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चंचलता मिटाओ, सफलता पाओ


पूज्य बापू जी

एकाग्रता सभी क्षेत्रों में सफलता की जननी, कुंजी है। यह एक अदभुत शक्ति है। ध्रुव और प्रह्लाद की सफलता में भी एकाग्रता एक कारण थी। हस्त चांचल्य, नेत्र चांचल्य, वाणी चांचल्य और पाद चांचल्य – ये चार प्रकार की जो चंचलताएँ हैं वे एकाग्रता में बड़ा विघ्न करती हैं।

हस्त चांचल्यः हस्त चांचल्य माने हाथ को अनावश्यक ही कभी किधर लगायेंगे – कभी किधर घुमायेंगे, कभी  तिनका तोड़ेंगे, कभी कान में उँगली डालेंगे, कोई विद्यार्थी बैठा होगा तो उसको पीछे से टपली मारेंगे तो कभी कुछ करेंगे। बैठे हैं तो चटाई  या तिनके तोड़ेंगे, इधर-उधर हाथ लगायेंगे। यह मन-बुद्धि को कमजोर करेगा। कई लोग नाक में उँगली डालते रहते हैं और कुछ मिल गया तो उँगली से घुमाते रहेंगे, घुमाते रहेंगे। बातचीत करेंगे, खायेंगे-पियेंगे और उसे घुमाते भी रहेंगे। घुमाते-घुमाते उसे देखेंगे फिर फेंक देंगे।

बैठे-बैठे कान कुरेदेंगे, इधर-उधर खुजलायेंगे, फिर कुछ भी उठाकर खा लेंगे। छी…. गंदा ! इससे बुद्धि भ्रष्ट होती है। यह बिन जरूरी है। हाथ भी गंदे हुए, समय भी खराब हुआ, मन व्यर्थ की चेष्टा में लगा।

 नेत्र चांचल्यः कईयों को नेत्र चांचल्य होता है। बंदर की तरह इधर-उधर आँखें घुमाते हैं। इससे शक्ति का ह्रास होता है। जो जितना ठग होता है, चोर दिमाग का होता है, उसकी आँखें उतनी ही चंचल होती हैं।

वाणी चांचल्यः कुछ लोग बोलते-बोलते फालतू के वचन बोलते हैं। मैंने कहा था जो है सो लेकिन यह माना नहीं हो है सो। अगर, मगर, लेकिन जैसे शब्द आवश्यकता न होने पर भी बोलते रहेंगे। उनकी आदत बन जाती है। मैं आपके घर गया था, समझे ! पर आप मिले नहीं, समझे ! मैं थोड़ी देर इंतजार किया, समझे ! फिर मैंने सोचा कि मुझे जाना है, समझे ! अब समझे-समझे…. क्या है ? आदमी बिल्कुल नपा तुला, कटोकट, सारगर्भित बोले, बिनजरूरी शब्द न डाले – यह बुद्धिमानी है। बात लम्बी करते हैं तो सामने वाला ऊब जाता है। प्रसंगोचित बोलना चाहिए। चलते-चलते बोलने से, जोर से बोलने से जीवनीशक्ति का ह्रास होता है। छांदोग्य उपनिषद में आता है कि आहार में जो अग्नि तत्त्व होता है उसके स्थूल अंश से अस्थियाँ, मध्यम अंश से मज्जा और सूक्ष्म अंश से वाणी बनती है। इसलिए कम बोलिये, सारगर्भित बोलिये, वाणी का व्यय न करें।

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।।

पाद चांचल्यः कुछ लोग बैठे-बैठे पैर हिलाते हैं, शांति से नहीं बैठेंगे। यह तुच्छ मनुष्य की पहचान है। यह चांचल्य मिटते ही जो शक्ति नष्ट हो रही है वह शक्तिदाता (परमात्मा) में विश्राम पाने लगेगी। मन के संकल्प-विकल्प कम होंगे तो बुद्धि पर दबाव कम पड़ेगा और बुद्धि पर दबाव कम पड़ने से भगवान को अपना मानने वाली बुद्धि का बुद्धियोग होने लगेगा।

