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संतों की महानता और निंदकों की नीचता


(श्री माँ आनंदमयी जयंतीः 30 अप्रैल 2016)

आनंदमयी माँ के पति का नाम था श्री रमणी मोहन चक्रवर्ती। बाद में उनका नाम भोलानाथ रखा गया। जब वे उत्तरकाशी गये थे तो मसूरी में ज्योतिष नाम के एक व्यक्ति के पास माँ को छोड़कर गये थे। ज्योतिष आनंदमयी माँ को माता तथा भोलानाथ को पिता मानता था।

भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने वाले तथा संतों को बदनाम करने के ठेकेदार निंदकों ने माँ और ज्योतिष के साथ रहने की इस घटना को विकृत करके कुप्रचार करना चालू किया था। इसका खंडन स्वयं आनंदमयी माँ ने किया था।

एक बार माँ ने अपने भक्तों के साथ चर्चा करते समय बताया था कि “तुम लोगों ने सुना होगा, ज्योतिष का और मेरा चित्र लेकर ढाका (वर्तमान बंग्लादेश की राजधानी) में किस तरह के अपवाद का प्रचार हुआ था। इस शरीर का एक झूठा जीवन-चरित्र छपवाने का प्रयास किया गया था। उसमें कहा गया था कि ‘इस शरीर का एक बार विवाह हुआ था एवं यह विधवा हो गया था। दूसरी बार भोलानाथ के साथ विवाह हुआ।’ इस शरीर का जन्म एवं विवाह विद्याकूट में ही हुआ है। ये बातें उन्होंने विद्याकूट के ही किसी व्यक्ति से सुनी थीं। इस तरह की और भी कई बातें….. आखिर वे सब टिक नहीं पायीं। जो मिथ्या है, मिथ्या में ही उसकी समाप्ति हो जाती है। इस शरीर के इस प्रकार के अपवाद को सुनकर ज्योतिष बहुत ही अनुतप्त (दुःखी) हो के एक दिन बोलाः “माँ ! आखिर मेरे लिए (कारण) आपका अपवाद हुआ, मैं अब किसी को अपना मुँह में नहीं दिखाऊँगा। मैं एक ओर चला जाऊँगा।”

तब मैंने ज्योतिष को समझाया कि “इसमें दुःख करने की कौन सी बात है ? इतने दिन शरीर के चरित्र में कलंक ही बाकी था, अब वह भी हो गया। जो पूर्ण है उसमें सब कुछ रहना चाहिए। निंदा भी मैं हूँ, जो निंदा करता है वह भी मैं हूँ।”

भोलानाथ के चरित्र के बारे में तुम लोगों ने तरह-तरह की बातें सुनी होंगी। पारिवारिक जीवन में मेरे प्रति उनका कैसा व्यवहार था – इसको लेकर भी लोग कई तरह का अनुमान लगाते हैं। बाहर के व्यवहार को देखते हुए भीतर के भाव की धारणा करना कठिन है।

भोलानाथ ने एक बार कुशारी महाशय से कहा था कि “यह मेरी पत्नी है परंतु मैं देवी के रूप में इनको देखता आया हूँ और वैसा ही व्यवहार कर रहा हूँ। सम्पूर्ण जीवन ऐसे ही चल रहा है।” पर साधारण मति का व्यक्ति इन सब बातों को कैसे समझ सकता है ?”

धन्य है सबको आत्मस्वरूप जानने वाले ऐसे संत और धन्य हैं वे श्रद्धालुजन, जो ऐसे महापुरुषों की हयाती में ही उनमें अडिग श्रद्धा रखकर लाभान्वित होते हैं ! भगवत्प्राप्त महापुरुषों पर आरोप लगना, उनके बारे में कुप्रचार किया जाना कोई नयी बात नहीं है, ऐसा तो आदिकाल से होता आ रहा है। संत तो पूजनीय थे, हैं और रहेंगे।

