परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू
जितने बड़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है। मन एक शक्तिशाली शत्रु है। उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है। मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान हो जाता है।
ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
ʹहे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।ʹ (गीताः 6.34)
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
ʹहे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचलच और कठिनता से वश में होने वाला है। परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में निथ्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है।ʹ (गीताः6.35)
जो लोग वैराग्य का ही सहारा लेते हैं, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं। मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी। गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य… किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य… चले गये गंगा किनारे…. वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास में न रखा…. भिक्षा माँगकर खा ली…. फिर अभ्यास नहीं किया। …तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है।
अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है। अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ʹमैं त्यागी हूँ…ʹ ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है। ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है। इसीलिए भगवान कहते हैं-
अभ्यासेनच तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
अभ्यास की बलिहारी हैं क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है। जैसे साइकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे ʹसेटʹ करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाये तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है।
साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं। कोई ज्ञानमार्गी है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है, तो कोई योगमार्गी होता है। सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग।
निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये-इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ʹशरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है। वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यही रहेंगी… जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ…ʹ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासनिक सुख का एहसास कर सकता है।
भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः “अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं। मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी ? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की ?ʹ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है।
योगी प्रतिदिन नियत समय पर धारणा-ध्यान समाधि का अभ्यास करे तो उसका विवेक जगता है। विवेक जगता है तब संसार के भोगों के प्रति वैराग्य आता है। विवेक-वैराग्य के उदय होने से आत्मा-परमात्मा की अनुभूति करने की योग्यता विकसित हो जाती है।
ऐसे ही ज्ञानमार्ग का साधक अभ्यास करे किः ʹजो कुछ दिख रहा है वह भगवान की आह्लादिनी शक्ति की, प्रकृति की लीला है। जो कुछ दिखता है वह सब माया है। अस्ति, भाति, प्रिय.. इसमें चैतन्य की सत्ता है और सब नाम-रूप माया है। संसार के व्यवहार एवं मन-बुद्धि के जगत में उलझना मेरा कर्त्तव्य नहीं है। मन के फुरने और जगत के व्यवहार भिन्न-भिन्न होते हैं लेकिन उनकी गहराई में उनका दृष्टा, साक्षी, अभिन्न आत्मा मैं हूँ।ʹ
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कुण्डलिनी योग… चाहे कोई भी योग क्यों न हो, अभ्यास की आवश्यकता तो सबमें है। यदि आत्माभिमुख होने का अभ्यास है तो फिर बाह्य वातावरण चाहे कैसा भी विलासी लगता हो, पर मनुष्य भीतर से परमात्मा में गोता मार सकता है। यदि अभ्यास की तीव्रता नहीं हो तो फिर मनुष्य सब छोड़कर गंगा-यमुना किनारे चला जाये फिर भी परमात्म-तत्त्व में विश्रान्ति पाना उसके लिए कठिन हो जाता है।
चैतन्य महाप्रभु का एक प्यारा शिष्य था-पुण्डरीक। उस पुण्डरीक को देखकर दूसरे शिष्यों के मन में हुआः ʹगुरु महाराज इसको देखकर विशेष छलकते हैं, प्रसन्न होते हैं। चलो, आज इसके घर चलें।ʹ
पुण्डरीक के घर गदाधर और मुकुन्द नाम के दो गुरुभाई गये। उस समय पुण्डरीक अपने घर पर एक सुन्दर, सुसज्जित शैया पर आराम कर रहा था। कमरा भी इस तरह सजा हुआ था कि मानो, किसी अति विलासी करोड़ाधिपति व्यक्ति का हो। कमरा देखकर गदाधर को हुआः ʹयह चैतन्य महाप्रभु का शिष्य़ कैसे ? यह तो अति विलासी आदमी लग रहा है !ʹ मुकुन्द को हुआः ʹपुण्डरीक सो रहा है.. बाहर से तो वह विलासी वातावरण में दिख रहा है किन्तु चैतन्य महाप्रभु विलासी आदमी से प्यार नहीं करने। भीतर से जरूर भगवान में इसकी प्रीति होगी।ʹ ऐसा मन में सोचते हुए मुकुन्द ने ʹहरि बोल…. हरि बोल….ʹ की मधुर ध्वनि चालू की।
पुण्डरीक की नींद खुल गयी और वह कूदकर पलंग से उतरा। उसकी आँखें बंद हो गयीं और वह भावविभोर होकर हरि नाम कीर्तन में तल्लीन हो गया। यह उसके अभ्यास का ही तो परिणाम था !
