Monthly Archives: January 2002

सावधानी से स्वास्थ्य


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

स्वस्थ रहने के लिए स्वास्थ्यरक्षक कुछ नियम जान लें-

ब्रह्ममुहूर्त में उठें (सूर्योदय से लगभग दो घंटे पूर्व ब्रह्ममुहूर्त होता है।)

सुबह नींद से उठकर बासी पानी पियें। हो सके तो ताँबें के बर्तन में रखा हुआ पानी पियें। इससे पेट की तमाम बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। कब्ज अनेक बीमारियों की जड़ है, वह इस प्रयोग से दस दिन में ठीक हो जाती है। गर्मी के दिनों में पानी ज्यादा पियें। इससे लू से बचाव होता है।

सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करें और सर्वप्रथम अपने सिर पर पानी डालें फिर पैरों पर पानी डालें क्योंकि पहले पैरों पर पानी डालने से पैरों की गर्मी सिर पर चढ़ती है।

सदैव सूती एवं स्वच्छ वस्त्र पहनें। कृत्रिम (सिंथैटिक) कपड़े न पहनें। ये कपड़े जीवनशक्ति का ह्रास करते हैं।

चौबीस घंटों में केवल दो बार भोजन करें। अगर तीसरी बार करते हों तो बहुत सावधान रहें, हलका नाश्ता करें।

किसी को वायु और गैस की तकलीफ ज्यादा हो तो उसे आलु, चावल और चने की दाल आदि का परहेज रखना चाहिए। ये वायु करते हैं। वायु का रोगी दूध पिये तो एक-दो काली मिर्च डालकर पियें।

सामान्य रूप से भी चावल, आलू आदि ज्यादा न खायें नहीं तो आगे जाकर बुढ़ापे में जोड़ों का दर्द पकड़ लेगा। जो बीमारी होने वाली है, उससे बचने के लिए पहले से ही सावधान रहें।

चाय, काफी और नशीली वस्तुओं से बचना चाहिए। आहार ऐसा को कि आपका शरीर तंदुरुस्त रहे। विचार ऐसे करो कि मन  पवित्र रहे।

एक गिलास गुनगुने पानी में थोड़ा संतकृपा चूर्ण एवं शहद डाल दें। मुँह में अदरक का टुकड़ा चबायें, ऊपर से यह शहदवाला पानी पी जायें और थोड़ा घूमें। इससे शरीर का वज़न नियंत्रित हो जायेगा।

जिनकी उम्र 40 साल से ज्यादा है उनकी रोग प्रतिकारक शक्ति बनी रहे इसके लिए ‘रसायन चूर्ण’ का सेवन करना चाहिए। आँवला, गोखरू एवं दूसरी तीन-चार चीजें मिलाकर रसायन चूर्ण बनता है।

ड्राइवर लोग जानते हैं कि रेल का फाटक आता है अथवा बंपर आता है तो उसके पहले गाड़ी की गति धीमि करनी पड़ती है। ऐसे ही कोई पीड़ा या बीमारी बंपर बनकर आये तो उसके पहले ही अपनी शरीररूपी गाड़ी को नियन्त्रित कर लो।

किसी को पित्त की तकलीफ ज्यादा है तो सप्ताह में एक बार पेठे की सब्जी बनाकर खाय और उस दिन थोड़ी अदरक भी खाये ताकि भूख लगे।

किसी को भूख नहीं लगती है तो भोजन के पहले अदरक के टुकड़ों में नीँबू और नमक मिलाकर खाये, बाद में भोजन चबा-चबाकर करे।

रात को हल्का भोजन करे और संध्या के बाद जितनी जल्दी हो सके भोजन कर लेना चाहिए।

पंद्रह दिन में एकाध उपवास करें और उपवास के दन एक दो सेब को तवे प सेंक कर खायें। प्यास लगे तो एक दो चुटकी सोंठ गुनगुने पानी में लिया करें।

रात्रि को जल्दी सोना चाहिए और देर रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। ज्यों-ज्यों सूर्यास्त होता जाता है, त्यों-त्यों जठराग्नि मंद होती जाती है। देर रात्रि को भोजन करने वाले को मोटापा, थकान और सुस्ती घेर लेती है।

