Monthly Archives: February 2011

वसंत ऋतु विशेष


( 18 फरवरी से 19 अप्रैल)

आहार में सावधानीः

गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नं च वर्जयेत्।

‘वसंत ऋतु में पचने में भारी, खट्टे, स्निग्ध व मधुर पदार्थों के सेवन व दिन में शयन नहीं करना चाहिए।’ (चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 6.23)

वसंत में कफ बढ़ जाता है व जठराग्नि मंद हो जाती है, इसलिए खोया (मावा), मिठाई, बलवर्धक पाक, सूखे मेवे, दही, खट्टे फल, अधिक तेल व घी वाले पदार्थ, मिश्री, चीनी, गुड़ व उनसे बने पदार्थ प्रायः नहीं खाने चाहिए। दिन में सोना भी कफ बढ़ाने वाला है, अतः त्याग दें।

इन दिनों में शीघ्र पचने वाला, अल्प तेल व घी में बने, तीखे, कड़वे, कसैले, उष्ण पदार्थों का सेवन करना चाहिए। अदरक, सोंठ, काली मिर्च, दालचीनी, हींग, मेथी, अजवायन, करेला, बिना बीज के कोमल बेंगन, पुनर्नवा, मूली, सूरन, सहजन, पुराने गेहूँ व जौ, चना आदि हितकर हैं।

व्यायाम की विशेषताः

वसंत ऋतु में कफ की अधिकता के कारण शरीर में भारीपन, कठिनता, शीतलता आती है। कभी आलस्य भी आता है, भूख कम लगती है। योगासन, सूर्य नमस्कार, टहलने, दौड़ने व कसरत करने से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है, जिससे कफ पिघलता है। शरीर में मृदुता, हलकापन व स्फूर्ति आती है और भूख भी खुलकर लगती है। इसलिए कहा गया हैः

वसन्ते भ्रमणं पथ्यम्। वसंत ऋतु में खूब पैदल चलना चाहिए।

उपवास की आवश्यकताः

लंघनं कफशमनम्।

उपवास से कफ शांत हो जाता है। वसंत ऋतु में सप्ताह अथवा 15 दिन में एक बार सम्पूर्ण उपवास रखने से कफजन्य रोगों से रक्षा होती है। उपवास के दिन केवल सोंठ डालकर उबाला हुआ पानी पियें।

कुछ खास प्रयोगः

2 से 3 ग्राम हरड़ चूर्ण में समभाग शहद मिलाकर सुबह खाली पेट लेने से ‘रसायन’ के लाभ प्राप्त होते हैं।

श्री चरकाचार्यजी के अनुसार वसंत में सुखोष्ण जल (गुनगुना पानी) पीना चाहिए तथा शरीर पर उबटन लगाना चाहिए। गेहूँ, जौ, चावल, चना, मूँग, उड़द व तिल के समभाग मिश्रण से बना ‘सप्तधान्य उबटन’ स्वास्थ्यवर्धक व मंगलकारक है।

श्री वाग्भट्टाचार्यजी के अनुसार इन दिनों में नागरमोथ डालकर उबाला हुआ पानी पीना चाहिए।

कफशामक पदार्थों में शहद सर्वोत्कृष्ट है। सुबह गुनगुने पानी में शहद मिलाकर पीना हितावह है।

तुलसी व गोमूत्र का सेवन हितकर है।

भोजन से पूर्व अदरक में सेंधा नमक व नींबू मिलाकर लेना भूखवर्धक है।

गोबर के कंडे जलाकर गूगल का धूप करना, कपूर जलाना, चंदन, कपूर व केसर का तिलक करना, आँखों में अंजन लगाना, नाक व कान में गुनगुना तिल का तेल डालना – ये वसंत ऋतु के स्वास्थ्य-रक्षक विशेष उपक्रम हैं।

नया अनाज कफवर्धक व पचने में भारी होता है, अतः पुराने जौ, गेहूँ, चावल आदि का उपयोग करें। सेंककर फिर उपयोग में लाने से अनाज पचने में अधिक हलके हो जाते हैं।

