Monthly Archives: January 2012

ʹयह प्रसादी तेरे चरणों में मेवाड़ का राज्य रख देगीʹ


(श्री गोरखनाथ जयंतीः 5 फरवरी)

(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

एक बार गोरखनाथ जी नागदा (राजस्थान में उदयपुर से 27 कि.मी. दूर स्थित एक स्थान) के पास पहाड़ियों में एकांतवास कर रहे थे। वहाँ गोरखनाथ जी ने एक शिवलिंग स्थापित कर रखा था। एक लड़का था, जिसके माँ-बाप चल बसे थे। इस कारण वह एक ब्राह्मण परिवार की गाये चराता था। उसका लालन-पालन वह ब्राह्मण परिवार ही करता था। समझो ब्राह्मण-ब्राह्मणी ही उसके पालक माता-पिता थे। संग के प्रभाव से लड़के में संध्या-वंदन आदि के कुछ अच्छे संस्कार पड़ते गये। लड़का भी चित्त से थोड़ा शांत होने लगा।

एक दिन वह गायें चरा के लौटा तो ब्राह्मण ने उसको डाँटकर पूछाः “पिछले कुछ दिनों से एक गाय दूध क्यों नहीं देती ? तू पी जाता है क्या ?”

लड़के ने कहाः “नहीं, मैं तो नहीं पीता हूँ लेकिन दूध नहीं देती तो अब मैं ध्यान रखूँगा।”

दूसरे दिन वह गायों को जंगल में ले गया तो एक गाय चुपके से आगे निकल गयी। उसने उसका पीछा किया तो देखा कि वह गाय एक शिवलिंग के पास जाकर खड़ी हुई और अपने-आप दूध की धार शिवलिंग पर बरसने लगी। वह दूध की धार आगे रखे एक कमंडल में गिरने लगी और वह भर गया। लड़के को कौतुहल हुआ और श्रद्धा ने दृढ़ता ली। आगे देखा तो एक जोगी बैठे हैं। वे जोगी गोरखनाथ जी थे।

जोगी की आँखें खुलीं। देखा कि एक लड़का खड़ा है। लड़के को प्यार से बुलाकर पूछाः “तुम गायें चराते हो ? मुझे दूध की आवश्यकता है इसलिए प्रकृति गाय को प्रेरित करके यहाँ दूध की धार करवा देती है। कल मैं जा रहा हूँ। मुझे तुम्हारी गाय का दूध मिला है इसलिए मैं तुम्हें कुछ प्रसाद दूँगा, कल आना।” लड़का श्रद्धा-भक्ति से सम्पन्न होकर चला गया।

गाय ने तो आज भी दूध नहीं दिया लेकिन उस लड़के ने ब्राह्मण ने कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन सवेरे वह गायों को चराने के निमित्त गया और जल्दी-जल्दी वहाँ पहुँच गया जहाँ गोरखनाथ जी रहते थे।

गोरखनाथ जी ने उसे बुलाकर कहाः “आ जाओ, अपने हाथों में यह विभूति ले लो।”

विभूति उठाकर दी लेकिन बालक की असावधानी से वह हाथों से गिरकर पैरों पर पड़ी।

गोरखनाथ जी ने कहाः “देख, हाथों में रहती तो कुछ और होता। अब यह असावधानी से गिर गयी है, फिर भी यह प्रसादी तेरे चरणों में मेवाड़ का राज्य रख देगी।”

लड़के का नाम बाप्पा कालभोज था, जो आगे चलकर मेवाड़ राज्य का संस्थापक बाप्पा रावल बना। उनके वंशज उसी शिवलिंग को (जो ʹएकलिंग शिवʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ) राज्य का इष्टदेव, स्वामी मानते हैं।

तुम्हारे मन में अथाह सामर्थ्य, अथाह शक्ति है। गोरखनाथजी ने संकल्प कर दिया तो वह गाय चराने वाला लड़का मेवाड़ राज्य का संस्थापक हो गया। यह बाहर का राज्य तो आता है और जाता है। इससे भी ऊँचा राज्य है आत्मराज्य। संत तो वह भी दे सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 10, अंक 229

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स्वतः सिद्ध आत्मा और स्वतः निवृत्त प्रकृति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

