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सौ अश्वमेध यज्ञों का फल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

एक महात्मा गंगा किनारे घूम रहे थे। एक दिन उन्होंने संकल्प कियाः ʹआज किसी से भी भिक्षा नहीं माँगूगा। जब मैं परमात्मा का हो गया, संन्यासी हो गया तो फिर अन्य किसी से क्या माँगना ? जब तक परमात्मा स्वयं आकर भोजन के लिए न पूछेगा तब तक किसी से न लूँगा।ʹ यह संकल्प करके, नहा-धोकर वे गंगा-तट पर बैठ गये।

सुबह बीती… दोपहर हुई…. एक दो बज गये… भूख भी लगी किन्तु श्रद्धा के बल से वे बैठे रहे। उन्हें सुबह से वहीं बैठा हुआ देखकर किसी सदगृहस्थ ने पूछाः

“बाबा ! भोजन करेंगे ?”

“नहीं।”

“मेरे साथ चलेंगे ?”

“नहीं।”

गृहस्थ अपने घर गया लेकिन भोजन करने को मन नहीं माना। वह अपनी पत्नी से बोलाः “बाहर एक महात्मा भूखे बैठे हैं। हम कैसे खा सकते हैं ?” यह सुनकर पत्नी ने भी नहीं खाया। इतने में स्कूल से उनकी बेटी घर आ गयी। थोड़ी देर बाद उनका बेटा भी आ गया। दोनों को भूख लगी थी किन्तु वस्तुस्थिति जानकर वे भी भूखे रहे।

सब मिलकर उन संन्यासी के पास गये और बोलेः “चलिए महात्मन् ! भोजन ग्रहण कर लीजिए।”

महात्मा ने सोचा कि एक नहीं तो दूसरा व्यक्ति आकर तंग करेगा। अतः वे बोलेः “मेरे भोजन के बाद मुझे जिस घर से सौ अश्वमेध यज्ञों की दक्षिणा मिलेगी, उसी घर का भोजन करूँगा।”

घर आकर नन्हीं बालिका पूजा-कक्ष में बैठी एवं परमात्मा से प्रार्थना करने लगी। शुद्ध हृदय से, आर्त भाव से की गयी प्रार्थना तो प्रभु सुनते ही हैं। अतः उसके हृदय में भी परमात्म-प्रेरणा हुई।

वह पूजा-कक्ष से बाहर आयी। अपने भाई के हाथ में पानी का लोटा दिया एवं स्वयं भोजन की थाली सजाकर, दूसरी थाली से ढँककर भाई को छिड़कता हुआ जा रहा था। पानी के छिड़कने से शुद्ध बने हुए मार्ग पर वह पीछे-पीछे चल रही थी। आखिर में बच्ची ने जाकर संन्यासी के चरणों में थाल रखा एवं भोजन करने की प्रार्थना कीः “महाराज ! आप भोजन कीजिये। आप दक्षिणा के रूप में सौ अश्वमेध यज्ञों का फल चाहते हैं न ? वह हम आपको दे देंगे।”

संन्यासीः “तुमने, तुम्हारे पिता एवं दादा ने एक भी अश्वमेध यज्ञ नहीं किया होगा फिर तुम सौ अश्वमेध यज्ञों का फल कैसे दे सकती हो ?”

बच्चीः “महाराज ! आप भोजन कीजिए। सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपको अर्पण करते हैं।  शास्त्रों में लिखा है किः ʹभगवान के सच्चे भक्त जहाँ रहते हैं, वहाँ पर एक-एक कदम चलकर जाने से एक-एक अश्वमेध यज्ञ का फल होता है।ʹ महाराज ! आप जहाँ बैठे हैं, वहाँ से हमारा घर 200-300 कदम दूर है। इस प्रकार हमें इतने अश्वमेध यज्ञों का फल मिला। इनमें से सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपके चरणों में अर्पित करते हैं, बाकी हमारे भाग्य में रहेगा।”

