यह सौंदर्य या शोभा, चेष्टा, सजीवता और उत्साह क्या वस्तु है ? क्या वह आँख, कान या नाक के कारण है ? नहीं, नेत्र-कान इत्यादि में तो वह प्रकट होती ह। सुंदरता, शोभा आपके भीतर के परमेश्वर से मिलती है, और किसी दूसरी चीज से नहीं। वह चेतनता है। चेतनता, उद्योगशक्ति या गति जिसके कारण है ? देखिये, आप मार्ग चल सकते हो, ढालू पहाड़ों पर चढ़ सकते हो, जहाँ चाहो जा सकते हो किंतु देहपात होने पर क्या हो जाता है ? प्राणांत होने पर चेतनना और उद्योगशक्ति, आपके भीतर का वह ईश्वर, जो आपको ऐसी-ऐसी ऊँचाइयों पर उठा ले जा सकता था, जो पहले आपकी सहायता किया करता था वैसी अब नहीं करता। तो फिर इस शरीर के अंदर कौन है जिसके कारण नसें डोलती हैं, बाल बढ़ते हैं, नाड़ियों में रक्त का संचार होता है ? शरीर के अंगों को यह सब चाल, शक्ति, फुर्ति देने वाला कौन है ? वह एक विश्वव्यापी शक्ति है, एक ‘विश्वेश्वर’ है जो वस्तुतः आप ही हो, वह ‘आत्मा’ है।
जब कोई मनुष्य मर जाता है तब कुछ आदमियों को उसे उठाकर श्मशान ले जाना पड़ता है। और जब वह जीवित था तब वह कौन चीज थी जो उसका मनों भारी बोझ बड़ी-बड़ी ऊँचाइयों पर, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर उठा ले जाती थी ? वह कोई अदृश्य, अवर्णनीय वस्तु है परंतु है अवश्य। वह आपके अंदर आत्मदेव है, वही हर एक शरीर में परमात्मा है और वही परमेश्वर हर एक वस्तु को शक्ति और कर्मण्यता प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गति और चेष्टा में शोभा का कारण भी वही परमेश्वर। जब कोई मनुष्य सोया होता है तब उसके नेत्र नहीं देखते, कान नहीं सुनते। जब मनुष्य मर जाता है तब भी उसके नेत्र जहाँ-के-तहाँ रहते हैं पर वह देखता नहीं, उसके कान ज्यों-के-त्यों रहते हैं पर वह सुनता नहीं। क्यों ? क्योंकि भीतर का वह ईश्वर या वह आत्मदेव अब उसी तरह सहायता नहीं करता जैसे पहले करता था। वह भीतर का ईश्वर ही है जो नेत्रों द्वारा देखता है, कानों को सुनवाता है, नाक को सूँघने की शक्ति देता है और सब रगों का शक्तिदाता भी वह भीतरी ईश्वर-परमात्मा ही है। अंतर्गत (अंदर छिपा हुआ) ईश्वर ही समस्त बाह्य शोभा एवं सौंदर्य का सारांश तत्त्व है, इसे याद रखो। आपके सामने कौन है ? जब आप किसी व्यक्ति की ओर देखते हैं तब आपसे नज़र कौन मिलाता है ? वही भीतर का ईश्वर ! बाहरी नेत्र, त्वचा, कान इत्यादि साधनमात्र हैं। वे केवल बाहरी वस्त्र हैं, और कुछ नहीं।
इस दुनिया में जब लोग पदार्थों को प्यार और उनकी इच्छा करने लगते हैं, तब सच्चिदानंद की अपेक्षा पोशाक को, वस्त्र को अधिक प्यार करने लगते हैं, जिस पोशाक के द्वारा वह सच्चिदानंद चमकता है। इस प्रकार वे सच्चिदानंद के सत्य, मूल और तत्त्व की अपेक्षा वस्त्रों, बाह्य रूपों व आकारों को अधिक प्यार और पूजा करते हैं। इसी से लोग दुःख उठाते हैं और इस गलती के कुफल भोगते हैं। यह तथ्य है। इससे ऊपर उठो। प्रत्येक पत्नी और पति को एक दूसरे में परमेश्वर को देखने का यत्न करना चाहिए। भीतरी ईश्वर को देखो, भीतर के ईश्वर की पूजा करो।
हर एक वस्तु आपके लिए ईश्वर बन जानी चाहिए। नरक का खुला द्वार होने के बदले स्त्री को पति के लिए दर्पण के समान होना चाहिए, जिसमें वह परमेश्वर के दर्शन कर सके। पति को भी नरक का खुला द्वार होने के बदले स्त्री के लिए दर्पण के समान होना चाहिए, जिसमें वह भी परमेश्वर को देख सके।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 20,22 अंक 304
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