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बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -8


मेरी दिवानगी पर होशवाले बेशक़ बहस फ़रमाये मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है। यह हक़ीकत है बुल्लेशाह तो अपने गुरु इनायत शाह के प्रेम में दीवाना हो चुका था। इस कदर कि उसमें दुनिया के चलन-चलावों का रत्तीभर होश बाकी न रहा था।इस बेहोशी के आलम में उसके मुरीद मन से जो काफ़िया फूटी, उससे जो अदाबाजी या कारनामे हुए, वे सब अलबेले थे।होशो-हवास वाले उनके मर्म और मायने कहाँ समझ सकते थे ? वे इनकी बारीकी और गहराइयाँ कहा भाँप पाते?नगर में बुल्लेशाह हिजड़ो के साथ नाच रहा है, यह खबर जब मौलवी साहेब को मिली तब मौलवी साहब मुठ्ठियाँ भिंचे बेक़ाबू हुए, कोठार में रखे लठ की ओर लपके। लगता है इस बदलगाम पर नकेल डालनी ही पड़ेगी। इसकी हेकड़ीबाजी को ठोक बजाकर ही नरम करना पड़ेगा।मौलवी साहेब के एक हाथ में लठ और दूसरे हाथ में माला है। वह चल पड़े बुल्लेशाह की ओर। वाह! क्या मेल है? एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में माला! क्या साज-बाज है? एक हाथ में वो माला है जिससे खुदा की बन्दगी हो रही है और दूसरे हाथ में वो डंडा है जो बन्दगी या इश्क़-ए-खुदा में गुम उसके बंदे पर बरसने को उतावला है। एक ओर इबादत है और दूसरी ओर इबादतगार की तरफ ख़िलाफ़त का भाव है। एक शिष्य के खिलाफ बगावत है।यह विरोधाभास सिर्फ मौलवी साहब की हस्ती में ही नहीं समाज की तस्वीर में भी झलकता दिखाई देता है। कहने को तो सारा समाज आस्तिक है, ईश्वर का पुजारी है, व्रत-नेमधारी है। रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं, कर्मकांडों को निभाने में जी-तोड़ श्रद्धा-सबुरी से जुटा है।भक्ति-सिंधु की ऊपरी लहरों पर खूब जोरो-शोरो से तैराकी कर रहा है। लेकिन अगर कोई गुट से अलग इस सतही जल-तल को छोड़कर गहराई में डुबकी लगा दे, तो समाज के तेवर ही बदल जाते है उसके प्रति। अगर कोई सद्गुरु की शरणागत होकर भक्ति के शाश्वत रूप को अपना ले तो संसार को यह जरा भी नहीं रुचता, जरा भी नहीं सुहाता।कमाल है! समाज को भक्ति सिर्फ ऊपरी तह तक ही गँवारा है। अगर शरीरिक क्रियाओं तक सीमित रहे तो ही मंजूर है। यदि यह भक्ति की खुशबू किसी के तन को भेदकर मन और आत्मा में बसने लगे, तो संसार को यह नहीं रुचता और उसे खतरनाक मान लिया जाता है। भक्ति का रस जिसकी जुबाँ से लुड़ककर अंदर दिल को भिगोने लगे तो संसार उसे नालायक समझता है। ऐसे प्रेमी के खिलाफ यह समाज हाथ में डंडा उठा लेता है।मीरा जैसी भक्तिमयी पर बावरी, कुलनाशिनी जैसे विषबुझे शब्दबाण छोड़ता है, किसी के लिए क्रूस का सामा जोड़ता है और किसी के लिए हलाहल जहर तो किसी के लिए कैद! यह कैसी रिवायत है? कैसा अजब दस्तूर?कैसी भयंकर विडम्बना है यह समाज की?मौलवी साहब वहीं पहुंच गए जहाँ पर नाच-गान हो रहा था। हिजड़ों के बीच बेफिक्र होकर बुल्लेशाह को नाचता देख वे आगबबूला हो गए। परन्तु बुल्लेशाह तो अपनी मस्ती में मस्त रहे।*ख़याले गैर नहीं ख़ौफ़े खान का नहीं,* *ये जानता हूँ इबादत कोई गुनाह नहीं।*इबादत की है, रूहानी मुहब्बत की है! अपने मौला,अपने सद्गुरु से! यह कोई गुनाह या बदकारी नहीं, क़सूर नहीं।उबलती,उफनती मौलवी साहब पर जिस-2 की निगाह पड़ी वहीं दुबक गया। सिटपिटाते हुए कोई आदाब करने लगा, कोई दाँतो तले उँगलियाँ चबाने। हिजड़े भी पेशेवर नचय्या थे मौज में नहीं फितरतन नाच रहे थे, इसलिए उनकी आँखें जैसे ही मौलवी साहब से चार हुई वे भी ख़ौफ़जद हो गये। साँस रोककर ऐसे खड़े हुए मानो जहरीला साँप सूँघ गया हो। अचानक बुल्लेशाह ने भी देखा कि मौलवी साहब 15-20 फलाँग की दूरी पर खड़े तमतमा रहे है। उनकी आँखे सुर्ख लाल थी। यह दृश्य साधारण इन्सान के लिए तो ख़ौफ़नाक था, परन्तु एक शिष्य के लिए नहीं। बुल्लेशाह मौलवी साहब को नजरअंदाज करते हुए घूम गए और फिर से थिरकने और गाने लगे- *लोका देहत मालिया ते बाबे देहत माल**सारी उमर पिट-2 मर गया घुस न सकया वार**चीना अइयो छड़िन्दा यार चीना अइयो छड़िन्दा।