3-4 सूर्यभेदी प्राणायाम करने से व रात को बायीं करवट लेटकर सोने से सूर्यनाड़ी सक्रिय होती है, इससे कफ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

सावधानीः

कफ से उत्पन्न होने वाले रोग दीर्घकाल तक रहने वाले होते हैं। इसलिए कफ बढ़ते ही उसे तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। इसके लिए गजकरणी, जलनेति का प्रयोग करें। (देखें, आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ‘योगासन’ पृ.43-44) अनुभवी वैद्यों द्वारा वमन-कर्म करवाना भी हितकर है।

अंग्रेजी दवाइयाँ कफ को शरीर के अंदर ही सुखा देती है। ऐसा सूखा एवं दूषित कफ भविष्य में टी.बी., दमा, कैंसर जैसे गम्भीर रोग उत्पन्न कर सकता है, अतः इनसे स्वयं बचें व औरों को बचायें।

अपने हृदय को बनायें सक्षम

मन हृदय के आश्रय से रहता है। मन के भावों का गहरा परिणाम हृदय पर होता है। मानसिक तनाव, चिंता व अति व्यग्रता हृदयरोगों के प्रमुख कारणों में से एक है। चिंता व तनावरहित जीवन का अमोघ उपाय हैः ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर-आराधना)।

गुरू व ईश्वर पर जितनी अधिक श्रद्धा, जीवन उतना ही अधिक निश्चिंत व निर्भार होता है। श्रद्धापूर्वक की गयी प्रार्थना मानसिक शांति लाती है। इससे हृदय की नसों में ढीलापन(Relaxation) आता है। ध्यान की गहराइयों में हृदय को बड़ी विश्रांति मिलती है। शवासन व रात्रि-विश्राम से पूर्व प्रार्थना का नियम हृदय को आराम देने में खूब सहायक है।

प्राणवायु का मुख्य स्थान हृदय है। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से प्राण-उदान-अपान आदि की गतियाँ नियंत्रित हो जाती हैं। इससे हृदय की क्रियाओं का नियमन होता है। वायु की अनियंत्रित गति हृदयाघात (हार्ट अटैक) का अवश्यम्भावी कारण है।

शुभ चिंतन व सत्कर्म (परहित के लिए किये गये कर्म) से रक्त में एस्पिरिन की मात्रा बढ़ती है, जिससे हृदयस्थ रक्तवाहिनियों में अवरोध (Blockage, Coronary Artery Disease) होने की सम्भावना नहीं रहती।

आयुर्वेदोक्त हृद्य-पदार्थ (Cardic Tonics) जैसे – आम, अनार, कागजी व बिजौरा नींबू, कोकम, आँवला व देशी बेर रक्त का प्रसादन व मन को उल्लसित कर हृदय को सक्षम बनाते हैं। गाय का घी, मक्खन व दूध ओज को बढ़ाकर हृदय का पोषण करते हैं। गेहूँ, खजूर, कटहल, शतावरी, अश्वगंधा हृदय की मांसपेशियों को पुष्ट करते हैं। अर्जुन वृक्ष की छाल व लिंडीपीपर हृदय की शिथिलता दूर करते हैं। लहसुन व सोंठ वायु का शमन कर हृद्य कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त गंगाजल, नारियल जल, चंदन, गुलाब केसर, नागरबेल के पत्ते, सेब, सुवर्ण आदि हृदय के लिए विशेष हितकर हैं। गले में सोने की माला (चेन, लाकेट) व कनिष्ठिका (हाथ की सबसे छोटी उँगली) में सोने की अँगूठी पहनने से हृदय को बल मिलता है। सुवर्ण-सिद्ध जल भी लाभदायी है। यह जल बनाने के लिए पानी में शुद्ध सोने के गहने डाल के उसे उबालकर लगभग आधा करें।

सुबह खुली हवा में पैदल चलने का व्यायाम हृदय को स्वस्थ रखता है।

भारत में विशेषतः पुरुष-वर्ग में हृदय रोगियों की संख्या सर्वाधिक है। भारतीय संस्कृति कि अवहेलना व पाश्चात्यों का अंधानुकरण इसका मुख्य कारण है।