जिस कमरे में सूर्य की रोशनी अच्छी तरह से आती हो उस कमरे में शयन करना चाहिए और रात्रि में सोते हैं तब खिड़की खुली रखें ताकि ताजी हवा ठीक से मिलती रहे।

परिश्रम करने वालों को कम से कम 6 घंटे नींद करनी चाहिए और अधिक-से-अधिक सात घंटे। दिन में ज्यादा सोना नहीं चाहिए। गर्मियों के दिन हैं, बुढ़ापा है अथवा रात्रि को नहीं सो पाये हैं उनके लिए ठीक है। बाकी आम आदमी यदि दिन में सोयेगा तो त्रिदोष बढ़ेगा, मोटापा थकान, आलस्य और रोग बढ़ेंगे।

रात्रि को सोते समय पूर्व अथवा दक्षिण की तरफ सिरहाना होना चाहिए। पश्चिम अथवा उत्तर की तरफ सिर रखकर सोने से हानि होती है।

रात को सोते समय थके-माँदे होकर नमक के बोरे की नाईं मत गिरो। जब आप सोने की जगह पर जाते हो तो ईश्वर से प्रार्थना करो कि ‘हे प्रभु ! दिन भर में जो अच्छे काम हुए वह तेरी कृपा से हुए प्रभु!’ और कुछ गलत काम हो गये तो उस पर नजर डालो एवं प्रार्थना करो कि ‘हे प्रभु ! मुझे बचा ले। बुरे कर्म की आदत हो गयी है, वासना हो गयी है। तू बचा ले। आज का दिन जैसा भी हो गया तेरे चरणों में अर्पण है। कल से कोई बुरे कर्म न हों केवल अच्छे कर्म ही हों…. हे प्रभु ऐसे कर्म हों जिनसे तू प्रसन्न हो, तुझमें प्रीति बढ़े, कर्त्ताभाव मिटे तुझमें शांति मिले और हम तुझसे दूर नहीं, जुदा नहीं। इस असलियत का ज्ञान हो जाये ऐसी कृपा करना। ॐ शांति…. ॐ शांति.. ‘ ऐसा करके लेट जायें। श्वास अंदर जाता है शांति, बाहर आता है 1, अंदर जाता है ॐ, बाहर आये 2, अंदर आनंद या गुरुमंत्र या इष्टमंत्र बाहर 3, इस प्रकार श्वासोच्छवास की गिनती करते-करते सो जायें।

मैं सच कहता हूँ आपकी नींद प्रभुमय, शांतिमय योगनिद्रा हो जायेगी और उठोगे तब भी भक्तिमय होकर उठोगे। आज तक आप जैसे उठते थे उससे अलग स्वभाव और मधुरता से उठोगे। फिर सुबह जब उठो तब उस अंतर्यामी से हाथ मिलाकर उठना। ‘दायाँ मेरा, बायाँ तेरा… बिन फेरे हम तेरे प्रभु !’ इस प्रकार यह सरल स्वभाव की भगवान की भक्ति बेड़ा तारने वाली है।

विवाह करें लेकिन संयम से हें। पूनम अमावस, एकादशी, जन्मदिवस, श्राद्ध के दिनों में और पर्व तथा त्यौहार के दिनों में संसार-व्यवहार न करें। पत्नी रजस्वला हो, बीमार हो अथवा पति बीमार हो, दोनों में से किसी ने व्रत-उपवास किया हो, भूखे पेट हों, तब भी संसार व्यवहार नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार की बातें पहले लोग गुरुकुल में सीखकर आते थे तो कितने तंदुरुस्त रहते थे। अभी तो दे धमाधम…. इतनी  अस्पतालें बन रही हैं फिर भी घर-घर में बीमारी। अतः स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन, सम्मानित जीवन जीने का……

लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल।

मंजिल तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

साँईं श्री लीलाशाहजी उपचार केन्द्र, संत श्री आसाराम जी आश्रम

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 28-30, अंक 109

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विवेक का चश्मा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

सुनी है एक कथाः

एक ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजरा। बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया किन्तु किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अऩ्न नहीं दिया। आखिर दोपहर हो गयी। ब्राह्मण दुःखी होकर अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा थाः “कैसा मेरा दुर्भाग्य है ! इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक न मिला ? टिक्कड़ बना कर खाने के लिए दो मुट्ठी आटा तक न मिला ?”