*चीना एक तरह का अनाज होता हैं। बुल्लेशाह ने कहा कि,”चीने की यूँ छजाई करो कि सारे कंकड़-पत्थर अलग हो जाये।लोगो! खास कर मेरे वालिद के हाथों में माला है। उनकी सारी उम्र उसे फेरते-2 बीत गई, पैर क़ब्र में लटक गए मगर नमक भर भी उनके कुछ पल्ले नहीं पड़ा। एक बाल भर भी फायदा नहीं हुआ।इसके उलट मुझे अपने गुरु से रूहानी दात मिल गई है। इबादत की ऐसी ईलाही राह मिली है कि मैं मालामाल हो गया हूँ और मेरे वालिद अभी कंगाल ही है। “यह सुनते ही मौलवी साहेब का अंगारों-लपटों से भरा लावा फूट पड़ा। मौलवी साहब लठ लिए बुल्लेशाह की ओर दौड़े। सच ही एक शायर ने खूब कहा है कि-*कदम मैखाने में रखना भी कारे पुख्तारी है,**जो पैमाना उठाते हैं वो थर्राया नहीं करते।*बुल्लेशाह ईलाही मैखाने की इस रीत से अच्छी तरह वाकिब था, वहाँ पीने का फ़न रखता था।इसलिए जब मौलवी साहब का मोटा लठ तेजी से करीब आता दिखा तब बुल्लेशाह थरथराया नहीं, न ही उसके हाथ से खुदा-एँ-इश्क़ का प्याला छूटा, न ही चढ़ा नशा काफ़ूर हुआ। वह तो बस थिरकता रहा-2 और थिरकता ही रहा। कुछ इस बेपरवाही से कि-*तेरे हाथों से जो तराशे गए है,**तेरे नूर से जो नूरानी हुए हैं,**क्या चोट देगा संसार उन्हें?**तेरे इश्क़ केे जो दीवाने हुए हैं!*जैसे ही मौलवी साहब बुल्लेशाह को मारने के लिए लठ घुमाये कि एक हैरतअंगेज घटना घटी, “अचानक रूहानियत की ऐसी ख़ुशगवार हवा बही कि बुल्लेशाह में रुनन-झुनन करती फ़ुहारों का रुख़ मौलवी साहब की ओर आ गया। उसकी ठंडी बूँदे उन्हें भी भिगोने लगी। अचानक मौलवी साहब अपनी सय्यदी ऐंठ में तने न रह सके,अदब से खड़े न रह पाए। लहरा उठे, ठुमक उठे, थै-2 करके लचकने और थिरकने लगे।” यह एक काल्पनिक किस्सा नहीं है। बुल्लेशाह की कहानी में रोचकता का पुट जोड़ने के लिए इसे गढ़ा नहीं गया है। परन्तु यह बुल्लेशाह के जीवन की सरासर सत्य घटना है।धीरे-2 नाचते-2 मौलवी साहब इतने गदगद हुए कि काफिया बाजी पर भी उतर आए।बुल्लेशाह के सदके लेकर वे गाने लगे कि-*पुत्तर जिन्हा दे रंगरंगीले मापे वे लैंदे तार,**चीना अइयो छड़िन्दा यार! – 2*माने अगर औलाद पर इबादत की ऐसी रंगीनी छा जाए तो वह अपने माँ-बाप को भी तार देती है। ऐसी औलाद के सदके बुल्ल्या! तेरे सदके!बुल्लेशाह ने देखा कि अब्बू इस करिश्मे का सेहरा उसके सिर बाँध रहे हैं। उसके मुर्शिद अर्थात सद्गुरु इनायत शाह के रहमो-करम को समझ नहीं पा रहे हैं। एक शिष्य के लिए इससे बढ़कर अफ़सोस का मुद्दा और क्या होगा? बुल्लेशाह भी कातुर हो उठे।”सुनो अब्बू! सुनो कस्बेवालो! यह मेरा नहीं मेरे सद्गुरु का फ़झल है, मेरे मुर्शिद का फ़झल है। मेरे इनायत का कर्म है, इसलिए सदके जाना है तो उनकी जाओ! सलाम करना है तो उस पीर को करो। उसकी रूहानी मैखाने को करो! *सलामे पीरे मैखाना – 2!”* थाप दर्ज के साथ बदलती गई, साथ ही थिरकन भी। *उनकी रहमत का दामन छूके सुबहें कामयाब आयी,**अतः हो गया तुझको भी तेरे हिस्से का पैमाना!**सलामे पीरे मैखाना! – 2**उनकी ख़ाके कदम से है रौशन हस्ती की पेशानी,**तब्बसुम से उसकी शादाब है,बस्ती हो के वीराना!* *सलामे पीरे मैखाना – 2!*ये दोनों शाही दीवाने गुरु के मैखाने के भर-2 कर जाम अन्दर उड़ेलते रहे। मस्ती में चूर हुए देर शाम तक झकोले खाते रहे, झूमते रहे।मौलवी साहेब को आज वो मिला जो उन्होंने कई वर्षों की इबादत से नहीं पाया था। बुल्लेशाह ने बताया कि यह मस्ती उनकी गुरु की कृपा है। बुल्लेशाह ने मौलवी साहेब को इनायत शाह की शहनशाही से अवगत कराया और उन्हें भी उनकी शरण स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। मौलवी साहब राजी-खुशी बुल्ले को इनायत शाह के अस्ताने में रहने को रजामंदी प्रदान कर दी।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -7)