श्रीवसिष्ठजी कहते हैं- “हे रामजी ! यह जगत मिथ्या है। कोई पुरुष इस जगत को सत् जानता है और कहता है कि हम मुक्त होंगे तो ऐसा है जैसे अंधे कूप में जन्म का अंधा गिरे और कहे कि ʹअंधकार में मैं सुखी होऊँगा।ʹ वह मूर्ख है क्योंकि जीव आत्मज्ञान बिना मुक्त नहीं होता।

हे रामजी ! इस आत्मदेव से भिन्न जो सूर्य, चन्द्रमा आदि की भेद पूजा है, सो तुच्छ है। जब तुम आत्मपूजा में स्थित होओगे, तब और पूजा तुमको सूखे तृण की नाईं भासेगी। आत्मदेव की पूजा के निमित्त फूल भी चाहिए। आत्मविचार करके चित्त की वृत्ति अंतर्मुख करना और यथालाभ में संतुष्ट रहकर संतों की संगति करना – यह आत्मदेव को फूल निवेदित करना है।”

यथालाभ में संतुष्ट होकर संतों की संगति करनी चाहिए। जो धन मिल गया सो मिल गया, जो खो गया सो खो गया। ऐसा दुनिया में कौन है जिसके सब काम पूरे हो गये !

बहूरानी सासुजी की चरणचम्पी कर रही है। सासु ने पूछाः “बेटा ! सब काम पूरे हो गये ?”

बहूरानी बोलीः “जी माँजी ! आज तो जो भोजन बनाया सबको खिला दिया, कुछ बचा नहीं और बर्तन भी माँज दिये।”

“अच्छा बेटा !”

“बब्बू के पापा को खाँसी हो गयी थी तो थोड़ा सा गुड़ और पाँच काली मिर्च का काढ़ा बना कर दिया। आज रविवार है, तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए इसलिए ऐसे ही काढ़ा दे दिया। उनकी खाँसी में आराम है, सो गये हैं और काढ़े की तपेली भी माँज के रख दी है।”

“कोई काम बाकी नहीं है तो बेटा ! जा के सो जा।”

सुबह हुई, सासु ने बहू से पूछाः “बेटा ! कोई काम बाकी तो नहीं ?”

“माँजी ! सब बाकी हैं। बच्चों को नहलाना, विद्यालय भेजना, गाय दुहना, रसोई बनाना…. सब काम बाकी हैं।”

रात को तो सारा काम पूरा करके सोयी, सुबह सब काम बाकी !

जगत के कार्य कोई पूरे हो गये क्या सबके ? निवृत्त हो रहे हैं, पूरे नहीं हो रहे हैं। हो-हो के निवृत्त हो रहे हैं। कोई कैसे, कोई कैसे निवृत्त हो रहे हैं। तो स्वतः सिद्ध है आत्मा और स्वतः प्रवृत्त में से निवृत्त हो रही  है प्रकृति।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्मणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

ʹवास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ʹमैं कर्ता हूँʹ ऐसा मानता है।ʹ (गीताः 3.27)

देह को ʹमैंʹ मानकर जो अहंका हो गया, वह अपने शरीर की, इन्द्रियों की प्रवृत्ति-निवृत्ति को अपनी प्रवृत्ति-निवृत्ति, अपना कर्ता-भोक्तापन मानता है। अहंकार से जो विमूढ़ हो गया, वह अपने को कर्ता मान रहा है। हकीकत में कर्ता नहीं… कर्ता भी नहीं, भोक्ता भी नहीं। कुछ लोग अपने को भोग्य बना लेते हैं। ऐसा रूप, ऐसा रंग-रोगन करके घूमें तो लोगों का हमारी तरफ ध्यान जाय….. तो लोग हो गये भोक्ता और हम हो गये उनके भोग्य !

न आप किसी के भोक्ता बनो, न किसी के भोग्य बनो। आप अनुमंता रहो, जो एकरस तत्त्व है, शाश्वत तत्त्व है। अनुमंता – स्वतः प्राप्त, स्वतः सिद्ध तत्त्व। इसमें जो टिकने का अभ्यास करता है, इसमें जो सजग हो जाता है, वह विश्वविजेता हो जाता है। अष्टावक्रजी कहते हैं- तस्य तुलना केन जायते ? उसकी तुलना किससे करोगे ?

