Monthly Archives: June 2017

आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा का विषय है-पूज्य बापू जी


जो लोग कैसेटों के द्वारा सोफा पर बैठे-बैठे जूते पहन के घुटने हिलाते-हिलाते चाय या कॉफी की चुस्की लेते हुए सत्संग सुनते हैं, वे नहीं सुनने वालों की अपेक्षा तो अच्छे है, ठीक है, उन्हें धन्यवाद है लेकिन आदरपूर्वक और गुरुओं का सान्निध्य पाकर जो सत्संग सुना जाता है और पचाया जाता है, उसका प्रभाव निराला होता है। पहले के जमाने में विद्यार्थी बड़े-बड़े प्रमाणपत्रों के पीछे नहीं पड़ते थे, गुरुओं के सान्निध्य में रहते थे। प्रतिकूलता में भी प्रसन्न और अनुकूलता में अनासक्त रहकर अपने आत्मस्वरूप के चिंतन व आत्मस्वभाव में निमग्न रहते हुए परमानंद का प्रसाद पा लेते थे। और प्रमाणपत्र क्या थे ? कि ‘यह फलाने महापुरुष का शिष्य….।’ वही पहचान होती थी। आज विद्यार्थी नाम रखा गया किंतु रोटी-अर्थी हो गये बस, प्रमाणपत्रार्थी हो गये।

आप गाना तो रेडियो से सीख सकते हैं लेकिन संगीतज्ञ रेडियो के द्वारा नहीं होंगे। किसी उस्ताद के पास सीखेंगे, उसकी हाँ से हाँ मिलाकर ताल से ताल मिलायेंगे, उतार-चढ़ाव आदि सीखेंगे तब संगीतज्ञ होंगे। ऐसे ही सूचनाएँ अथवा किस्से-कहानियाँ और कथाएँ सुनकर थोड़ा पुण्य तो आप घर बैठे पा सकते हैं लेकिन अंतःकरण उँडेल दे ऐसा वातावरण और ऐसी योग्यता तो व्यासपूर्णिमा जैसे उत्सवों और ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सान्निध्य द्वारा ही प्राप्त होती है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा राजपाट छोड़कर सिर में खाक डाल के हाथ में भिक्षापात्र लिये गुरुओं के द्वार खटखटाते थे। अध्यात्म मार्ग के पथिकों को, जिज्ञासुओं को समर्थ सदगुरु की खोज करनी चाहिए और ईश्वर से आर्तभाव से प्रार्थना करनी चाहिए, जिससे ईश्वरानुग्रह से सदगुरु की प्राप्ति हो जाय। क्योंकि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष भगवत्कृपा से ही प्राप्त होते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा का विषय है। यह ज्ञान सदगुरु द्वारा शिष्य को प्रदान किया जाता है।

हमारा इतिहास बड़ा पुराना है, बहुत ऊँचा है। भगवान आदिनारायण की नाभि से ब्रह्माजी और ब्रह्मा जी से ऋषि-मुनि….. ऐसे करते-करते भगवान वेदव्यासजी और वेदव्यासजी के सुपुत्र, सत्शिष्य शुकदेव जी और शुकदेव जी के सत्शिष्य गौड़पादाचार्य, गौड़पादाचार्य के सत्शिष्य गोविंदपादाचार्य, गोविंदपादाचार्य के आद्य शंकराचार्य और शंकराचार्य ने दसनामियों की स्थापना की- गिरी, पुरी, सरस्वती आदि। इन साधु संतों में से दादू दयाल सम्प्रदाय के अमुक संत, उनमें से अमुक संत…. और उनके सत्शिष्य स्वामी केशवानंद जी और केशवानंद जी के सत्शिष्य लीलाशाह जी बापू और लीलाशाहजी बापू के हम – यह अनादिकाल से चली आ रही गुरु-शिष्य परम्परा की, ब्रह्म-परमात्मा से जुड़ी हुई बात है।

यह ज्ञान कोई किताबों से नहीं आता, किताबों से सूचनाएँ मिल जाती हैं, शब्दजाल मिल जाता है लेकिन ज्ञान तो…. ज्योति से ज्योति जगती है। दीया भी है, तेल भी है, बाती भी है लेकिन जले हुए दीये के सम्पर्क में जब तक वह अनजला दीया नहीं आया तब तक प्रकाश नहीं होता है। श्रीकृष्ण के सान्निध्य से अर्जुन को हृदय प्रकाश हुआ और अर्जुन, जो विषादयोग में पड़ा था, कई संदेहों में पड़ा था, गीता ने उसको कर्म करते हुए निर्लेप बना दिया। यह ब्रह्मविद्या है। इस विद्या की जितनी सराहना करो, इस विद्या के लिए जितनी कुछ समय-शक्ति लगाओ उतनी कम है। इस विद्या के विषय में बोलने वाले संत जितना भी बोलते हैं, लगता है कि कम है, कम है…. अभी और ……।