शास्त्रनिर्दिष्ट प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाना यह निरामय जीवन की गुरूचाबी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, अंक 218, पृष्ठ संख्या 28,29

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प्यार से पोषण करें सदगुणों का


महात्मा हरिद्रमुत गांधार देश की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक ऐसा गाँव पड़ा जहाँ के सभी लोग बूढ़े, जवान, स्त्रियाँ और बच्चे भी भगवान को प्रेम करने वाले, भगवान की भक्ति करने वाले थे। चलते-चलते अचानक महाराज को एक बालक के रूदन की आवाज सुनायी दी। जरा रुककर सुना तो पता चला कि कोई माँ अपने बच्चे को डाँट-फटकार रही है। महाराज ने दरवाजे पर जाकर उस महिला से पूछाः “माता जी ! क्यों पीट रही हो इस मासूम बच्चे को ?”

महिला बोलीः “महाराज ! क्या कहूँ, पूरे गाँव में केवल एक मेरा ही यह बालक ऐसा है जो न तो भगवान की पूजा करता है, न प्रार्थना, न कीर्तन, न सत्संग में जाता है, न भगवान को मानता ही है, एक दम घोर नास्तिक जैसा है। इसके कारण हमें अपमानित होना पड़ता है, लोगों की बातें सुननी पड़ती है, इसी के कारण अपयश होता है। अब आप ही बताइये, क्रोध न करूँ तो क्या करूँ ?”

संतों का तो एक ही काम होता है – लोगों का भला करना। चलते फिरते भी लोगों को सही मार्ग बताते रहते हैं, उन्हें भगवान के रास्ते लगाते रहते हैं। हरिद्रमुत बोलेः “माता जी ! प्यार से ही बच्चों की कमियों, गलतियों को दूर किया जा सकता है, क्रोध से नहीं। ज्यादा रोकटोक करने से तो बच्चे विरोधी हो जाते हैं। जब तक बालक छोटा है तब तक उसे प्यार करो। बड़ा हो जाये, दस बारह, पन्द्रह वर्ष का तो उसे सीख दो, अनुशासन में रखो। जब सोलह वर्ष का हो तब उससे मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए, फिर डंडे से काम नहीं लेना चाहिए। आप इस बालक को प्रगाढ़ प्रेम, आत्मीयतायुक्त व्यवहार तथा अपनी स्नेहिल निष्ठा से ही सीख दीजिये।

दूसरा, आप जब जप-ध्यान, पूजा पाठ करने बैठें तो इसे भी अपने पास बिठा लें। भगवान से प्रार्थना करें कि ‘हे प्रभु ! इसे भी सदबुद्धि दो कि यह आपकी भक्ति करे।’ बच्चे कहने की अपेक्षा देखकरक जल्दी सीखते हैं, उनमें अनुसरण करने का गुण होता है। जैसा देखते हैं वैसा करने लग जाते हैं, फिर चाहे वह अच्छा हो या बुरा। आपको जप ध्यान करते देखकर यह भी करने लगेगा। बालक को ईश्वर की ओर ले जाने का यह एक सरल मार्ग है।” यह कहकर महाराज आगे बढ़ गये।

उस माता ने महात्मा जी की आज्ञा का पालन किया और बालक को प्रगाढ़ प्रेम दिया। प्रेममूर्ति महात्मा का आशीर्वाद, शुभ संकल्प और माँ के उस अनन्य प्रेम का परिणाम ऐसा हुआ कि वह बालक आगे चलकर महान ज्ञानी उद्दालक ऋषि के नाम से जगत में प्रसिद्ध हुआ।

आप भी अपने बच्चों को किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी महापुरुष के दर्शन करने व सत्संग सुनने ले जायें और उन्हें प्रेम से समझायें। भगवन्नाम की दीक्षा दिला दें आप भी मंत्रजप करें, उन्हें भी अपने पास बिठाकर जप करायें तो उनमें से कोई कैसा भी उद्दण्ड क्यों न हो, आपके कुल को जगमगानेवाला कुलदीप बन जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 12 अंक 218