एक श्वास लिया और छोड़ दिया तो बीच का जो एक जरा-सा सैकेंड-आधा सैकेंड का क्षण है, वह स्वतः सिद्ध ʹहैʹ तत्त्व है, वह परमात्मा है। यह परमात्म-अवस्था सदा-प्राप्त तत्त्व है। जो बदल रहा है वह सदा-निवृत्त तत्त्व है। इसका अभ्यास करे दीर्घकाल तक। बुद्धि थोड़ी सूक्ष्म हो, पवित्र हो। आहार व्यवहार सात्त्विक होता है, पवित्र होता है तो कोई कठिन नहीं है। इतनी संसारी प्रवृत्ति न करे कि अपने को थका दे और इतना आलसी न हो कि परमात्म-तत्त्व का विचार करने की योग्यता ही मर जाय। सजग रहे। इतना भावुक न रहे की ऊँची बात समझने की घड़ियाँ आयें तो भाव में ही रह जाय या बह जाय। भाव में बहे नहीं, रहे नहीं और इतना रूखा भी न रहे कि भाव-रस से कंगाल रह जाय।

एक माई थी बड़ी भावनावाली। ʹगुरुजी घर कब आओगे – कब आओगे….ʹ पति-पत्नी ने गुरु को रिझाते-रिझाते ʹहाँʹ भरवा ली। गुरु जी घर पधारे। क्या-क्या व्यंजन बने ! गुरुजी को भोजन परोस रही है और पूछ रही हैः “गुरु जी ! खीर कैसी है ?”

“बिटिया ! बहुत बढ़िया है।”

“गुरुजी ! यह कैसा है ?”

“यह सब ठीक है।”

भोजन भी अच्छा बनाया, गुरु जी को भी संतोष है किंतु ʹमैं कैसी भाग्यशाली हूँ !ʹ – ऐसा करते-करते भाव-भाव में ऐसा भाव चढ़ गया कि धबाक्-से गिर पड़ी थाली पर। गुरु जी की दाढ़ी में और धोती पर खीर लग गयी। पूड़ी उधर गयी, सब्जी इधर गिरी तो कुछ कहीं गिरा…. अब गुरु जी को भोजन कराया कि मुसीबत कर दी !

भावना तो ठीक है लेकिन भावना के साथ-साथ विचारशक्ति भी हो। अकेला विचार रूखा हो जायेगा और अकेली भावना अंधी हो जायेगी। भावना के साथ विवेक-विचार, विवेक-विचार के साथ भावना। विचार भी हो, सदभाव भी हो। उसमें फिर सावधानी से सत्कर्म। सत्कर्म भी निवृत्ति के लिए है। सत्कर्म करके अपना फायदा लेने की वासना होगी तो प्रवृत्ति बढ़ेगी। प्रवृत्ति करके भी निवृत्ति हो जायेगी और एकदम निवृत्त हो गये तब भी निवृत्त हो जायेंगे। कितने भी कर्म करेंगे, प्रवृत्ति करेंगे तब भी आखिर निवृत्ति आयेगी और निवृत्ति के लिए करेंगे तो भी निवृत्ति आयेगी। बहुत ऊँची बात है !

ऐसा ज्ञान हो गया तो कैसी अनुभूति होगी अंदर में ! पंचदशीकार ने लिखा हैः

मायामेघो जगन्नीरं वर्षत्वेष यथा तथा।

चिदाकाशस्य नो हानिर्न वा लाभ इति स्थितिः।।

ʹमायारूपी मेघ जगतरूपी जल की वर्षा चाहे जैसे करे, न इससे चिदाकाश का कुछ लाभ है न हानि, यह सिद्धान्त है।ʹ (पंचदशीः 8.75)

फलानी जगह बाढ़ आयी है लेकिन आकाश को कौन डुबा सका ! ऐसे ही प्रलय में जो नहीं मिटता वो हम हैं। प्रलय हो जाय, बारह सूरज तप जायें, शरीर जल के खाक हो जाय, धरती पर हाहाकार मच जाय….. अग्नि, अग्नि, अग्नि हो जाय…. कुछ नहीं रहता ऐसा भी समय आता है और ऐसा एक बार नहीं आया, कई बार ऐसी सृष्टियाँ हुई और लीन हो गयीं। तुम कौन-सी चीज को सँभाल के रखना चाहते हो ? सब निवृत्त हो रहा है प्रवृत्त हो के।

किआ मागउ किछु थिरू न रहाई।

देखत नैन चलिओ जगु जाई।।

आँखों के देखते-देखते जगत बीत रहा है, सब पसार हो रहा है। प्रवृत्ति….. प्रवृत्ति में से निवृत्ति… निवृत्ति में से प्रवृत्ति…..