विक्रम संवत 1100 के इर्द-गिर्द की घटना हैः आचार्य श्रीधर स्वामी बड़े प्रसिद्ध संत हो गये हैं, जिन्होंने श्रीमद् भगवद् गीता पर टीका भी लिखी है।
उनका जन्म दिवस किस कुल में हुआ था, उसका पता नहीं है। बाल्यकाल में उनका मस्तिष्क पूर्ण विकसित नहीं हुआ था। अपनी किशोरावस्था में वे एक तुच्छ पात्र में तेल लिये हुए कहीं जा रहे थे। उसी समय उस राज्य के राजा और वजीर भगवान की कृपा के विषय में परस्पर चर्चा करते हुए सरिता के किनारे टहल रहे थे।
मंत्री का कहना था कि अगर भगवान रहमत कर दे, भगवद्-भक्ति का अभ्यास हो जाये तो बुद्धु से बुद्धु आदमी भी चतुन बन सकता है, निर्धन से निर्धन आदमी बड़े धन को पा सकता है, बाहर से निर्धन सा दिखाई देता व्यक्ति भी बड़े धनवानों को दान कर सकता है, निरक्षर होते हुए भी साक्षरों को पढ़ा सकता है, अपरिचित होते हुए भी बड़े-बड़े परिचितों को मार्गदर्शन कर सकता है।
जीवन में ईश्वर-चिंतन का अभ्यास अगर आ जाय तो आदमी का भाग्य बदल जाय। फिर कैसी परिस्थिति में वह पैदा हुआ है इसका महत्त्व नहीं है वरन् अभी उसको कैसा वातावरण मिला है उसका महत्त्व है। उसके पास कितना धन-वैभव है उसका महत्त्व नहीं है वरन् अभी उसका संग कैसा है उसका महत्त्व है।
राजा ने कहाः “यह कैसे हो सकता है अयोग्य योग्य हो जाये ? अगर भगवान का भजन करने से अयोग्य भी योग्य हो सकता है तो यह लड़का जो अयोग्य पात्र में तेल लिये जा रहा है बड़ा मूर्ख लग रहा है, क्या यह योग्य हो सकता है ?”
वजीरः “अगर इसको भगवान के भजन का रंग लगा दिया जाय, भजन के अभ्यास में प्रीति करा दी जाये तो यह भी योग्य हो सकता है।”
दैवयोग कहो, भगवान की लीला कहो अथवा श्रीधर का प्रारब्ध कहो… उस बच्चे को राज्य की तरफ से भगवान की भक्ति का रंग लगा दिया गया।
अभ्यास करते-करते उस बालक का चित्त भगवान की भक्ति से रंग गया। समय बीतता गया, योग्यता विकसित होती गयी और वही बालक आगे चलकर श्रीधर स्वामी के रूप में पहचाना जाने लगा।
समय आने पर उनका विवाह हो गया। शादी के पश्चात वे गृहस्थी की गाड़ी चलाने लगे। वे गीता, भागवत, पुराण आदि का नित्य पाठ व स्वाध्याय करते थे। समय पाकर उनकी पत्नी गर्भवती हुई किन्तु शिशु को जन्म देते ही वह परलोक सिधार गयी। श्रीधर स्वामी को हुआ किः ʹचलो, अच्छा हुआ। भगवान ने पत्नी को अपने चरणों में बुलाकर मुझे भजन करने का मौका दे दिया।ʹ
अब वे अपनी दैनिक प्रवृत्ति करते हुए शिशु का पालन करने लगे। किन्तु धीरे-धीरे अभ्यास का इतन बल बढ़ा कि शिशु को पालना-पोसना भी अब उन्हें भारी लगने लगा। वे विचारने लगेः ʹएक शिशु के कारण मैं अपना ध्यान भजन, एकांत, समाधि छोड़ दूँ ?ʹ अभ्यास की तीव्रता से वैराग्य ने जोर पकड़ा और उन्होंने सोचाः ʹशिशु को छोड़कर चला जाऊँ।ʹ अब बालक को छोड़कर वे संन्यास लेने के लिए काशी की ओर प्रस्थान करने को उद्यत हुए। फिर उऩके मन में आयाः ʹइस नन्हें से शिशु को घर में अकेला छोड़कर जा रहा हूँ… इसकी माँ चल बसी है तो क्या हुआ?ʹ किन्तु अभ्यास ने कहाः ʹमाँ चल बसी है तो क्या हुआ ? कई जन्मों में इसकी कितनी ही माताएँ हुई होंगी ? कितने ही पिता बने होंगे ? सच्चे पिता तो सबकी रखवाली करते हैं फिर क्यों तू ʹअपना बेटाʹ करके फँसता है ?ʹ
