लोग कहते हैं- ‘मन नहीं लगता, क्या करें ?’ उसे रस नहीं आता
इसलिए नहीं लगता । तो खोजो उसे कहाँ रस आ रहा है ? तुच्छ
विकारों में, मनोराज में, काहे में रस आ रहा है ? जब मन भगवद्-
अनुकूल और भगवान के प्रति आकर्षित होता है तो वह भगवान में
तल्लीन होता है और उसके द्वारा संसार का हित खूब होता है । जो ऐसे
ही बोलता है कि ‘मैं कुटुम्ब का हित करूँ, समाज का हित करुँ…’ वह
अपना ही हित नहीं जानता तो दूसरे का हित क्या करेगा ?
रमण महर्षि कहते हैं कि ‘अंतर्मुख होओगे तो आत्मदेव का सुख
मिलेगा ।’ मन भले देर से लगे पर लगेगा तो ऐसा कि अपना और
दूसरों का कल्याण करने वाला हो जायेगा । और बहिर्मुख होओगे –
जगत की तरफ देखोगे – सोचोगे तो अपने और दूसरों के कल्याण के
नाम पर भी मोह-माया बढ़ेगी, फँसान ही बढ़ेगी ।
दुनिया के बड़े-बड़े उद्योंगों की अपेक्षा क्षणभर भी परमात्मा में
विश्रांति पाना बड़ा भारी हितकारी है – अपने लिए व औरों के लिए ।
मन लगाने का साधन
‘बेटा मानता नहीं, बेटी करती नहीं… क्या करें ये पढ़ते नहीं हैं,
ऐसा नहीं करते, अब क्या करें…’ मन न लगने के जो कारण हैं उनको
उखाड़ के फेंको । भगवान के विधान पर, भगवान पर और अपने प्रारब्ध
पर विश्वास रखो, बेटा-बेटी के प्रारब्ध पर विश्वास रखो ।
यदि विषय-विकारों में, मांस-मदिरा में मन लग रहा है तो इस
अशुद्ध आहार के कारण भगवान में मन नहीं लगता । तो यह अशुद्ध
आहार छोड़ो और थोड़ा अभ्यास करो । सुबह सूर्योदय से पहले उठने से
सत्त्वगुण बढ़ेगा, मन लगाने में मदद मिलेगी । जरूरत से दो कौर कम
खाने वाले का मन शांत होगा और भगवद्-भजन में लगेगा । जीभ को
मुँह में ऊपर नहीं – नीचे नहीं, बीचे में रखो और भगवद्-मूर्ति, गुरुमूर्ति
के सामने एकटक देखो । आँख की पुतली स्थिर हुई तो मन को स्थिर
होना ही है । नींद में से उठ के थोड़ा शांत हो जाओ फिर ॐकार का
ह्रस्व उच्चारण करो फिर दीर्घ व प्लुत उच्चारण करो – ॐ ॐ ॐ ॐ
ओऽऽऽऽऽम्ऽऽ… । नींद में से उठने पर मन वैसे ही थोड़ा शांत होता है
तो थोड़ी शांति के बाद मन में ॐकार मंत्र जपते-जपते और शांत होते
जाओ, रस आयेगा । कभी ताल मिलाक स्नेहपूर्वक भगवान को, सद्गुरु
को याद करते हुए अपने ढंग से गुनगुनाओ, उनसे मन ही मन बातचीत
करो तो मन को रस आयेगा ।
….तो मन अपने आप खिंच के आयेगा
मेरे गुरुदेव अपने-आपसे बात करते थेः “शरीर लीलाशाह है, मैं
ब्रह्म हूँ । भोजन करेगा ?”
(मन कहताः) “हाँ-हाँ साँईं ! भूख लगी है ।”
“लेकिन देख, भोजन तब मिलेगा जब सत्संग सुनेगा । पहले
सत्संग करना पड़ेगा । सत्संग सुना है बेटा ?”
बोलेः “हाँ” ।
“हाँ तो खा ले, खा ले पियूऽऽ… मोर की आवाज निकाल कर) हा
हा हा ! हँसते थे । सत्संग सुना है तो खा ले ! कितने फुलके (रोटियाँ)
चाहिए ?”