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परमात्मा का स्वभाव, स्वरूप और गुण क्या ? – (पूज्य बापू जी)


आप परमात्मा का स्वभाव जान लो, स्वरूप जान लो। बाप-रे-बाप ! क्या मंगल समाचार है ! क्या ऊँची खबर है ! भगवान के गुणों का ज्ञान उपासना में काम आता है। भगवान के स्वभाव का ज्ञान शरणागति में काम आता है और भगवान के स्वरूप का ज्ञान भगवान से एकाकार होने में काम आता है। भगवान का वास्तविक स्वरूप क्या है यह जानोगे तो फिर आप भगवान से अलग नहीं रह पाओगे। भगवान का स्वभाव जानोगे तो आप उनकी शरण हुए बिना रूक नहीं सकते। भगवान के गुणों का ध्यान सुन लोगे, जान लोगे तो आप उनकी उपासना किये बिना नहीं रह सकते। अदभुत हैं भगवान के गुण ! अदभुत है भगवान का सामर्थ्य ! अदभुत है भगवान की दूरदर्शिता और अदभुत है भगवान की सुवव्यवस्था ! छोटी मति से भले कभी कभार कहें कि ‘यह अन्याय हो गया, यह जुल्म हो गया, यह अच्छा नहीं हुआ’ लेकिन जब भगवान की वह लीला और संविधान देखते हैं तो कह उठते हैं कि ‘वाह-रे-वाह प्रभु ! क्या आपकी व्यवस्था है ! करूणा-वरूणा के साथ सबकी उन्नति के कारण का क्या आपका स्वभाव है !’

अजब राज है मौहब्बत के फसाने का।

जिसको जितना आता है,

उतना ही गाये चला जाता है।।

एक आसाराम के शरीर में हजार-हजार जिह्वाएँ हों और ऐसे हजार-हजार शरीर मिल जायें, फिर भी आपके गुणों का, स्वभाव का, सामर्थ्य का वर्णन नहीं कर पायेंगे, नहीं कर सकते। जितना थोड़ा कुछ करते हैं उसी में आपकी करूणा-वरूणा और रस तथा प्रकाश पाकर तृप्त हो जाते हैं। प्रभु जी ! प्यारे जी ! मेरे जी !…..

भगवान कैसे ? आप जैसा चाहते हो वैसे ! भगवान की अपनी कोई जाति नहीं। भगवान का अपना कोई रूप रंग नहीं। जिस रूप रंग से आप चाहते हो, उसी रूप-रंग से वे समर्थ प्रकट हो जाते हैं। अहं भक्तपराधीनः। ॐ….. ॐ… शांति ! बोलोगे तो शांति भरे देंगे। ‘अच्युत, आनंद….!’ तो आनंद उभार देंगे। ‘अच्युत, गोविंद….’ – इन नामों से पावन होते जाओगे। भगवान का स्वरूप क्या है ! भगवान के स्वरूप का वर्णन तो भगवान भी नहीं कर सकते तो हम तुम क्या कर सकते हैं ! फिर भी थोड़ा-थोड़ा वर्णन करके काम बना लेते हैं हम।

