सदगुरु के सच्चे शिष्य तो मौत को भी भगवान की लीला समझते हैं। ‘मौत आती है तो पुराने कपड़े लेकर नये देती है। अमृतत्व और मृत्यु सबमें भगवान की सत्ता ज्यों-की-त्यों है। हर रोज नींद में मृत्यु जैसी दशा हो जाती है। तो पुष्ट हो जाते हैं, ऐसे ही मृत्यु के बाद नया शरीर मिलता है। और मृत्यु जिसकी होती है वह शरीर है, मेरी मृत्यु नहीं होती है। ॐॐॐ….. – ऐसा करके अपने अमर आत्मा को पा लेते हैं सच्चे गुरु के सच्चे शिष्य ! सच्चिदानंद ब्रह्म का ज्ञान देने वाले गुरु के दिये हुए नजरिये से जो उपासना करते हैं, वे मुक्तात्मा हो जाते हैं, शोक, मोह, दुःख और दीनता से रहित हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके गीता में 9वें अध्याय के 16वें से 19वें श्लोक तक ऊँची साधना, ऊँची उपासना की बात कहते हैं-
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।..
यज्ञ में मेरी शक्ति है, अग्नि में भी मेरी चेतना है। मंत्र व आहूति में भी मुझ चैतन्य ही को देखो और आहूति के बाद शांत होकर मुझी में आओ। इससे तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।
घन सुषुप्ति, क्षीण सुषुप्ति, स्वप्नावस्था और शुद्ध ब्रह्म – यह सब एक ही परमात्मा के हैं। जैसे रात्रि को स्वप्न में जड़ चीजें, वृक्ष, जीव-जंतु और संत महात्मा सभी स्वप्नद्रष्टा के – ऐसे ही सब सच्चिदानंद परमात्मा वासुदेव की लीला, ऐसी उपासना करने वाले भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते हैं। वे कीर्तन, सुमिरन, प्रणाम, भोजन, समाधि – सब कुछ करते हुए सब कुछ जिसमें हो रहा है उसी की स्मृति और प्रीति में मस्त रहते हैं। यह बहुत ऊँची साधना है, ऊँचा नजरिया है। किसी के लिए राग-द्वेष, नफरत रखना – यह अंधकूप में जाना है।
इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो कई राजा राजपाट छोड़कर 10-12 साल गुरुओं के द्वार पर झाड़ू-बुहारी करते थे, तभी ऐसा तत्त्वज्ञान मिलता था। राजा भर्तृहरि को मिला और अमृतत्व की प्राप्ति हो गयी। वे लिखते हैं-
जब स्वच्छ सत्संग कीन्हों, तभी कछु कछु चीन्ह्यो।
जब शुद्ध सत्संग मिला, समर्थ गुरु का ज्ञान मिला तभी कुछ-कुछ जाना। क्या जाना ? बोले, मूढ़ जान्यो आपको। मैं बेवकूफ था, घर में पूजा-पाठ करता था, शास्त्र पढ़ता था लेकिन कभी नहीं रुका, कभी नहीं रुका। सब हो-हो के बदल जाते हैं परंतु उस अबदल परमात्मा में जगाने वाले सदगुरु को प्रणाम करता हूँ।
रब मेरा सतगुरु बण के आया….
मत्था टेक लैण दे।……
सच्चा ज्ञान देने वाले सदगुरु होते हैं। नहीं तो कोई कहीं फँसता है, कोई कहीं फँसता है। खाने-पीने को है, पत्नी बेटा, गाड़ी, बहुत बढ़िया है, बड़ा मस्त हूँ…. आसक्ति करके अंधकूप में मत गिरो। आयुष्य नाश हो रहा है, मौत आ जायेगी। पत्नी बेकार है, पति ऐसा है, बेटा ऐसा है…. परेशान होकर अंधकूप में मत गिरो। न सुंदर में फँसो, न कुरूप से ऊबो। न अच्छे में फँसो, न बुरे में फँसो। अच्छा और बुरा सपना है, जिससे दिखता है वह परमात्मा अपना है, इस प्रकाश में जियो। सच्चे गुरु का चेला… सत्य को जानकर सत्यस्वरूप हो जा ! अमृतत्व को प्राप्त कर !!
न विकारों में फँसो, न एकदेशीय बनो। कभी कीर्तन, कभी जप, कभी ध्यान, कभी सुमिरन तो कभी ज्ञान का आश्रय लो और कभी सब छोड़कर शांत बैठो। शीघ्र तुम्हारे हृदय में प्रेम, शांति पैदा होगी, सदबुद्धि आयेगी।
ऐसी उपासना करो कि विश्वेश्वर की प्रदक्षिणा हो। परमात्मा के स्वरूप को जानो, गुरु के ज्ञान को झेलो, गुरु से बेवफाई मत करो। गुरु से धोखा मत करो। गुरु के प्रकाश में जियो।
ज्योत से ज्योत जगाओ…. गुरु जी के हृदय में ज्ञान की ज्योत है, उसी ज्योत से हमारी ज्योत जगह। मेरा अंतर तिमिर मिटाओ…. अंतर में युग-युग से सोई, चितिशक्ति को जगाओ… साची ज्योत जगे जो हृदय में, ‘सोऽहम्’ नाद जगाओ….. ‘जो सब परिस्थितियों को जान रहा है, वह मेरा आत्मा है’ – ऐसा सोऽहम्’ अनुभव जगाओ सदगुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 272
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