“साँईं ! तीन चाहिए ।”
“अरे भाई ! ज्यादा है, कुछ तो यार कमी कर !”
“अच्छा साँईं ! ढाई दे दो ।”
“ले भला बेटा ! खा ।”
मैं पहले-पहले गया तो चकित हो जाता था कि ‘गुरु जी कुटिया में
अकेले हैं फिर ‘बेटा’ और ‘यह खा…’ यह सब क्या बोलते हैं ? फिर पता
चला कि यह विनोद है । भोजन करते समय प्रसन्नता चाहिए और यह
प्रसन्नता महापुरुष तात्त्विक ढंग से उत्पन्न करते थे । मन को बेटा बना
दिया, स्वयं मन से पृथक हो गये ।
तो इस प्रकार मन से पृथक हो गये तो उसके संकल्प-विकल्प की
सच्चाई और जोर कम हो जायेंगे । आप अपने शांत-स्वभाव में आयें तो
मन अपने-आप खिंच के आयेगा ।
संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।।
मन को रस कैसे आता है ?
मन क्यों नहीं लगता ? क्योंकि उसे रस नहीं आता ।
न रसः यस्य सः आलसः ।
रस नहीं आता तो आलस्य होता है, मन नहीं लगता । अभक्तों का
संग, विषय-विकारों में फँसे लोगों का संग भगवद् भावों को क्षीण कर
देता है । सत्संगियों का संग, सत्पुरुषों का संग, नियम, व्रत, अनुष्ठान –
इनसे मन को रस आता है, फिर लगने लगता है । लोग आश्रम के मौन
मंदिर में आते हैं तो ‘हइशो-हइशो’ करके आये होते हैं । शुरुआत के 1-2
दिन घर की याद आती है, इसकी-उसकी याद आती है । फिर जब मन
लगने लगता है तो 7 दिन कैसे बीत गये पता नहीं चलता । मन को
रस आने लगता है, बड़े फायदे होते हैं ।
तो भगवद् रस के माहौल में, भगवद् रस आये ऐसे साधन में और
भगवद् रस उभारें ऐसे विचारों में रहें, बस हो गया ! और लम्बे-चौड़े
उपाय क्या हैं, इतना ही काफी है । तो भगवद् रस आये कैसे ? जो
अपना होता है उसके प्रति प्यार होता है । झोंपड़पट्टि वाली माई को
नाक से गंदगी बहाता लड़का उसका अपना है तो प्यारा लगता है ।
अपनी पुरानी जूती भी चाचा को प्यारी लगती है । कोई उस पर पैर
रखे, उसे फेंक दे तो उसको बोलेगा कि ‘मेरी जूती पर पैर क्यों रखा रे ?
मेरी जूती क्यों फेंकी ? जूती मेरी है ।’ जूती फेंकने वाले ने किसी
मेमसाहब का सैंडिल फेंक दिया तो जूतीवाला बोलता हैः ‘कोई बात नहीं’
या ‘अच्छा किया’ लेकिन उसकी जूती फेंक दी तो बोलता हैः ‘मेरी जूती
क्यों फेंकी ?’ जैसे जूती-जूता अपने लगते हैं तो प्यारे हो जाते हैं ऐसे ही
भगवान अपने लगें जो वास्तव में अपने हैं, इससे भगवान में प्रेम हो
जायेगा । शरीर अपना नहीं है – पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा ।
चीज-वस्तु, पद अपने नहीं हैं । तो यह जगत मिथ्या है, माना हुआ है,
यह अपना नहीं है किंतु ईश्वर अपने हैं, थे और रहेंगे । तो ईश्वर इतने
शाश्वत हैं ! 4 दिन के लिए मकान अपना है तो प्यारा लगता है, जूता
अपना है तो प्यारा लगता है, जो पहले अपने थे, अभी हैं और बाद में
भी रहेंगे उन ईश्वर में अपनत्व का भाव बढ़ाओ तो वे भी प्यारे लगेंगे
और उनमें भी मन लगेगा । इस प्रकार मन को रस आता जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2023 पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 364
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