मनुष्य इन तीन तत्त्वों का मिश्रण हैः पाशवीय तत्त्व, मानवीय तत्त्व और
ईश्वरीय तत्त्व । पाशवीय तत्त्व अर्थात् पशु जैसा आचरण । चाहे जैसा खाना-पीना,
माता-पिता की हितकारी बात को ठुकरा देना, सामाजिक नीति-नियमों को ठुकरा देना, जैसे
ढोर चलता है ऐसे ही मन के अनुसार चलना – ये पाशवीय तत्त्व हैं ।
मानवीय तत्त्व अर्थात् मानवोचित आचरण । यथायोग्य आहार-विहार, अच्छे संस्कार,
अच्छा संग, माता-पिता एवं गुरु का आदर करना – ये मानवीय तत्त्व हैं ।
ईश्वरीय तत्त्व… जब संत सद्गुरु मिलते हैं एवं मानव साधन-भजन करता है, ध्यान
जप करता है, व्रत उपवास करता है तब ईश्वरीय तत्त्व विकसित होता है ।
जो मनमुख होता है उसमें पाशवीय अंश जोरदार होता है । फिर वह चाहे अपना बेटा हो या भाई हो लेकिन पाशवीय अंश ज्यादा है तो हैरान करता है । जैसे पशु जरा-जरा बात में लात मारता है, कुत्ता जरा-जरा बात में भौंकता है ऐसे ही पाशवीय अंश वाला मनुष्य जरा-जरा बात में अशांत हो जायेगा, जरा-जरा बात में राग-द्वेष की गाँठ बाँध लेगा । वह अपनी पाशवीय वासनापूर्ति में लगा रहता है । ये वासनाएँ जहाँ पूर्ण होती हैं वहाँ राग करने लगेगा और जहाँ वासनापूर्ति में विघ्न आयेगा वहाँ द्वेष करने लगेगा । वासनापूर्ति में कोई अपने से बड़ा व्यक्ति विघ्न डालेगा तो भयभीत होगा, बराबरी का विघ्न डालेगा तो स्पर्धा करेगा और छोटा विघ्न डालेगा तो क्रोधित होगा । इस प्रकार राग-द्वेष, भय-क्रोध, संघर्ष, स्पर्धा आदि में मनुष्य की ईश्वरीय चेतना खर्च होती रहती है ।
इससे कुछ ऊँचे लोग होते हैं, जो अपने कर्तव्यपालन में तत्पर होते हैं और
मानवीय अंश विकसित किये हुए होते हैं । वे राग-द्वेष को कम महत्त्व देते हैं और
अगर हो भी जाता है तो थोड़ा बहुत सँभल जाते हैं । मानवीय अंश विकसित होने के
बावजूद यदि किसी में पाशवीय अंश का जोर रहा तो वह पशुयोनि में जाता है, जैसे राजा
नृग । उन्होंने मानवीय अंश तो विकसित कर लिया था फिर भी पाशवीय अंश का जोर था तो
गिरगिट बन के कुएँ में पड़े रहे । यदि किसी में मानवीय अंश का जोर रहा तो मरने के
बाद वह पुनः मनुष्य शरीर में आता है और यदि मानवीय अंश के साथ ईश्वरीय अंश के
विकास में भी लगा रहा तो वह यहाँ भी सुखी एवं शांतिप्रिय जीवन व्यतीत करेगा और
मरने के बाद भी भगवान के धाम में जायेगा । किंतु जो अपने में पूरा ईश्वरीय अंश
विकसित कर लेते हैं, वे यहीं ईश्वरतुल्य हो के पूजे जाते हैं ।
कई ऐसे बुद्धिमान ( बुद्धिजीवी ) लोग भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते । उनकी
सारी बुद्धि शरीर की सुख सुविधा इकट्ठी करने में ही खर्च हो जाती है । ऐसे
बुद्धिजीवी अपने को श्रेष्ठ एवं दूसरों को तुच्छ मानते हैं जबकि वे स्वयं भी
तुच्छता से घिरे हुए हैं क्योंकि जो शरीर क्षण-प्रतिक्षण मौत की तरफ गति कर रहा है
उसी को ‘मैं’ मानते हैं और उससे संबंधित पद-प्रतिष्ठा एवं
अधिकारों को ‘मेरा’ मानते हैं । लेकिन उन भोले मूर्खों को पता नहीं
होता कि जैसे बिल्ली चूहे को सँभलने नहीं देती, वैसे ही मृत्यु भी किसी को सँभलने
नहीं देती । कब मृत्यु आकर झपेट ले इसका कोई पता नहीं ।
अमेरिका के अखबार बताते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का
प्रेत-शरीर व्हाइट हाउस में दिखता है । अब्राहिम लिंकन मानवतावादि तो थे किंतु यदि
साथ ही उनका ईश्वरीय अंश विकसित होता तो मरने के बाद प्रेतयोनि में नहीं भटकते
बल्कि आध्यात्मिक यात्रा कर लेते ।
मृत्यु के बाद कैसी गति ?
