Monthly Archives: April 2018

वेदांत विद्या के अधिकारी कौन ?


लोग विषय सुख ही चाहते हैं – यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि वास्तव में लोग सुखमात्र चाहते हैं अन्यथा औषध लेकर भी वे सुषुप्ति-सुख की, जिसमें विषयरहित सुख है, इच्छा न करते ! लोग मात्र सुख चाहते हैं और विषय-सुख उनको अनुभूत है इसलिए उपनिषदों से सजातीय ब्रह्मसुख के बारे में सुनकर उनको ब्रह्मसुख अर्थात् परमानंदरूप मोक्ष की इच्छा हो सकती है। सब चाहते हैं कि हमे अविनाशी सुख मिले, बिना श्रम किये सुख मिले और ज्ञात होता हुआ सुख मिले। भले वह विषय से मिले या निर्विषयक मिले ! ऐसे विलक्षण सुख का नाम ही तो ब्रह्मसुख, परमानंद, मोक्षसुख या आत्मसुख है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य असल में चाहता तो मोक्षसुख ही है किंतु अज्ञान से वह विनाशी, परिच्छिन्न और अपने से भिन्न विषयों में ढूँढता है। इस प्रकार वेदांत की दृष्टि से सब मनुष्य मुमुक्षु हैं चाहे उन्हें इसका ज्ञान हो या न हो।

संसार में 4 प्रकार के मनुष्य होते हैं- विषयी, पामर, जिज्ञासु और मुक्त। इनमें विषय़ी लोग हैं जो शास्त्र के अनुसार इस लोक और परलोक के सुख-भोगों को भोगते हुए शास्त्रानुसार धर्म में बरतते रहते हैं। ये लोग वेदांत के फल में रूचि नहीं लेते अतः ये वेदांत के अधिकारी नहीं हैं। पामर वे लोग हैं जो संसार के विषय-विकारों में ही मस्त हैं, भले वे शास्त्रज्ञ हों या न हों। ये लोग भी वेदांत के अधिकारी नहीं हैं क्योंकि इनमें सामर्थ्य नहीं है। मुक्त पुरुषों का मोक्षरूपी प्रयोजन सिद्ध हो चुका है इसलिए उनके अधिकार अनधिकार का प्रश्न ही नहीं है। अब बचे जिज्ञासु, वे ही वेदांत-विद्या के अधिकारी हैं।

जिज्ञासु की विषय सुख में अलं-बुद्धि (तृप्ति) नहीं होती। उन्हें तो परिणाम में, भोग में और अर्जन में सारे सुख भी दुःख ही नजर आते हैं। उनकी दृष्टि में शरीर पूर्वकृत धर्म-अधर्म का फल है। राग-द्वेष की निवृत्ति के बिना धर्म-अधर्मजन्य आवागमन चक्र समाप्त नहीं हो सकता। राग-द्वेष का आधार भेदज्ञान (द्वैतदृष्टि) और अपने में कर्तृत्व-भोक्तृत्व है। इसलिए ब्रह्मात्मैक्य बोध के बिना राग-द्वेष की आत्यंतिक निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि भेद और कर्तापन-भोक्तापन की भ्रांति अपने आत्मा के ब्रह्मत्व के अज्ञान से ही होती है। अतः जिज्ञासुओं की प्रवृत्ति वेदांत विद्या में अवश्य होती है इसलिए इस विद्या का व्याख्यान (ब्रह्म विचार) सार्थक है।

ध्यान दें- यहाँ पर जिज्ञासुओं को वेदांत विद्या के अधिकारी कहने से प्रयोजन है कि अन्य जो विषयी और पामर कोटि के व्यक्ति हैं वे भी जिज्ञासु बनें। इससे यह प्रयोजन कदापि नहीं हो सकता कि वे “मैं अधिकारी नहीं हूँ’ ऐसा सोचकर हतोत्साहित हो जायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 32 अंक 304

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यह दिमाग दूध से बना है, अंडे से नहीं