बुल्लेशाह कुछ ऐसा करना चाहता था कि घरवाले और समाज के लोग उसका पीछा छोड़ दे और वह अपने गुरु के चरणों में अपना सहज जीवन यापन कर सके।इसलिए आज वह निकल पड़ा।लम्बे डग भरता हुआ वह सीधा पहुँचा धोबी घाट पर।धोबी भी हजरत इनायत का एक शिष्य ही था। इसलिए आश्रम से आये अपने गुरुभाई को देखकर धोबी खिल उठा। बुल्लेशाह ने उसे अपने मनसूबे खुलकर बता डाले। पहले पहल तो धोबी घबराया, परन्तु फिर खिलखिला उठा। बुल्लेशाह का साथ देने को राजी हो गया। उसने योजना अनुसार बुल्लेशाह को अपनी सारी गधहियां दे दी। बस अब क्या था! बुल्लेशाह उनमें से एक गधी पर सवार हो गया। बाकी सब को भी साथ-2 हाँकने लगा उँची-2 आवाज में बेधड़क काफ़िया भी गाने लगा। इस तरह निकल पड़ी इस अलबेले बाँके मुरीद की शोभायात्रा!बुल्लेशाह ने जान-बूझकर अपना रुख़ जान-पहचानवाले इलाकों की ओर किया। जहाँ उसके शोहरत के चर्चे थे,लोग उसे सय्यदजादा कहकर पुकारते थे, बस उन्हीं कस्बों की ओर गधहीयों पर बैठकर वह बढ़ चला। उसका यह रौनक जुलूस जिस-2 गली या कुचे से गुजरा वहीं हुजूम के हुजूम इकठ्ठे हो गए। जगह-2 लोगों का जमघट नजर आने लगा।”तौबा-2 यह क्या? सय्यद नवाब गधही पर!” मुँह खुले की खुले रह गए।धीरे-2 लोग कानाफूसी करने लगे। कोने-2 में खुसर-फुसर होने लगी। दुनियादार ख़ूब खुलकर बुल्लेशाह की निंदा करने लगे। थू-2 कर उठे। एक ने कहा कि लगता है, “शर्म-हया घोलकर पी चुका है यह। कोई दीन-ईमान रहा है नहीं।”बुल्लेशाह ने यह सुना तो बुल्लेशाह कह उठा की,”नहीं, कस्बोवालो नही! मेरा दीन भी है और ईमान भी है। बस उनकी अब तासीर बदल गई है। मेरा दीन भी इनायत है अर्थात गुरु है, ईमान भी गुरु है, मेरी दुनिया भी गुरु है, मेरी पसन्द भी गुरु है, मेरा शौक़ भी गुरु है, मेरा फक्र भी गुरु है, मेरी आन-बान भी गुरु है, मेरी बिसाद भी गुरु है, मेरी आबरू, जाहो-जलाल सब गुरु ही है। गुरु ही है -2 और बस गुरु ही है।बुल्लेशाह की काफ़िया खड़ताल बजा-2 कर इनायत नाम का, अपने गुरु के नाम का कीर्तन करने लगी। उसपर बेफिक्री का अनोखा आलम छा गया। गधही पर हिचकोले खाते रहा और खाते हुए आँखे मूँदकर काफ़िया गुनगुनाने लगा कि-*अपनी पगड़ी ही अपना ही कफ़न बना,**मैं आया कूचे यार में।**ताला लगाले जिसका जी चाहे,**मुझे ऐसे-वैसों की परवाह भी नहीं।**हम मस्ती के आलम में हर वक्त डूबा करते हैं।**फाँसी का फंदा चूम-2 सूली अपनाया करते हैं।**छोड़ो मत दुनियावालों तुम हमराही उस मंजिल के हैं,**जहाँ शहंशाही को कदमों से हररोज़ उड़ाया करते हैं।-2*दुनियावालों मैं रौंद चुका हूँ अपनी पिछली शहंशाही और हस्ती को।