Monthly Archives: February 2011

मन एक कल्पवृक्ष


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

कोई सुप्रसिद्ध वैद्यराज थे। रात्रि को किसी बूढ़े आदमी की तबीयत गम्भीर होने पर उन्हें बुलाया गया। वैद्यराज ने देखा कि ‘बूढ़ा है, पका हुआ पत्ता है, पुराना अस्थमा है, फेफड़े इन्कार कर चुके हैं, रक्तवाहिनियाँ भी चोड़ी हो गयी है, पुर्जे सब पूरे घिस गये हैं अब बूढ़े का बचना असम्भव है, बहुत-बहुत तो 40 से 48 घंटे निकाल सकता है। वैद्य ने ठीक से जाँच की। बड़ा सात्त्विक वैद्य था, अच्छी परख थी उसकी।

बूढ़े ने कहाः “बताओ मेरा क्या होगा ? कोई दवाई लगती नहीं, दो साल से पड़ा हूँ बिस्तर पर, ऐसा है-वैसा है….।”

वैद्य ने कहाः “चिंता न करो। मैं जाता हूँ, जाँच पड़ताल करके चिट्ठी भेजता हूँ और दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य ने कहाः “चिंता न करो। मैं जाता हूँ, जाँच पड़ताल करके चिट्ठी भेजता हूँ और दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य अपने घर की ओर लौटा। रास्ते में याद आया कि ‘धनी सेठ का लड़का जो बीमार है, दवाई मँगा रहा था, जरा उसे देखता जाऊँ।’

वैद्य ने युवक को देखा। युवक भी बिस्तर पर कराह रहा था कि “मेरी तबीयत खराब है, कमजोरी है, मेरे को ऐसा है वैसा है…। क्या पता कब ठीक होऊँगा ?”

वैद्य ने कहाः “चिंता की बात नहीं, ठीक हो जाओगे। तुमको बीमारी का वहम ज्यादा है, वहम निकाल दो।”

बोलेः “मुझे रोग क्या है यह तो बताओ वैद्यराज ?”

वैद्यराज ने कहाः “मैं अभी जाता हूँ, अपने औषधालय से पूरा विश्लेषण करके तुमको चिट्ठी भी भेजता हूँ, दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य ने दो चिट्ठियाँ लिखीं और दोनों की दवाइयाँ साथ में भेज दीं। अब  जो चिट्ठी और दवाई जवान को देनी थी वह बूढ़े के पास पहुँच गयी और जो बूढ़े को देनी थी वह गलती से जवान को मिल गयी। उस चिट्ठी में बूढ़े के लिये लिखा थाः “शरीर का कोई भरोसा नहीं। पद का भी कोई भरोसा नहीं। शरीर का ही भरोसा नहीं तो पदों का भरोसा कैसे ! सारे पद शरीर पर आधारति हैं। जितना हो सके हरि स्मरण करो और अपनी धन सम्पत्ति बच्चों के हवाले करने के लिए तुम्हारे अंदर थोड़ी शक्ति आ जाये, ऐसी उत्तेजक दवा भेजता हूँ। परमात्मा का खूब सुमिरन करो, शरीर तो किसी का सदा रहा नहीं ! भगवान हरि ही तुम्हारी शरण हैं, अंतिम गति हैं। संसार में अब तुम्हारे ज्यादा दिन नहीं हैं। एक दो दिन के तुम मेहमान हो।”

जवान ने ज्यों चिट्ठी पढ़ी महाराज ! ऐसा ढला कि फिर उठ न सका। करवट बदलने के लिए पत्नी को बुलाया। रात भर चीखा-चिल्लाया। सुबह होते-होते आदमी वैद्यराज को बुलाने गयेः

“हालत गम्भीर है, चलो।”

वैद्य ने कहाः “गम्भीर-वम्भीर कुछ नहीं, अब मेरे आने की कोई जरूरत नहीं। मैं कल देखकर आया हूँ। अभी मेरे पूजा-पाठ का समय है।”

नौकर ने जाकर कहाः “वैद्य बोलते हैं कि अब मेरे आने की जरूरत नहीं है।” जवान को लगा कि ‘सचमुच अब मैं जाने वाला हूँ, वैद्य आकर क्या करेगा !” उसकी तबीयत और खराब हो गयी। दोपहर तक उसकी ऐसी हालत हो गयी कि जैसे अब गया… अब गया…। वैद्य के मन में हुआ कि ‘आदमी पर आदमी आ रहे है। चलो, जरा देखकर आयें।’

वैद्यराज ने उस युवक को देखा और बोलेः “कल तक तो इस जवान की हालत ठीक-ठीक थी, अब ऐसी कैसे हो गयी ! क्या हो गया ?”