आजादी से पूर्व की बात है। एक बार काँग्रेस कार्यकारिणी की एक बैठक में जिस रिपोर्ट के आधार पर एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित करना था वह नहीं मिल रही थी। सब चिंतित थे।

सदस्यों को अचानक ध्यान आया कि वह रिपोर्ट डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद पढ़ चुके हैं। जब राजेन्द्र प्रसाद जी से पूछा गया तो वे बोलेः “हाँ, मैं पढ़ चुका हूँ और आवश्यकता हो तो बोलकर लिखवा सकता हूँ।” सबने सोचा इतनी लम्बी रिपोर्ट एक बार पढ़ने के बाद कैसे लिखवायी जायेगी ?’

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब 100 से अधिक पृष्ठ लिखवा चुके तब वह रिपोर्ट भी मिल गयी। कौतूहलवश सदस्यों ने दोनों रिपोर्टों का मिलान किया तो कहीं भी अंतर न मिला। सभी आश्चर्यचकित रह गये। पं. नेहरू ने प्रशंसाभरे स्वर में पूछाः “ऐसा आला (श्रेष्ठ) दिमाग कहाँ से पाया ?” उन्होंने सौम्य मुस्कान के साथ जवाब दियाः “यह दिमाग दूध से बना है, अंडे से नहीं।”

दुग्धाहारी बच्चे मार लेते हैं बाजी

अमेरिका के डॉक्टर वेकफील्ड ने विद्यार्थियों पर प्रयोग करके सिद्ध किया है कि मांसाहारी बच्चों से फलाहारी और उनसे भी ज्यादा दुग्धाहारी बच्चों की स्मृतिशक्ति अधिक होती है।

देशी गाय का दूध पीने से मस्तिष्क (बुद्धि) का तेजी से विकास होता है। विद्यार्थियों के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए जरूरी पोषक तत्त्व गोदुग्ध में विद्यमान होते हैं। कम स्मृतिशक्ति वाले बच्चों को दूध पिलाया जाय तो वे बुद्धिमान बनेंगे और बुद्धिमान बच्चों को पिलाया जाय तो वे और भी स्मृतिवान, मेधावी होंगे। देशी गोदुग्ध के सेवन से बुद्धि सूक्ष्म होने के साथ स्वभाव सौम्य व शांत बनता है, मन में पवित्र विचार उपजते हैं तथा मानसिक शुद्धि में मदद मिलती है। अतः अपने बच्चों को देशी गाय का दूध अवश्य पिलायें।

कैसा रखें बच्चे का नाम ? पूज्य बापू जी

पहले के जमाने में माता-पिता को ‘मातुश्री-पिताश्री’ बोलते थे। वैसे भी ‘पिता, माता’ पवित्र शब्द हैं और उनके साथ ‘श्री’ मिल जाता है- ‘मातुश्री, पिताश्री’ कितने पवित्रता, दिव्यता लाने वाले वचन बन जाते हैं। ‘पिताश्री !’ यह बोलने में हृदय पर कैसा असर होता है आप विचारिये और ‘डैडी, मम्मी’ बोलने में….? अब अपने बच्चों को कह दो कि इन फैशनेबल शब्दों को छोड़ो, ‘पिताश्री, मातुश्री’ कहा करें।

आजकल बच्चे-बच्चियों के नाम भी कैसे रखते हैं – बबलू, टिन्नू, मिन्नू, विक्की, श्लेष्मा….। अब श्लेष्मा तो नाक से निकली हुई गंदगी को बोलते हैं। क्या बच्चों का ऐसा गंदा नाम रखा जाता है ? गार्गी, मदालसा रखो, श्रीहरि, हरिशरण, प्रभुशरण, राम, श्याम, हरिप्रसाद, शिवप्रसाद रखो। श्रीविष्णुसहस्रनाम में से कोई नाम रखो। ऐसे नाम रखो जिनसे भगवान की याद आये और बच्चों में दैवी गुण आ जायें तथा माता-पिता में उच्च विचार आ जायें। हम पाश्चात्य जगत से बहुत-बहुत प्रभावित हो गये हैं। वे तो अपने कल्चर से परेशान हैं और उनका कचरा हम ले रहे हैं। अपनी संस्कृति भूले जा रहे हैं। नहीं, नहीं…. अपनी संस्कृति अपनाओ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018 पृष्ठ संख्या 23 अंक 304

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युग के विनाशकारी प्रभाव से बचाकर विद्यार्थियों को महान ऊँचाई पर कैसे पहुँचायें ?