अजब राज है मोहब्बत के फसाने का।

जिसको जितना आता है, गाये चला जाता है।।

इस ब्रह्मविद्या के उपदेश, सत्संग से इतना ज्ञान, शांति, माधुर्य मिलता है तो यह जीव अगर आत्मानुभूति की यात्रा की पूर्णता तक पहुँच जाय तो कितना कुछ होता होगा ! और चाहे किसी भी जाति या समाज का, किसी भी उपलब्धिवाला व्यक्ति हो, देर-सवेर उसको आत्मज्ञान तो पाना ही पड़ेगा। उसके सिवाय तो जन्मो-मरो, इकट्ठा करो, बस। ‘मेरा बेटा, यह, वह….’ कर कराके रखा। मृत्यु का झटका लगा, सब पराया हुआ, फिर गये लोक-लोकान्तर में झख मार के। फिर चन्द्रमा की किरणों से आकर अन्न में, फल में रहे। किसी ने वह खाया, फिर वह पुरुष के द्वारा नारी के शरीर में गया, गर्भ मिला तो ठीक, न मिला तो नाली में बह गया। यह दुःख, दुर्भाग्य तो बना ही रहता है।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से

जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

जब तक ब्रह्म-परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा, तब तक दुःखों से पिंड नहीं छूट सकता, फिर चाहे आप स्वयं प्रधानमंत्री ही क्यों न बन जायें। सुविधाएँ तो मिल जायेंगी लेकिन सब दुःखों का अंत न हो सकेगा। समस्त दुःखों का अंत तो तभी होगा जब ब्रह्म-परमात्मा का ज्ञान पाओगे, अपने आत्मस्वरूप को पहचानोगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

महात्मा भूरीबाई को कैसे हुआ आत्मज्ञान ?


संवत 1941 आषाढ़ शुक्ल 14 (9 जुलाई 1892) को सरदारगढ़ (उदयपुर, राज.) में रूपाजी सुथार व केसरबाई के घर एक कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया भूरीबाई। भूरीबाई में अपने माता-पिता के प्रति दयालुता, धर्मप्रियता, ईश्वरभक्ति जैसे दैवी गुण बचपन से ही आ गये थे। 13 वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया। इनके पति श्वासरोग के कारण कुछ ही समय में संसार से चल बसे। पतिदेव की पूर्व आज्ञानुसार भूरी बाई उनके देहांत के बाद घर में रहते हुए ही साध्वी बन गयीं।

सदगुरु प्राप्ति व अज्ञान निवृत्ति

भूरी बाई भोजन व निद्रा में खूब संयम रखतीं। दिनों दिन उनकी भगवत्भक्ति बढ़ती गयी। साधना की सफलता अर्थात् भगवत्प्राप्ति हेतु जीवन में कोई समर्थ मार्गदर्शक न होने की उनके हृदय में गहरी पीड़ा थी। इससे वे सदगुरु-प्राप्ति की तड़प से व्याकुल होकर एकांत में बैठ के घंटों तक रुदन करती थीं। ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के बिना भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग कौन दिखा सकता है ! संत टेऊँराम जी ने कहा हैः

गुरु बिन रंग न लागहीं, गुरु बिन ज्ञान न होय।

कहें टेऊँ सतगुरु बिना, मुक्ति न पावे कोय।।

गुरु बिन प्रेम न उपजे, गुरु बिन जगे न भाग।

कहे टेऊँ तांते सदा, गुरु चरनों में लाग।।

सदगुरु का संग माँग और पूर्ति का प्रश्न है। अगर सच्चे हृदय की माँग हो तो पूर्ति होकर ही रहती है, यह अटल नियम है। हृदयपूर्वक पुकार के फलस्वरूप एक दिन भूरी बाई को ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष चतुरसिंह जी महाराज के बारे में मालूम हुआ। वे उनका दर्शन-सत्संग प्राप्त करने हेतु उदयपुर पहुँच गयीं। बाई को साधना करते-करते 9 वर्ष बीत गये थे। सदगुरु ने उनकी साधना-संबंधी सारे बातें सुनीं व बताया कि “अभी आपको आत्मज्ञान नहीं हुआ है।”

भूरी बाई कहती हैं कि “यह सुनकर मुझे तब इतना गहरा आघात लगा, मानो शरीर पर तलवार चल गयी हो। अब तक यह अभिमान था कि ‘हम तो महात्मा, योगिनी हो गयी हैं’ और गुरु जी ने तो हमें अज्ञानी बता दिया !’ परंतु मन मानकर बाई बैठी रहीं। वे सोचने लगीं, ‘9 वर्ष की साधना धूल हुई !’

