Monthly Archives: May 2009

अब तुम भी थोड़ा पुरुषार्थ करो


पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

कई लोग फरियाद करते हैं कि ध्यान नहीं लगता । क्यों नहीं लगता ? क्योंकि हम संसार में रहकर, संसार के होकर भगवान का ध्यान करना चाहते हैं । हकीकत में हम भगवान के होकर और भगवान में ही बैठकर भगवान का ध्यान करें तो भगवान का ध्यान टूट नहीं सकता है । सुबह साधन-भजन करते समय लम्बे-लम्बे चार-पाँच श्वास ले लो । श्वास लो तो ईश्वर की कृपा भरो और श्वास छोड़ो तो ऐसी भावना करो कि ‘हमने चंचलता छोड़ दी है । अब जो कुछ हमारे मन में आयेगा वह प्रभु का हो होगा । ईश्वर के सिवाय और कुछ हमारे मन में अब आ नहीं सकता । हम अब भगवान की सेवा कर रहे हैं, इस समय भगवान के सिवाय हमारे मन में कोई बात नहीं आयेगी ।

हम विचार हटाने में लगते हैं तब भी ध्यान नहीं लगता और उस विचार में खो जाते हैं तब भी नहीं लगता लेकिन उस समय जो भी विचार आये उसे महत्त्व न दे तो उन विचारों का महत्त्व घट जायेगा ।

इस तरह महापुरुषों ने चित्त को उस परमात्म-प्रसाद की प्राप्ति कराने के लिए न जाने क्या-क्या नुस्खे आजमाये लेकिन जिनको लगन लगी है वे ही करते हैं । करोड़ों मनुष्य तुच्छ चीजों में संतुष्ट हो जाते हैं, कोई-कोई भगवान के रास्ते चलते हैं तो थोड़ा-बहुत चलके तुष्टी आ जाती है । थोड़ी वाहवाही होने लगती है, थोड़ा यश मिलने लगता है या थोड़ी वस्तुएँ मिलने लगती हैं तो उसमें रुक जाते हैं । जब उससे आगे बढ़ते हैं तो अपयश, विरोध होने लगता है तो उससे भाग के भगवान का रास्ता छोड़ देते है । उससे कोई आगे निकलता है तो ऋद्धि-सिद्धि आने लगती है, उसमें फँस जाते हैं । उससे भी कोई आगे निकलता है तब चित्त के पूर्ण प्रसाद परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।

संत कबीर जी कहते हैं-

चलो चलो सब कोई कहै, पहुँचें विरला कोय ।

एक कनक अरु कामिनी, दुर्गम घाटी दोय ।।

माया तजना सहज है, सहज नारी का नेह ।

मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना ऐह ।।

घर-बार छोड़ दिया, हो गये फक्कड़, हो गये त्यागी बाबा लेकिन अंदर में त्यागीपने का भी भाव न रहे यह सावधानी रखनी चाहिए । माया भी छूट जाय….. पत्नी छूट जाय, ब्रह्मचारी भी हो जाय फिर भी गहराई में मान-बड़ाई और ईर्ष्या रहती है ।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि ‘साधक से लिए, साधु के लिए लोकैषणा – यह आखिरी विघ्न है ।’

सब हमारे लिए अच्छा-अच्छा बोलें, सब हमारी प्रशंसा करें, हमारी निंदा न हो, हम दुनिया में अपना कुछ नाम करके जायें – यह बहुत सूक्ष्म विघ्न होता है । इसलिए भगवान को कहो कि ‘प्रभु ! मेरा मुझमें कुछ नहीं…’ अपने ‘मैं’ को हटा दो और ईश्वर को साक्षी रखो तो फिर ईश्वर की मदद मिलेगी ।