इसलिए तुम भी मुझे भूल जाओ कि सय्यदों की सुल्तानी हवेली में बुल्लेशाह नाम का कोई नवाबजादा हुआ था । भूला डालो उस शख्स को उसके अक्स तक को। अगर भूल नही सकते तो फिर उसे गधहियाँ हाँकनेवाला बावरा मानकर उससे किनारा कर लो। उसे पागल करार देकर अपनी सोच से बेदखल कर दो। छी-2! करके उससे घिन करो। बेअदब, वाहयात, गुस्ताख़, निकम्मा कुछ भी कहो, कुछ भी!बस, उसका पीछा छोड़ दो। ताकि उसके कतरे-2 पर इनायत की सिर्फ सद्गुरु की मलकियत हो सके। जुबाँ का एक लब्ज़ भी तुमसे बेकार की बात करने में ना खपे। साँसों की तार-2 पर मेरे इनायत के नाम की धुन बज सके।बुल्लेशाह के मनसूबे पूरे होने लगे। वह जो चाहता था वही हुआ। कस्बेवाले सोचने लगे कि, बुल्लेशाह मानसिक असंतुलन का शिकार हो गया है। उसकी दंगई हरकतें किसी दिमागी रोग से उपजी है। कूचे और बाजारों में बुल्लेशाह के नाम पर क़हक़हे लगने लगे। उसे उन्मादी दीवाना या धुनि पागल कहा जाने लगा।परन्तु क्या सच में यह पागलपन था? दुनियावी आँखों के लिए जरूर यह पागलपन हो सकता है। ऐसी नज़रे और समझ क्या जाने कि, यह पागलपन नहीं, पागलपन को महज़ ओढ़ना है। इसमें शिष्यत्व की उँची मिसाल है। एक शिष्य की गुरु के कदमों में लीन होने की बेजोड़ कोशिश है।दरअसल गुरु और शिष्य की नस्ल ही कुछ ऐसी होती है। जहाँ एक संसारी होठों पर नुमाइशे, मुस्कान और बाते सजाकर रिश्ते जोड़ने-गढ़ने में लगा रहता है।मतलबी मक़सद लिए एक-दूसरे को मनाने-रिझाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। वही एक दीवाना शिष्य कभी-2 खुद को अल्हड़पन से सजा-धजा लेता है, ताकि संसार की तमाशबीन फ़ौज उससे दूर रहे। जिसने प्रेमी का बाणा पहन लिया और इश्क़ के शहनशाह अर्थात सद्गुरु के हाथों प्रेम का प्याला पी लिया वह समझो सांसारिक तौर-तरीकों से बेनिहाज़ हो गया। फिर उसके लिए संसारिक तौर-तरीके नहीं रह जाते। उसके जीवन में गुरु ही गुरु होते है। हालाँकि अक्सर देखने में लगता है कि संसार ने शिष्य का बहिष्कार कर दिया। उसे नालायक या नाकाबिल जानकर उससे रास्ता काँट लिया। परन्तु ऐसा नहीं है।एकबार चम्पा के फूल से किसी ने पूछा कि-*”चम्पा,तुझमें तीन गुण रूप,रंग और बास!**अवगुण तुझमें कौनसा जो भँवरा ना आवे पास?”*सवाल सुनते ही चम्पा ने बेखटक जबाब दिया-*”माली,मुझमें तीन गुण रूप,रंग और बास!**पर गली-2 के मीत को कौन बिठाये पास?”*अरे! कमी मुझमें नहीं जो भँवरा मेरे पास नहीं आता। बात तो यह है कि, मैं उस मतलबी मधुचोर को पास भटकने ही नहीं देती। ठीक यही रवैय्या बुल्लेशाह जैसे गुरुभक्तों का होता है। ये प्रेमी खुद दीन दुनिया को ठोकर मारते है।