सदगुरु चतुरसिंह जी ने संत ज्ञानेश्वर जी की ‘अमृतानुभव’ टीका दी, जिसे पढ़ने पर बाई को स्वयं अनुभव होने लगा कि ‘वास्तव में अब तक मैं अज्ञान थी।’ सदगुरु ने कुछ सत्साहित्य भी उन्हें पढ़ने हेतु दिया। सदगुरु द्वारा रचित सत्साहित्य का स्वाध्याय किया तो उनको सदगुरु के वचनों का मर्म समझ में आने लगा।

संत भूरी बाई कहती हैं- “सदगुरु की कृपा व उनके उपदेश से मुझे तो तीसरे ही दिन आत्मज्ञान हो गया। कहीं भटकने की जरूरत नहीं, ठिकाने (अपने-आप में) बैठ जाने की ही बात है। सब कल्पना तत्काल मिट गयी। जगत है जैसा है, सार-असार कुछ भी नहीं। आत्मा का तीनों कालों में न कुछ बिगड़ा है न कुछ सुधारना है। इसलिए साधना-क्रम ही निरर्थक हो गया। अपार शांति अनुभव में आ गयी। आँख खुलते देर थोड़े ही लगती है ! अब तक साधना पर बल और हठयोग अभिमान था, जो पलभर में सदगुरु द्वारा ज्ञानयोग का महत्त्व समझ में आते ही हट गया। आत्मज्ञान हो गया।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरु और सदगुरु – पूज्य बापू जी


गुरु और सदगुरु में फर्क है। गुरु तो शिक्षक हो सकता है, मार्गदर्शक हो सकता है, केवल सूचनाएँ दे सकता है, किताबें पढ़ा सकता है, आत्मानुभव नहीं करा सकता है लेकिन सदगुरु बिना बोले भी सत्शिष्य को आत्मज्ञान का रहस्य समझा सकते हैं और सत्शिष्य बिना पूछे भी समझ सकता है।

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः।। (श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्- 12)

सदगुरु में वह प्रभाव होता है। साधक, शिष्य में से जब हम सत्शिष्य बनते हैं तब सदगुरु कभी-कभार मौन निगाह से भी हमारे प्रश्नों का उत्तर हमारे चित्त में भर देते हैं। शिष्य पूछता नहीं और सदगुरु बोलते नहीं फिर भी सत्शिष्य की शंकाओं का समाधान हो जाता है। ऐसे सदगुरुओं को जितना दो उतना कम है और जो भी श्रद्धा से दिया वह उनको बहुत लगता है। वे महापुरुष आत्मतृप्त होते हैं।

हम अपने को कृतघ्नता की खाई में न गिरायें इसलिए हम कुछ-न-कुछ देकर कृतज्ञता का एहसास करते हैं। जहाँ प्रेम होता है वहाँ दिया जाता है। अब तुम्हारे एक लोटे पानी की क्या आवश्यकता है शिवजी को ? लेकिन कुछ-न-कुछ दिये बिना संकल्प साकार नहीं होता, भाव उभरता नहीं। प्रेम दिये बिना मानता नहीं है और अहंकार लिये बिना मानता नहीं है।

यहाँ सदगुरु-शिष्य का संबंध लौकिक दिखते हुए भी उसमें अलौकिक प्रेम है, अलौकिक ज्ञान है, अलौकिक त्याग है। शिष्य अपने जीवन में से कुछ बचा-धचा के गुरु को अर्पण करता है। उनकी दैवी सेवा में तन-मन-धन से लग जाता है। और सदगुरु ने गुरु-परम्परा से जो अखूट खजाना पाया है उसे वे खुले हाथ लुटाने को दिन-रात तत्पर होते हैं, यहाँ दोनों का प्रेम और त्याग छलकता है।

शिष्य को ऐसा चाहिए कि गुरु को सब कुछ दे।

गुरु को ऐसा चाहिए कि शिष्य का कछु न ले।।

सदगुरु लेते हुए दिखते हैं लेकिन शिष्यों के लिए लगा देते हैं। लेते हैं तब भी उनकी पुण्याई के लिए और उससे व्यवस्था करते हैं तो उनकी आध्यात्मिक लक्ष्यप्राप्ति की यात्रा के लिए। ऐसे सदगुरु आत्मज्ञान के अथाह दरिया होते हैं। ऐसे सदगुरु शाब्दिक या स्कूली ज्ञान में चाहे अँगूठाछाप हों फिर भी आत्मज्ञान में व गुरुओं के गुरु हैं। संत कबीर जी जो बोले वह बीजक बन गया, रामकृष्ण जी जो बोले वह वचनामृत बन गया, नानक जी जो बोले हैं वह गुरुग्रंथ साहिब बन गया। ऐसे महापुरुष अनुभवसम्पन्न वाणी से बोलते हैं।