संत तो उदार होते हैं, सब सह लेते हैं पर उनके शिष्य अपनी-अपनी योग्यता व क्षमता के  अनुसार निंदा व षड्यंत्र को मिटाने व सुप्रचार करने का पूरा प्रयत्न करके अपना शिष्यत्व धर्म निभाते हैं। समझदार लोग कुप्रचार की खाई में न गिरकर पाप के भागी नहीं बनते, अपने भीतर और बाहर सुप्रचार की सेवा का पावन पुण्यदायी सुख पाते व फैलाते हैं। शिवजी ने ऐसे लोगों के लिए कहा हैः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 19, अंक 280

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माँ और मैं एक ही हैं


स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वती जी बताते हैं कि “एक बार आनंदमयी माँ के भक्त आये और उन्होंने श्री उड़िया बाबाजी से पूछा कि “महाराज जी ! आप श्री आनंदमयी माँ को क्या मानते हैं ?” इस प्रश्न में जो असंगति है उसको आप देखो। मानी वह चीज जाती है जो परोक्ष (अप्रत्यक्ष) होती है। जैसे एक मनुष्य हमारे सामने बैठा है। आप पूछो कि ‘आप उसको दुरात्मा मानते हो कि महात्मा ?’ तो दुरात्मनापना भी परोक्ष है और महात्मापना भी परोक्ष है। अगर हमारा प्रेम होगा तो उसको हम महात्मा बतायेंगे और द्वेष होगा तो दुरात्मा बतायेंगे। असल में हम अपने दिल की बात उगलेंगे। लेकिन मान्यता जो है वह परोक्ष के बारे में होती है, साक्षात् अपरोक्ष (साक्षात अपना आपा) के बारे में नहीं होती।

महात्माओं के लिए ईश्वर, जीव, जगत, देश, काल साक्षात् अपरोक्ष होते हैं इसलिए किसी भी वस्तु के बारे में उनकी मान्यता नहीं होती। उनका तो अनुभव ही होता है, अपना स्वरूप ही होता है। मान्यता तो उन लोगों की होती है जिनको पाँव के नीचे की धरती दिखती है।

तो भक्त ने कहा कि “आप आनंदमयी माँ को क्या मानते हैं ?”

उड़िया बाबा जी बोलेः “(माँ भी बैठी थीं, उनके सामने ही बोले) बेटा ! जो मैं हूँ सो माँ है, जो माँ है सो मैं हूँ। माँ और मैं एक ही हैं।”

इससे बढ़िया और कोई उत्तर नहीं हो सकता था परंतु उस भक्त ने कहाः “बाबा जी ! आप वेदांत की बात कर रहे हैं। आप सच्ची बात बताइये।” माने उनके मन में था कि वेदांत तो एकांगी चीज है, वह पूर्ण दर्शन नहीं है।

“देख ! अगर माँ मुझसे कुछ भी न्यारी है तो तीनों काल में माँ की कोई सत्ता नहीं है। केवल मिथ्या प्रतीति हो रही है माँ की। मैं हूँ सो ही माँ है। तब तो माँ और मैं एक ही हैं। अगर मेरे अतिरिक्त कोई माँ है तो उसकी कोई सत्ता नहीं, केवल मिथ्या कल्पनामात्र है।”

वेदांत की दृष्टि में अपने सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं होती। और एक बात है, सृष्टि केवल जड़ से ही होती है, चेतन से सृष्टि नहीं होती, चेतन की दृष्टि ही होती है। जड़ता में सृष्टि होती है। चेतनता में सृष्टि नहीं होती, परिवर्तन नहीं होता, परिणाम नहीं होता। चेतन की दृष्टि ही सारी सृष्टि है। और ‘चेतन की दृष्टि’ यह केवल विकल्प है। चेतन और दृष्टि दो वस्तुएँ नहीं होतीं इसलिए चेतन एक अखंड सत्ता है। यह वेदांत का सिद्धान्त है। अद्वैत सिद्धान्त इसके संबंध में बिल्कुल स्पष्ट है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 6, अंक 280

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जीवन वृथा जा रहा है अज्ञानियों का