हमारा चालबाज मन हमें युगों से धोखा दे रहा है, हम अकेले पुरुषार्थ करेंगे तो थक जायेंगे । इसलिए बार-बार ईश्वर की सहायता लो, बार-बार अंतर्यामी परमात्मा को प्रार्थना करो । इस तरह आप लग पड़ो तो पुरुषार्थ करना छोड़ना नहीं क्योंकि लाखों वर्षों का, लाखों जन्मों का अभ्यास है फिसलने का, तो एक जन्म में दो पाँच बार फिस भी जाओ तो चिंता नहीं करना ।

फिसलना या गिरना कोई पाप नहीं है । यह असावधानी तो है लेकिन फिसल के फिर न चलना यह प्रमाद है, यह पाप है । कभी-कभी साधकों के जीवन में लिया हुआ नियम पूरा नहीं होता इसलिए वे दुःखी हो जाते हैं और अपने को अयोग्य मानने लगते हैं । कभी-कभी न चाहते हुए काम-क्रोध के आवेग में बह जाते हैं तो अपने को कामी, क्रोधी, लाचार तथा अनाधिकारी मानकर उत्साहहीन हो जाते हैं । लेकिन उन साधकों को ध्यान रखना चाहिए कि अपने अंदर जो गलतियाँ दिख रही हैं – काम की, क्रोध की, लोभ की, चिंता की, आलस्य की, उन गलतियों को देखकर निराश नहीं हों क्योंकि यह तो खुशखबरी है कि अपनी गलती तो दिखती है न ! गलती करना तो भूल है पर अपनी गलती न देखना और बड़ी भूल है । कोई गलती दिखाये और उसे न मानना यह तो भूल की पराकाष्ठा है ।

जो पापी है, अपराधी हैं उनको अपना अपराध जल्दी से नहीं दिखता है । वे बोलेंगेः ‘सिनेमा देखा तो क्या हो गया यार ! जेब काटी तो क्या है इसमें ? अपना धंधा करते हैं, कोई भीख तो नहीं माँगते !’ तो जो गलती से भरे हुए हैं उनको ये दुष्कृत्य गलती नहीं दिखेंगे । साधक को, भक्त को, शुद्ध हृदयवाले को अपनी गलतियाँ दिखती हैं । आँख में काजल लगाते हैं तो वह आँख को नहीं दिखता है, आँख से दूर होता है तब दिखता है, ऐसे ही गलती अगर आपके साथ मिली हुई होती तो आपको नहीं दिखती । अब गलतियाँ दिखती हैं तो साधक एक गलती और कर लेता है कि अपने को अयोग्य मान लेता है । यह बड़ी गलती है । अपने को अयोग्य मानने से अपनी योग्यता क्षीण हो जाती है । गलतियाँ दिखें तो भगवान को धन्यवाद दो कि ‘प्रभु ! तुम्हारी कृपा से गलतियाँ दिख रही हैं । ये मेरे में नहीं हैं, मन में हैं । मन में है इसलिए दिख रही हैं । मेरा मन शुद्ध हो रहा है । तेरी कृपा है । वाह ! प्रभु वाह !’ प्रभु को वाह-वाह करो तो तुम्हारा मन शुद्ध होने लगेगा । इसका मतलब यह नहीं गलतियाँ करते जाओ । नहीं, हताशा और निराशा के विचार नहीं आने देना और ‘अपना अधिकार नहीं है, अपन गृहस्थी हैं, अपना दम नहीं है भाई भगवान के रास्ते चलने का ।….’ ऐसा सोचकर रास्ता छोड़ नहीं देना ।

मनुष्यमात्र को मुक्त होने का अधिकार है । अरे, प्रधानमंत्री खुश हो जाय, एकदम बरस पड़े तो भी अपने चपरासी को जिलाधीश नहीं बना सकता क्योंकि जिलाधीश बनने के लिए उसमें आई.ए.एस. अफसर होने की योग्यता होनी चाहिए । प्रधानमंत्री भी ऐसी गलती नहीं करता तो भगवान कैसे करेंगे ? मनुष्य जन्म मोक्ष के अधिकारी को ही मिलता है – साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । फिर अगर भगवान ने मनुष्य जन्म दिया है तो हमें निराशा के विचार नहीं करने चाहिए ।

