Monthly Archives: April 2016

इसके सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं


मुमुक्षा का उदय क्यों नहीं ?

मनुष्य जन्म, जो बड़ा दुर्लभ था, आपको मिल गया है। यह वह साँचा है जिसमें परमात्मा समा जाता है। इसमें आपको वह शीशा मिला है जिसमें परब्रह्म-परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है।

मनुष्य शरीर में भी श्रुति का यह सिद्धान्त, वह रहस्य समझ में आना दुर्लभ है जो कर्म की सीमा के पार है, जो भोग की सीमा से परे है। यही समझ मुमुक्षा की जननी है।

परंतु हो क्या रहा है ? ऐसा दुर्लभ मनुष्य-जीवन प्राप्त करके भी जीवन कर्म और भोग के सम्पादन में दुःख भी मिलता है, फिर भी इनके त्याग में रुचि नहीं होती। रुचि होती है अपने को बेहोश करने में, दूसरों से लड़ाई-झगड़ा करने में और अपना अहंकार बढ़ाने में। असत् में आस्था दृढ़ होती जा रही है तो फिर सत्यस्वरूप आत्मसुख का ग्रहण कैसे होगा ?

जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त है वह तो फँसा है। बंदर ने छोटे मुँह के बर्तन में मूँगफली या गुड़ का ढेला लेने के लिए हाथ डाला किंतु जब मुट्ठी भर गयी तो बर्तन से हाथ निकलता ही नहीं ! वह पकड़ा गया है। अरे ओ मूढ़ मन ! एक चीज को पाने के लिए दुनिया में जाता है और इतना बंधन ! इतनी पराधीनता ! स्त्री-सुख, धन-सुख, परिवार-सुख – सबमें पराधीनता है। जिसको पराधीनता नहीं खलती, वह कैसे परम स्वतंत्र परमात्मा को पाने के लिए उद्योग करेगा ? उसमें मुमुक्षा का उदय ही नहीं होगा।

जिसके लिए तुम एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हो वह सत्य है कि मृगतृष्णा ? क्या तुम बता सकते हो कि अनादि काल से अब तक जिन लाखों-करोड़ों लोगों ने वह चीज पायी, उसे भोगा, उसके मालिक बने, उनको शाश्वत सुख-शांति मिली ? नहीं मिली ! मानो लोगों को नशा चढ़ा है ! कर्म और भोग का नशा ! न शम्-शान्तिर्यया इति नशा – जिससे सच्ची सुख-शांति न मिले उसको कहते है नशा ! आप नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तात्मा होकर अपने को मरने वाला, पापी पुण्यात्मा समझते हैं, स्वाधीन होने पर भी पराधीन समझते हैं, मुक्त रहने पर भी बंधन में पड़े जा रहे हैं, और पड़े जा रहे हैं… यही नशा है।

वेद कहता हैः यदि तुमने इसी जीवन में सत्य को जान लिया, तब तो ठीक है परंतु यदि न जाना तो महान विनाश हुआ। (इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। केनोपनिषद् 2.5) आपकी बुद्धि परमात्मा से एक होने के लिए मिली थी वह नहीं हुई। आपकी कामना परमानंद से एक होने के लिए मिली थी, वह परमानंद अपने प्राप्त नहीं किया। आपका यह जीवन अजर-अमर होने की सीढ़ी था परंतु आपने अजर-अमर जीवन नहीं पाया ! यह तो मानो खुदकुशी हुई, आत्मघात हुआ। आपको अपना ही परिचय नहीं है कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने आपको ठीक-ठाक न जानना ही आत्मघात है। आप अपने को ही मार रहे हैं, दूसरे को नहीं मार रहे हैं क्योंकि आपने मिथ्या (परिवर्तनशील) को पकड़ रखा है, अथवा अब तो मिथ्या ने ही आपको पकड़ लिया है और आप उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं !

जो परिवर्तनशील है उसको सच्चा समझ लिया और जो सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा है उसको परे और पराया समझ लिया। इससे बढ़कर और क्या मूढ़ता होगी ?

बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं

तब क्या करें ? वेद शास्त्रों की पंक्ति-पंक्ति घोट डालें ? शास्त्रों के लच्छेदार प्रवचन करने की योग्यता प्राप्त कर लें ? वेदोक्त देवताओं की आराधना करके उनको सिद्ध कर लें ? सारा जीवन शास्त्र और लोक से सम्मत शुभ कर्मों में बिता दें ? सारा समय इष्ट देवता के भजन में व्यतीत करते रहें ? समाधि सिद्ध कर लें ? क्या उपाय करें कि असत् का ग्रहण छूटे, बुद्धि की मूढ़ता हटे, मुमुक्षा जगह और अंततः मोक्ष की प्राप्ति हो ?

श्री शंकराचार्य भगवान कहते हैं कि कुछ भी करो और चाहे जब तक करते रहो, जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध नहीं होता, तब तक सौ कल्पों में भी मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। (वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति- र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि।। (विवेक चूड़ामणिः 6)

उपनिषदों का यही सिद्धान्त है कि बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं होती।  (ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः) उसको जानकर ही मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण (मृत्यु को पार) कर जाता है। इसके लिए अन्य कोई रास्ता नहीं है।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। (श्वेताश्वतर उपनिषद् 3.8)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 280

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कलियुगी पूतनाएँ हैं तथाकथित विदेशी गायें ?


आप गाय का दूध पी रहे हैं या कई विदेशी पशुओं का ?

आज बहुत से लोग जो जर्सी होल्सटीन आदि नस्लों का दूध पी रहे हैं, सोचते होंगे कि ‘हम गाय का पौष्टिक दूध पी के तंदुरुस्त हो रहे हैं’ लेकिन क्या यह सच है ? कई अनुसंधानों से पता चला है कि जर्सी, होल्सटीन आदि पशुओं का दूध पीने से अनेक गम्भीर बीमारियाँ होती हैं। मैड काऊ, ब्रुसेलोसिस, कई प्रकार के चर्मरोग, मस्तिष्क ज्वर आदि रोग जर्सी, होल्सटीन को पालने वालों, उनके परिवार व आसपास के लोगों में हो रहे हैं। एक शोध के अनुसार पशुओं से मनुष्यों में होने वाले रोगों से विश्वभर में प्रतिवर्ष 22 लाख लोग मरते हैं। कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री सुभाष पालेकर जी का कहना हैः “जर्सी आदि नस्लें गायें नहीं हैं।” श्री वेणीशंकर वासु ने जर्सी आदि विदेशी नस्लों के गाय न होने के कई अकाट्य प्रमाण दिये हैं।

देशी गाय का दूध शक्तिवर्धक और रोगप्रतिरोधक होने से अनेकानेक शारीरिक-मानसिक रोगों से रक्षा करता है। इनकी सेवा करने से कई असाध्य रोग भी मिट जाते हैं।

क्यों उत्तम है देशी गाय जर्सी आदि विदेशी पशुओं से ?

देशी गाय जर्सी आदि विदेशी पशु
1.इनके दूध में पाये जाने वाले विशिष्ट पोषक तत्त्व हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। देशी गाय का दूध पेप्टिक अल्सर, मोटापा, जोड़ों का दर्द, दमा, स्तन व त्वचा का कैंसर आदि अनेक रोगों से रक्षा करता है। इनका दूध मानव शरीर में बीटा केसोमार्फिन-7 नामक विषाक्त तत्त्व छोड़ता है। इससे मधुमेह, धमनियों में खून जमना, हृदयाघात, ऑटिज्म, स्किजोफ्रेनिया (एक मानसिक रोग) जैसी घातक बीमारियाँ होती हैं।
2.रोगप्रतिरोधक क्षमता अधिक होने से इनको बीमारियाँ कम होती हैं। रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण इनमें थनैला, मुँहपका, पशु-प्लेग आदि अनेक रोगों का भयंकर प्रकोप होता है।
3.इनका दूध सुपाच्य, पौष्टिक व सात्विक है। इनका दूध ऐसा गुणकारी नहीं है।
4.इनमें स्थित सूर्यकेतु नाड़ी स्वर्ण-क्षार बनाती है, जिसका बड़ा अंश दूध में और अल्पांश गोमूत्र में आता है। देशी गोदुग्ध पीला होता है। इनमें सूर्यकेतु नाड़ी नहीं होती इसलिए इनका दूध सफेद और सामान्य होता है।
5.इनके पंचगव्य का विभिन्न धार्मिक कार्यों में व औषधीय रूप में प्रयोग होता है। विदेशी नस्लों के दूध, मल, मूत्र आदि में ये विशेषताएँ दूर-दूर तक नहीं हैं।
6.इनके रखरखाव पर कम खर्च आता है। इनके रखरखाव पर बहुत खर्च होता है।
7.इनके जीने की दर है 80-90 प्रतिशत। इनके जीने की दर है मात्र 40-50 प्रतिशत।
8.विपरीत मौसम में भी इनके दूध-उत्पादन में 5-10 प्रतिशत की ही कमी होती है। इनका दूध-उत्पादन 70-80 प्रतिशत कम हो जाता है।
9.यह 15-17 बार गर्भवती हो सकती है। यह 5-7 बार ही गर्भवती हो सकती है।
10.इनके बैल खेती हेतु उपयोगी होते हैं। इनके बैल खेती हेतु उपयोगी नहीं होते।

