(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
सारे दुःख, सारी तकलीफें यदि सदा-सदा के लिए मिटानी हैं तो दर्दशामक गोलियों से नहीं मिटेंगी, उसके लिए किन्हीं महापुरुष के पास जाना होगा जो अपने निजस्वरूप, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में स्वयं टिके हुए हों और दूसरों को टिकाने का सामर्थ्य रखते हों ।
अपने ‘सोऽहम्’ स्वरूप में टिकने की साधना मोक्ष की साधना है, दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंदप्राप्ति की साधना है, ईश्वरप्राप्ति की साधना है । श्वास अंदर जाता है उसमें मिला दो ‘सोऽऽऽ’ और बाहर आता है उसमें मिला दो ‘हम्’ और भावना करोः ‘जिसकी सत्ता से आँख देखती है, वह चैतन्य मैं हूँ । जिसकी सत्ता से हाथ उठते हैं, वह चैतन्य मैं हूँ । मरने के बाद जो रहता है, वह मैं हूँ । मैं शांत आत्मा हूँ, चैतन्य आत्मा हूँ, सुखस्वरूप हूँ, अमर हूँ, ईश्वर का अविभाज्य अंश हूँ । जिस ‘सोऽहम्’ स्वभाव में गोता लगाकर मेरे गुरु जी शांत, आनंदित और समर्थ हुए, उसी में गोता लगाकर मैं शांतात्मा हो रहा हूँ । सोऽहम्, चैतन्योऽम्, शास्वतोऽहम्, इष्टसन्तानोऽहम्, सोऽहम्…. अब हम दुर्जनों से दबेंगे नहीं । सदगुरु और परमात्मा को दूर नहीं मानेंगे, पराया नहीं मानेंगे । सोऽहम्….’ यह मोक्ष की कुंजी है, ‘मास्टर की’ है मोक्ष की, दुःखों को भगाने की । रोगों को मिटाने में भी यह आनंदरस काम देगा ।
रात्रि को सावधानी से ‘सोऽहम्’ जपते-जपते सो जायें । सुबह जगें तो जो श्वास चल रहा है उसमें ‘सोऽहम्’ को देखें । श्वास अंदर जाता है तो ‘सोऽऽऽ’ बाहर आता है तो ‘हम्’…’ । इस प्रकार जप सदा चलता ही रहता है, केवल हम भूल गये । अभ्यास करो तो यह भूल हटे । चौबीसों घंटे यह जीव ‘अजपा जप’ करता रहता है । उसको यह पता चल जाय तो निहाल हो जाय ।
मानसिक जप सतत चलने लगा तो प्रो. तीर्थराम में से स्वामी रामतीर्थ हो गये । सबसे उत्तम, सभी लोग कर सकें ऐसी सरल साधना है – मंत्रजप, भगवन्नाम-जप । जपते-जपते ऐसी आदत पड़ जाय कि होंठ हिलें नहीं, जीभ चले नहीं, फिर भी हृदय में जप चलता रहे । मंत्र के अर्थ में मन गमन करता रहे । जप करते-करते उसके अर्थ में ध्यान लगे और मन को स्वाद आ जाय तो फिर उसमें लगता रहेगा व परमात्मा तो अपना आत्मा होकर चमचम चमकेगा । ईश्वर की तरफ से देर नहीं है । हँसते-खेलते ईश्वर का आनंद, ईश्वर का माधुर्य और ईश्वर की प्रेरणा मिलेगी ।
पैसा कमाना मना नहीं है, औषध खाना मना नहीं है, हास्य करना मना नहीं है । मैं तो कहता हूँ विषाद करना भी मना नहीं है, दुःखी होना मना नहीं है लेकिन दुःख को योग बना दो । विषाद को योग बना दो । चिपको मत… किसी चीज में चिपको मत । धन में चिपको मत, वह रहेगा नहीं । काम में, क्रोध में, प्रशंसा में, निंदा में चिपको नहीं । ये सब आने जाने वाले हैं, तुम सदा रहने वाले हो । शरीर में चिपको नहीं, यह बूढ़ा होने वाला है, मरने वाला है । तुम अमर हो इस प्रकार का दृढ़ ज्ञान रखो तो तुम्हारे लिए संसार आनंदवन बन जायेगा, सुखालय हो जायेगा ।
वे मनुष्य धनभागी हैं जो आत्मारामी महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर सत्संग-श्रवण करके इस प्रकार की जीवनोपयोगी कुंजियाँ पा लेते हैं और उनका अभ्यास करके अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं । इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ-साथ आध्यात्मिक-उन्नति भी होती है । वे देर-सवेर अपने साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं, अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 15,24 अंक 197
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