यह तन कर फल बिषय न भाई ।

इस शरीर का फल यह नहीं है कि विषय विलास करके, हा हा…. हू हू… करके दुःखी-सुखी होके जिंदगी बर्बाद कर लें । नहीं, इस देहप्राप्ति का फल विषय भोग नहीं है, यह मनुष्य-जन्म मुक्ति के लिए ही है । तो भगवान ने तो हमको मुक्ति का अधिकारी बना दिया, अब आप भी तो थोड़ा पुरुषार्थ करो भैया ! पुरुषार्थ भी यही करना है कि बस, बार-बार ईश्वर की सहाय लो, उसे प्रार्थना करो, अपने आत्म-ईश्वर के विषय में सुनो, ईश्वर का ज्ञान पा लो । ‘श्री विष्णुसहस्रनाम’ और श्री नारायण स्तुति में भगवान के स्वभाव का वर्णन है । भगवान के स्वभाव को जिसने जाना, वह भगवान का भजन किये बिना रह नहीं सकता ।

भगवान शिवजी कहते हैं-

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना ।

ताहि भजनु तजि भाव न आना ।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 33.2)

श्री नारायण स्तुति पढ़ो और नारायण के ज्ञान, माधुर्य में प्रवेश करो । इससे मन-बुद्धि भी विलक्षण-अदभुत लक्षणों से सम्पन्न हो जायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 197

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भक्ति व्यर्थ नहीं जाती


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

व्यक्ति अगर दुष्ट विषय-विकारों के पीछे अगर जाता है तो दुरात्मा हो जाता है । सामान्य जीवन जीता है – थोड़ा संयम, थोड़ी फिसलाहट तो सामान्य आत्मा होता है लेकिन महान परमात्मा में विश्रांति पाकर भगवत्प्रीति, भगवद् ज्ञान से भर जाता है, निष्काम कर्म करता है तो वह महान आत्मा हो जाता है । भगवान कहते हैं –

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।।

‘हे कुंतीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कराण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं ।’ (गीताः 9.13)

जो दैवी प्रकृति का आश्रय लेते हैं, उनमें नित्य, चैतन्यस्वरूप परमात्मस्वभाव के संस्कार पड़ते हैं और किसी कारण वे हलकी योनि में चले गये तो भी उन संस्कारों का नाश नहीं होता । जैसे राजा भरत, जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा, उन्होंने हिरण का चिंतन करते-करते शरीर का त्याग किया तो उन्हें हिरण की योनि में आना  पड़ा लेकिन वहाँ भी उनके पूर्वजन्म की भक्ति के संस्कार देखे गये । मैं उझानी (उ.प्र.) गया था, तब वहाँ एक कुत्ता देखा जो मंगलवार का व्रत रखता था ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (गीताः 15.7)

तो हिरण के शरीर में, कुत्ते के शरीर में भी कई फिसले हुए साधक देखे-सुने-पाये जाते हैं । पिछले जन्म का करोड़पति अभी जन्मजात करोड़पति हो जाय यह जरूरी नहीं है । पिछले जन्म का डॉक्टर अभी बिना पढ़े डॉक्टर नहीं हो सकता लेकिन पिछले जन्म का साधक अपनी साधना की ऊँचाइयों को जन्मजात छुआ हुआ मिलता है ।

