Monthly Archives: May 2009

मोक्ष की कुंजी


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

सारे दुःख, सारी तकलीफें यदि सदा-सदा के लिए मिटानी हैं तो दर्दशामक गोलियों से नहीं मिटेंगी, उसके लिए किन्हीं महापुरुष के पास जाना होगा जो अपने निजस्वरूप, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में स्वयं टिके हुए हों और दूसरों को टिकाने का सामर्थ्य रखते हों ।

अपने ‘सोऽहम्’ स्वरूप में टिकने की साधना मोक्ष की साधना है, दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंदप्राप्ति की साधना है, ईश्वरप्राप्ति की साधना है । श्वास अंदर जाता है उसमें मिला दो ‘सोऽऽऽ’ और बाहर आता है उसमें मिला दो ‘हम्’ और भावना करोः ‘जिसकी सत्ता से आँख देखती है, वह चैतन्य मैं हूँ । जिसकी सत्ता से हाथ उठते हैं, वह चैतन्य मैं हूँ । मरने के बाद जो रहता है, वह मैं हूँ । मैं शांत आत्मा हूँ, चैतन्य आत्मा हूँ, सुखस्वरूप हूँ, अमर हूँ, ईश्वर का अविभाज्य अंश हूँ । जिस ‘सोऽहम्’ स्वभाव में गोता लगाकर मेरे गुरु जी शांत, आनंदित और समर्थ हुए, उसी में गोता लगाकर मैं शांतात्मा हो रहा हूँ । सोऽहम्, चैतन्योऽम्, शास्वतोऽहम्, इष्टसन्तानोऽहम्, सोऽहम्…. अब हम दुर्जनों से दबेंगे नहीं । सदगुरु और परमात्मा को दूर नहीं मानेंगे, पराया नहीं मानेंगे । सोऽहम्….’ यह मोक्ष की कुंजी है, ‘मास्टर की’ है मोक्ष की, दुःखों को भगाने की । रोगों को मिटाने में भी यह आनंदरस काम देगा ।

रात्रि को सावधानी से ‘सोऽहम्’ जपते-जपते सो जायें । सुबह जगें तो जो श्वास चल रहा है उसमें ‘सोऽहम्’ को देखें । श्वास अंदर जाता है तो ‘सोऽऽऽ’ बाहर आता है तो ‘हम्’…’ । इस प्रकार जप सदा चलता ही रहता है, केवल हम भूल गये । अभ्यास करो तो यह भूल हटे । चौबीसों घंटे यह जीव ‘अजपा जप’ करता रहता है । उसको यह पता चल जाय तो निहाल हो जाय ।

मानसिक जप सतत चलने  लगा तो प्रो. तीर्थराम में से स्वामी रामतीर्थ हो गये । सबसे उत्तम, सभी लोग कर सकें ऐसी सरल साधना है – मंत्रजप, भगवन्नाम-जप । जपते-जपते ऐसी आदत पड़ जाय कि होंठ हिलें नहीं, जीभ चले नहीं, फिर भी हृदय में जप चलता रहे । मंत्र के अर्थ में मन गमन करता रहे । जप करते-करते उसके अर्थ में ध्यान लगे और मन को स्वाद आ जाय तो फिर उसमें लगता रहेगा व परमात्मा तो अपना आत्मा होकर चमचम चमकेगा । ईश्वर की तरफ से देर नहीं है । हँसते-खेलते ईश्वर का आनंद, ईश्वर का माधुर्य और ईश्वर की प्रेरणा मिलेगी ।

पैसा कमाना मना नहीं है, औषध खाना मना नहीं है, हास्य करना मना नहीं है । मैं तो कहता हूँ विषाद करना भी मना नहीं है, दुःखी होना मना नहीं है लेकिन दुःख को योग बना दो । विषाद को योग बना दो । चिपको मत… किसी चीज में चिपको मत । धन में चिपको मत, वह रहेगा नहीं । काम में, क्रोध में, प्रशंसा में, निंदा में चिपको नहीं । ये सब आने जाने वाले हैं, तुम सदा रहने वाले हो । शरीर में चिपको नहीं, यह बूढ़ा होने वाला है, मरने वाला है । तुम अमर हो इस प्रकार का दृढ़ ज्ञान रखो तो तुम्हारे लिए संसार आनंदवन बन जायेगा, सुखालय हो जायेगा ।

वे मनुष्य धनभागी हैं जो आत्मारामी महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर सत्संग-श्रवण करके इस प्रकार की जीवनोपयोगी कुंजियाँ पा लेते हैं और उनका अभ्यास करके अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं । इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ-साथ आध्यात्मिक-उन्नति भी होती है । वे देर-सवेर अपने साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं, अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 15,24 अंक 197

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ज्ञानमयी दृष्टि


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

जगत कैसा है ? पहले देखो, आपके मन का भाव कैसा है ? जैसा आपका भाव होता है, जगत वैसा ही भासित होता है । सुर (देवत्व का) का भाव होता है तो आप सज्जनता का, सदगुण का नजरिया ले लेते हैं और आसुरी भाव होता है तो आप दोषारोपण का नजरिया ले लेते हैं । जिस एंगल से फोटो लो वैसा दिखता है । जगत में न सुख है न दुःख है, न अपना है न पराया है । आप राग से लेते हैं, द्वेष से लेते हैं कि तटस्थता से लेते है । आप जैसा लेते हैं ऐसा ही जगत दिखने लगता है ।