कुछ लोग मरने के बाद प्रेत होते हैं । मृत्यु के समय पाशवीय वृत्तिवाले मनुष्य
सुन्न हो जाते हैं । मृत्यु आती है तो सवा मुहूर्त तक उनका अंतःकरणयुक्त सूक्ष्म
शरीर वातावरण में सुन्न-सा, मूर्च्छित-सा हो जाता है । वासना जगी रहती है अतः शरीर
में घुसना चाहता है पर नहीं घुस सकता । फिर वासना के अनुसार उसकी गति होती है ।
जैसे, अभी प्यास लगी है, भूख लगी है, नींद आ रही है…. इनमें से जिसका जोर ज्यादा
होगा, वही काम आप पहले करेंगे । ऐसे ही मरने के बाद जो पाशवीय अथवा मानवीय वासना
प्रबल होती है उसी के अनुसार जीव की गति होती है ।
जैसे, किसी भीड़ से छूटने के बाद कोई शराबी है तो शराब के अड्डे पर जायेगा, जुआरी है तो जुए के अड्डे पर जायेगा, सद्गृहस्थ है तो अपनी प्रवृत्ति की ओर जायेगा, साधक है तो अपनी साधना में लगेगा या किसी आश्रम की ओर जायेगा । ऐसे ही मरने के बाद जीव भी अपनी-अपनी वासना एवं कर्म संस्कार के अनुसार विभिन्न योनियों में गति करते हैं । मानो, इच्छा है कोई भोग भोगने की और शरीर छूट गया तो फिर अपने कर्मों की तारतम्यता से वह जीव चन्द्रमा की किरणों द्वारा अथवा वृष्टि के द्वारा अन्न-फल इत्यादि में पड़ता है और उसको मनुष्यादि प्राणि खाते हैं । अगर उसका तारतम्य ठीक है तो उसकी वासना के अनुरूप उसे माता का गर्भ मिलता है और यदि ठीक नहीं है तो वह बेचारा पेशाब आदि के द्वारा नाली में बह जाता है । कहाँ तो बड़ा तीसमारखाँ था और कहाँ दुर्गति को प्राप्त हो गया ! ऐसे कई बार यात्राएँ करते-करते ठीक संयोग बनता है तो उसे गर्भ में टिकने का अवसर मिलता है और वह जन्म लेता है । फिर वह अपनी वासना के अनुसार कर्म करता रहता है और नयी-नयी वासनाएँ बनती रहती हैं ।
…तो पशुता और मानवता के संस्कार सबमें हैं । जीव को सत्ता तो ईश्वरीय तत्त्व
देता है किंतु वह ईश्वरीय तत्त्व का अनुसंधान नहीं करता तो कभी पशुयोनि में तो कभी
मानवयोनि में जाता है तो कभी सज्जनता का पवित्र व्यवहार करके देवयोनि में
जाता है और पुण्य भोगकर पुनः नीचे की योनि
में आ जाता है ।
वह सचमुच में भाग्यशाली है…
बड़भागी तो वह है जो अपना ईश्वरीय अंश विकसित करने के लिए ईश्वरीय नाम का
आश्रय लेता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधना करता है और मानवीयता के सुंदर
सेवाकार्य करता है । सेवाकार्य भी वाहवाही के लिए नहीं, स्वर्गप्राप्ति के लिए
नहीं वरन् ईश्वरप्राप्ति के लिए ही करता है । भलाई के कार्य करने से अंतरात्मा
विकसित होती है और आत्मबल बढ़ता है । ईश्वरीय अंश हमारी सहायता करता है और हमें
सत्प्रेरणा देता है । इस प्रकार जो ईश्वरीय अंश को जगाने में लगता है और सतर्क
रहता है वही मनुष्यलोक में बुद्धिमान है । वह सचमुच में भाग्यशाली है, जो अपने
हृदय में ईश्वरीय अंश को विकसित करके ईश्वरीय सत्प्रेरणा, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय
ध्यान और ईश्वरीय शांति पाने के लिए सत्कर्म करता है ।
छोड़ो कुसंग, कुचिंतन, कुवासना और…
घट में है सूझे नहीं लानत ऐसे जिंद ।
तुलसी ऐसे जीव को भयो मोतियाबिंद ।।
सर्वेश्वर, परमेश्वर, परम सुहृद, परम हितैषी, सब घट वासी, जो दूर नहीं, दुर्लभ
नहीं, परे नहीं, पराया नहीं उसका मार्ग छुड़ाकर जो 2 करोड़ वर्ष 84 के चक्कर में
भटकावें, गर्भों में अटकावें-लटकावें ऐसे निगुरे लोगों को संत तुलसीदास जी कृपा
करके ‘घट में है सूझे
नहीं लानत ऐसे जिंद ।…’ – ऐसे वचन
बोलते हैं । यह भी तो संत की कृपा है ! सगुरों-श्रद्धालुओं को तुच्छ माननेवाले निगुरे लोग अपने तुच्छ भविष्य का
निर्माण करते हैं । उनको तुलसीदास जी लानत दे के समझाते हैं । श्रीकृष्ण ऐसों को ‘नराधमाः, विमूढाः, आसुरं भावमाश्रिताः’ आदि वचन कहकर समझाते हैं और आत्मज्ञानी
महापुरुषों की महिमा गाते हैं कि ‘भक्त निष्पाप
हैं, उदार हैं और उनमें ज्ञानी सर्वोपरि हैं – मेरा ही स्वरूप हैं ।’ गीता में, रामायण में आता है । अतः
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य लाभ लेकर, सेवाकार्य करके अपने को
तुलसीदास जी, श्रीकृष्ण और कबीर जी की नजरों में ऊँचा उठाओ । करो हिम्मत ! छोड़ो कुसंग, कुचिंतन, कुवासना और करो सुकर्म,
सुसंग और परम श्रेष्ठ परमात्मप्राप्ति का इरादा पक्का !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 349
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