लोग विषय सुख ही चाहते हैं – यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि वास्तव में लोग सुखमात्र चाहते हैं अन्यथा औषध लेकर भी वे सुषुप्ति-सुख की, जिसमें विषयरहित सुख है, इच्छा न करते ! लोग मात्र सुख चाहते हैं और विषय-सुख उनको अनुभूत है इसलिए उपनिषदों से सजातीय ब्रह्मसुख के बारे में सुनकर उनको ब्रह्मसुख अर्थात् परमानंदरूप मोक्ष की इच्छा हो सकती है। सब चाहते हैं कि हमे अविनाशी सुख मिले, बिना श्रम किये सुख मिले और ज्ञात होता हुआ सुख मिले। भले वह विषय से मिले या निर्विषयक मिले ! ऐसे विलक्षण सुख का नाम ही तो ब्रह्मसुख, परमानंद, मोक्षसुख या आत्मसुख है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य असल में चाहता तो मोक्षसुख ही है किंतु अज्ञान से वह विनाशी, परिच्छिन्न और अपने से भिन्न विषयों में ढूँढता है। इस प्रकार वेदांत की दृष्टि से सब मनुष्य मुमुक्षु हैं चाहे उन्हें इसका ज्ञान हो या न हो।
संसार में 4 प्रकार के मनुष्य होते हैं- विषयी, पामर, जिज्ञासु और मुक्त। इनमें विषय़ी लोग हैं जो शास्त्र के अनुसार इस लोक और परलोक के सुख-भोगों को भोगते हुए शास्त्रानुसार धर्म में बरतते रहते हैं। ये लोग वेदांत के फल में रूचि नहीं लेते अतः ये वेदांत के अधिकारी नहीं हैं। पामर वे लोग हैं जो संसार के विषय-विकारों में ही मस्त हैं, भले वे शास्त्रज्ञ हों या न हों। ये लोग भी वेदांत के अधिकारी नहीं हैं क्योंकि इनमें सामर्थ्य नहीं है। मुक्त पुरुषों का मोक्षरूपी प्रयोजन सिद्ध हो चुका है इसलिए उनके अधिकार अनधिकार का प्रश्न ही नहीं है। अब बचे जिज्ञासु, वे ही वेदांत-विद्या के अधिकारी हैं।
जिज्ञासु की विषय सुख में अलं-बुद्धि (तृप्ति) नहीं होती। उन्हें तो परिणाम में, भोग में और अर्जन में सारे सुख भी दुःख ही नजर आते हैं। उनकी दृष्टि में शरीर पूर्वकृत धर्म-अधर्म का फल है। राग-द्वेष की निवृत्ति के बिना धर्म-अधर्मजन्य आवागमन चक्र समाप्त नहीं हो सकता। राग-द्वेष का आधार भेदज्ञान (द्वैतदृष्टि) और अपने में कर्तृत्व-भोक्तृत्व है। इसलिए ब्रह्मात्मैक्य बोध के बिना राग-द्वेष की आत्यंतिक निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि भेद और कर्तापन-भोक्तापन की भ्रांति अपने आत्मा के ब्रह्मत्व के अज्ञान से ही होती है। अतः जिज्ञासुओं की प्रवृत्ति वेदांत विद्या में अवश्य होती है इसलिए इस विद्या का व्याख्यान (ब्रह्म विचार) सार्थक है।
ध्यान दें- यहाँ पर जिज्ञासुओं को वेदांत विद्या के अधिकारी कहने से प्रयोजन है कि अन्य जो विषयी और पामर कोटि के व्यक्ति हैं वे भी जिज्ञासु बनें। इससे यह प्रयोजन कदापि नहीं हो सकता कि वे “मैं अधिकारी नहीं हूँ’ ऐसा सोचकर हतोत्साहित हो जायें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 32 अंक 304
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