महात्मा भूरीबाई को कैसे हुआ आत्मज्ञान ?

महात्मा भूरीबाई को कैसे हुआ आत्मज्ञान ?


संवत 1941 आषाढ़ शुक्ल 14 (9 जुलाई 1892) को सरदारगढ़ (उदयपुर, राज.) में रूपाजी सुथार व केसरबाई के घर एक कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया भूरीबाई। भूरीबाई में अपने माता-पिता के प्रति दयालुता, धर्मप्रियता, ईश्वरभक्ति जैसे दैवी गुण बचपन से ही आ गये थे। 13 वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया। इनके पति श्वासरोग के कारण कुछ ही समय में संसार से चल बसे। पतिदेव की पूर्व आज्ञानुसार भूरी बाई उनके देहांत के बाद घर में रहते हुए ही साध्वी बन गयीं।

सदगुरु प्राप्ति व अज्ञान निवृत्ति

भूरी बाई भोजन व निद्रा में खूब संयम रखतीं। दिनों दिन उनकी भगवत्भक्ति बढ़ती गयी। साधना की सफलता अर्थात् भगवत्प्राप्ति हेतु जीवन में कोई समर्थ मार्गदर्शक न होने की उनके हृदय में गहरी पीड़ा थी। इससे वे सदगुरु-प्राप्ति की तड़प से व्याकुल होकर एकांत में बैठ के घंटों तक रुदन करती थीं। ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के बिना भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग कौन दिखा सकता है ! संत टेऊँराम जी ने कहा हैः

गुरु बिन रंग न लागहीं, गुरु बिन ज्ञान न होय।

कहें टेऊँ सतगुरु बिना, मुक्ति न पावे कोय।।

गुरु बिन प्रेम न उपजे, गुरु बिन जगे न भाग।

कहे टेऊँ तांते सदा, गुरु चरनों में लाग।।

सदगुरु का संग माँग और पूर्ति का प्रश्न है। अगर सच्चे हृदय की माँग हो तो पूर्ति होकर ही रहती है, यह अटल नियम है। हृदयपूर्वक पुकार के फलस्वरूप एक दिन भूरी बाई को ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष चतुरसिंह जी महाराज के बारे में मालूम हुआ। वे उनका दर्शन-सत्संग प्राप्त करने हेतु उदयपुर पहुँच गयीं। बाई को साधना करते-करते 9 वर्ष बीत गये थे। सदगुरु ने उनकी साधना-संबंधी सारे बातें सुनीं व बताया कि “अभी आपको आत्मज्ञान नहीं हुआ है।”

भूरी बाई कहती हैं कि “यह सुनकर मुझे तब इतना गहरा आघात लगा, मानो शरीर पर तलवार चल गयी हो। अब तक यह अभिमान था कि ‘हम तो महात्मा, योगिनी हो गयी हैं’ और गुरु जी ने तो हमें अज्ञानी बता दिया !’ परंतु मन मानकर बाई बैठी रहीं। वे सोचने लगीं, ‘9 वर्ष की साधना धूल हुई !’

सदगुरु चतुरसिंह जी ने संत ज्ञानेश्वर जी की ‘अमृतानुभव’ टीका दी, जिसे पढ़ने पर बाई को स्वयं अनुभव होने लगा कि ‘वास्तव में अब तक मैं अज्ञान थी।’ सदगुरु ने कुछ सत्साहित्य भी उन्हें पढ़ने हेतु दिया। सदगुरु द्वारा रचित सत्साहित्य का स्वाध्याय किया तो उनको सदगुरु के वचनों का मर्म समझ में आने लगा।

संत भूरी बाई कहती हैं- “सदगुरु की कृपा व उनके उपदेश से मुझे तो तीसरे ही दिन आत्मज्ञान हो गया। कहीं भटकने की जरूरत नहीं, ठिकाने (अपने-आप में) बैठ जाने की ही बात है। सब कल्पना तत्काल मिट गयी। जगत है जैसा है, सार-असार कुछ भी नहीं। आत्मा का तीनों कालों में न कुछ बिगड़ा है न कुछ सुधारना है। इसलिए साधना-क्रम ही निरर्थक हो गया। अपार शांति अनुभव में आ गयी। आँख खुलते देर थोड़े ही लगती है ! अब तक साधना पर बल और हठयोग अभिमान था, जो पलभर में सदगुरु द्वारा ज्ञानयोग का महत्त्व समझ में आते ही हट गया। आत्मज्ञान हो गया।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 294

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