भगवान का स्वरूप क्या है ? बोलेः ‘सोने का स्वरूप क्या है ?’ सोने का कंगन ले आये, अँगूठी ले आये, हार ले आये, चूड़ियाँ ले आये। ये तो गहने हैं लेकिन इनकी मूल धातु सोना है। मूल धातु को समझ लो। गहने अनेक प्रकार के लेकिन मूल धातु एक ही। सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, आनंदस्वरूप चिदघन सारे ब्रह्माण्डों में ठसाठस भरपूर – यह भगवान का स्वरूप है। भगवान का स्वभाव क्या है ? भगवान का स्वभाव है जो जिस रूप में पुकारे, जिस रूप में प्रेम करे, जिस रूप में चाहे उस रूप में उसके आगे प्रकट हो जाते हैं। भक्तवत्सलता भगवान का स्वभाव है। भक्तपराधीनता भगवान का स्वभाव है। अपने को बेचकर भी भक्त का काम करते हैं। अपने को बँधवाकर भी भक्त को खुशी देते हैं। घोड़ागाड़ी चलाकर भी भक्त का काम होता है तो कर लेंगे। भक्त के घोड़ों की मालिशक करनी होती है तो भी कर लेंगे। भक्तानी के जूठे बेर खाकर भी उसका मंगल होता है तो वे कर लेते हैं और ताड़का वध करने से भी गुरू की सेवा हो जाती है तो वह भी कर लेंगे ! ‘हाय सीते ! कहाँ गयी ? हाय सीते !….’ – ऐसा करने से भी भक्तों की सूझबूझ बढ़ती है तो वे कर  लेंगे।

यह किस चीज का पेड़ है ? मोसम्बी मिली तो बोलेः ‘मोसम्बी का पेड़ है।’ आम मिले तो बोलेः ‘आम का पेड़ है।’ पपीता मिला, नारियल मिला, जो फल मिला, बोलेः ‘इसी का पेड़ है।’ लेकिन कोई ऐसा पेड़ कि जो जैसा फल माँगे वैसा फल उसे दे तो उसको क्या बोलोगे ? आम का बोलोगे, चीकू का बोलोगे, नारियल का बोलोगे, पपीते का बोलोगे कि अनार का बोलोगे ? उसको कल्पतरू बोलोगे। जो जैसी कल्पना करे उसी प्रकार का फल दे दे, उसे ‘कल्पतरू’ कहते हैं। तो भगवान कैसे हैं ? भगवान का स्वभाव क्या है ? भक्तवत्सल, कल्पतरू ! भगवान का स्वरूप क्या है ? सर्वेश्वर, सत्-चित्-आनंद, चिदघन, सर्व ब्रह्माण्डों में ओतप्रोत-भरपूर ! जैसे सूत के चित्र में सूत की ही माला, सूत के ही दाने और चप्पल भी सूत की, पैर भी सूत के, वक्षस्थल भी सूत का तो जो कपड़े पहने हैं वे भी सूत के। शक्कर के खिलौनों में लाट साहब भी शक्कर का तो चपरासी भी शक्कर का। हाथी भी शक्कर का तो उस पर बैठा राजा भी शक्कर का। अब कहीं राजा दिखता है, कहीं चपरासी दिखता है तो कहीं प्रजा दिखती है लेकिन है शक्कर-ही-शक्कर। ऐसे ही भगवान का स्वरूप क्या है ? बोलेः सत्-चित्-आनंद, चिदघन, विभु, व्याप्त, सर्वत्र। भगवान का स्वभाव क्या है ? भक्तवत्सल। भक्त जिस रूप में जिस भाव में उन्हें पुकारे वे प्रकट हो जाते हैं क्योंकि वे कल्पतरू हैं।