इन चार प्रकार की चंचलताओं में जो जितना संयमी हो जाये, उतना वह तेजस्वी विद्यार्थी होगा, उतना तेजस्वी उद्योगपति होगा, उतना तेजस्वी अफसर होगा, उतना तेजस्वी समाज का आगेवान होगा, अगर वह संत बनता है तो उतना ही तेजस्वी उनका संतत्व होगा।

चंचलता मिटाने का उपाय

चंचलता निवारण करने का अपना विचार होता है तो आदमी बहुत ऊँचा उठ जाता है।

चंचलता ध्यान के द्वारा कम होती है। लम्बा श्वास लेकर दीर्घ प्रणव (ॐकार) का जप करो। जितना समय उच्चारण में लगे उतनी देर शांत हो जाओ। आप अपने शुद्ध ज्ञान में स्थित होंगे तो चारों प्रकार की चंचलता आसानी से मिट जायेगी, उससे होने वाली शक्तियों का ह्रास रुक जायेगा।

10 से 12 मिनट तक ॐकार का गुंजन करने तथा ॐकार मंत्र का अर्थ सहित ध्यान करने से हारे को हिम्मत, थके को विश्रांति मिलती है, भूले को अंतरात्मा मार्गदर्शन करता है। विद्युत का कुचालक आसन बिछा दे, 10-15 मिनट तक ध्यान करे और एकटक भगवान या गुरु की प्रतिमा अथवा ॐकार को देखता जाय तो साधारण से साधारण व्यक्ति भी इन चंचलताओं से ऊपर उठ जायेगा। बात को खींच-खींचकर लम्बी करने की गंदी आदत छूट जायेगी। मधुर वाणी, सत्य वाणी, हितकर वाणी जैसे सदगुण स्वाभाविक उत्पन्न होने लगेंगे।

यह प्रयोग करने से चारों प्रकार की चंचलताएँ छूट जायेंगी, व्यसन छोड़ने नहीं पड़ेंगे, अपने-आप भाग जायेंगे। चिंता भगाने के लिए कोई दूसरे नये उपाय नहीं करने पड़ेंगे। बुद्धिदाता की कृपा हो तो अल्प बुद्धिवाला भी अच्छी बुद्धि का धनी हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 280

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इन्द्रपुर पाकर भी दुःख हाथ लगा !


संसार में रहने वाले जो मनुष्य दूसरों की वस्तु, पदार्थों व ऐश्वर्य इत्यादि को देखकर उसे पाने की इच्छा करते हैं, उनको शिक्षा देने के लिए ऋषि आत्रेय एक लीला करते हैं।

आत्रेय ऋषि ने अनुष्ठान द्वारा सर्वत्र गमन करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। एक बार वे घूमते हुए इन्द्रलोक में पहुँचे। इन्द्र के ऐश्वर्य, धन सम्पदा, वैभव को देखकर उनके मन में इन्द्र के राज्य को पाने का संकल्प हुआ। ऋषि अपने आश्रम पहुँचे और अपनी तपस्या के प्रभाव से त्वष्टा (विश्वकर्मा के पुत्र) को बुलाकर कहाः “महात्मन् ! मैं इन्द्रत्व को प्राप्त करना चाहता हूँ। शीघ्र ही यहाँ ऐन्द्र-पद के उपयुक्त व्यवस्था कर दीजिये।”

त्वष्टा ने उनके कहे अनुसार वहाँ इन्द्रलोक के समान इन्द्रपुर नामक नगर का निर्माण कर दिया। जब दैत्यों ने देखा कि इन्द्र स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर आ गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्रपुर पाने के लिए अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। तब भयभीत होकर आत्रेय जी ने कहाः “हे असुर जनो ! मैं इन्द्र नहीं हूँ, न यह नंदनवन ही मेरा है। मैं तो इस गौतमी तीर पर रहने वाला ब्राह्मण हूँ। जिस कर्म से कभी सुख नहीं प्राप्त होता, उस कर्म की और मैं दुर्दैव की प्रेरणा से आकृष्ट हो गया हूँ।”

आत्रेय जी ने त्वष्टा से कहाः “आपने मेरी प्रसन्नता के लिए जिस ऐन्द्र-पद को यहाँ बनाया है, उसको शीघ्र दूर करो। अब मुझे इन स्वर्गीय वस्तुओं की कुछ भी आवश्यकता नहीं है।”