इतने में वहाँ एक घटना घटी। छत पर से लुढ़कता हुआ एक अण्डा गिरा और वह फूट गया। उसमें से पक्षी के बच्चे ने चोंच बाहर निकाली। वह भूख के कारण गर्दन हिलाने लगा। इतने में अण्डे से जो रस निकला उस चिकनाहट में एक मक्खी आकर फँसी जिसे उस नवजात बच्चे ने अपनी चोंच में ले लिया।
श्रीधर स्वामी को हुआः ʹएक पक्षी के बच्चे के जीवन को बचाने के लिए परमात्मा की इतनी व्यवस्था है तो क्या मनुष्य के शिशु की रखवाली वह नहीं करेगा ?ʹ वे शिशु को छोड़कर चल दिये। फिर तो उस शिशु का ऐसा सुंदर लालन-पालन हुआ कि पहले तो केवल एक पिता ही उसे स्नेह करता था किन्तु अब पूरा गाँव उससे स्नेह करने लगा।
श्रीधर स्वामी ने काशी में जाकर वेदान्त का श्रवण-मनन-निदिध्यासन किया। भक्ति में भी वे उतने ही आगे थे। उनके ग्रंथ पढ़ें तो पता चलता है कि वेदान्त के दिव्य ज्ञान के साथ-साथ भक्ति की दिव्य भावना भी उनके शास्त्रों से छलकती है।
श्रीधर स्वामी किस कुल के थे, इसका पता नहीं है। बाल्यकाल में वे मंदबुद्धि थे किन्तु जब भगवान के रास्ते पर चलने का अभ्यास किया तो महान टीकाकार श्रीधर स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। अभ्यास की बलिहारी है !
ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ आता है कि अनंत जन्मों की वासनाएँ इस जीव के अंतःकरण में एकत्रित हैं। ये एक-दो दिन में तो नहीं छूटेंगी। इसलिए इस अंतःकरण से वासनाओं को निवृत्त करने के लिए अभ्यास की जरूरत है।
एक बार कार्त्तिक क्षेत्र में संतों की परिषद हुई थी। उनमें आपस में विचार-विमर्श हो रहा था किः ʹभगवान विष्णु की नाभि से ब्रह्माजी प्रगट हुए हैं और नारदजी ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। नारदजी ने ध्रुव को मंत्र दिया तो ध्रुव का काम छः महीने में बन गया और हम लोग वर्षों से जटाएँ बढ़ाये हुए मंत्रजाप कर रहे हैं फिर भी हमारा काम नहीं हो रहा।ʹ
एक ने कहाः ʹʹभाई ! यह तो जान पहचान का जमाना है। भगवान विष्णु ने देखा कि ध्रुव को नारद ने मंत्र दिया है तो वे जल्दी प्रसन्न हो गये।”
दूसरे ने कहाः “नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है। तुम भगवान में दोष देखते हो, इसका मतलब यह है कि तुम्हारी बुद्धि में दोष है।”
तीसरे ने कहाः “तो फिर क्या कारण है कि ध्रुव को छः महीने में भगवान मिल गये और हमको बरसों बीत गये हैं फिर भी नहीं मिल रहे ?”