पर्यावरण के लिए भी नुक्सानदायक है संकर नस्ल

संकर नस्ल को देशी गाय की तुलना में चार गुना पानी की ज्यादा जरूरत होती है। इससे भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम अभी नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ी को जहाँ दूध की कमी से जूझना होगा, वहाँ पर्यावरण भी और खराब मिलेगा।

राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, करना के डॉ. डी. के. सदाना का कहना है कि “भारत की मान्य नस्लों (गीर, थारपारकर, कांकरेज, ओंगोल, कांगायम एवं देवनी) की क्रॉसब्रीडिंग पर पूर्णतया रोक लगा देनी चाहिए। इन मान्य नस्लों पर क्रॉसब्रीडिंग करके उनके मूल गुणों को नष्ट करना देश के लिए अत्यंत हानिप्रद होगा।” विदेशी संकरित जर्सी, होल्सटीन पशुओं को गाय कहना धरती की वरदानस्वरूपा गौ का घोर अपमान है। वे महज संकरित जर्सी, होल्सटीन पशु हैं। उन्हें गाय के रूप में प्रचारित कर भारतवासियों को गुमराह किया गया है। इनके दूध, मूत्र, गोबर और इनको छू के आने वाली हवाओं से भी होने वाली घातक बीमारियों को देखकर इन्हें जहरीले तत्त्व और रोग-बीमारियों का उपहार ले के आयी हुई कलियुगी पूतनाएँ ही कहना ठीक रहेगा। द्वापर की पूतना तो केवल स्तन पर जहर का लेप करके आयी थी परंतु ये कलियुगी पूतनाएँ तो अपने दूध में ही धीमा जहर (स्लो पॉईजन) घोल के आयी हैं।

अतः इनसे बचाव हेतु देशी गायों का रक्षण-संवर्धन जरूरी है। देशी गायों से होने वाले लाभ व विदेशी नस्लों की घातक हानियों के बारे में सरकार, गोपालकों व जनता को अवगत कराकर जागृति लाने का प्रयास करें।

देशी गाय का दूध पीना सर्वश्रेष्ठ व अमृतपान के तुल्य है। यदि यह न मिले तो भैंस (प्राकृतिक पशु) के दूध से काम चला लें किंतु जर्सी आदि विदेशी पशुओं का दूध भूलकर भी न पियें क्योंकि यह भैंस के दूध से अनेक गुना हानिकारक है।

लेखकः डॉ. उमेश पटेल, पशु-चिकित्सक

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 9, अंक 280

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ईश्वर प्राप्ति की योजना बनाने का अवसर है वर्षगाँठ


(पूज्य बापू जी का 79वाँ अवतरण दिवसः 28 अप्रैल 2016)

पिछला वर्ष बीत गया, नया आने को है, उसके बीच खड़े रहने का नाम है वर्षगाँठ। इस दिन हिसाब कर लेना चाहिए कि ‘गत वर्ष में हमने कितना जप किया ? उससे ज्यादा कर सकते थे कि नहीं ? हमसे क्या-क्या गलतियाँ हो गयीं ? हमने कर्ताभाव में आकर क्या-क्या किया और अकर्ताभाव में आकर क्या होने दिया ?’ वर्षभर में जिन गलतियों से हम अपने ईश्वरीय स्वभाव से,  आत्मस्वभाव से अथवा साधक स्वभाव से नीचे आये, जिन गलतियों के कारण हम ईश्वर की या अपनी नजर में गिर गये वे गलतियाँ जिन कारणों से हुईं उनका विचार करके अब न करने का संकल्प करना – यह वर्षगाँठ है।