तो स्वतः सिद्ध और स्वतः निवृत्त ये दो तत्त्व हैं। स्वतः निवृत्त प्रकृति है और स्वतः सिद्ध परमात्मा है। प्रकृति आपका शरीर है, मन है, बुद्धि है और उसको देखने वाला आपका परमात्मा और शरीर है आपकी माया !

वसिष्ठजी कहते हैं- “हे रामजी ! संतों का संग करके और सत्शास्त्रों को सुनकर स्वरूप का अभ्यास करो। इससे आत्मपद की प्राप्ति होती है। ये तीनों परस्पर सहकारी हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 27,28, 31 अंक 229

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श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न – कुष्मांड (कुम्हड़ा या कद्दू)


शीत ऋतु में कुम्हड़े के फल परिपक्व हो जाते हैं। पके फल मधुर, स्निग्ध, शीतल, त्रिदोषहर (विशेषतः पित्तशामक), बुद्धि को मेधावी बनाने वाले, हृदय के लिए हितकर, बलवर्धक, शुक्रवर्धक व विषनाशक हैं।

कुम्हड़ा मस्तिष्क को बल व शांति प्रदान करता है। यह निद्राजनक है। अतः अनेक मनोविकार जैसे उन्माद(Schizophrenia), मिर्गी(Epilepsy), स्मृति-ह्रास, अनिद्रा, क्रोध, विभ्रम, उद्वेग, मानसिक अवसाद (Depression), असंतुलन तथा मस्तिष्क की दुर्बलता में अत्यन्त लाभदायी है। यह धारणाशक्ति को बढ़ाकर बुद्धि को स्थिर करता है। इससे ज्ञान-धारण (ज्ञान-संचय) करने की बुद्धि की क्षमता बढ़ती है। चंचलता, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा आदि दूर होकर मन  शांत हो जाता है।

कुम्हड़ा रक्तवाहिनियों व हृदय की मांसपेशियों को मजबूत बनाता है। रक्त का प्रसादन (उत्तम रक्त का निर्माण) करता है। वायु व मल का निस्सारण कर कब्ज को दूर करता है। शीतल (कफप्रधान) व रक्तस्तम्भक गुणों से नाक, योनि, गुदा, मूत्र आदि द्वारा होने वाले रक्तस्राव को रोकने में मदद करता है। पित्तप्रधान रोग जैसे आंतरिक जलन, अत्यधिक प्यास, अम्लपित्त (एसिडिटी), बवासीर, पुराना बुखार आदि में कुम्हड़े का रस, सब्जी, अवलेह (कुष्मांडवलेह) उपयोगी हैं।

क्षयरोग (टी.बी.) में कुम्हड़े के सेवन से फेफड़ों के घाव भर जाते हैं तथा खाँसी के साथ रक्त निकलना बंद हो जाता है। बुखार व जलन शांत हो जाती है, बल बढ़ता है।

अंग्रजी दवाइयों तथा रासायनिक खाद द्वारा उगायी गयी सब्जियाँ, फल और अनाज के सेवन से शरीर में विषैले पदार्थों का संचय होने लगता है, जो कैंसर के फैलाव का मुख्य कारण है। कुम्हड़े और गाय के दूध, दही इत्यादि में ऐसे विषों को नष्ट करने की शक्ति निहित है।

औषधि प्रयोग

मनोविकारों में कुम्हड़े के रस में 1 ग्राम यष्टिमधु चूर्ण मिलाकर दें।

विष-नाश के लिए इसके रस में पुराना गुड़ मिलाकर पियें।

पित्तजन्य रोगों में मिश्रीयुक्त रस लें।

पथरी हो तो इसके रस में 1-1 चुटकी हींग व यवक्षार मिलाकर लें।

क्षयरोग में कुम्हड़ा व अडूसे का रस मिलाकर पियें।

बल-बुद्धि बढ़ाने के लिए कुम्हड़ा उबालकर घी में सेंक के हलवा बनायें। इसमें कुम्हड़े के बीज डालकर खायें।

कुम्हड़े का दही में बनाया हुआ भुरता भोजन में रूचि उत्पन्न करता है।

थकान होने पर कुम्हड़े के रस में मिश्री व सेंधा नमक मिलाकर पीने से तुरंत ही ताजगी आती है।

