बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -8

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -8


मेरी दिवानगी पर होशवाले बेशक़ बहस फ़रमाये मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है। यह हक़ीकत है बुल्लेशाह तो अपने गुरु इनायत शाह के प्रेम में दीवाना हो चुका था। इस कदर कि उसमें दुनिया के चलन-चलावों का रत्तीभर होश बाकी न रहा था।इस बेहोशी के आलम में उसके मुरीद मन से जो काफ़िया फूटी, उससे जो अदाबाजी या कारनामे हुए, वे सब अलबेले थे।होशो-हवास वाले उनके मर्म और मायने कहाँ समझ सकते थे ? वे इनकी बारीकी और गहराइयाँ कहा भाँप पाते?नगर में बुल्लेशाह हिजड़ो के साथ नाच रहा है, यह खबर जब मौलवी साहेब को मिली तब मौलवी साहब मुठ्ठियाँ भिंचे बेक़ाबू हुए, कोठार में रखे लठ की ओर लपके। लगता है इस बदलगाम पर नकेल डालनी ही पड़ेगी। इसकी हेकड़ीबाजी को ठोक बजाकर ही नरम करना पड़ेगा।मौलवी साहेब के एक हाथ में लठ और दूसरे हाथ में माला है। वह चल पड़े बुल्लेशाह की ओर। वाह! क्या मेल है? एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में माला! क्या साज-बाज है? एक हाथ में वो माला है जिससे खुदा की बन्दगी हो रही है और दूसरे हाथ में वो डंडा है जो बन्दगी या इश्क़-ए-खुदा में गुम उसके बंदे पर बरसने को उतावला है। एक ओर इबादत है और दूसरी ओर इबादतगार की तरफ ख़िलाफ़त का भाव है। एक शिष्य के खिलाफ बगावत है।यह विरोधाभास सिर्फ मौलवी साहब की हस्ती में ही नहीं समाज की तस्वीर में भी झलकता दिखाई देता है। कहने को तो सारा समाज आस्तिक है, ईश्वर का पुजारी है, व्रत-नेमधारी है। रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं, कर्मकांडों को निभाने में जी-तोड़ श्रद्धा-सबुरी से जुटा है।भक्ति-सिंधु की ऊपरी लहरों पर खूब जोरो-शोरो से तैराकी कर रहा है। लेकिन अगर कोई गुट से अलग इस सतही जल-तल को छोड़कर गहराई में डुबकी लगा दे, तो समाज के तेवर ही बदल जाते है उसके प्रति। अगर कोई सद्गुरु की शरणागत होकर भक्ति के शाश्वत रूप को अपना ले तो संसार को यह जरा भी नहीं रुचता, जरा भी नहीं सुहाता।कमाल है! समाज को भक्ति सिर्फ ऊपरी तह तक ही गँवारा है। अगर शरीरिक क्रियाओं तक सीमित रहे तो ही मंजूर है। यदि यह भक्ति की खुशबू किसी के तन को भेदकर मन और आत्मा में बसने लगे, तो संसार को यह नहीं रुचता और उसे खतरनाक मान लिया जाता है। भक्ति का रस जिसकी जुबाँ से लुड़ककर अंदर दिल को भिगोने लगे तो संसार उसे नालायक समझता है। ऐसे प्रेमी के खिलाफ यह समाज हाथ में डंडा उठा लेता है।मीरा जैसी भक्तिमयी पर बावरी, कुलनाशिनी जैसे विषबुझे शब्दबाण छोड़ता है, किसी के लिए क्रूस का सामा जोड़ता है और किसी के लिए हलाहल जहर तो किसी के लिए कैद! यह कैसी रिवायत है? कैसा अजब दस्तूर?कैसी भयंकर विडम्बना है यह समाज की?मौलवी साहब वहीं पहुंच गए जहाँ पर नाच-गान हो रहा था। हिजड़ों के बीच बेफिक्र होकर बुल्लेशाह को नाचता देख वे आगबबूला हो गए। परन्तु बुल्लेशाह तो अपनी मस्ती में मस्त रहे।*ख़याले गैर नहीं ख़ौफ़े खान का नहीं,* *ये जानता हूँ इबादत कोई गुनाह नहीं।*इबादत की है, रूहानी मुहब्बत की है! अपने मौला,अपने सद्गुरु से! यह कोई गुनाह या बदकारी नहीं, क़सूर नहीं।उबलती,उफनती मौलवी साहब पर जिस-2 की निगाह पड़ी वहीं दुबक गया। सिटपिटाते हुए कोई आदाब करने लगा, कोई दाँतो तले उँगलियाँ चबाने। हिजड़े भी पेशेवर नचय्या थे मौज में नहीं फितरतन नाच रहे थे, इसलिए उनकी आँखें जैसे ही मौलवी साहब से चार हुई वे भी ख़ौफ़जद हो गये। साँस रोककर ऐसे खड़े हुए मानो जहरीला साँप सूँघ गया हो। अचानक बुल्लेशाह ने भी देखा कि मौलवी साहब 15-20 फलाँग की दूरी पर खड़े तमतमा रहे है। उनकी आँखे सुर्ख लाल थी। यह दृश्य साधारण इन्सान के लिए तो ख़ौफ़नाक था, परन्तु एक शिष्य के लिए नहीं। बुल्लेशाह मौलवी साहब को नजरअंदाज करते हुए घूम गए और फिर से थिरकने और गाने लगे- *लोका देहत मालिया ते बाबे देहत माल**सारी उमर पिट-2 मर गया घुस न सकया वार**चीना अइयो छड़िन्दा यार चीना अइयो छड़िन्दा।