उस बालिका की तर्कयुक्त एवं अंतःप्रेरित बात सुनकर संन्यासी ने उस बच्ची को धन्यवाद देते हुए भोजन स्वीकार कर लिया।

कैसे हैं वे सबके अंतर्यामी प्रेरक परमेश्वर ! भक्त अपने संकल्प के कारण कहीं भूखा न रह जाये, यह सोचकर उन्होंने ठीक व्यवस्था कर ही दी। यदि कोई उनको पाने के लिए दृढ़तापूर्वक संकल्प करके चलता है तो उसके योगक्षेम का वहन वे सर्वेश्वर स्वयं करते हैं।

श्रीमद् भगवदगीता में उन्होंने कहा भी है किः

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

ʹजो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उऩ नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं  वहन करता हूँ।ʹ (गीताः 9.22)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 80

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साधकों का पथ-प्रदर्शन


(संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से)

जब साधक परमात्मा के साक्षात्कार के लिए तन-मन से संकल्पित होता है तो उसके रग-रग में परमात्मप्राप्ति की अनुभूति के लिए तीव्र उत्कंठा होती है। उसका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही होता है लेकिन साधना में कुछ त्रुटियों और कमियों की वजह से वह अपने परम लक्ष्य की ओर उतनी तेजी से अग्रसर नहीं हो  पाता जितना कि उसे होना चाहिए।

साधक को एकान्त में शुभ-अशुभ सभी संकल्पों को त्याग करके, अपने सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप में स्थिर होना चाहिए। घोड़े के रकाब में एक पैर डाल दिया तो दूसरा पैर भी जमीन से उठा लेना पड़ता है। ऐसे ही सुख की लालच मिटाने के लिए यथायोग्य निष्काम कर्म करने के बाद, निष्काम कर्मों से भी समय बचाकर एकान्तवास, लघु भोजन, देखना-सुनना आदि इन्द्रियों का संयम करते हुए साधक को कठोर साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न हो जाना चाहिए। कुछ महीने बन्द कमरे में एकाकी रहने से धारणा तथा ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। आन्तर आराम, आन्तर सुख, आन्तर सामर्थ्य प्रकट होने लगता है। धारणा ध्यान में परिणत होती है। हर साधक को कम-से-कम वर्ष में एक बार, अपनी उम्र के जितने वर्ष हों उतने दिन तो मौन-मंदिर की साधना करनी ही चाहिए क्योंकि एकान्त का अपना महत्त्व होता है। उस समय मन बुद्धि संसारी चर्चाओं से मुक्त होते हैं तो उन्हें आराम मिलता है। चिन्तारहित मन-बुद्धि में तत्त्वज्ञान का सत्संग जितनी दृढ़ता से जमता है उतना और कहीं नहीं जमता।

हमारी जीवन शक्ति का ह्रास मूलतः वाणी के क्षय से, संकल्प-विकल्पों की जाल बुनने और वीर्यनाश से होता है। वाणी के अनावश्यक क्षय से बचना मानसिक शांति की कुंजी है। वाणी का उपयोग उतना ही होना चाहिए जितना आवश्यक हो। जैसे, हम तार करते समय संतुलित शब्दों को प्रयुक्त करते हैं और पैसे बचा लेते हैं, वैसे ही कम-से-कम बोलें और अपनी जीवनशक्ति के व्यर्थ क्षय को बचा लें। संकल्पों-विकल्पों को रोकने के लिए बारम्बार दीर्घ प्रणव का जप एक अमोघ साधन है। जैसे ʹहरिः ૐ….ʹ यह ह्रस्व जप है। ʹहरिः ૐ………ʹ यह दीर्घ जप है। ʹहरि ૐ……………………..ʹ यह प्लुत जप है।