शिष्य वह है जो सदगुरु-ज्ञान को बढ़ाता है, सदगुरु के अनुभव को आत्मसात् करता है। सिद्धान्त आगे बढ़ता जाता है, प्रयोग चालू रखा जाता है… यही गुरुसेवा है। सदगुरु-पूजा सत्य की पूजा है, आत्मज्ञान अनुभव की पूजा है। जब तक मानव जात को सच्चे सुख की आवश्यकता है और सच्चे सुख का अनुभव कराने वाले सदगुरु जब तक धरती पर हैं, तब तक सदगुरुओं का आदर और पूजन होता ही रहेगा।

सदगुरु का पूजन, सदगुरु का आदर सत्यज्ञान एवं शाश्वत अनुभव का आदर है, मुक्ति का आदर है, अपने जीवन का आदर है। जो अपने मनुष्य जीवन का आदर करना नहीं जानता वह सदगुरु का आदर करना क्या जाने ! जो मनुष्यता की महानता नहीं जानता है वह सदगुरु की महानता क्या जाने ! सदगुरु आत्मज्ञान के लहराते सागर हैं और शिष्यरूपी चन्द्र को देखकर छलकते हैं। शिष्य निर्मलबुद्धि हो जाता है तो उसमें कोमलता आती है। निर्मल बुद्धि व शुद्ध हृदय में वह ज्ञान का जगमगाता प्रकाश, आनंद, नित्य रस प्रकट करने में सक्षम होता है।

बहिर्गुरु को इन आँखों से सब लोग देख सकते हैं लेकिन सत्शिष्य तो उपदेश के द्वारा, सुमिरन के द्वारा अंतर्गुरु की प्रतीति करके अपने चित्त को हँसते-खेलते पावन करने में सफल हो जाते हैं। बहिर्गुरु को तो शास्त्रों के द्वारा भी कोई समझ ले लेकिन अंतर्गुरु को तो शिष्य का अंतर ही समझ पाता है, झेल पाता है। जैसे एक बर्तन का शहद अथवा घी दूसरे बर्तन में उँडेला जाता है तो पहला बर्तन खाली सा हो जाता है लेकिन यह ज्ञान खाली नहीं होता। जला हुई दीया हजारों अनजले जीयों को जला के प्रकाशित कर दे तो भी जले हुए दीये का कुछ नहीं घटता है यह ऐसा आत्म-दीया है। संसारी दीये का तो तेल नष्ट हो जाता है लेकिन आत्मज्ञान दीये का कभी कुछ नष्ट नहीं होता। यह अविनाशी का आदर है, पूजन है। यह अविनाशी की प्यास जब तक मनुष्य चित्त में बनी रहेगी, तब तक गुरुपूर्णिमा महोत्सव मनाया जाता रहेगा और सदगुरुओं का आदर होता रहेगा।

‘गुरुपूर्णिमा उत्सव’ पूर्ण होने की खबर लाने वाला उत्सव है। यह व्रत है। सदगुरु पूजन किये बिना शिष्य अन्न नहीं खाता। शारीरिक पूजन करने का अवसर नहीं मिलता है तो मन से ही पूजन कर लेता है। षोडशोपचार से पूजा करने से जो पुण्य होता है उससे कई गुना ज्यादा मानस-पूजा का पुण्य कहा गया है। वह सत्शिष्य सदगुरु की मानस पूजा कर लेता है।

भावे ही विद्यते देवः।

लोहे की, काष्ठ या पत्थर की, मूर्ति में देव नहीं, तुम्हारा भाव ही तो देव है। सत्शिष्य अपने सदगुरु को मन ही मन पवित्र तीर्थों के जल से नहलाता। वस्त्र पहनाता है, तिलक करता है, पुष्पों की माला अर्पित करता है। सदगुरु के आगे कुछ-न-कुछ समर्पित करता है।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

गुरु, आचार्य अपनी-अपनी जगह पर आदर करने योग्य हैं लेकिन सदगुरु तो सदा पूजने योग्य हैं। सत्य का जिनको ज्ञान हो गया, परमात्मा का जिनको हृदय में साक्षात्कार हो गया वे सदगुरु हैं। संत कबीर जी कहते हैं-

कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।

यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।

सीस दिये सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 19,20 अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