वह बोलाः “आप ही ने तो कहा कि, तुम एक दो दिन के मेहमान हो।’ रात को आपकी चिट्ठी पढ़ने से तो मेरी तबीयत और खराब हो गयी और मुझे तो सामने मृत्यु ही दिखती है कि मैं मर जाऊँगा। वैद्यराज ! मैंने अपने कुटुम्बियों को, ससुराल वालों को तार भेज दिये। मैं तुम्हारे पैर पकड़ता हूँ, वचन देता हूँ, मैं लिखकर दे दूँ कि मेरी धन-सम्पदा सब आपको अर्पण करता हूँ। मुझे ठीक कर दो, मुझे जीवन दे दो….।”

वह युवक ‘अब मरा ! अब मरा !’ – इसक प्रकार का विलाप कर रहा था। वैद्य ने चिट्ठी माँगी कि इतन कैसे लड़खड़ा गया ! पढ़ी तो खूब हँसा। बोलाः “अरे ! यह तो कल मैं जिस बूढ़े को देखकर आया था, उसकी चिट्ठी है और यह उत्तेजक दवा उसके लिये है। तेरे को तो थोड़ा-सा बुखार है, तेरी दवा अलग है। उस आदमी ने बेवकूफी की जो तेरे को दे दी। मुझसे गलती हो गयी, अब ऐसे आदमियों के द्वारा चिट्ठी नहीं भिजवाऊँगा।”

वैद्य ने कुछ विश्वास की बातें सुनायीं तो वह उठ के खड़ा हो गया। बोलाः “अच्छा, ऐसी बात है !” वैद्य ने कहाः “हाँ, हाँ सचमुच !” वह खाना वाना खाकर बोलता हैः “अच्छा चलो, बूढ़े का हाल देखकर आयें। उसका क्या हुआ ?” वे दोनों उस बूढ़े के पास गये। वैद्य ने देखा कि इसका बिस्तर तो पहली मंजिल पर रहता था, यह अब नीचे कैसे आ गया ! जो अभी मरीज था, मर रहा था, पलंग पर से करवट बदलने के लिए जिसे स्त्री के सहयोग की जरूरत थी, देखा तो वह रसोई में रोटी और दूध खा रहा है। वैद्य को देखकर बूढ़ा बोल उठाः “मेरे वैद्यराज भगवान ! तुम्हारा भला हो। तुम्हारी दवा में तो क्या चमक थी ! तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी कि ‘कोई खास रोग नहीं, जरा कमजोरी है। तुम तो बिना मतलब के वहम में फँसे हो।’ सचमुच, मैंने वहम छोड़ दिया और मुझमें शक्ति आ गयी। मैं गद्दे से उतरकर खाने आ गया हूँ लो !”

वह जवान बोलने ही जा रहा था कि ‘भाई ! वह तो मेरी चिट्ठी है।’ “वैद्यराज ने उसको संकेत कर दिया कि ‘चुप रहो अब ! इधर तो काम बन गया !’ बूढ़ा बोलाः “वैद्यराज! दो साल से तो मैं दवाइयाँ कर रहा था। ऐसे लल्लू-पंजू वैद्यों के चक्कर में था कि बीमार-ही-बीमार रहा। तुम्हारे जैसे वैद्य की दवा पहले करता तो दो साल मुझे बिस्तर पर नहीं पड़े रहना पड़ता। वैद्यराज ! तुम्हारा मंगल हो, खूब जियो !”