भगवान का गुण क्या है ? भगवान का गुण हैः सुहृदता। मित्र तो बदले में कुछ पाने के भाव से हमारी मदद करेगा लेकिन भगवान कोई बदले की भावना से नहीं करते। प्राणिमात्र के परम सुहृद परमात्मा हैं। सुहृदता भगवान का गुण है। सुहृदं सर्वभूतानाम्। ‘मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ।’ ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति। ‘ऐसा मुझे जाननेवाला शांति को पाता है।’ और शांति से बड़ा कोई सुख नहीं। अशांतस्य कुतः सुखम्। अशांत को सुख कहाँ ! और शांतात्मा को दुःख कहाँ ! आप सुबह उठिये और मन-ही-मन कहियेः ‘भगवान ! आपका स्वरूप है सर्वव्यापक। सारी इन्द्रियाँ, सारे मन आप ही में आराम पाते हैं और उनको आप ही पालते हो, आप गोपाल भी हो। आप राधारमण हो। ‘राधा’…. उलटा दो तो ‘धारा’। चित्त का फुरना, चित्त की कलना जिसकी सत्ता से रमण करती है, वह आप राधारमण भी हो। आप अच्युत भी हो। सारे पद च्युत हो जाते हैं, सारे शरीर च्युत हो जाते हैं, स्वर्गलोक भी च्युत हो जाता है, ब्रह्मलोक भी च्युत हो जाता है, आकृतियाँ च्युत हो जाती हैं फिर भी हे प्रभु ! आप च्युत नहीं होते हो – आप अच्युत हो। आप केशव हो। ‘क’ माने ब्रह्मा का आत्मा आप ही हो। ‘श’ माने शिव का आत्मा भी आप हो। ‘व’ माने विष्णु का आत्मा भी आप लो और मेरा आत्मा भी आप हो। आपका स्वरूप तो थोड़ा-थोड़ा जानते हैं। प्रभु ! आप ऐसे हो और मेरे अपने अंतर्यामी होकर बैठे हो। आपका स्वभाव भक्तवत्सल है। जिसने जिस भाव से पुकारा… भावग्रही जनार्दनः। ‘भाव को ही ग्रहण करने वाले हो जनार्दन !’ ‘ॐ….ॐ…. आनंद !’ बोलेंगे तो आनंद दोगे। ‘ॐ….ॐ…. शांति !’ तो शांति दोगे। ‘ॐ….ॐ…. दुश्मन का ऐसा हो, वैसा हो….’ खुराफात बोलेंगे तो खुराफात दोगे और प्रेमस्वरूप बोलेंगे तो प्रेम दोगे। आपका स्वभाव है भक्तवत्सल, कल्पतरू।’ और महिलाएँ हैं तो प्रभु को कामधेनु मान लो। कल्पतरू के आगे जो कल्पना करो वह पूरी होती है। कामधेनु के आगे जो कामना करो वह देती है। ‘आप कल्पतरू भी हो, कामधेनु भी हो, गुरूरूप भी हो, साधकरूप भी हो, सुहृदरूप भी हो, मित्ररूप भी हो – सभी रूपों में आप हो सारे रूपों के बाद भी आप ही रह जाते हो, अच्युत हो। ॐ आनंद ! ॐ अच्युत ! ॐ गोविंद !’ – इस प्रकार का सुबह आरम्भिक मधुमय चिंतन करो तो आपका सारा दिन मधुमय होने लगेगा।

‘आपका गुण क्या है ? मित्र देकर उत्साह देते हो और शत्रु, विरोधी देकर अहंकार को मिटाते हो, सावधानी बढ़ाते हो, आसक्ति मिटाते हो। प्राणिमात्र के सुहृद हो। हो न !’ – एक हाथ अपना और एक ठाकुरजी का मानकर अपने ही दायें हाथ से बायाँ हाथ मिलाओ। भगवान की सुहृदता, भगवान की भक्तवत्सलता और भगवान का विभु स्वभाव याद करो तो फिर देर-सवेर पता चलेगा कि भगवान आपके आत्मा होकर बैठे हैं।

जो ठाकुरू सद सदा हजूरे।

ता कउ अंधा जानत दूरे।।

‘आप दूर नहीं, दुर्लभ नहीं। जय जगदीश हरे…. जगत के ईश आप। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें। आपके स्वभाव का, आपके स्वरूप का, आपके गुण का चिंतन करते हैं तो तुरंत मन की ग्लानि, मलिनता, दीनता-हीनता चली जाती है।’ आप जगत का चिंतन करोगे और जगत में प्रीति करोगे तो जगत आपको कामी बनायेगा, क्रोधी बनायेगा, लोभी बनायेगा, मोही बनायेगा, चिंतित बनायेगा, विलासी बनायेगा, विकारी बनायेगा और जन्म-मरण के धक्कों में धकेलता रहेगा और प्रभु का चिंतन करोगे को प्रभु का चिंतन आपको विभु बना देगा, सुहृद बना देगा, कल्पतरू बना देगा। जो महात्मा ऐसा चिंतन करते हैं, वे भक्तों के कल्पतरू हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 218

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