अनात्म वस्तुओं (आत्मस्वरूप से भिन्न नश्वर वस्तुएँ) को पाने की इच्छा दुःखदायी है। जो किसी के पद, वैभव, ऐश्वर्य को देखकर उस जैसा होने की इच्छा करता है, वह बंधन में पड़ता है और अंततः उसे दुःख ही उठाना पड़ता है। अतः शास्त्र व महापुरुष संकेत करते हैं कि हमें उस आत्मपद को पाने की इच्छा करनी चाहिए जिसको पाने के बाद इन्द्र का पद भी सूखे तृणवत् तुच्छ प्रतीत होता है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 25 अंक 280

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ग्रीष्म ऋतु में स्वास्थ्य सुरक्षा


(ग्रीष्म ऋतु 19 अप्रैल से 19 जून 2016 तक)

ग्रीष्म ऋतु में शरीर का जलीय व स्निग्ध अंश घटने लगता है। जठराग्नि व रोगप्रतिरोधक क्षमता भी घटने लगती है। इससे उत्पन्न शारीरिक समस्याओं से सुरक्षा हेतु नीचे दी गयी बातों का ध्यान रखें।

ग्रीष्म ऋतु में जलन, गर्मी, चक्कर आना, अपच, दस्त, नेत्र विकार (आँख आना/ conjunctivitis) आदि समस्याएँ अधिक होती हैं। अतः गर्मियों में घर से बाहर निकलते समय लू से बचने के लिए सिर पर कपड़ा बाँधें अथवा टोपी पहनें तथा एक गिलास पानी पीकर निकलें। जिन्हें दुपहिया वाहन पर बहुत लम्बी मुसाफिरी करनी ही वे जेब में एक प्याज रख सकते हैं।

उष्ण से ठंडे वातावरण में आने पर 10-15 मिनट तक पानी न पियें। धूप में से आने पर तुरंत पूरे कपड़े न निकालें, कूलर आदि के सामने भी न  बैठें। रात को पंखे, एयर कंडीशनर अथवा कूलर की हवा में सोने की अपेक्षा हो सके तो छत पर अथवा खुले आँगन में सोयें। यह सम्भव भी न हो तो पंखे, कूलर आदि की सीधी हवा न लगे इसका ध्यान रखें।

इस मौसम में दिन कम-से-कम 8-10 गिलास पानी पियें। प्रातः पानी प्रयोग (रात का रख हुआ आधा से डेढ़ गिलास पानी सुबह सूर्योदय से पूर्व पीना) भी अवश्य करें। पानी शरीर के जहरी पदार्थों को बाहर निकाल कर त्वचा को ताजगी देने में मदद करता है।

मौसमी फल या उनका रस व ठंडाई, नींबू की शिकंजी, पुदीने का शरबत, गन्ने का रस, गुड़ का पानी आदि सेवन लाभदायी है। गर्मियों में दही लेना मना है और दूध, मक्खन खीर विशेष सेवनीय है।

आहार ताजा व सुपाच्य लें। भोजन में मिर्च, तेल, गर्म मसाले आदि का उपयोग कम करें। खमीरीकृत पदार्थ, बासी व्यंजन बिल्कुल न लें। कपड़े सूती, सफेद व हलके रंग के तथा ढीले-ढाले हों। सोते समय मच्छरदानी आदि का प्रयोग अवश्य करें।

गर्मियों में फ्रिज का ठंडा पानी पीने से गले, दाँत, आमाशय व आँतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मटके या सुराही का पानी पीना निरापद है (किंतु बिन जरूरी या प्यास से अधिक ठंडा पानी पीने से जठराग्नि मंद होती है)।

इन दिनों में छाछ का सेवन निषिद्ध है। अगर लेनी हो तो ताजी छाछ में मिश्री, जीरा, पुदीना, धनिया मिलाकर लें।

रात को देर तक जागना, सुबह देर तक सोना, अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम, अधिक उपवास तथा स्त्री सहवास – ये सभी इस ऋतु में वर्जित है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 33 अंक 280

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