अष्टावक्र जी माँ के गर्भ में से ही ब्रह्मज्ञान की बात कर रहे थे । अयोध्या की रानी साहिबा की ओर से वहाँ के कनक भवन मंदिर की सेवा में श्यामा नाम की घोड़ी रखी गयी थी । उसके जीवन में कैसी सूझबूझ ! घोड़ी बुढ़िया हो गयी थी इसलिए जब उसे मंदिर से निकालने का निर्णय लिया गया तो घोड़ी ने चारा और पानी छोड़ दिया । वह वहाँ से जाना नहीं चाहती थी । रानी साहिबा का आदेश मानकर अधिकारियों ने उसे भेजने की लिए बिल्टी (रसीद) निकलवायी । घोड़ी को रस्सियों से बाँधकर पशुवाहक डिब्बे में बिठा दिया गया लेकिन  घोड़ी के संकल्प ने क्या किया, कैसी व्यवस्था हो गयी कि गार्ड की भूल से ट्रेन में वह डिब्बा जोड़ा ही नहीं गया । घोड़ी फिर कनक भवन में लायी गयी । सब लोग दंग रह गये कि घोड़ी का संकल्प भी कैसी ईश्वरीय लीला करवा देता है !

मनुष्य शरीर में की हुई साधना हिरण के शरीर में, कुत्ते के शरीर में, घोड़े के शरीर में भी फलती है । अगर मनुष्य बुद्धियोग का आश्रय लेकर भगवत्परायण हो जाय, तब तो इसी जन्म में काम बन सकता है, और किसी गलती से अधूरा रह गया, किसी पाप से, किसी कारण से, हलके चिंतन से हलकी योनि में गये तब भी साधुताई का और संकल्पबल का प्रभाव इन घटनाओं से प्रत्यक्ष होता है । तो जितना हो सके छोटी-छोटी बातों में अपनी आदत बुरी न होने दो और भगवत्प्रसादजा मति के बल से भगवत्सुमिरन की, सुख-दुःख में सम रहने की, सेवा की ऊँची आदत डालो ।

करह गाँव (ग्वालियर) की एक घटित घटना है । वहाँ एक प्रसिद्ध महाराज थे – श्री बाबा जी, उनके पास एक कुत्ता था, जिसकी पूँछ कटी हुई थी । महाराज उसे बड़ा भक्त कहा करते थे । बड़ा भगत सुबह-शाम दूसरे साधुओँ के समान महाराज के चरणों में दण्डवत् प्रणाम करता था । महाराज के पास कोई किसान भक्त रोज दूध और रोटी लाता था । महाराज खुद तो रोटी मिर्च-मसाले आदि के साथ खा लेते थे और दूध बड़ा भक्त को दे देते । ऐसा कई महीनों तक चला । दूध लाने वाला आखिर एक दिन बोल पड़ा कि “महाराज जी ! मैं इस कुत्ते के लिए दूध नहीं लाता हूँ, आपके लिए लाता हूँ ।”

महाराज जी बोलेः “कोई बात नहीं, यह भी कोई साधारण नहीं है । बड़ा भगत ने पिया तो क्या हुआ, समझो हमने ही पीया ।”

भक्त बोलाः “आप नहीं पीते तो दूसरे साधुओं को क्यों नहीं देते ?”

बड़ा भगत यह सुन रहा था । दूसरे दिन वह भक्त दूध-रोटी लाया तो श्री बाबा जी ने रोज की तरह रोटियाँ अपने लिए रख लीं और बड़ा भगत के सामने दूध रख दिया । बड़ा भगत वहाँ से उठकर चला गया । महाराज जी पीछे-पीछे दूध लेकर घूमे लेकिन बड़ा भगत ने दूध नहीं पीया तो नहीं पीया । एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन हुए और दूध लाने वाले के घर में अशांति चालू हो गयी । बिना किसी कारण के उसकी भैंस मर गयी । दो चार दिन और हुए तो दूसरी भैंस मर गयी व घर में उपद्रव होने लगे । वह किसान आया, हाथाजोड़ी करता हुआ बोला, “बाबा ! जब से बड़ा भगत रूठ गये तब से मेरा भाग्य रूठ गया । मेरे कुटुम्ब में बड़े उपद्रव होने लगे । जैसे किसी संत को सताने से कुदरत का कोप हो जाता है, ऐसे ही आपके बड़ा भगत की अवहेलना करने से मैं बहुत परेशान, बहुत दुःखी हो गया हूँ ।