इतने में एक संत की निगाह उस पर पड़ी। उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली। वे बड़े पहुँचे हुए संत थे। उन्होंने कहाः

“ब्राह्मण ! तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?”

ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन् ! आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है।”

संतः “नहीं ब्राह्मण ! मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं। अभी भी वे पुराने संस्कारों में जी रहे हैं। कोई शेर के चोले से आया है तो कोई बघेरे के चोले से आया है, कोई हिरण के चोले से आया है तो कोई गाय या भैंस के चोले से आया है। उनकी आकृति मानव-शरीर की जरूर है किन्तु अभी तक उनमें मनुष्यत्व निखरा नहीं है और जब तक मनुष्यत्व नहीं निखरता, तब तक दूसरे मनुष्य की पीड़ा का पता नहीं चलता।…. ‘दूसरे में भी मेरा ही दिलबर ही है’ यह ज्ञान नहीं होता। तुमने मनुष्यों से नहीं, पशुओं से भिक्षा माँगी है।”

ब्राह्मण का चेहरा चुगली खा रहा था। ब्राह्मण का चेहरा इन्कार की खबरें दे रहा था। सिद्धपुरुष तो दूरदृष्टि के धनी होते हैं। उन्होंने कहाः “देख ब्राह्मण ! मैं तुझे यह चश्मा देता हूँ। इस चश्मे को पहन कर जा और कोई भी मनुष्य दिखे, उससे भिक्षा माँग। फिर देख, क्या होता है।”

ब्राह्मण जहाँ पहले गया था, वहीं पुनः गया। योगसिद्ध कला वाला चश्मा पहनकर गौर से देखाः ‘ओहोऽऽऽऽ…. वाकई कोई बिलार है तो कोई बघेरा है। आकृति तो मनुष्य की है लेकिन संस्कार पशुओं के हैं। मनुष्य होने पर भी मनुष्यत्व के संस्कार नहीं हैं।’ घूमते-घूमते वह ब्राह्मण थोड़ा सा आगे गया तो देखा कि एक मोची जूते सिल रहा है। ब्राह्मण ने उसे गौर से देखा तो उसमें मनुष्यत्व का निखार पाया।

ब्राह्मण ने उसके पास जाकर कहाः “भाई ! तेरा धंधा तो बहुत हल्का है औऱ मैं हूँ ब्राह्मण। रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड को बड़ी चुस्ती से पालता हूँ। मुझे बड़ी भूख लगी है लेकिन तेरे हाथ का नहीं खाऊँगा। फिर भी मैं तुझसे माँगता हूँ क्योंकि मुझे तुझमें मनुष्यत्व दिखा है।”

उस मोची की आँखों से टप-टप आँसू बरसने लगे। वह बोलाः “हे प्रभु ! आप भूखे हैं ? हे मेरे रब ! आप भूखे हैं ? इतनी देर आप कहाँ थे ?”

यह कहकर मोची उठा एवं जूते सिलकर टका, आना-दो आना वगैरह जो इकट्ठे किये थे, उस चिल्लर (रेज़गारी) को लेकर हलवाई की दुकान पर पहुँचा और बोलाः “हे हलवाई ! मेरे इन भूखे भगवान की सेवा कर लो। ये चिल्लर यहाँ रखता हूँ। जो कुछ भी सब्जी-पराँठे-पूरी आदि दे सकते हो, वह इन्हें दे दो। मैं अभी जाता हूँ।”

यह कहकर मोची भागा। घर जाकर अपने हाथ से बनाई हुई एक जोड़ी जूती ले आया एवं चौराहे पर उसे बेचने के लिए खड़ा हो गया।

उस राज्य का राजा जूतियों का बड़ा शौकीन था। उस दिन भी उसने कई तरह की जूतियाँ पहनीं किंतु किसी की बनावट उसे पसंद नहीं आयी तो किसी का नाप नहीं आया। दो-पाँच बार प्रयत्न करने पर भी राजा को कोई पसंद नहीं आयी तो मंत्री से क्रुद्ध होकर बोलाः “अगर इस बार ढंग की जूती लाया तो जूती वाले को इनाम दूँगा और ठीक नहीं लाया तो मंत्री के बच्चे ! तेरी खबर ले लूँगा।”