इतने में एक मल्लाह बहुत ही सुन्दर नाव लेकर आया और बोलाः “महापुरुषों ! मैं यह नाव लेकर आया हूँ। अगर आप कृपा करें तो इसका उदघाटन हो जाये।”
किसी की निंदा करने से, किसी पर दोषारोपण करने से चित्त उद्विग्न हो जाता है क्योंकि निंदा करने से मन नीचे के केन्द्रों में चला जाता है। आप सागर की ऊपरी सतह पर तो घण्टों भर तैर सकते हैं लेकिन सागर की गहराई में ज्यादा देर नहीं रह सकते। ऐसे ही ऊपर के केन्द्रों में समाधि में, भाव में, प्रभु प्रेम में आप घण्टों भर रह सकते हैं, दिन भर रह सकते हैं महीना भर रह सकते हैं लेकिन काम में, क्रोध में आप घण्टा भर भी नहीं रह सकते।
संत लोग बैठ गये उस नाव में। मल्लाह नाव को खेते-खेते ऐसे स्थल पर ले गया जहाँ कुछ द्वीप थे और उन द्वीपों पर थोड़ी अस्थियाँ पड़ी हुई थीं। किसी संत ने पूछाः “इन द्वीपों पर थोड़ी-थोड़ी अस्थियाँ पड़ी हुई हैं ! क्या बात है ?”
मल्लाहः “महाराज ! यहाँ एक तपस्वी ने तप करते-करते अपने तन को सुखा डाला था कि उसके प्राण पखेरू उड़ गये थे और अस्थियाँ रह गयी थीं। फिर वह बार-बार जन्म लेकर इन्हीं द्वीपों पर मृत्युपर्यन्त तप करता रहा। इस तरह उसने अपने 99 जन्मों तक कठोर तप किया। उसी तपस्वी के 99 जन्मों के अस्थिपिंजरों का यह ढेर है।”
संतः “वह तपस्वी कौन था ?”
मल्लाहः “वह तपस्वी था उत्तानपाद राजा का पुत्र ध्रुव। 99 जन्मों का उसका अभ्यास था अतः 100 वें जन्म में छः महीने के अभ्यास से ही उसे परमात्म दर्शन हो गये।”
इस प्रकार उन संतों के संदेह का निवारण हो गया। मल्लाह के रूप में आये हुए भगवान ने कहाः “हमारे यहाँ जान पहचान से नहीं वरन् साधक के अभ्यास की दृढ़ता के काम होता है। आपका अभ्यास बिखरा हुआ है, इसलिए मैं नहीं आता। लेकिन जब मेरा चिन्तन करते-करते आप लोगों ने मेरी समता के विषय में संदेह किया, तब आप लोगों का चित्त कहीं भ्रमित न हो जाये इसलिए मैं मल्लाह के रूप में प्रत्यक्ष होकर आप लोगों को सही बात बताने आया हूँ।”
यह कहकर भगवान अदृश्य हो गये।
आपको यदि किसी के जीवन में उन्नति दिखती है तो समझ लेना कि उसके जीवन में अभ्यास की तीव्रता है। जिसका जिस विषय में अभ्यास होता है, उसी विषय में वह पारंगत होता है। छोटे-छोटे विषयों का अभ्यास करने से उन छोटे-छोटे विषयों पर ही अधिकार हो पाता है लेकिन मन का साक्षी होने का अभ्यास अगर हो जाए तो मन को जीतने की शक्ति आ जाती है और जिसने मन को जीत लिया फिर उसे कुछ भी जीतना शेष नहीं रह जाता। अतः जब का अभ्यास, ज्ञान का अभ्यास, आत्मशांति पाने का अभ्यास, श्वासोच्छवास को गिनने का अभ्यास…. मन को निर्दोष बनाने के ये सुन्दर उपाय हैं। जो अभ्यास के महत्त्व को जानते हैं वे महानता को छू लेते हैं। आप भी लग जाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 1999, पृष्ठ संख्या 2-6, अंक 78
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