कोई भी जगत का व्यवहार किया जाता है तो उसे सच्चा समझकर चित्त को उससे विह्वल न करो, नहीं तो आसुरी वृत्ति हो जायेगी, शोक हो जायेगा, दुःख हो जायेगा । अच्छा होता है तो उसका अहंकार न करो । हो-हो के बदलने वाला जगत है, यह द्वैतमात्र है – या तो सुख या तो दुःख । इन दोनों के बीच का तीसरा नेत्र खोलो ज्ञान का । आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है ज्ञानमयी दृष्टि करना – सुख में भी न उलझना, दुःख मं भी न उलझना ।

न खुशी अच्छी है, न मलाल अच्छा है ।

यार तू अपने-आपको दिखा दे, बस वो हाल अच्छा है ।।

प्रभु ! तू अपनी चेतनता, अपनी सत्यता, अपनी मधुरता दे ।

दायाँ-बायाँ पैर पगडण्डी पर, सीढ़ियों पर रखते-रखते दे के मंदिर में पहुँचते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु इनको पैरों तले कुचलते-कुचलते जीवनदाता के स्वरूप का ज्ञान पाना चाहिए, उसी में विश्रांति पानी चाहिए, उसी में प्रीति होनी चाहिए ।

जो कल नहीं आये थे वे हाथ ऊपर करो ।

(कुछ लोग हाथ ऊपर करते हैं ।)

जो आज नहीं आये हैं वे हाथ ऊपर करो ।

देखो, कोई नहीं करता ।

यह किसके द्वारा आता है ? ज्ञान के द्वारा । तो इस ज्ञान का स्रोत क्या है ?

इन्द्रियों का ज्ञान । इन्द्रियों की गहराई में मन का ज्ञान । मन की गहराई में बुद्धि का ज्ञान । लेकिन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में ज्ञान कहाँ से आता है ? ‘मैं’ से । ‘मैं’ माना वही चैतन्य, जहाँ से ‘मैं’ उठता है उस चैतन्य का सुख चाहिए । है न !

कोई बोलता हः “मैं हूँ, तुम नहीं हो ।” तो क्या आप मानोगे ?

आप बोलोगेः “मैं भी हूँ । मैं कैसे नहीं हूँ ? मैं हूँ तभी तुम हो । मैं हूँ तभी तुम दिखते हो ।”

‘मैं’ ही मेरे में तृप्त है । मैं, मैं, मैं, मैं…. ये आकृतियाँ अनेक हैं, अंतःकरण अऩेक हैं लेकिन मैं की सत्ता एक है । उसी मैं में आराम पाओ । गहरी नींद में आप अपने मैं में ही तो जाते हो, और क्या है ?

उस मूल ज्ञान को मैं के रूप में जान लिया तो आपका तो काम हो गया, देवत्व प्रकट हो गया लेकिन आपकी वाणी सुनने वाले को भी महापुण्य होगा ।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध ।।

सुख देवें दुःख को हरें, करें पाप का अंत ।

कह कबीर वे कब मिलें, परम सनेही संत ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 7 अंक 197

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ऐसा साधक जल्दी सफल हो जाता है – पूज्य बापू जी


तुम ईश्वर के रास्ते चलते हो और अनुकूलता आने लग जाय तो यह तो थोड़ी-बहुत सफलता हुई लेकिन अगर प्रतिकूलता आती है तो समझो कि ईश्वर के रास्ते तुम्हारी यात्रा तेजी से होने वाली है ।

जिसको वो इश्क करता है, उसी को आजमाता है ।

खजाने रहमत के, इसी बहाने लुटाता है ।।

जिस साधक, भक्त को सताने वाला, तंग करने वाला कोई कुटुम्बी मिल जाता है, समझो उसका बड़ा भाग्य है । मीरा को सताने वाले, तंग करने वाले नहीं मिलते तो शायद मीरा की इतनी दृढ़ता नहीं होती । प्रह्लाद को सताने वाला, तंग करने वाला हिण्यकशिपु न होता तो शायद प्रह्लाद की इतनी दृढ़ भक्ति न भी होती । एकनाथ जी को सताने वाले लोग न मिलते तो शायद एकनाथ जी को भी इतना धैर्य और इतनी प्रशांति में स्थिति न भी होती । अगर विघ्न-बाधा आती है तो समझ लो कि भगवान हमें अपने प्रशांत स्वभाव में तेजी से लाना चाहते हैं और सुख-सुविधा आ जाती है तो समझ लो भगवान हमारी कमजोरी समझते हैं कि हम सुख के भगत हैं, इसलिए खिलौने दे दिये । इन खिलौनों का उपयोग करना । ये खिलौने हैं, इनमें जीवन नहीं गँवाना है । उन सुखद अवस्थाओं को भगवान का प्रसाद समझकर जैसे भगवान के आगे थाली धऱते हैं, भोग लगाते हैं तो फिर वह अकेले नहीं खाया जाता बाँट के खाया जाता है, ऐसे ही योग्यता और सहूलियतें आ जायें तो भगवत्कार्य में उनका सदुपयोग करे और विघ्न-बाधा आ जाय तो छलाँग मार के अपने को प्रशांति में पहुँचा दे  तो वह साधक जल्दी सफल हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 6 अंक 197

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