दैवयोग से मंत्री की नज़र इस मोची के रूप में खड़े असली मानव पर पड़ गयी, जिसमें मानवता खिली थी, जिसकी आँखों में कुछ प्रेम के भाव थे, चित्त में दया-करूणा थी, गुरुओं के संग का थोड़ा रंग लगा था। मंत्री ने मोची से जूती ले ली एवं राजा के पास ले गया। राजा को वह जूती एकदम ‘फिट’ आ गयी, मानो वह जूती राजा के नाप की ही बनी थी। राजा ने कहाः “ऐसी जूती तो मैंने पहली बार ही पहन रहा हूँ। किस मोची ने बनाई है यह जूती ?”

मंत्री बोला ! “हुजूर ! यह मोची बाहर ही खड़ा है।”

मोची को बुलाया गया। उसको देखकर राजा की भी मानवता थोड़ी खिली। राजा ने कहाः “जूती के तो पाँच रूपये होते हैं किन्तु यह पाँच रूपयों वाली नहीं, पाँच सौ रूपयों वाली जूती है। जूती बनाने वाले को पाँच सौ और जूती के पाँच सौ, कुल एक हजार रूपये इसको दे दो।”

मोची बोलाः “राजा साहिब ! तनिक ठहरिये। यह जूती मेरी नहीं है, जिसकी है उसे मैं अभी ले आता हूँ।”

मोची जाकर विनयपूर्वक ब्राह्मण को राजा के पास ले आया एवं राजा से बोलाः “राजा साहब ! यह जूती इन्हीं की है।”

राजा को आश्चर्य हुआ ! वह बोलाः “यह तो ब्राह्मण है ! इसकी जूती कैसे ?”

राजा ने ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण ने कहाः “मैं तो ब्राह्मण हूँ। यात्रा करने निकला हूँ।”

राजाः “मोची ! जूती तो तुम बेच रहे थे। इस ब्राह्मण ने जूती कब खरीदी और बेची ?”

मोची ने कहाः “राजन् ! मैंने मन में ही संकल्प कर लिया था कि जूती की जो रकम आयेगी वह इन ब्राह्मणदेव की होगी। जब रकम इनकी है तो मैं इन रूपयों को कैसे ले सकता हूँ ? इसीलिए मैं इन्हें ले आया हूँ। न जाने किसी जन्म में मैंने दान करने का संकल्प किया होगा और मुकर गया होऊँगा, तभी तो यह मोची का चोला मिला है। अब भी यदि मुकर जाऊँ तो तो न जाने मेरी कैसी दुर्गति हो ? इसीलिए राजन् ! ये रूपये मेरे नहीं हुए। मेरे मन में आ गया था कि इस जूती की रकम इनके लिए होगी। फिर पाँच रूपये मिलते तो भी इनके होते और एक हजार मिल रहे हैं तो भी इनके ही हैं। हो सकता है मेरा मन बेईमान हो जाता। इसीलिए मैंने रूपयों को नहीं छुआ और असली अधिकारी को ले आया।”

राजा ने आश्चर्य चकित होकर ब्राह्मण से पूछाः “ब्राह्मण ! मोची से तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ?”

ब्राह्मण ने सारी आप बीती सुनाते हुए सिद्ध पुरुष के चश्मे वाली बात बतायी एवं कहाः “राजन् ! आपके राज्य में पशुओं के दीदार तो बहुत हुए लेकिन मनुष्यत्व का विकास इस मोची में ही नज़र आया।”

राजा ने कौतूहलवश कहाः “लाओ, वह चश्मा। जरा हम भी देखें।”

राजा ने चश्मा लगाकर देखा तो दरबारी वगैरह में उसे भी कोई सियार दिखा तो कोई हिरण, कोई बंदर दिखा तो कोई रीछ। राजा दंग रह गया कि यह तो पशुओं का दरबार भरा पड़ा है ! उसे हुआ कि ये सब पशु हैं तो मैं कौन हूँ ? उसने आईना मँगवाया एवं उसमें अपना चेहरा देखा तो शेर ! उसके आश्चर्य की सीमा न रही ! ‘ ये सारे जंगल के प्राणी और मैं जंगल का राजा शेर ! यहाँ भी इनका राजा बना बैठा हूँ !’ राजा ने कहाः “ब्राह्मणदेव ! योगी महाराज का यह चश्मा तो बड़ा गज़ब का है ! वे योगी महाराज कहाँ होंगे ?”