*चीना एक तरह का अनाज होता हैं। बुल्लेशाह ने कहा कि,”चीने की यूँ छजाई करो कि सारे कंकड़-पत्थर अलग हो जाये।लोगो! खास कर मेरे वालिद के हाथों में माला है। उनकी सारी उम्र उसे फेरते-2 बीत गई, पैर क़ब्र में लटक गए मगर नमक भर भी उनके कुछ पल्ले नहीं पड़ा। एक बाल भर भी फायदा नहीं हुआ।इसके उलट मुझे अपने गुरु से रूहानी दात मिल गई है। इबादत की ऐसी ईलाही राह मिली है कि मैं मालामाल हो गया हूँ और मेरे वालिद अभी कंगाल ही है। “यह सुनते ही मौलवी साहेब का अंगारों-लपटों से भरा लावा फूट पड़ा। मौलवी साहब लठ लिए बुल्लेशाह की ओर दौड़े। सच ही एक शायर ने खूब कहा है कि-*कदम मैखाने में रखना भी कारे पुख्तारी है,**जो पैमाना उठाते हैं वो थर्राया नहीं करते।*बुल्लेशाह ईलाही मैखाने की इस रीत से अच्छी तरह वाकिब था, वहाँ पीने का फ़न रखता था।इसलिए जब मौलवी साहब का मोटा लठ तेजी से करीब आता दिखा तब बुल्लेशाह थरथराया नहीं, न ही उसके हाथ से खुदा-एँ-इश्क़ का प्याला छूटा, न ही चढ़ा नशा काफ़ूर हुआ। वह तो बस थिरकता रहा-2 और थिरकता ही रहा। कुछ इस बेपरवाही से कि-*तेरे हाथों से जो तराशे गए है,**तेरे नूर से जो नूरानी हुए हैं,**क्या चोट देगा संसार उन्हें?**तेरे इश्क़ केे जो दीवाने हुए हैं!*जैसे ही मौलवी साहब बुल्लेशाह को मारने के लिए लठ घुमाये कि एक हैरतअंगेज घटना घटी, “अचानक रूहानियत की ऐसी ख़ुशगवार हवा बही कि बुल्लेशाह में रुनन-झुनन करती फ़ुहारों का रुख़ मौलवी साहब की ओर आ गया। उसकी ठंडी बूँदे उन्हें भी भिगोने लगी। अचानक मौलवी साहब अपनी सय्यदी ऐंठ में तने न रह सके,अदब से खड़े न रह पाए। लहरा उठे, ठुमक उठे, थै-2 करके लचकने और थिरकने लगे।” यह एक काल्पनिक किस्सा नहीं है। बुल्लेशाह की कहानी में रोचकता का पुट जोड़ने के लिए इसे गढ़ा नहीं गया है। परन्तु यह बुल्लेशाह के जीवन की सरासर सत्य घटना है।धीरे-2 नाचते-2 मौलवी साहब इतने गदगद हुए कि काफिया बाजी पर भी उतर आए।बुल्लेशाह के सदके लेकर वे गाने लगे कि-*पुत्तर जिन्हा दे रंगरंगीले मापे वे लैंदे तार,**चीना अइयो छड़िन्दा यार! – 2*माने अगर औलाद पर इबादत की ऐसी रंगीनी छा जाए तो वह अपने माँ-बाप को भी तार देती है। ऐसी औलाद के सदके बुल्ल्या! तेरे सदके!बुल्लेशाह ने देखा कि अब्बू इस करिश्मे का सेहरा उसके सिर बाँध रहे हैं। उसके मुर्शिद अर्थात सद्गुरु इनायत शाह के रहमो-करम को समझ नहीं पा रहे हैं। एक शिष्य के लिए इससे बढ़कर अफ़सोस का मुद्दा और क्या होगा? बुल्लेशाह भी कातुर हो उठे।”सुनो अब्बू! सुनो कस्बेवालो! यह मेरा नहीं मेरे सद्गुरु का फ़झल है, मेरे मुर्शिद का फ़झल है। मेरे इनायत का कर्म है, इसलिए सदके जाना है तो उनकी जाओ! सलाम करना है तो उस पीर को करो। उसकी रूहानी मैखाने को करो! *सलामे पीरे मैखाना – 2!”* थाप दर्ज के साथ बदलती गई, साथ ही थिरकन भी। *उनकी रहमत का दामन छूके सुबहें कामयाब आयी,**अतः हो गया तुझको भी तेरे हिस्से का पैमाना!**सलामे पीरे मैखाना! – 2**उनकी ख़ाके कदम से है रौशन हस्ती की पेशानी,**तब्बसुम से उसकी शादाब है,बस्ती हो के वीराना!* *सलामे पीरे मैखाना – 2!*ये दोनों शाही दीवाने गुरु के मैखाने के भर-2 कर जाम अन्दर उड़ेलते रहे। मस्ती में चूर हुए देर शाम तक झकोले खाते रहे, झूमते रहे।मौलवी साहेब को आज वो मिला जो उन्होंने कई वर्षों की इबादत से नहीं पाया था। बुल्लेशाह ने बताया कि यह मस्ती उनकी गुरु की कृपा है। बुल्लेशाह ने मौलवी साहेब को इनायत शाह की शहनशाही से अवगत कराया और उन्हें भी उनकी शरण स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। मौलवी साहब राजी-खुशी बुल्ले को इनायत शाह के अस्ताने में रहने को रजामंदी प्रदान कर दी।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

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