जमाने भर के मौकापरस्तों से खुद दामन छुड़वाते है। मकसद सिर्फ एक है कि उन्हें अपने गुरु के प्रेम की पूरी और खरी लज्जत मिल सके। उनकी बक्षीसो का बेमिलावट स्वाद मिल सके। उनकी नूरे नजर मिल सके।इसलिए शिष्यों की धड़कनों में हरदम यही तराना बजता है कि-*सारी दुनिया से हाथ धोकर देखो,**जो कुछ भी रहा-सहा है उसे खोकर देखो।**क्या अर्ज करूँ की, उसमें क्या लज्जत है?**एक मर्तबा क़ामिल सद्गुरु के होकर देखो।।*एक फारसी गुरुभक्त ने तो यहाँ तक ऐलान किया कि मैं अपने नाखूनों से छाती फाडूंगा ताकि राहखुले और वहाँ रहनेवाले भाग खड़े हों। तभी तो मेरे प्रियतम सद्गुरु के साथ मेरा अकेला रहना हो सकेगा। कुछ इसी इरादे से बुल्लेशाह ने भी गधहीयों पर जुलूसे-जश्न मनाया। इसका अंजाम क्या हुआ कि,*पत्थर लेकर गलियों-2 लोग मुझे पुछा करते हैं।**हर बस्ती में मुझसे आगे शोहरत मेरी पहुँचती है।*लोग बुल्लेशाह को पागल जानकर उनपर पत्थर फेकते और हु-हल्ला करकर जहाँ भी जाते वहाँ से लोग उन्हें भगा देते। जहाँ से गुजरते सभी उचक-2 कर एक-दूसरे के कंधो के उपर से झाँकते ,यह देखने को उतावले होते कि उनके नवाबजादे जो रंगीन ठाठदार बग्गियों में घूमा करते थे, आज एक कीच सनी गधही पर कैसे सजे-धजे बैठे है।जिन पर कढाहियों में कढ़ी, शेरवानी और नोकदार जूतियाँ जँचती थी आज गुदड़-लथो में कितने जँच रहे है।एक दिन बुल्लेशाह को कहीं ढोलकी की थाप सुनाई दी। उन्होंने जब देखा कि किन्नरों की बिंदास टोली मस्त मिजाज में नाच रही है। फिर बस,अब क्या था?सद्गुरु का रूहानी हुस्न को बुल्लेशाह ने अपने नैनों में कैद कर लिया और पलकें गिरा दी। *जिसपे उदखाना तसद्दुक अर्थात न्यौछावर -2,**जिसपे काबा भी निसार।**आसमानी झरोखों ने पाया* *सूरती सद्गुरु का ऐसा दीदार।* कि बुल्लेशाह आंखे बंद कर उन किन्नरों के साथ ही ठुमकने लगे।बिना सूर के, बिना ताल के नाचने लगे और गाने लगे कि-*जिस दिन लगाया इश्क़ कमाल।**नाचे बेसुर ते बेताल।ओहो -2**जदो हजरों प्याला पित्ता**कुछ न रिह्या सवाल-जबाब**जिस दिन लगाया इश्क़ कमाल**नाचे बेसुर ते बेताल ।।**जिसदी अन्दर बसया यार**उठया यारों यार पुकार।**न ओह चाहे राग न ताल**एने बैठा खेड़े हार।**जिस दिन लगया इश्क़ कमाल* *नाचे बेसुर ते बेताल।।*जिसने सद्गुरु से रूहानी इश्क का पैमाना भर भी पी लिया – 2 वो मेरी ही तरह बेसुर, बेताल ताता- थैया करता है यारों। लेकिन बुल्लेशाह की यह मदहोशी क्या -2 गुल खिलायेगी? हिजड़ों के बीच उसका यह मस्त नाच सय्यदों की आलीशान हवेली पर कैसा असर डालेगी? अब यही देखना है, इसपर परिवारवालो की क्या प्रतिक्रिया होगी?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