ब्राह्मणः “वे तो कहीं चले गये। ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही और बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।”

श्रद्धावान ही ऐसे महापुरुषों से लाभ उठा पाते हैं, बाकी तो जो मनुष्य के चोले में पशु के समान हैं वे महापुरुष के निकट रहकर भी अपनी पशुता नहीं छोड़ पाते।

ब्राह्मण ने आगे कहाः ‘राजन् ! अब तो बिना चश्मे के भी मनुष्यत्व को परखा जा सकता है। व्यक्ति के व्यवहार को देखकर ही पता चल सकता है कि वह किस योनि से आया है। एक मेहनत करे और दूसरा उस पर हक जताये तो समझ लो कि वह सर्पयोनि से आया है क्योंकि बिल खोदने की मेहनत तो चूहा करता है लेकिन सर्प उसको मारकर बल पर अपना अधिकार जमा बैठता है।”

अब इस चश्मे के बिना भी विवेक का चश्मा काम कर सकता है और दूसरे को देखें उसकी अपेक्षा स्वयं को ही देखें कि हम सर्पयोनि से आये हैं कि शेर की योनि से आये हैं या सचमुच में हममें मनुष्यता खिली है ? यदि पशुता बाकी है तो वह भी मनुष्यता में बदल सकती है। कैसे ?

तुलसीदाज जी ने कहा हैः

बिगड़ी जनम अनेक की सुधरे अब और आजु।

तुलसी होई राम को रामभजि तजि कुसमाजु।।

कुसंस्कारों को छोड़ दें… बस। अपने कुसंस्कार आप निकालेंगे तो ही निकलेंगे। अपने भीतर छिपे हुए पशुत्व को आप निकालेंगे तो ही निकलेगा। यह भी तब संभव होगा, जब आप अपने समय की कीमत समझेंगे। मनुष्यत्व आये तो एक-एक पल को सार्थक किये बिना आप चुप नहीं बैठेंगे। पशु अपना समय ऐसे ही गँवाता है। पशुत्व के संस्कार पड़े रहेंगे तो आपका समय बिगड़ेगा। अतः पशुत्व के संस्कारों को आप निकालिये एवं मनुष्यत्व के संस्कारों को उभारिये। फिर सिद्धपुरुष का चश्मा नहीं, वरन् अपने विवेक का चश्मा ही कार्य करेगा और इस विवेक के चश्मे को पाने की युक्ति मिलती है सत्संग से।

मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता।

बिन मानवता के मानव भी, पशुतुल्य रह  जाता।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 18-20, अंक 109

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भारत का इतिहास


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

हमारी संस्कृति के पाँच स्तम्भों में उसका इतिहास विशिष्ट है।

432000 वर्ष का कलियुग, 864000 वर्ष का द्वापर युग, 1326000 वर्ष का त्रेता युग, 1728000 वर्ष का सतयुग होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4320000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी पूरी होती है। ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वन्तर और ऐसे 14 मन्वन्तर बीतते हैं तब एक कल्प होता है अर्थात् करीब एक हजार चतुर्युगी बीतती हैं तब एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे ब्रह्माजी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष के प्रथम दिन के दूसरे प्रहर में है अर्थात् सातवाँ मन्वन्तर, अट्ठाइसवीं चतुर्युगी, कलियुग का प्रथम चरण और उसके भी 5227 वर्ष बीत चुके हैं।

ऐसा इतिहास दूसरी किस संस्कृति में है ?