वैद्य के वचन से जो बिस्तर पर था, वह व्यक्ति तीन महीने और जिया। ऐसे कई दृष्टांत तुमने समाज में देखे होंगे।

और एक्स रे करके लुटेरे डॉक्टर कितना तुम्हे नोच लेते हैं और कितना तुम्हें गहरा मरीज बना देते हैं ! यह है, वह है…. एक्स रे के काले पन्ने दिखाकर तुम्हें और तुम्हारे कुटुम्बियों को डरा के अपनी काली मुरादें पूरी कर लेते हैं।

दया बहन शेवानी का पुत्र, पति और दया बहन स्वयं थकी हारी थीं। लगता था कि अब जाने वाली हैं। वे लोग हमारे पास आये और अभी भी दया बहन जीवित हैं।

श्रीमती दया बहन, प्रह्लाद शेवानी और परिवार चकित हो रहा है कि ‘मृत्यु के मुख से बापू बाहर ले आये !’ मृत्यु के मुख से बाहर नहीं लाये, जिन्होंने लूटने के लिए धकेला था और जिन्हें ऑपरेशन करना था, उन शिकारियों के शिकंजे से बापू उनको बाहर ले आये और आश्रम के वैद्यों ने निष्काम भाव से थोड़ा इलाज किया। डॉक्टरों की अंग्रेजी औषधियों से सब बाल झड़ रहे थे, मुंडित-तुंदित लग रही थी। अब तो उन्हें नये काले बाल भी उभर रहे हैं। यह देखकर तो उनकी बहूरानी भी दंग रह गयी !

उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – ये छः सदगुण जहाँ रहते हैं, वहाँ परमात्मा पग-पग पर अपनी करूणा-कृपा छलकाते हैं, छलकाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

जो डॉक्टर लापरवाही बरतते हैं या मरीज को डराते हैं और उनको लूटने का इरादा बनाते हैं, भगवान उनको सदबुद्धि दें। वे सुधर जायें, सुधरने का सीजन है।

तुम्हारे गहरे मन में इतना सामर्थ्य है कि ढले हुए शरीर को जीवन दे सकता है और जीवन वाले शरीर को ढला सकता है। तुम मन में जैसा दृढ़ संकल्प करो, वैसा होने लगता है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।

मन ही तुम्हारे बंधन और मुक्ति का कारण है। जैसा-जैसा आदमी सोचता है न, वैसा-वैसा बन जाता है। जो नकारात्मक सोचता है, घृणात्मक सोचता है उसको घृणा ही मिलती है और नकारा जाता है। जो वाह-वाह सोचता है, धन्यवाद सोचता है, ‘कर लूँगा, हो जायेगा…. हो जायेगा’ – ऐसा सोचता है, निराशा-हताशा की बातें नहीं सोचता उसके काम हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 20, 21, 22 अंक 218

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कौन है तुम्हारा जीवन सारथी ?


(पूज्य बापू जी)

तीन मित्र थे। उन्होंने शर्त रखी कि देखें, अधिक समय बदबू कौन सहन कर सकता है ? वे एक बूढ़ा बकरा, जिसके शरीर पर गंदगी, मैल लगी थी, ले आये और कमरे में रख दिया। एक मित्र कमरे के अंदर गया और पाँच मिनट में वापस आ गया कि ‘अपने से यह बदबू सहन नहीं होती।’ फिर दूसरा गया… गया और वापस आया। फिर तीसरा गया। तीसरा गया तो उसकी बदबू से बकरा ही बाहर आ गया।

अब यह है दृष्टांत। ऐसे ही हमारा अहंकार, हमारी मैली वासना जब भीतर चली जाती है आँख के द्वारा, कान के द्वारा, किसी के द्वारा तो हमारा आनंद बाहर चला जाता है, सुख भाग जाता है। वासना में इतनी बदबू होती है कि हमारी जान निकाल देती है वह। जीवरूपी बकरे को इतना सताती है वासना कि वह भी बेचारा कह उठता है कि ‘मेरी तो जान निकल गयी है !’