मन को मोड़ने की युक्तियाँ


उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
ये जगत सपना हैं.. बार-बार चिंतन करो ये सपना हैं। ये सपनाहैं।

जितना सत्संग से लाभ होता हैं उतना एकांत में उपवास और व्रत करके तप करने से भी उतना लाभ नहीं होता जितना सत्संग से होता हैं। जितना एकांत में जप-तप से लाभ होता हैं उतना संसार में बड़े राज्य करने से लाभ नहीं होता हैं। संसार का वैभव संभालने और भोगने में उतना लाभ नहीं होता जितना एकांत में जप-तप करने से लाभ होता है और जप-तप करने से उतना लाभ नहीं होता जितना सत्संग से लाभ होता हैं और सत्संग में भी स्वरूप अनुसंधान से जो लाभ होता हैं वो किसी से नहीं होता। इसीलिए बार-बार स्वरूप अनुसंधान करता रहे। ॐ…

देखे हुए, भोगे हुए में आस्था हटा दो। जो देखा, जो भोगा- अच्छा भोगा, बुरा भोगा, अच्छा देखा, बुरा देखा.. सब मार गोली। सब सपना हैं। न पीछे की बात याद करके, वो बहुत बढ़िया जगह थी, ये ऐसा था, ये ऐसा था, तो बढ़िया में, ऐसा में ये वृत्तियाँ उठती हैं, वृत्ति व्याप्ति, फल व्याप्ति होते ही आप बाहर बिखर जाते हैं, अपने घर में नहीं आ सकते।

इकबाल हुसैन पीठावाला के पास गया।

पीठावाला माने शराब के पीठे होते थे, दारू के अड्डों को पीठा बोलते हैं। दारू का पीठा होता हैं कि नही?

तो महाराज। उसने पीया, खूब पीया और महाराज एकदम फुल्ल हो गया फुल्ल। फुल्ल समझते हो ना? नशे में चूर। गालियाँ बकता हुआ, लालटेन को गालियाँ देता हुआ, सड़क को गालियाँ देता हुआ, अपना घर खोजता-खोजता ठोकरें खाता-खाता महाराज बड़ी मुश्किल से कहीं थक के पड़ा और दैवयोग से वही उसका घर था।

सुबह हुई, सूरज ऊगा। नशेड़ी जब उठता है तब सुबह हुआ उसका तो। ऐसा नहीं कि ब्रह्मज्ञानियों का सुबह। नशेड़ी का सुबह, सुबह के नौ बजे।

सुबह हुआ तो देखा कि वो पीठावाला का नौकर हाथ में लालटेन लिए आ रहा हैं। लालटेन तो यार मेरा है, उसके हाथ में कैसे?

वह नौकर आया, उसने कहा कि महाशय रात को आप लालटेन भूल गए थे और हमारा तोते का खाली पिंजड़ा तुम लेकर आये लालटेन समझ कर।

घर के बाहर जो फेंक दिया था वो पिंजड़ा तो पडा था ।

वो पिंजड़ा तुम ले आये हमारा लालटेन समझकर। और वो समझता हैं मेरे हाथ में लालटेन हैं और घर क्यों नहीं मिलता? लालटेन के बदले पिंजड़ा था।

ऐसे ही अपनी वृत्ति जो हैं चैतन्य को नहीं देखती , वो लालटेन वृत्ति नही हैं। संसार का पिंजड़ा बना दिया वृत्ति ने।