उपरोक्त सभी प्रयोगों में कुम्हड़े के रस की मात्रा 20 से 50 मि.ली. लें।

सावधानीः  कच्चा कुम्हड़ा त्रिदोष-प्रकोपक है। पुराना कुम्हड़ा पचने में भारी होता है, इसके मोटे रेशे आँतों में रह जाते हैं। अतः कच्चा व पुराना कुम्हड़ा नहीं खाना चाहिए। शीत प्रकृति के लोगों को कुम्हड़ा अधिक नहीं खाना चाहिए। कुम्हड़े की शीतलता कम करनी हो तो उसमें मेथी का छौंक लगायें।

आजकल कुम्हड़े का वजन व आकार बढ़ाने के लिए उसमें ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन्स लगाये जाते हैं। ऐसा कुम्हड़ा फायदे की जगह नुकसान करता है। हो सके तो इसे आँगन या बरामदे में उगायें। 24 इंच के गमले में देशी खाद व मिट्टी मिलाकर इसे उगाया जा सकता है।

बलदायक कुष्मांड बीज

गुणः कुम्हड़े के बीज काजू के समान गुणवत्तायुक्त, पौष्टिक, बलवर्धक, वीर्यवर्धक, बुद्धि की धारणाशक्ति बढ़ाने वाले, मस्तिष्क को शांत करने वाले व कृमिनाशक हैं।

सेवन विधिः बीज पीस लें। दूध में एक चम्मच मिलाकर पियें। इससे शरीर पुष्ट होता है। पचने में भारी होने से इसे अधिक मात्रा में न लें।

सर्दियों में बलदायी कुम्हड़े के बीजों के लड्डू

लाभः इसके वजन, शक्ति, रक्त और शुक्रधातु की वृद्धि होती है, बुद्धि भी बढ़ती है।

विधिः कुम्हड़े के बीजों के अंदर की गिरी निकालकर उसे थोड़ा गर्म करके बारीक पीस लें। लोहे के तवे पर घी में लाल होने तक भूनें। मिश्री की चाशनी में मिलाकर तिल के लड्डू क समान छोटे-छोटे लड्डू बनायें। सर्दियों में बच्चे 1 और बड़े 2-3 लड्डू चबा-चबाकर खायें।

कुम्हड़े के बीज व काजू में पाये जाने वाले पोषक

तत्त्वों का तुलनात्मक विवरणः

  कुम्हड़े के बीज काजू
ऊर्जा 584 किलो कैलोरी % 596 किलो कैलोरी %
कैल्शियम 50 मि.ग्रा. % 50 मि.ग्रा. %
लौह तत्त्व 5.5 मि.ग्रा. % 5.8 मि.ग्रा. %
खनिज तत्त्व 4.7 ग्रा. % 2.4 ग्रा. %
प्रोटीन्स 24.3 ग्रा. % 21.3 ग्रा. %

स्वास्थ्य प्रयोग

नेत्रज्योतिवर्धकः पीपल के कोमल पत्तों का रस 2 बूँद और शुद्ध शहद 2 बूँद दोनों को मिलाकर प्रतिदिन आँखों में आँजने से आँखों की लाली व फूली नष्ट होती है। नियमित प्रयोग करने से नेत्रज्योति बढ़ती है।

बलवर्धकः 2 से 4 ग्राम शतावरी का चूर्ण गर्म दूध के साथ 3 माह तक सेवन करें। इससे शरीर में बल आता है, साथ ही नेत्रज्योति बढ़ती है।

वीर्य-उत्पादक योगः शुद्ध कौंच के बीज, विदारीकंद, गोखरू, शतावरी, अश्वगंधा प्रत्येक 100-100 ग्राम, जायफल, छोटी इलायची, पिप्पली प्रत्येक 20 ग्राम तथा शुद्ध बंगभस्म 120 ग्राम – इन सभी को अलग-अलग पीसकर अच्छी तरह मिला के काँच की बरनी में रख लें। सुबह 3 ग्राम मिश्रण 8-10 बूँद बड़ का दूध मिला के दूध के साथ सेवन करें।

शुद्ध बंगभस्म 1 रत्ती (120 मि.ग्रा.) सुबह घी के साथ लें और ऊपर से दूध पी लें। यह प्रयोग 40-60 दिनों तक करने व ब्रह्मचर्य का पालन करने से शुक्राणुओं की वृद्धि होगी। इससे नपुंसकता में भी लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 229

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