इन्द्रियों से भी ब्रह्मरस पिला दें ऐसे माधुर्य-अवतार

इन्द्रियों से भी ब्रह्मरस पिला दें ऐसे माधुर्य-अवतार


पूज्य  बापू जी

(शरद् पूर्णिमाः 5 अक्तूबर 2017)

शरद् पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है। माना जाता है कि इस रात्रि को चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषक शक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है। इससे चित्त को शांति मिलती है और पित्त का प्रकोप भी शांत होता है। मनुष्य को चाहिए कि वह इस महत्त्वपूर्ण रात्रि की चाँदनी का सेवन करे। महर्षि वेदव्यास जी ने ‘श्रीमद्भागवत’ के दसवें स्कन्ध में शरद् पूर्णिमा की रात्रि को अपनी पूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अवतरित परब्रह्म श्रीकृष्ण के महारासोत्सव की रात्रि कहा है। शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा की शीतलतारूपी अमृतवर्षा की तरह भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपनी रासलीला में धरती पर भक्तिरस छलकाया था। इस रासलीला में हजारों धनभागी गोपियों ने योगेश्वर श्री कृष्ण के सान्निध्य में भक्तिरस की प्यालियाँ पीकर अपने जीवन को धन्य किया था।

हम लोग जो चित्रों आदि में श्रीकृष्ण के इर्द-गिर्द गोपियों को देखते हैं, नृत्य देखते हैं, वह तो श्री कृष्ण की महिमा का बिल्कुल बाह्य रूप है। वास्तव में तत्त्वरूप से तो श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं, सच्चिदानंद ब्रह्म हैं।  विकारी मनुष्य को श्री कृष्ण की रासलीला विकाररूप दिखे तो यह उसकी दुर्मति है। बोलते हैं, ‘चीर-हरण लीला में भगवान ने गोपियों के कपड़े हर लिये….।’ इसका अर्थ भी आता है कि जब गुरु की कृपा होती है तब हृदय का आवरण भंग होता है, पर्दा हटता है और तब जीवात्मा-परमात्मा की मुलाकात होती है। श्रीकृष्ण ने चीर-हरण लीला की अर्थात् गोपियों के हृदय का आवरण भंग किया। अपना सच्चिदानंद स्वभाव तो अंतरात्मा होकर बैठा था और जीव बेचारा उसे इधर-उधर ढूँढ रहा था। वह अज्ञान का आवरण हटा, इसका नाम है चीर-हरण।

‘गो’ माना इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा जो भगवद्-रस पी ले वह ‘गोपी’। जो आँखों से भी भगवान के प्रेमरस को पीते हैं, बंसी से भी उनके प्रेमरस का पान करते हैं, भगवान को छूकर जो हवा आती है, भगवान को छू के जो भगवद्-तत्त्व को स्पर्श की हुई आह्लादिनी, मधुमय सुगंध आती है, उसका भी जो रसपान करते हैं – ऐसे इन्द्रियों के द्वारा भगवान के आनंद रस को पीने की क्षमतावाले जीव हैं ‘गोपी’।

गोपियों के बीच में कृष्ण रास करते, सबकी तरफ तिरछी नज़र से देखते। सौ-सौ गोपियों का एक-एक घेरा और उसमें श्रीकृष्ण। प्रत्येक को लगे कि ‘मेरी ओर देख रहे हैं।’ फिर श्रीकृष्ण ने संकल्प किया और रास का दूसरा रूप हुआ तो दो गोपियों के बीच एक कृष्ण थे। फिर रासलीला में यह एहसास हुआ कि एक-एक गोपी के साथ एक-एक कृष्ण हैं।

जैसे नरकासुर के वध के बाद सोलह हजार कन्याओं के साथ विवाह के लिए श्रीकृष्ण सोलह हजार बन गये थे और सोलह हजार गर्गाचार्य बना दिये थे, ऐसा ही शरद पूनम की रात को हुआ। स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं उतने रूप धारण कर लिये थे। जैसे आप एक व्यक्ति होते हुए भी स्वप्न में अनेक व्यक्तियों का रूप धारण कर लेते हैं। आज का कलियुग का आदमी स्वप्न में एक में से अनेक बनता है कि नहीं ? बनता है। ऐसे ही जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के मूल हैं, वे सच्चिदानंद परमात्मा अंतःकरण में एक में से अनेक बनाकर दिखाते हैं। बाहर की सृष्टि में भी यह लीला माधुर्य-अवतार का प्रसाद है ! विषय-विकारों और इन्द्रियों के सुखों में जो लोग फँस रहे हैं उनको भी ब्रह्मसुख की झलकें मिलें इसलिए यह अवतार की लीला थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 20 अंक 297

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