दूसरी बात, आने वाले वर्ष के लिए योजना बना लेना। योजना बनानी है कि ‘हम सम रहेंगे। सम रहने के लिए, आत्मनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा, भक्तिनिष्ठा, प्रेमनिष्ठा, सेवानिष्ठा को जीवन में महत्व देंगे।’ जिस वस्तु में महत्त्वबुद्धि होती है, उसमें पहुँचने का मन होता है। ईश्वर में, आत्मज्ञान में, गुरु में महत्त्वबुद्धि होने से हम उधर पहुँचते हैं। धन में महत्त्वबुद्धि होने से लोग छल-कपट करके भी धन कमाने लग जाते हैं। पद में महत्त्वबुद्धि होने से न जाने कितने-कितने दाँव-पेच करके भी पद पर पहुँच जाते हैं। अगर आत्मज्ञान में महत्त्वबुद्धि आ जाय तो बेड़ा पार हो जाये। तो वर्षगाँठ के दिन नये वर्ष की योजना बनानी चाहिए कि ‘हमें जितना प्रयत्न करना चाहिए उतना करेंगे, जितना होगा उतना नहीं। रेलगाड़ी या गाड़ी में बैठते हैं तो जितना किराया हम दे सकते हैं उतना देने से टिकट नहीं  मिलता बल्कि जितना किराया देना चाहिए उतना ही देना पड़ता है, ऐसे ही जितना यत्न करना चाहिए उतना यत्न करके आने वाले वर्ष में हम परमात्मनिष्ठा, परमात्मज्ञान, परमात्ममस्ती, परमात्मप्रेम, परमात्मरस में, परमात्म-स्थिति में रहेंगे।’

अंदर का रस प्रकट करो

शरीर के जन्मदिन को भी वर्षगाँठ बोलते हैं और गुरुदीक्षा जिस दिन मिली उस दिन से भी उम्र गिनी जाती है अथवा भगवान के जन्म दिन या गुरु के जन्म दिन से भी सेवाकार्य करने का संकल्प लेकर साधक लोग वर्षगाँठ मनाते हैं। गुरु व भगवान को मेवा-मिठाई, फूल-फलादि भेंट करते है लेकिन गुरु और भगवान तो इन चीजों की अपेक्षा जिन कार्यों से तुम्हारी उन्नति होती है उनसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं।

तो वर्षगाँठ के दिन हम लोग यह संकल्प कर लें कि बापू जी की वर्षगाँठ से लेकर गुरुपूनम तक हम इतने दिन मौन रखेंगे, 15 दिन में एक दिन उपवास रखेंगे।’ 15 दिन में एकाध उपवास से शरीर की शुद्धि होती है और ध्यान भजन में उन्नति होती है। ध्यान के द्वारा अदभुत शक्ति प्राप्त होती है। एकाग्रता से जो सत्संग सुनते हैं, उनमें मननशक्ति का प्राकट्य होता है, उनको निदिध्यासन शक्ति का लाभ मिलता है। उनकी भावनाएँ एवं ज्ञान विकसित होते हैं। उनके संकल्प में दृढ़ता, सत्यता व चित्त में प्रसन्नता आती है और उनकी बुद्धि में सत्संग के वचनों का अर्थ प्रकट होने लगता है। अपनी शक्तियाँ विकसित करने के लिए एकाग्रचित्त होकर सत्संग सुनना, मनन करना भी साधना है। हरिनाम लेकर नृत्य करना भी साधना है। हो सके तो रोज 5-15 मिनट कमरा बंद करके नाचो। जैसा भी नाचना आये नाचो। ‘हरि हरि बोल’ करके नाचो,  ‘राम राम करके नाचो, तबीयत ठीक होगी, अंदर का रस प्रकट होगा।

सुबह उठो तो मन-ही-मन भगवान या गुरु से या तो दोनों से हाथ मिलाओ। भावना करो कि ‘हम ठाकुर जी से हाथ मिला रहे हैं’ और हाथ ऐसा जोरों का दबाया है कि ‘आहाहा !….’ थोड़ी देर ‘हा हा…..’ करके उछलो-कूदो। तुम्हारे छुपे हुए ज्ञान को, प्रेम को, रस को प्रकटाओ।

आपकी दृष्टि कैसी है ?

