, कभी भी चले गये…. मौज-मजा मारने के लिए कुम्भ स्नान नहीं है। सच्चाई, सत्कर्म और प्रभु-स्नेह से तपस्या करके अतंरात्मा का माधुर्य उभारने के लिए और हृदय को प्रसन्नता दिलाने के लिए तथा सत्संग के रहस्य का प्रसाद पाने के लिए कुम्भ-स्नान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 280

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