भटक मुआ भेदु बिना पावे कौन उपाय ।

खोजत-खोजत युग गये पाव कोस घर आय।।

कोई कोई गरबा गाते हैं, ये बजाते हैं-वो बजाते हैं लेकिन पिंजड़ा हाथ में रखते हैं। लालटेन रखना चाहिए न? जाना चाहते हैं अपने घर में, सुखस्वरूप में लेकिन थककर बेचारे फिर वहीं। जब नशा उतरता हैं, जीवन की शाम होती हैं तब, अब तक क्या किया? अरे, कुछ नहीं किया। 

अरे, ये आदमी तो पहले अंगूठाछाप था,बड़ा पढ-लिखकर विद्वान हो गया। बड़ा काम कर लिया? अरे, कुछ नहीं किया।

ये आदमी निर्धन था, अभी करोड़पति हैं, बड़ा काम कर लिया? कुछ नहीं, चिंता और मुसीबत बढ़ाया और कुछ नहीं किया।

ये आदमी को कोई नहीं जानता था अब लाखों आदमी इसको जानते हैं, बड़ा नेता हो गया। अरे, कुछ नहीं किया, दो कौड़ी भी नहीं कमाई अपने लिये। हाय-हाय करके शरीर के लिये और वही शरीर जलाकर जायेगा।  क्या किया?

मूर्ख लोग भले ही कह  दे कि ये बड़ा विद्वान हैं, बड़ा सत्तावान हैं, बड़ा धनवान हैं मूर्खों की नजर में लेकिन ब्रह्मवेत्ताओं की नजर, शास्त्र की नजर, भगवान की नजर से देखो तो उसने कुछ नहीं किया, समय गँवाया समय। उम्र गँवाई उसने और क्या किया? मुसीबत मोल ली। ये सब इकट्ठा करने में जो समय खराब हुआ वो समय फिर वापस नहीं मिलेगा उसको और इकट्ठा किया इधर ही छोड़ के जायेगा। क्या किया इसने? लेकिन आजकल समाज में बिल्कुल उल्टी चाल है। मकान-गाड़ी, वाह भाई वाह, इसने तरक्की की। बस उल्टे मार्ग जाने वालों का पोषण हो रहा हैं। सच्ची बात सुनने वाले भी नहीं मिलते, सुनाने वाले भी नहीं मिलते इसीलिए सब पच रहे हैं अशांति की आग में। जगतनियंता ‘आत्मा’ अपने पास हैं और फिर भी संसारी दुःखी हैं तो उल्टी चीजों को पाने के लिए। सपने के हाथी…

मन बच्चा है इसको समझाना बड़ा… । युक्ति चाहिये।

एक बार बीरबल आये दरबार में। 

अकबर ने कहा देर हो गई क्या बात हैं?

“हुजूर। बच्चा रो रहा था, उसको जरा शांत कर रहा था।”

“बच्चे को शांत कराने में दोपहर कर दिया तुमने? कैसे बीरबल हो।”

“हुजूर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। राजहठ, स्त्रीहठ, योग हठ और बालहठ। जैसे राजा का हठ वैसे ही बच्चों का होता हैं महाराज।”

“बच्चों को रीझाना क्या बड़ी बात हैं?”

“बड़ी कठिन बात होती हैं।”

“बच्चे को रिझाना क्या हैं? यूँ (चुटकी में) पटा लो।”

“नही पटता महाराज। बच्चा हठ ले ले तो फिर। आप तो मेरे माई-बाप हैं मैं बच्चा बन जाता हूँ।

“हाँ, तेरे को राजी कर देंगे।”

बीरबल रोया-” पप्पा, पिताजी…”

अकबर-“अरे, चाहिये क्या?”

बीरबल-“मेरे को हाथी चाहिये।”

अकबर-“ले आओ। हाथी लाकर खड़ा कर दो।”
राजा था, सक्षम था वो तो। हाथी लाकर खड़ा कर दिया।