श्री बाबा जी ने कहाः “भाई ! अब मैं क्या करूँ ? तू बड़ा भगत का अपराधी है, उसी से क्षमा माँग ।”

वह  किसान दूसरे दिन दूध लाया और बड़ा भगत के सामने हाथ जोड़कर बोलाः “भक्तराज ! आप भगवान के भक्त के भक्त हो । मेरे अवगुण को न देखो, कृपा करो । मैंने अपनी नासमझी से आपका अपमान किया, जिससे मेरे घर में उपद्रव हो गये, झगड़ा-अशांति हो गयी और कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । मेरी एक भैंस मरी, दूसरी मरी…. मैं तो ऐसे मारा जाऊँगा । आखिर मैं संतों का दास हूँ, बड़ा भगत ! आपका आशीर्वाद चाहता हूँ ।”

बड़ा भगत ने आँख उठाकर देखा और फिर सकुर-सकुर दूध पीने लगा । तब से उस किसान के कुटुम्ब में फिर से खुशहाली छाने लगी ।

दिन बीते, रातें बीतीं, समय बीता । एक दिन बड़ा भगत श्रीबाबा के पास आया और प्रेमपूर्वक कटी पूँछ हिलाकर धरती पर लोटने लगा, मानो अब विदाई चाहता हो । महाराज जी ने कहाः “तू जाना चाहता है ? अच्छा जा ।”

आश्रम के बाहर जाकर बड़ा भगत भूमि पर लेट गया । सूर्य भगवान की ओर देखते हुए उसने शरीर छोड़ दिया । महाराज जी ने बड़ा भगत के शरीर को समाधि दी और उसके लिए भण्डारा भी कराया ।

भक्त किसी भी योनि में जाय, उसके अंतःकरण में दयामय प्रभु की भक्ति के संस्कार मौजूद रहते हैं । भगवान की प्रकृति वहाँ उसकी रक्षा करती है । नीच योनि में भी भगवान की भक्ति रक्षा करती है । तो जो लोग सत्संग सुनते हैं और अंतःकरण में भगवदीय संस्कार डालते हैं, वे बड़ी ऊँची कमाई करते हैं । अपनी मेहनत-मजूरी से करोड़पति होना कंगाल के लिए कठिन है लेकिन करोड़पति की गोद गया तो उसी दिन करोड़पति हो गया । ऐसे ही सत्संग में आना मतलब भगवान की गोद जाना है । भगवत्-जनों का दर्शन-सत्संग व्यर्थ नहीं जाता । भगवान का चिंतन, भगवान की भक्ति व्यर्थ नहीं जाती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 12 अंक 197

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वर्तमान में टिको – पूज्य बापू जी


जिसका आनन्द, जिसका सुख बाहर है, कुछ खाकर, कुछ देखकर, कुछ भोगकर सुखी होने की जिसके जीवन में गलती घुसी है वह भले ही दर-बदर, लोक-लोकांतर में, कभी स्वर्ग में तो कभी बिहिश्त में, कभी पाताल में तो कभी रसातल में तो कभी तलातल में, कभी इन्द्रियों के दिखावटी सुख में तो कभी मन के हवाई किलों में उलझ के थक जाता है और पाता है कि ‘मैं चल नहीं सकता । मेरा काम नहीं ईश्वर की तरफ चलना ।’ अरे ! मनुष्य जन्म मिला है, ईश्वरीय शांति, आत्मज्ञान, आत्मसुख पाना तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है । ईश्वरीय सुख की तरफ चलने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है । ईश्वर का, आत्मा का शाश्वत सुख पाने के लिए ही तुम्हारे पास बुद्धि और श्रद्धा है । नहीं कैसे चल सकते हो ? असंभव नहीं है । यही काम तुम कर सकते हो । दूसरे काम में तो तुम सदा के लिए सफल हो भी नहीं सकते । संसार में हर क्षेत्र में सदा सफल होना कठिन है लेकिन यह जो आत्मदेव है इसी में सदा सफलता है ।