आपे देखा होगा व्यवहार में, ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि आपकी जान निकल जाती है। आप ऐसा महसूस करते हैं कि ‘मकान तो बना लेकिन हमारी तो जान निकल गयी। फलाना-फलाना काम करते हुए हमारी जान निकल गयी !’ अनुभव होता है ! तो वासना दिखती तो साफ सुथरी, हट्टी-कट्टी है लेकिन वह अपनी जान को, अपनी मस्ती को, सुख को बाहर निकाल देती है। चुपचाप बैठे हैं और ऐसे कोई घड़ियाँ हैं जिनमें कोई वासना नहीं तो वह एकाध घड़ी इतनी महत्त्वपूर्ण है, वह एकाथ क्षण इतना सुखद है कि उस सुखद क्षण का इन्द्र के वैभव के साथ मुकाबला करो तो इन्द्र का वैभव भी तुच्छ दिखता है, इतनी उस निर्वासनिक अवस्था में शांति, आनंद, माधुर्य की झलकियाँ होती है।

देवताओं के पास सुख-सुविधाएँ ज्यादा होती हैं, वे भोगी होते हैं इसलिए परमात्मा को नहीं पा सकते हैं। दैत्यों में तमोगुण होता है इसलिए वे विवेक की गद्दी पर नहीं बैठ सकते। एक मनुष्य-शरीर ऐसा है कि न अति तमो है न अति सत्त्व, न अति भोग हैं। मनुष्य है मध्य का। अब जिधर का वह संग करे, चाहे गुणातीत तत्त्व का संग करे…

एक बात और समझ लेना। जो आदमी जैसा संग करता है, वह वैसा हो जाता है। तुच्छ काम करने वाले व्यक्तियों का संग करो तो तुम्हारी प्रतिष्ठा भी तुच्छ होने लगती है। पवित्र आत्मा, परोपकारी आत्मा, संत, साधक जिनका हृदय ऊँचा है, चरित्र ऊँचा है, ऐसे व्यक्तियों का संग करते हैं तो आप ऊँचे होने लगते हैं। वासना अति तुच्छ है और इन्द्रियों रूपी नाली के द्वारा वह मजा चाहती है। अगर आदमी वासना का संग करता है तो तुच्छ हो जाता है और विवेक का संग करता है तो परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कारी ज्ञानीस्वरूप, ईश्वरस्वरूप हो जाता है। अगर हम विवेक का संग करते हैं तो हम ईश्वर के साथ हो जाते हैं और वासना का संग करते हैं तो नरक के साथ हो जाते हैं। हम मध्य में हैं। मनुष्य जन्म एक जंक्शन है, अब जिधर को जायें।

वासना और कमजोरी के विचार आदमी का जितना सत्यानाश करते हैं, उतना तो मौत भी नहीं करती। मौत तो एक बार मारती है लेकिन कमजोर विचार और वासनाएँ करोड़ों जन्मों तक मारती रहेंगी। वासना जीव को अंधा कर देती है। अपने तुच्छ स्वभाव, मलिन स्वभाव से जीव इतने आक्रान्त हो जाते हैं कि हृदय में बैठे हुए विश्वेश्वर का कोई पता ही नहीं ! तुम्हारे जीवनरथ का सारथी कौन है ? अपने-आपसे पूछना चाहिए।

शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। अब सारथी कामना है, काम है कि राम है ? बुद्धि निर्णय करे, मन उसके विषय में विचार करे और इन्द्रियाँ तदनुकूल चलें तो समझो आप राम तक पहुँच जायेंगे। इन्द्रियों ने देखा, मन ने उसकी प्राप्ति के लिये सोचा और बुद्धि उसमें लग गयी तो समझो बरबादी हो गयी। कभी-कभी आपका विवेक इन्कार करता है लेकिन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि उधर को खींचते हैं। बुद्धि कुछ कह रही है और हृदय कुछ और कह रहा है तो उस वक्त बुद्धि की बात को ठुकरा दो, क्योंकि वह भीतरवाला अंतर्यामी जो है न, तुम्हारा हृदय जो है न, वह ईश्वर के करीब होता है, विवेक के करीब होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 218

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आपके जीवन में शिव ही शिव हो


(पूज्य बापू जी कल्याणमयी मधुमय वाणी)