साधक दृष्टिः यह है कि ‘जो बीत गया उसमें जो गलतियाँ हो गयीं, ऐसी गलतियाँ आने वाले वर्ष में न करेंगे’ और जो हो गयीं उनके लिए थोड़ा पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त करके उनको भूल जायें और जो अच्छा हो गया उसको याद न करें।

भक्त दृष्टि है कि ‘जो अच्छा हो गया, भगवान की कृपा से हुआ और जो बुरा हुआ, मेरी गलती है। हे भगवान ! अब मैं गलतियों से बचूँ ऐसी कृपा करना।’

सिद्ध की दृष्टि है कि ‘जो कुछ हो गया वह प्रकृति में, माया में हो गया, मुझ नित्य शुद्ध-बुद्ध-निरंजन नारायणस्वरूप में कभी कुछ होता नहीं।’ असङ्गोह्यं पुरुषः…. नित्योऽहम्… शुद्धोऽहम्…. बुद्धोऽहम्…. करके अपने स्वभाव में रहते हैं सिद्ध पुरुष। कर्ता, भोक्ता भाव से बिल्कुल ऊपर उठे रहते हैं।

अगर आप सिद्ध पुरुष हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं तो आप ऐसा सोचिये जैसा श्रीकृष्ण सोचते थे, जैसा जीवन्मुक्त सोचते हैं। अगर साधक हैं तो साधक के ढंग का सोचिये। कर्मी हैं तो कर्मी के ढंग का सोचिये कि ‘सालभर में इतने-इतने अच्छे कर्म किये। इनसे ज्यादा अच्छे कर्म कर सकता था कि नहीं ?’ जो बुरे कर्म हुए उनके लिए पश्चात्ताप कर लो और जो अच्छे हुए वे भगवान के चरणों में सौंप दो। इससे तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध, सुखद होने लगेगा।

अवतरण दिवस का संदेश

वर्षगाँठ के दिन वर्षभर में जो आपने भले कार्य किये वे भूल जाओ, उनका ब्याज या बदला न चाहो, उन पर पोता फेर दो। जो बुरे कार्य किये, उनके लिए क्षमा माँग लो, आप ताजे-तवाने हो जाओगे। किसी ने बुराई की है तो उस पर पोता फेर दो। तुमने किसी से बुरा किया है तो वर्षगाँठ के दिन उस बुराई के आघात को प्रभावहीन करने के लिए जिससे बुरा किया है उसको जरा आश्वासन, स्नेह दे के, यथायोग्य करके उससे माफी करवा लो, छूटछाट करवा लो तो अंतःकरण निर्मल हो जायेगा, ज्ञान प्रकट होने लगेगा, प्रेम छलकने लगेगा, भाव रस निखरने लगेगा और भक्ति का संगीत तुम्हारी जिह्वा के द्वारा छिड़ जायेगा।

कोई भी कार्य करो तो उत्साह से करो, श्रद्धापूर्वक करो, अडिग धैर्य व तत्परता से करो, सफलता मिलेगी, मिलेगी और मिलेगी ! और आप अपने को अकेला, दुःखी, परिस्थितियों का गुलाम मत मानो। विघ्नबाधाएँ तुम्हारी छुपी हुई शक्तियाँ जगाने के लिए आती हैं। विरोध तुम्हारा विश्वास जगाने के लिए आता है।

जो बेचारे कमजोर हैं, हार गये हैं, थक गये हैं  बीमारी से या इससे कि ‘कोई नहीं हमारा….’, वे लोग वर्षगाँठ के दिन सुबह उठ के जोर से बोलें कि ‘मैं अकेला नहीं हूँ, मैं कमजोर या बीमार नहीं हूँ। हरि ॐ ॐ ॐ …..’ इससे भी शक्ति बढ़ेगी।

आप जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। अपने भाग्य के आप विधाता हैं। तो अपने जन्मदिन पर यह संकल्प करना चाहिए कि मुझे मनुष्य जन्म मिला है, मैं हर परिस्थिति में सम रहूँगा, मैं सुख-दुःख को खिलवाड़ समझकर अपने जीवनदाता की तरफ यात्रा करता जाऊँगा-यह पक्की बात है ! हमारे अंदर आत्मा-परमात्मा का असीम बल व योग्यता छिपी है।’

ऐसा करके आगे बढ़ो। सफल हो जाओ तो अभिमान के ऊपर पोता फेर दो और विफल हो जाओ तो विषाद के ऊपर पोता फेर दो। तुम अपना हृदयपटल कोरा रखो और उस पर भगवान के, गुरु के धन्यवाद के हस्ताक्षर हो जाने दो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 12, 13, 15 अंक 280

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