पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू
चाहे जीवन में कितनी भी विघ्न बाधाएँ आयें और चाहे कितनी भी प्रलोभन आयें किन्तु उनसे प्रभावित न होकर भी जो शिष्य गुरुसेवा में जुटा रहता है, वह गुरु का कृपापात्र बन पाता है। अनेक विषम कसौटियों में भी जिसकी गुरुभक्ति विचलित नहीं होती उसका ही जीवन धन्य है।
गुरु गोविन्दसिंह के पास मुंज नामक एक जमींदार आया और बोलाः “कृपा करके मुझे शिष्य बना लीजिए ?”
गुरु गोविन्दसिंहः “तुम किसको मानते हो ?”
मुंजः “अमुक कुलदेवी को। हमारे घर में उनका मंदिर भी है।”
गुरु गोविन्द सिंहः “जाओ, उस कुलदेवी को प्रणाम करके छुट्टी दे दो। घर का मंदिर उखाड़ फेंको।”
मुंजः “जी, जो आज्ञा।”
मंदिर तोड़ देना कोई मजाक की बात नहीं है। किन्तु जमींदार की श्रद्धा थी। ʹगुरु की कृपा से कर रहा हूँ… कोई बात नहींʹ – यह भाव था अतः उसने मंदिर तुड़वा दिया। मंदिर तुड़वाने से समाज के लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया और उसकी खूब निंदा करने लगे।
इधर जमींदार पहुँच गया गुरु गोविन्दसिंह के चरणों में। जमींदार की योग्यता को देखकर गुरु गोविन्दसिंह ने उसे दीक्षा दे दी एवं साधना की विधि भी बतला दी।
अब वह जमींदार इधर-उधर के रीति-रिवाजों में व्यर्थ समय नष्ट न करते हुए गुरुमंत्र का जप करने लगा, ध्यान करने लगा। उसका पूरा रहन-सहन बदल गया। खेती-बाड़ी में ध्यान कम देने लगा। समाज के लोगों द्वारा अब ज्यादा विरोध होने लगा और सभी लेनदारों ने उससे एक साथ पैसे माँगे। जमींदार मुंज ने अपनी जमीन गिरवी रखकर सबके पैसे चुका दिये और स्वयं किसी के खेत में मजदूरी करने लगा।
उस समय जो जमीन गिरवी रख देता था उस किसान का ऊपर उठना लगभग असंभव का था क्योंकि ब्याज की दर बहुत ज्यादा थी। एक समय का जमींदार मुंज आज स्वयं एक मजदूर के रूप में काम करने लगा फिर भी गुरु गोविन्दसिंह के श्रीचरणों में उसकी प्रीति कम न हुई।
गुरु गोविन्दसिंह ने जाँच करवाई तो पता चला कि पूरे समाज में वह अलग हो गया है, समाज ने उसका बहिष्कार कर दिया है फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं टूटी है। यह जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए। समाज से बहिष्कृत मुंज ने गुरु के हृदय में स्थान बना लिया।
कुछ समय पश्चात गुरु ने पुनः जाँच करवाई तो पता चला कि उसकी आय ऐसी है कि कमाये तो खाये और न कमाये तो भूखा रहना पड़े।
गुरु ने मुंज को चिट्ठी लिखकर भेजी कि इतने पैसे चाहिए।
गुरु को कहाँ पैसे चाहिए ? किन्तु शिष्य की श्रद्धा को परखने एवं उसकी योग्यता को बढ़ाने के लिए ही गुरु कसौटी करते हैं। सच ही तो है कि कंचन को भी कसौटी पर खरा उतरने के लिए कई बार अग्नि में तपना पड़ता है।
गुरु की चिट्ठी पाकर मुंज ने पत्नी से कहाः “पैसे चाहिए।”
पत्नी बोलीः “नाथ ! मेरे सुहाग की चूड़िया हैं और जेवर हैं। उन्हें बेच दीजिये और गुरुदेव को पैसे भेज दीजिये।”
मुंज ने सब बेच डाला फिर भी दो-चार आने कम पड़े। अब क्या करें ”
पत्नी ने कहाः “मैं बाल काट देती हूँ उसे बेचकर दो-चार आने की कमी पूरी कर लीजिये।”
सुहाग की चूड़ियाँ तो बेच दीं किन्तु अब अपने बाल बेचने तक को तैयार हो गई ! कैसी है भारत की नारी ! पति की श्रद्धा तो है गुरु में, किन्तु पत्नी भी कुछ कम नहीं। अपने स्वामी के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने के लिए अपने तन की भी परवाह कहाँ ? धन्य है आर्यनारी !
पत्नी ने मुंडन करवा दिया और जमींदार ने उसके बाल बेचकर पूरे पैसे गुरु के पास भिजवा दीजिए। गुरुदेव ने कुछ समय के बाद दूसरी चिट्ठी लिखीः “हजार रूपये चाहिए।”
उस जमाने के हजार रुपये आज के एक लाख से कम नहीं हो सकते। अब हजार रूपये कहाँ से लाना ? घर में तो फूटी कौड़ी भी न थी।
उस समय जातिवाद का बोलबाला था। छोटी जाति के लोग स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे कि इनके बेटे से हमारी बेटी की शादी होगी। मुंज ने प्रस्ताव रखाः “यदि आप लोग सोचते हैं कि हमारा खानदान ऊँचा है और आप छोटे हैं फिर भी आप यदि चाहें तो मैं अपने बेटे की सगाई आपकी बेटी से कर सकता हूँ। मुझे दहेज में केवल एक हजार रूपये चाहिए और कुछ भी नहीं।”
मुंज ने हजार रूपये में बेटे तक को बेच दिया। एक छोटे खानदान की लड़की से बेटे की शादी करने में छोटी जाति का, छोटे विचार के लोगों का, किसी का भी ख्याल नहीं किया। धन्य है उसकी गुरु निष्ठा !