प्रणव का जप मन को संकल्पों-विकल्पों से छुड़ाकर शांत पद में आरूढ़ होने में सहायता करता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य पर लिखी एक पुस्तक ʹयौवन सुरक्षाʹ में निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन लेकर ब्रह्म-परमात्मा में पहुँचना चाहिए। अपने स्वास्थ्य व जीवन को उन्नत करने के लिए ʹयौवन सुरक्षाʹ बार-बार पढ़ना चाहिए और अपने प्रियजनों का परम हित करने के लिए उन्हें भी ʹयौवन सुरक्षाʹ की ओर मोड़ना चाहिए जिससे उनका भी मंगल हो।

भगवान शंकर ने कहा हैः “बिन्दु अर्थात् वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद कौन-सी सिद्धि है, जो साधक को प्राप्त नहीं हो सकती ?”

साधक से गलती यह होती है कि साधना में सतत संलग्न होने के बाद भी उसकी वह उन्नति हो नहीं पाती, जो होनी चाहिए। जबकि वीर्यरक्षण के द्वारा जो साधक अपने वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं, वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं। ऊर्ध्वरेता योगी पुरुष के चरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी बनकर रहती हैं। ऐसा योगी पुरुष जल्दी आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। स्वामी शिवानंदजी अक्सर कहा करते थे किः “जब कभी भी अपने मन में अशुद्ध विचारों के साथ किसी स्त्री के स्वरूप की कल्पना उठे तो आप ʹ दुर्गा देव्यै नमः।ʹ इस मंत्र का बार-बार उच्चारण करें और उऩ्हें मानसिक प्रणाम करें ताकि आप पतन से बच जाएँ।”

ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए एक मंत्र भी हैं- नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।

रोज दूध में निहारकर 21 बार इस मंत्र का जप करें और वह दूध पी लें। इससे लाभ होता है। जब तक परम पद की प्राप्ति न हो तब तक साधक को खूब सावधान रहना चाहिए। आपके माने हुए मित्र एक  प्रकार से आपके गहरे शत्रु हैं। वे किसी-न-किसी प्रकार से आपको संसार में, नाम-रूप की सत्यता में घसीट लेते हैं। आपकी सूक्ष्म वृत्ति उनके परिचय में आने से फिर स्थूल होने लगती है और पता भी नहीं चलता। अतः सावधान ! उन सांसारिक व्यक्तियों से मिलने के कारण आपके नये आध्यात्मिक संस्कार और ध्यान की एकाग्रता लुप्त हो जायेगी।

ʹमन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप हैʹ – ऐसा आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी का मत है। तमाम प्रकार के धर्मों का अनुष्ठान करने से भी एकाग्रतारूपी धर्म,  एकाग्रतारूपी तप श्रेष्ठ है। हम देखते हैं कि जिस-जिस व्यक्ति के जीवन में जितनी-जितनी एकाग्रता होती है, वह उतने ही अंश में उस-उस क्षेत्र में सफल होता है।

साधनाकाल में संसारी लोगों से अनावश्यक मिलना-जुलना बहुत ही अनर्थकारी होता है। दोनों की विचारधाराएँ उत्तर-दक्षिण होती हैं। संसारी व्यक्ति बातचीत का शौकीन होता है, नश्वर भोगप्राप्ति उसका लक्ष्य होता है जबकि साधक का लक्ष्य शाश्वत परमात्मा होता है। संसारियों की बातचीत का फल किसी के प्रति राग-द्वेष होता है और उऩकी बातों में प्रीति होने पर जगत की सत्यता दृढ़ होती है। उनकी जिह्वा वाणी के अतिसार से पीड़ित होती है, जबकि साधक मितभाषी, आध्यात्मिक विषयों पर ही प्रसंगानुसार बोलने वाला होता है। परन्तु लौकिक भावों से प्रभावित होकर अपनी अंतरात्मा की पुकार के विपरीत भी वह संसार की हाँ-में-हाँ करने लगे अथवा उनके संपर्क में आकर बलात् संसार में खिंच जाय तो उसकी वर्षों की कठोर साधना के द्वारा प्राप्त योगरूढ़ता क्षीण होने लगती है।