भजन करते हो भगवान का और माँगते हो संसार तो तुमने भगवान से लेना कतई नहीं सीखा । तुम अगर आत्मा में विश्रांति पाये हुए हो तो तुम्हारी बुद्धि तेजस्वी होने से इन छोटी-छोटी बातों का तो अपने-आप हल निकलेगा । तुम वर्तमान में टिकते जाओ तो वे छोटी-छोटी मुसीबतें तो अपने-आप सिमटती जायेंगी, विदा होती जायेंगी ।

‘पति कहने में चले, पत्नी कहने में चले, बेटा कहने में चले, शरीर में रोग न हो, भोग मिलते रहें, अभी इतना है, यहाँ हूँ और फिर इतना पाऊँगा तथा वहाँ पहुँचूँगा तब सुख होगा…’ यह जो कल्पना है, यह तुम्हारे वर्तमान के खजाने को लूट लेती है और तुम्हें कंगाल बना देती है । जो जहाँ है वहीं अपने सुखस्वरूप का ज्ञान पाकर उसमें विश्रांति पा लें तो बेड़ा पार हो जाय । बाहर के सुख की इच्छा छोड़कर सुखस्वरूप में टिक जाय तो ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ हो जाय । घर में वस्त्र स्वाभाविक मिले उन्हें पहन लो, जो सादा-सूदा भोजन बने उसे खा लो, जहाँ नींद आये सो लो, ऊँचे महलों की कल्पना न करो और सुहावने बिस्तर सजाने की जरूरत मत बनाओ । जरूरत बनानी है तो यह बनाओ कि भूत और भविष्य की चिंतनधारा को तोड़कर निश्चिंत नारायण में आराम पाना है ।

भूत या भविष्य का एक विचार उठा और दूसरा विचार अभी उठा नहीं है, यह दो विचारों के बीच की जो अवस्था है वह परमात्म अवस्था है, वह चैतन्य अवस्था है । उसमें जो सदा जगह है वे भगवान हैं, जो जगने का प्रयत्न करते हैं वे साधक हैं और जिनको उसका पता ही नहीं है वे सरकती हुई चीजों में उलझने वाले संसारी हैं । फिर चाहे वह चीज इस पृथ्वी की हो, चाहे लोकांतर की हो लेकिन है सब संसार ।

ध्यान भजन में बैठते हो तब ‘यह मिलेगा, यह होगा, यह किया है, यह करूँगा….’ ऐसे विचार उठें तो ‘अगड़म-तगड़म स्वाहा….’ ऐसा किया करो, तुम ठहर जाओगे । वर्तमान में जरा सा आओगे लेकिन टिकोगे नहीं क्योंकि पुरानी आदत है । ईश्वरस्वरूप ॐ का दीर्घ उच्चारण करोगे तो इधर-उधर से हटकर पुनः वर्तमान में आ जाओगे । इसका तुम बारीकी से थोड़ा सा विचार करो, अनुसंधान करो तो तुम्हारे दो विचारों के बीच का जो अंतराल है वह थोड़ा बढ़ जायेगा । एक संकल्प उठा, दूसरा उठने को है – यह दो विचारों के बीच की जगह बढ़ जायेगी । वह बढ़ जाना ही परमात्मा में स्थित होना है और वह अगर तीन मिनट रह जाय, केवल तीन मिनट तो निर्विकल्प समाधि हो जायेगी, साक्षात्कार हो जायेगा । उसमें जितना ज्यादा टिके उतना सामर्थ्य बढ़ जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 8, अंक 197

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