प्राचीन काल में भारत की शिक्षण प्रणाली ऐसी थी कि विद्यार्थी 5 साल की उम्र से गुरुकुल में प्रवेश पाता और 15 साल तक उसको ऐसे संयमी और सादा जीवन बिता के इहलोक और परलोक में प्रभुत्व जमा दे ऐसी शक्तियों का विकास करता। देवता भी दैत्यों के साथ युद्ध में खट्वांग जैसे राजाओं की सहाय लेते थे। गुरुकुल में ऐसे विद्यार्थी तैयार होते थे।

अँग्रेज़ शासन आया और मैकाले ने अंग्रेज सरकार को सलाह दी कि जब तक भारतीय संस्कृति के संस्कारों का उन्मूलन नहीं किया जायेगा और पाश्चात्य पद्धति का अभ्यास नहीं करायेंगे, तब तक इन लोगों को हम स्थायी गुलाम नहीं बना सकेंगे। इससे अंग्रेजों ने हमारे भारतीय विद्यार्थियों और युवानों का ब्रेन वॉश करना शुरु किया। फलतः हमारी संस्कृति के गर्भ में जो संयम, सादगी और निष्ठा थी, ओज और तेज था वह सब अस्त-व्यस्त हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि ‘यह विकास का युग है।’ लेकिन मैं कहता हूँ कि यह विद्यार्थियों के लिए तो बिल्कुल विनाश का युग है। उनके साथ इस युग में जो अन्याय हो रहा है ऐसा कभी हुआ नहीं था। उन्हे पहले देशी गाय का दूध मिलता था पर अभी चाय-कॉफी मिलती है। इससे यौवन की सुरक्षा नहीं  बल्कि नाश होता है, यादशक्ति घटती है। विद्यार्थी जीवन में साहस, बल और तेज का विकास करने की जो दीक्षा मिलती थी, जो ऋषियों की पद्धति थी वह सब अस्त-व्यस्त हो गयी। अभी तो…..

I stout, you stout,

who shall carry the dirt out ?

मैं भी रानी, तू भी रानी,

कौन भरेगा घर का पानी ?

इच्छा-वासनाएँ, दिखावा बढ़ गया और भीतर से जीवन खोखला हो गया। चाय-कॉफी, बीड़ी सिगरेट, शराब, भाँग जैसे पदार्थों से स्मरणशक्ति क्षीण हो जाती है। देशी गाय का दूध, ताजा मक्खन, गेहूँ, चावल, अखरोट, तुलसी-पत्ते इत्यादि के सेवन से जीवनशक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है। प्रतिदिन सुबह आँखें बंद करके सूर्यनारायण के सामने खड़े रहो और नाभि से आधा से.मी. ऊपर के भाग में भावना करोः ‘सूर्य के नीलवर्ण का तेज मेरे केन्द्र में विकास के लिए आ रहा है।’ और श्वास भीतर खींचो। सूर्यकिरणें सर्वरोगनाशक व स्वास्थ्य प्रदायक हैं। सिर ढककर 8 मिनट सूर्य की ओर मुख व 10 मिनट पीठ करके बैठें।

समय बहुत अधिक न हो व धूप तेज न हो। इसकी सावधानी रखें। ऐसा सूर्यस्नान लेटकर करें तो और अच्छा। सूर्यनमस्कार भी करो। इससे स्वास्थ्य के साथ स्मृतिशक्ति भी गज़ब की बढ़ने लगेगी।