संसारियों का चिन्तन ऐहिक सुख के विषयों से ग्रस्त होता है जबकि साधक का चिंतन दिव्य अनुभूतियों से सुसंपन्न होता है। संसारी व्यक्ति सदा स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि साधक समग्र संसार को अपना स्वरूप समझकर निःस्वार्थभाव से अहंकार विसर्जित करने के लिए सेवा करता है। संसारी व्यक्ति के पास जो भोग-सामग्रियाँ हैं उन्हें वह बढ़ाना चाहता है और भविष्य के लिए ऐन्द्रिक सुखों के साधनों की व्यवस्था करता है। साधक सारे ऐन्द्रिक विषयों को व्यर्थ समझकर इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत आत्मसुख एवं परमात्म-स्थिति चाहता है। संसारी व्यक्ति जटिलता, बहुलता, रोगों के घर देह, क्षणभंगुर भोग और सुख की तुच्छ वासना में मँडराता रहता है जबकि साधक सरल व्यक्तित्त्व से संपन्न होता है, देह से और तुच्छ भोगों से पार आत्मसुख का अभिलाषी होता है।

इस प्रकार संसारी और साधक दोनों की विचारधाराएँ पृथक-पृथक होती हैं। फिर भी साधक को आखिरकार रहना तो संसार में ही है। अतः संसार से भागकर नहीं, वरन् युक्ति से काम बनाना होगा। परमात्मा स्वयं साधु  पुरुषों की जिह्वा पर विराजमान होकर ये युक्तियाँ बताते हैं। संत तुलसीदासजी से परमात्मा ने कितनी सुंदर युक्ति कहलवायी है !

तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँहि।

खाती घी अरु तेल नित, फिर भी चिकनी नाँहि।।

हम संसार में रहें, संसार के स्वामी के सेवक होकर। साधक संसार में रहता है मगर निर्लेप। वह सुविधाओं का उपयोग करता है, उपभोग नहीं। वेदान्त आपसे नौकरी-धन्धा अथवा संसार नहीं छुड़ाता वरन् उसमें जो सत्यबुद्धि है, जो आसक्ति है उसे छुड़ाकर संसार के स्वामी से भेंट करा देता है।

संतों ने कितनी मार्मिक बात कही है !

साधक के पास जितने रूपये, विद्या, शक्ति सामग्रियाँ आदि हैं, उतने से ही वह संसार की बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकता है। हम प्रभु से तत्त्वज्ञान चाहते हैं परंतु इसमें साधक की यह मान्यता ही सबसे बड़ी भूल है कि, ʹइतना साधन करेंगे….इतना जप-अनुष्ठान करेंगे…. ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी…. इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा… इतना वैराग्य होगा… ऐसी अवस्था-योग्यता होगी… तब कहीं परमात्मा की प्राप्ति होगी।ʹ जिस क्षण साधक के भीतर यह उत्कट अभिलाषा जागृत हो जाय कि परमात्मा अभी ही प्राप्त होना चाहिए, तो अभी… इस क्षण उसे तत्त्व की प्राप्ति हो सकती है।

सच्चे हृदय से प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।

भक्तवत्सल के कान में, वह पहुँच झट ही जाय है।।

ज्ञानप्राप्ति के लिए साधक की जिज्ञासा जब जोर पकड़ती है तब कुछ मुश्किल नहीं। यह काम दिन-महीनों-सालों पर निर्भर नहीं करता वरन् यह उसकी तीव्रता पर निर्भर है। यह वह ʹडिग्रीʹ (उपाधि) है जिसे जिज्ञासु साधक क्षणभर में प्राप्त कर सकता है, लेकिन शर्त यह है कि वह साधना में सतत लगा रहे। जिन कारणों से गति नहीं हो पाती, उन पर सदगुरु के, भगवदकृपा-प्राप्त महापुरुषों के सत्संग से, सत्शास्त्रों के अध्ययन से युक्तियाँ पाकर विजय प्राप्त करें और आखिरकार पहुँच जाय उस प्रियतम के द्वार तक।