फिर बीरबल ने रोना चालू कर दिया। ..”मेरेको देगड़ा ला दो।”
अकबर-“अरे, चलो एक देग मँगा दो।”
बीरबल-“हाथी देगड़े में डाल दो।”
अकबर-“कैसे? अरे, नही आयेगा।”
बच्चे का हठ और क्या? अकबर समझाने में लग गया। अकबर बोले कि भाई मैं तो नहीं तेरे को मना सकूँगा। अब मैं बेटा बनता हूँ, तुम बाप बनो।”
बीरबल ने कहा ठीक है।
अकबर रोया।
बीरबल-“अब तो मेरे को पिता बनने का मौका मिला, बोलो बच्चे, क्या चाहिये?”
अकबर बोले-“हाथी चाहिये।”
बीरबल ने नौकर को बुलाया, कहा-“चार आने के दो खिलौने वाले हाथी ले आ। एक नहीं दो ले आ।”
लाकर रख दिये- “ले बेटे हाथी।”
अकबर बोले-“देगड़ा चाहिये।”
बीरबल बोले-“लो।”
अकबर-“इसमें हाथी डाल दो।”
बीरबल-“एक डाल दूँ कि दोनों?”
अकबर-“दोनो रख दो।”
दोनों डाल दिये।


ऐसे ही मन बच्चा है। उसकी एक वृत्ति ऐसी उठी तो फिर वो क्या कर सकता हैं। इसीलिए उसको ऐसे ही खिलौने दो जो आप उनको सेट कर सको। उसको ऐसा ही हाथी दो जो देगड़े में रह सके। उसकी ऐसी ही पूर्ति करो जो तुम्हारे लगाम में रह सके, तुम्हारे कंट्रोल में रह सके। तुम अकबर जैसा करते हो लेकिन बीरबल जैसा करना सीखो। मन बच्चा हैं, उसके कहने में ही चलोगे तो वो गड़बड़ कर देगा। उसको पटाने में लगो ,उसके कहने में नहीं, उसको पटाने में। उसके कहने में लगोगे तो मन भी अशांत रहेगा, बाप भी अशांत , बेटा भी अशांत और उसको घुमाने में लगोगे तो बेटा भी खुश हो जायेगा, बाप भी खुश हो जायेगा। देगड़े में हाथी डाल दें खिलौने के, बस ठीक हैं।


ऐसे ही मन की कुछ ऐसी-ऐसी आकांक्षाएँ होती हैं, ऐसी-ऐसी माँगे होती हैं जो माँग पूरी करते-करते जीवन पूरा हो जाताहै और उस माँग से सुख मिला तो आदत बन जाती है और दुःख मिला तो उसका विरोध बन जाता है लेकिन उस वक्त मन को फिर और कोई बहलावे की चीज दे दो, और कोई चिंतन की चीज दे दो। हल्का चिंतन करता हो तो बढ़िया चिंतन दे दो। हल्का बहलाव करता हैं तो बढ़िया बहलाव दे दो, नॉवेल पढ़ता हैं तो शास्त्र दे दो, इधर उधर की बात करता हैं तो माला पकड़ा दो। वस्त्र अलंकार किसी का देखकर आकर्षित होता हैं तो शरीर की नश्वरता का ख़्याल करो। किसी के अपमान को याद करके जलता हैं तो जगत के स्वप्नत्व को याद करो। ऐसे, मन को ऐसे खिलौने दो जो आपको परेशान न करें। अपन लोग उसमें लग जाते हैं, मन में आया ये कर दिया, मन में आया फैक्ट्री कर दिया, मन में आया ये कर दिया। करते-करते फिर फँस जाओगे। संभालने की जवाबदारी बढ़ जायेगी। अंत में देखो तो कुछ नहीं। जिंदगी उसी में पूरी हो गई। अननेसेसरी नीड (Unnecessary  need) बिन जरूरी आवश्यकताएँ । इसीलिए कबीर ने कहा-

साँई ते इतना माँगिये जो नौ कोटि सुख समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी भूखा न जाय।।

सियावर रामचंद्र की जय। ऐसी अपनी आवश्यकता कम करो। बाकी का समय जप में, आत्मविचार में , आत्मध्यान में, कभी-कभी एकांत में, कभी सत्कर्म में, कभी सेवा में। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता कम करो तो आप स्वतंत्र हो जायेंगे। अपने  व्यक्तिगत सुख-भोग की इच्छा कम रखो तो आपकी मन की चाल कम हो जाएगी। परहित में चित्त को, समय को लगाओ, वृत्ति व्यापक हो जायेगी। परमात्मा के ध्यान में लगाओ, वृत्ति शुद्ध हो जायेगी । परमात्मा के तत्व में लगाओ, वृत्ति के बंधन से आप निवृत्त हो जायेंगे। भाई, सत्संग में तो हम आप लोगों को कमी रखने की कोशिश नहीं करते।