चार महारात्रियाँ हैं – जन्माष्टमी, होली, दिवाली और शिवरात्रि। शिवरात्रि को अहोरात्रि भी बोलते हैं। इस दिन ग्रह नक्षत्रों आदि का ऐसा मेल होता है कि हमारा मन नीचे के केन्द्रों से ऊपर आये। देखना, सुनना, चखना, सूँघना व स्पर्श करना – इस विकारी जीवन में तो जीव-जंतु भी होशियार हैं। बकरा जितना काम विकार में होशियार है उतना मनुष्य नहीं हो सकता। बकरा एक दिन में चालीस बकरियों के साथ काला मुँह कर सकता है, मनुष्य करे तो मर जाये। यह विकार भोगने के लिए तो बकरा, सुअर, खरगोश और कई नीच योनियाँ हैं। विकार भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।

विकारी शरीरों की परम्परा में आते हुए भी निर्विकार नारायण का आनंद-माधुर्य पाकर अपने शिवस्वरूप को जगाने के लिए शिवरात्रि आ जाती है कि लो भाई ! तुम उठाओ इस मौके का फायदा….।

शिवजी कहते हैं कि ‘मैं बड़े-बड़े तपों से, बड़े-बड़े यज्ञों से, बड़े-बड़े दानों से, बड़े-बड़े व्रतों से इतना संतुष्ट नहीं होता हूँ जितना शिवरात्रि के दिन उपवास करने से होता हूँ।’ अब शिवजी का संतोष क्या है ? तुम भूखे मरो और शिवजी खुश हों, क्या शिव ऐसे हैं ? नहीं, भूखे नहीं मरोगे, भूखे रहोगे तो शरीर में जो रोगों के कण पड़े हैं, वे स्वाहा हो जायेंगे और जो आलस्य, तन्द्रा बढ़ाने वाले विपरीत आहार के कण हैं वे भी स्वाहा हो जायेंगे और तुम्हारा जो छुपा हुआ सत् स्वभाव, चित् स्वभाव, आनंद स्वभाव है, वह प्रकट होगा। शिवरात्रि का उपवास करके, जागरण करके देख लो। मैंने तो किया है। मैंने एक शिवरात्रि का उपवास घर पर किया था, ऐसा फायदा हुआ कि मैं क्या-क्या वर्णन करूँ ! क्या-क्या अंतर्प्रेरणा हुई, क्या-क्या फायदा हुआ उसका वर्णन करना मेरे बस का नहीं है। नहीं तो जाने घिस-पिट के क्या हालत होती सत्तर की उम्र में ! ‘अरे बबलू ! ऐंह…. अरे जरा उठा दें… जरा बैठा दे।’ – यह हालत होती।

इस दिन जो उपवास करे, उसे निभाये। जो बूढ़े हैं, कमजोर हैं, उपवास नहीं रख सकते, वे लोग थोड़ा अंगूर खा सकते हैं अथवा एक छोटे-मोटे नारियल का पानी पी सकते हैं, ज्यादा पीना ठीक नहीं।

शरीर में जो जन्म से लेकर विजातीय द्रव्य हैं, पाप-संस्कार हैं, वासनाएँ हैं उन्हें मिटाने में शिवरात्रि की रात बहुत काम करती है।

शिवरात्रि का जागरण करो और ‘बं’ बीजमंत्र का सवा लाख जप करो। संधिवात (गठिया) की तकलीफ दूर हो जायेगी। बिल्कुल पक्की बात है ! एक दिन में ही फायदा ! ऐसा बीजमंत्र है शिवजी का। वायु मुद्रा करके बैठो और ‘बं बं बं बं बं’ जप करो। जैसे जनरेटर घूमता है तो बिजली बनती है, फिर गीजर भी चलेगा और फ्रिज भी चलेगा। दोनों विपरीत हैं लेकिन बिजली से दोनों चलते हैं। ऐसे ही ‘बं बं’ से विपरीत धर्म भी काम में आ जाते हैं। बुढ़ापे में तो वायु संबंधी रोग ज्यादा होते हैं। जोड़ों में दर्द हो गया, यह पकड़ गया-वह पकड़ गया…. ‘बं बं’ जपो, उपवास करो, देखो अगला दिन कैसा स्फूर्तिवाला होता है।