यदि साधनकाल में रूकावटें, बाधाएँ नहीं आयीं तो साधकरूपी स्वर्ण उतना निखरता भी नहीं है। कसौटियाँ ही तो आपको परिपक्व बनाती हैं। फिर घबराहट किस बात की ? आपके पास गुरुमंत्र है, सत्संग है, ध्यान कि विविध पद्धतियाँ हैं। बस… एक बार ईमानदारी से चलना आरंभ करके तो देखो ! फिर आपको ज्यादा चलना नहीं पड़ेगा। आपको अपनी मंजिल अपने-आप में नजर आयेगी। आप खुद, साधक खुद ही सिद्ध हो जायगा।

इन वचनों को हृदयरूपी दीवार पर स्वर्णिम अक्षरों से लिख लो किः “हजार बार असफलता मिलने के बाद भी सफलता की एक और उम्मीद अभी शेष है।”

बस… जुटे रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 80

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मंदिर टूटने से बच गया….


(18 अगस्त 1999, तुलसी जयंती)

संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

औरंगजेब को राज्य मिल गया था फिर भी काम, क्रोध, लोभ एवं बड़ा कहलवाने की वासना के कारण ही उसने अन्याय किया, मंदिरों को तोड़ा बहुतों को सताया। आखिरकार वह अभागा काशी गया और संत तुलसीदास जी को सताया। उसका इरादा भगवान विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ने का था।

उस समय गोस्वामी तुलसीदासजी वहीं पर थे। किसी ने औरंगजेब से उनके बारे में कहाः “ये हिन्दुओं के जाने-माने संत हैं। अगर इनकी सुन्नत हो जाये, अगर ये मुस्लिम धर्म को अपना लें तो बाकी के हिन्दू भी मुसलमान बन जायेंगे।”

उस बेवकूफ औरंगजेब को पता ही नहीं था कि जो व्यक्ति जिस धर्म में है वहीं उसका आध्यात्मिक उत्थान हो सकता है। किसी को जबरन पकड़कर अपने मजहब में घसीटकर लाना और इससे खुदा राजी होता है यह मानना, यह तो बेवकूफों की बातें हैं, मूर्खों की बातें हैं।

उस मूर्ख औरंगजेब ने संत तुलसीदास जी से कहाः “ऐ काफिर ! इधर क्यों बैठा है ?”

संत तुलसीदास जी ने कोई जवाब नहीं दिया। औरंगजेब के उत्तेजक वचनों ने तुलसीदासजी के हृदय में न भय उत्पन्न किया न क्षोभ, न उत्तेजना उत्पन्न की न घृणा और न कायरता पैदा की न वियोग की भावना क्योंकि काम, क्रोध और लोभ इन शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर वे महान बन चुके थे।

औरंगजेब के वचनों ने तुलसीदासजी के हृदय में कोई चोट नहीं पहुँचायी। वह बकता जा रहा है और तुलसीदासजी शांति से सुने जा रहे हैं।

जो व्यक्ति भीतर से शांत रह सकता है वही बड़े काम कर सकता है, वही शत्रु का मर्दन कर सकता है, शत्रु की नाक में दम ला सकता है।

जो शत्रुओं की बातों से उत्तेजित हो जाता है। किन्तु जो उत्तेजित नहीं होता वह विजयी हो जाता है क्योंकि शांत मन में ही उत्तम विचार आ सकते हैं। धर्म आपको यह नहीं सिखाता कि किसी की जरा सी कठोर बातें सुनकर ही तलवारें उठा लो। नहीं…. धर्म क्रूरता नहीं सिखाता है और कायरता भी नहीं सिखाता, वरन् धर्म तो यह सिखाता है कि तुम्हारा मन तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि का ऐसा विकास हो कि परिस्थितियों के सिर पर पैर रखकर परमात्मा का साक्षात्कार कर लो। धर्म तुम्हें गहराई में जाने की कला सिखाता है।