श्राद्ध, पितृलोक और स्वर्गलोक की खोज हमारी संस्कृति के उपासकों ने की है।

अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस जन्मा भी नहीं था उससे भी करीब 5000 वर्ष पहले भारत का वीर अर्जुन स्वर्ग से दिव्यास्त्र ले आया था, यह तो यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। उससे भी वर्षों पहले खटवाँग, मुचकन्द आदि राजा स्वर्ग जाकर आ चुके थे।

एक ऐसा जमाना था जब आपके देश भारत में लोग सोने की थालियाँ एवं कटोरियों में भोजन किया करते थे एवं सोने के प्यालों में पानी पीते थे। युधिष्ठिर महाराज यज्ञ करते तब हाथ जोड़कर साध-ब्राह्मणों से प्रार्थना करके कि ‘हे ब्राह्मणों ! आपको जिस सोने की थाली-कटोरी एवं प्याले में भोजन परोसा गया है उन्हें आप दक्षिणा के रूप में स्वीकार करके घर ले जायें।’

कुछ साधु-ब्राह्मण दक्षिणा के रूप में सोने के बर्तन ले जाते तो कुछ कहते कि ‘हम आत्महीरा सँभालेंगें कि तुम्हारे इन ठीकरों को ?’ और वे उन्हें छोड़कर चले जाते। ऐसे थे, आपके भारत के साधु पुरुष !

धीरे-धीरे बाहरी लोग आकर भारत को लूटते चले गये। पहले तो फेरीवाले बोलते थेः ‘देना हो तो दे दो सोने-चाँदी के टूटे-फूटे बर्तन !’

किन्तु लोग लुट गये तो फिर आवाज बदलीः ‘देना हो तो दो ताँबे-पीतल के पुराने बर्तन !’ आज से 45-50 वर्ष पहले जब हम बालक थे, तब यह आवाज सुनते थे। किन्तु आज हमारे बच्चे सुनते हैं- ‘देना है तो दो प्लास्टिक के पुराने जूते चप्पल !’

हम बालक थे तो सौ रूपयों में एक माह तक पूरे कुटुम्ब का भरण-पोषण मजे से हो जाता था। और आज…. दो हजार रूपये मासिक कमाने वाले लोग बेचारे कैसे जीते होंगे, यह पचीस हजार रूपये मासिक कमाने वालों को क्या पता ? अपने गाल में थप्पड़ मारकर, गाल लाल करके मध्यम वर्ग जी रहा है बेचारा। बेटे-बेटियों की शादी में तो माँ बाप बेचारे गिरवी रखा गये हों, ऐसी उनकी दशा हो जाती है। जिन्होंने परदेश में रूपयों की थप्पियाँ जमाकर रखी हों उऩ्हें इस बात का क्या पता चले ? अथवा जिनको देश में ही ऊँचा पद एवं ऊँची कमाई हो उन्हें भी क्या पता चले ? धन वैभव तो विदेशी लूट गये, राजनीति की समझ भी लूट गये तभी तो हमारे अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजा जाता है। मानों, अपने देश में सब नष्ट हो चुका है। पहले राजकुमारों को किन्ही ऋषिद्वार या संतद्वार पर भेजते थे और अब अधिकारियों को शोषकों के यहाँ भेजा जाता है।

फिर भी एक बात की खुशी है कि हमारा देश कृषि प्रधान, भावना प्रधान, सहिष्णुता प्रधान तो है ही, साथ ही उसमें एक बड़ा सदगुण यह भी है कि पड़ोसी के प्रति उसका हाथ  उदार है। पर्व-त्यौहार पर गरीब-गुरबों को भी कुछ-न-कुछ देने की भावना है भारतवासियों में। और दूसरा भी एक बड़ा गुण है हमारे देश का कि हमारे पास भगवद् भक्ति का पाथेय है। चित्त की शांति, प्रसन्नता बनी रहे एवं आरोग्यशक्ति मिलती रहे ऐसे शुभ संस्कारों को अभी तक हमने खोया नहीं है। इन संस्कारों को वे लोग नहीं लूट पाये। हमारे भक्ति, ज्ञान, एवं धर्म के संस्कारों को कोई लूट नहीं पाया।

वे ही शुभ संस्कार प्रत्येक भारतवासी में ज्यादा से ज्यादा फले फूलें तो बाह्य रूप से भी हम पुनः पहले की तरह सुखी एवं समृद्ध हो सकते हैं, अपनी खोयी हुई गरिमा को पुनः लौटा सकते हैं। जागो, भारतवासियो ! जागो !!

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 109

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