गुरु ने देखा कि अभी भी इसकी श्रद्धा नहीं टूटी। गुरु ने संदेश भेजाः “इधर आकर आश्रम का रसोई घर संभालो। रसोईघर में काम करो एवं लोगों को भोजन बनाकर खिलाओ।”
मुंज गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके रसोईघर में काम करने लगा। कुछ समय बाद गुरु ने पूछाः “रसोईघर तो संभालते हो किन्तु तुम खाना कहाँ खाते हो ?”
मुंजः “गुरुदेव ! भण्डारे में सबको जीमकर फिर मैं भोजन पा लेता हूँ।”
गुरु क्रोधित हो गयेः “तू सेवा करने आया है या गुरु का अन्न हड़प करने के लिए आया है ? इधर रसोई बनाकर सबको खिला दो। फिर अपनी लकड़ी काट ले। लकड़ी बेचकर घर में भोजन करके शाम को आकर फिर से यहाँ रसोईघर का काम कर।”
मुंजः “जो आज्ञा, गुरुदेव !”
अब मुंज सुबह चार बजे उठकर गुरु-आश्रम के रसोईघर में काम करता। दोपहर 11 बजे तक भोजन बनाकर सबको खिलाता और फिर लकड़ियाँ काटने चला जाता। लकड़ियाँ बेचकर सीधा-सामान खरीदकर शाम को पुनः आ जाता आश्रम के रसोई घर में। काम बहुत और खाना रूखा-सूखा। ऐसा करते-करते उसका शरीर बहुत दुर्बल हो गया।
एक दिन लकड़ी काटकर उसका गट्ठा बनाकर मुंज जंगल से लौट रहा था। दुर्बलता के कारण चक्कर आ गये और एक कुएँ में लकड़ी के भारे सहित गिर पड़ा। जंगलों में पनघट बिना के कुएँ होते थे।
गुरु ने देखा कि संध्या हो गयी। अभी तक मुंज खाना बनाने क्यों नहीं आया ? घर पर एक आदमी को भेजा तो समाचार मिला कि मुंज दोपहर से लकड़ी काटने गया है। अभी तक नहीं लौटा।
जंगल में मुंज की खोज करवाने के लिए आदमियों को भेजा। उन्होंने आवाज लगाईः “मुंज ! कहाँ है….? मुंज ! कहा है……?”
कुएँ से आवाज आयीः “मैं यहाँ हूँ….”
गुरु को खबर मिली। गुरुदेव स्वयं कुछ आदमियों को लेकर एवं सीढ़ी, रस्सी आदि लेकर चल पड़े। स्वयं दूर खड़े रहकर आदमियों से मुंज को बाहर निकलवाया।
किसी ने कहाः देख, तेरी क्या हालत हो गयी ? तेरा मंदिर टूट गया। तेरा खानदान नष्ट हो गया। समाज से तू बहिष्कृत हो गया। तेरा घर बिक गया। तू मजदूरी करता था वह भी गुरु ने छुड़वा दी। अपना काम करवा रहे हैं और भोजन भी नहीं मिलता। तू ऐसे चक्कर खाकर मर जाता। शरीर होगा तभी तो साधना करेगा। अब तो ऐसे गुरु का पीछा छोड़ !”
गुरु ने उस आदमी को स्वयं ही भेजा था मुंज की श्रद्धा तुड़वाने के लिए किन्तु वाह रे मुंज !
मुंज कहता हैः “आप कृपा करके मुझे पुनः कुएँ में डाल दीजिए। भूखे रहकर मरना अच्छा है। कुएँ में भूखा मरूँगा किन्तु गुरु का होकर मरूँगा।”
गुरु ने यह सुना तो उनका हृदय भर आया। गुरुदेव बोलेः “मुंज गुरु की आत्मा है। मुंज मेरा पक्का शिष्य है। मुंज मुझरूप हो गया। आज मेरा हृदय यह मुंज ही है। अब से तुम लोगों को मुंज से शिक्षा दीक्षा लेनी होगी।”
गुरु ने मुंज को सदगुरु बना दिया। उसे सत्य का बोध करा दिया।
मुंज की दृढ़ गुरुभक्ति ने उसे गुरुपद पर ही प्रतिष्ठित करवा दिया। कैसी विषम परिस्थितियाँ ! फिर भी मुंज हारा नहीं। कितने प्रयास किये गये फिर भी मुंज हारा नहीं। कितने प्रयास किये गये श्रद्धा हिलाने के लिए किन्तु मुंज की श्रद्धा डिगी नहीं। तभी तो उसके लिए गुरु के हृदय से भी निकल पड़ाः “यह तो मेरा हृदय है।”
धन्य है मुंज की गुरुभक्ति ! धन्य है उसकी निष्ठा और धन्य है उसका गुरुप्रेम !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 17,18,19 अंक 53
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