धर्म ते बिरती योग ते ज्ञाना।

ज्ञान ते मोक्ष पावै पद निर्वाणा।।

धर्म से वैराग्य, वैराग्य से ज्ञान और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

तुलसीदासजी को वह क्रूर औरंगजेब चाहे जैसा-तैसा सुनाये जा रहा था। सत्ता मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन सत्ता का सदुपयोग करना बड़ी बात है। सत्ता का दुरुपयोग किया उस अंधे ने।

अकबर थोड़ा सुलझा हुआ था जबकि औरंगजेब उलझा हुआ। दूसरे भी कई ऐसे आये। नामदेव को भी औरंगजेब जैसे किसी उलझे हुए सम्राट ने बड़ा सताया था लेकिन नामदेव भी क्रुद्ध नहीं हुए थे। उसको नामदेव जी ने दिन के तारे दिखा दिये थे।

उन लोगों को सत्ता मिलती है तो हिन्दू साधु-संतों को बोलते हैं कि ʹयह करके दिखाओ… वह करके दिखाओ…ʹ लेकिन जब हिन्दू सम्राटों को सत्ता मिली तो उन्होंने कभी मुल्ला-मौलवियों को नहीं सताया कि ʹयह करके दिखाओ…. वह करके दिखाओ….ʹ सनातन धर्म में ही यह उदारता है, विशेषता है। सनातन धर्म दूसरों के भी अनुकूल हो जाता है।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि सनातन धर्मवालों को कायर होना चाहिए। नहीं, वीर होना चाहिए, बुद्धिमान होना चाहिए। तुलसीदास जी में समझ भी थी और वे शौर्यवान् भी थे।

तुलसीदासजी दिनभर अपनी कुटिया में रहते और सुबह-शाम भगवान विश्वनाथ के मंदिर में बैठते। औरंगजेब ने उनसे पुनः पूछा।

“ऐ काफिर ! इधर क्यों बैठा है ?”

तुलसीदासजी बोलेः “ये मेरे भगवान हैं और तुम्हारे मालिक हैं।”

औरंगजेबः “तुम्हारे भगवान अगर सच्चे हैं तो उनका यह बैल भी सच्चा होना चाहिए। इसको घास खिलाकर दिखाओ, नहीं तो धर्म  बदलो या फिर तलवार के आगे खड़े हो जाओ।”

तुलसीदासजीः “न ही धर्म बदलना है और न ही तलवार के आगे खड़े रहना है। अब तुम क्या करोगे ?”

औरंगजेबः “तो फिर बैल को घास खिलाकर दिखाओ।”

तुलसीदासजीः “नहीं दिखाएँगे।”

औरंगजेबः “नहीं दिखाओगे तो हम मंदिर तोड़ डालेंगे।”

मंदिर तोड़ने की बात सुनकर लोगों में भय व्याप्त हो गया। तुलसीदासजी अपने शांत स्वभाव में स्थिर होकर आत्मा की गहराई में चले गये। उन्होंने इन्द्रियों को मन में लीन कर दिया, मन को बुद्धि में लीन कर दिया और बुद्धि को उस बुद्धिदाता में बिठाकर संकल्प किया। फिर उऩ्होंने घास लेकर जैसे ही उस बैल के सामने रखा तो पत्थऱ के बैल में चेतना आई और उसकी जिह्वा बाहर निकली। औरंगजेब घबरा गया और वहाँ से पलायन हो गया। इस प्रकार भगवान विश्वनाथ का मंदिर टूटने से बच  गया।

जड़ चेतन सभी में व्याप्त ईश्वर अपनी लीला दिखाने के लिए कभी-कभी किसी संत के द्वारा, किसी घटना के द्वारा प्रगट हो जाते हैं। तुलसीदासजी की कृपा स विश्वनाथ का मंदिर अन्यायी औरंगजेब के हाथों टूटने से बच गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 80

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