श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में श्री वसिष्ठ जी कहते हैं-  हे राम जी ! अपना वास्तविक स्वरूप ब्रह्म है। उसके प्रमाद से जीव मोह (अज्ञान) और कृपणता को प्राप्त होते हैं। जैसे लुहार की धौंकनी वृथा श्वास लेती है वैसे ही इनकी चेष्टा  व्यर्थ है।

पूज्य बापू जीः जैसे लुहार की धौंकनी वृथा श्वास लेती है, ऐसे ही अज्ञानियों का जीवन वृथा जा रहा है। जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप वैभव है, ज्ञान है, सुख है उसको पाते नहीं, ऐसे ही आपाधापी, ‘मेरा-तेरा’ कर-कराके इकट्ठा करके, छोड़ के मर जाते हैं। जो लेकर नहीं जाना है वह इकट्ठा कर रहे हैं। जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा, उसी के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उसकी तरफ से अज्ञ हो रहे हैं।

श्री वसिष्ठ जी कहते हैं- इनकी चेष्टा और बोलना अनर्थ के निमित्त है। जैसे धनुष से जो बाण निकलता है वह हिंसा के निमित्त है, उससे और कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता, वैसे ही अज्ञानी की चेष्टा और बोलना अनर्थ और दुःख के निमित्त है, सुख के निमित्त नहीं और उसकी संगति भी कल्याण के निमित्त नहीं। जैसे जंगल के ठूँठ वृक्ष से छाया और फल की इच्छा करना व्यर्थ है, उससे कुछ फल नहीं होता और न विश्राम के निमित्त छाया ही प्राप्त होती है, वैसे ही अज्ञानी जीव की संगति से सुख नहीं होता। उनको दान देना व्यर्थ है। जैसे कीचड़ में घृत (घी) डालना व्यर्थ होता है वैसे ही मूर्खों को दिया दान व्यर्थ होता है। उनसे बोलना भी व्यर्थ है।

पूज्य श्रीः जिनको आत्मज्ञान में रूचि नहीं ऐसे मूर्खों को, अज्ञानियों को दान देना भी व्यर्थ है। अज्ञानी से सम्पर्क करना भी व्यर्थ है। जैसे ऊँट काँटों के वृक्ष को पाता है, ऐसे ही अज्ञानी के संग से अज्ञान ही बढ़ता है। ज्ञानी वह है जो भगवत्सुख में, अपने नित्य स्वरूप में लगा है। अज्ञानी वह है जो देख के, सूँघ के, चख के मजा लेना चाहता है। भोग उन्हें कहते हैं जो अपने नहीं हैं और सदा साथ में नहीं रहते और भगवान उसको कहते हैं जो अपने हैं और सदा साथ हैं। जो अनित्य हैं, अपूर्ण हैं और दुःख तथा अशांतिमय कर्म की सापेक्षता से प्राप्त होता है और प्राप्ति के बाद भी टिकता नहीं वह संसार है, उसको ‘जगत’ बोलते हैं। जो नित्य है, पूर्ण है, सुखस्वरूप है, शांतिस्वरूप है, जिसकी प्राप्ति में कर्म की अपेक्षा नहीं है, चतुराई, चालाकी, कपट की अपेक्षा नहीं है, सहज में प्राप्त है, केवल सच्चाई और प्रीति चाहिए, और किसी प्रयास से प्राप्त नहीं होता, जो अनायास, सहज, सदा प्राप्त होता है और मिटता नहीं उसको ‘जगदीश्वर’ बोलते हैं। तो अज्ञानी लोग दुःखमयी चेष्टा करते हैं, जो टिके नहीं उसी के लिए मरे जा रहे हैं और ज्ञानवान जो मिटे नहीं उसी में शांति, माधुर्य में मस्त हैं। परमात्मा की प्रीति, शांति और परमात्मा का ज्ञान सारे दुःखों को हरते हैं। परमात्म-प्राप्त महापुरुषों को देखते हैं तो शांति मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 10, अंक 280

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