आज चारों ओर उपदेशों की भरमार है कि ‘चोरी मत करो, शराब मत पियो, बुरी आदतों का त्याग करो, दिल लगाकर अभ्यास करो….’ लेकिन चोरी न करके ध्यान देकर पढ़ने की जो युक्ति है, जो पद्धति है वह लोग भूलते गये। फिर विद्यार्थी बेचारा क्या करे ? नकल करके, कैसे भी करके परीक्षा में पास हो जाता है। लेकिन जीवन में ओज, बल और स्वावलम्बन होना चाहिए वह प्रायः विद्यार्थियों के जीवन में नहीं दिखाई देता। संयमी और साहसी जीवन जीने की हमारी भारतीय परम्परा है। 15 साल की उम्र तक साहस और संयम के जितने भी संस्कार बालक में डाले जायेंगे उतना ही वह बड़ा होकर प्रखर बुद्धिमान, स्वावलम्बी और साहसी सिद्ध होगा।

हम सब मिलकर नींव मजबूत बनायें

स्कूल कॉलेज में नियम और कायदे तो बनाये जाते हैं लेकिन विद्यार्थी की नींव का जीवन जैसा मजबूत बनना चाहिए उस पर सबको साथ मिलकर विचार, पुरुषार्थ करने की जरूरत है। आज के विद्यार्थी कल के नागरिक बनेंगे, देश के नेता आदि बनेंगे।

विद्यार्थियो ! सुबह जागो तब संकल्प करो कि ‘मैं भगवान का सनातन अविभाज्य अंग हूँ। मुझमें परमात्मा का अनुपम तेज और बल है। गिड़गिड़ा के, चोरी करके या विलासी हो के जीवन जीना नहीं है, संयम और सदाचार से जीवनदाता का साक्षात्कार करना है।’

शरीर को तन्दुरुस्त करने के लिए ध्यान व आसन है। इनके आपकी शक्ति का विकास होगा। आसन से रजोगुण कम होता है, सत्त्वगुण बढ़ता है, स्मृतिशक्ति बढ़ती है।

ज्ञानमुद्रा में ध्यान में बैठने का प्रयास करो। सच्चे हृदय से प्रार्थना करोः ‘असतो मा सद्गमय। मुझे असत्य आसक्तियों, असत्य भोगों से बचाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय। शरीर को मैं और संसार को मेरा मानना – इस अज्ञान अंधकार से बचाकर मुझे आत्मप्रकाश दो। मृत्योर्मामृतं गमय। मुझे बार-बार जन्मना-मरना न पड़े ऐसे अपने अमर स्वरूप की प्रीति और ज्ञान दे दो। ओ मेरे सदगुरु ! हे गोविन्द ! हे माधव !…. ऐसे सुबह थोड़ी देर प्रार्थना करके शांत हो जाओ। इससे बुद्धि में सत्त्व बढ़ेगा और बुद्धि मजबूत रहेगी, मन की गड़बड़ से मन को बचायेगी और मन इन्द्रियों को नियन्त्रित रखेगा।

अब करवट लो !

अब करवट लो बच्चो भाइयो, बच्चियो-देवियो ! तुम्हारा मंगल हो ! ‘जीवन-विकास, दिव्य प्रेरणा प्रकाश, ईश्वर की ओर जैसी पुस्तकें बार-बार पढ़ो-पढ़ाओ और हो जाओ उस प्यार के ! (ये पुस्तकें आश्रम व समिति के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध हैं।) वह बल बुद्धि देता है, विवेक-वैराग्य भी देता है। असंख्य लोगों को देता आया है। तुम्हें भी देने में वह देर नहीं करेगा। पक्की प्रीति, श्रद्धा-सबूरी से लग जाओ, पुकारते जाओ। करूणानिधि की करुणा, प्यारे का प्यार उभर आयेगा। ॐ ॐ प्रभु जी ॐ…. प्यारे जी ॐ… मेरे जी ॐ….. आनंद ॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 2,10 अंक 304

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