शिवरात्रि की रात का आप खूब फायदा उठाना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। भीड़ भाड़ में, मंदिर में नहीं गये तो ऐसे ही ‘ॐ नमः शिवाय‘ जप करना। मानसिक मंदिर में जा सको तो जाना। मन से ही की हुई पूजा षोडषोपचार की पूजा से दस गुना ज्यादा हितकारी होती है और अंतर्मुखता ले आती है।

शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय…. ॐ नमः शिवाय…. शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो ‘बं बं बं बं बं’ सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब ! अगर तुम प्रणव की 120 मालाएँ करते हो रोज और ऐसे पाँच लाख मंत्रों का जप करते हो तो आपकी मंत्रसिद्धि की शक्तियाँ जागृत होने लगती है। ॐ नमः शिवाय मंत्र तो सब बोलते हैं लेकिन इसका छंद कौन सा है, इसके ऋषि कौन हैं, इसके देवता कौन हैं, इसका बीज क्या है, इसकी शक्ति क्या है, इसका कीलक क्या है – यह मैं बता देता हूँ। अथ ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है ‘शिवाय’, ‘नमः’ है शक्ति, ॐ है बीज… हम इस उद्देश्य से (मन ही मन अपना उद्देश्य बोलें) शिवजी का मंत्र जप रहे हैं – ऐसा संकल्प करके जप किया जाय तो उसी संकल्प की पूर्ति में मंत्र की शक्ति काम देगी।

अगर आप शिव की पूजा स्तुति करते हैं और आपके अंदर में परम शिव को पाने का संकल्प हो जाता है तो इससे बढ़कर कोई उपहार नहीं और इससे बढ़कर कोई पद नहीं है। भगवान शिव से प्रार्थना करें- ‘इस संसार के क्लेशों से बचने के लिए, जन्म-मृत्यु के शूलों से बचने के लिए हे भगवान शिव ! हे साम्बसदाशिव ! हे शंकर ! मैं आपकी शरण हूँ, मैं नित्य आने वाली संसार की यातनाओं से हारा हुआ हूँ, इसलिए आपके मंत्र का आश्रय ले रहा हूँ। आज के शिवरात्रि के इस व्रत से और मंत्रजप से तुम मुझ पर प्रसन्न रहो क्योंकि तुम् अंतर्यामी साक्षी चैतन्य हो। हे प्रभु ! तुम संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्राप्त कराओ। सुख और दुःख में मैं सम रहूँ। लाभ और हानि को सपना समझूँ। इस संसार के प्रभाव से पार होकर इस शिवरात्रि के वेदोत्सव में मैं पूर्णतया अपने पाप-ताप को मिटाकर आपके पुण्यस्वभाव को प्राप्त करूँ।

शिवधर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैः एक तो तप (सात्त्विक आहार, उपवास, ब्रह्मचर्य) शरीर से, मन से, पति-पत्नी, स्त्री पुरुष की तरफ के आकर्षण का अभाव। आकर्षण मिटाने में सफल होना हो तो ॐ अर्यमायै नमः…. ॐ अर्यमायै नमः….. यह जप शिवरात्रि के दिन कर लेना, क्योंकि शिवरात्रि का जप कई गुना अधिक फलदायी कहा गया है। दूसरा है भगवान की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म, पूजन अर्चन आदि (मानसिक अथवा शारीरिक), तीसरा शिवमंत्र का जप, चौथा शिवस्वरूप का ध्यान और पाँचवाँ शिवस्वरूप का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव ही उपासना है। चिता में भी शिवतत्त्व की सत्ता है, मुर्दे में भी शिवतत्त्व की सत्ता है तभी तो मुर्दा फूलता है। हर जीवाणु में शिवतत्त्व है। तो इस प्रकार अशिव में भी शिव देखने के नजरिये वाला ज्ञान, दुःख में भी सुख को ढूँढ निकालने वाला ज्ञान, मरूभूमि में भी वसंत और गंगा लहराने वाला श्रद्धामय नजरिया, दृष्टि यह आपके जीवन में शिव ही शिव लायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 14, 15 अंक 218

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