प्राचीनकाल में हिम्मतनगर (गुजरात) से आगे रतनपुर नगर में रामराय नाम का एक धनवान सेठ रहता था । एक दिन उसने सोचा, ‘मेरे पास इतनी धन-सम्पत्ति है, राजा साहब यह सम्पत्ति देखें तो उनको भी पता चले कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूँ ।’
सेठ ने अपनी पत्नी तथा चारों बेटों और बहुओं से सलाह की । सब लोग तो राज़ी थे लेकिन छोटी बहू सत्संगी थी, उसने कहाः “जो भी बाहर की चीजों से विशेष सुख लेने की चेष्टा है, वही दुःख का रूप धरकर आ जाती है ।”
सभी ने उसकी बात को सुना-अनसुना कर दिया । सेठ ने खूब अनुनय-विनय करके राजा को भोजन के लिए आमंत्रित किया । राजा को प्रभावित कर सुख पाने की वासना से प्रेरित होके सेठ ने उन्हें तरह-तरह की बानगियाँ परोसकर भोजन कराया । राजा बड़े संतुष्ट हुए परंतु संतुष्ट कराने वाले का अहं भी तो संतुष्ट होना चाहिए । फिर रामराय राजा को नीचे गुप्त भंडार में ले गया । द्वार खोला तो बहुत सारे जगमगाते रत्न, हीरे, ज्वाहरात, मणियों के ढेर, सुंदर रत्नजड़ित बर्तन आदि देखकर राजा दंग रह गयेः “अरे… इतने रत्न ! क्या बात है ! सेठ जी ! तुम वास्तव में नगरसेठ हो ।”
सेठ को संतोष हुआ । उसने और भी कमरों में राजा को जाकर बाप-दादों के बहुत से कीमती स्वर्ण आभूषण दिखाये । राजा दंग रह गये कि ‘मैं राजा काहे का, राजवैभव तो इसके पास है !’ राजा ऊपर से वाह-वाह करते जा रहे थे और यह सब मुझे कैसे मिले इसका भी चिंतन कर रहे थे । राजा ने महल में आकर मंत्री को सारी बात बतायी और अपना इरादा भी बताया ।
मंत्री ने कहाः “महाराज एक युक्ति है, आप रामराय सेठ को बुलाइये और उनसे कहियेगा कि जिसके पास धन हो पर बुद्धि न हो, वह धन रखने के काबिल नहीं है । आप ऐसे दो प्रश्न पूछना जिनका वे जवाब न दे सकें और ‘जवाब न दे सकने उनकी सम्पत्ति राज्य की हो जायेगी’ – ऐसा आदेश आप पहले से ही दे देना ।” राजा को मंत्री का विचार पसंद आया ।
दूसरे दिन ही सेठ को बुलाकर राजा बोलेः “रामराय ! तुम्हारे पास वैभव तो खूब है, इतना वैभव तो बुद्धिमानों के पास होना चाहिए । जिनके पास बुद्धि नहीं वे वैभव संभाल नहीं सकते । ऐसे में उनके वैभव को सँभालने का फर्ज राज्य का है । मैं तुमसे दो प्रश्न पूछूँगा, यदि तुमने उनका ठीक उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा इतनी सम्पत्ति रखना राज्य के नियमों के विरूद्ध होगा । प्रश्न हैं – सतत् क्या बढ़ता रहता है और क्या घटता रहता है ?”
राजा ने तो कह दिया क्योंकि उनकी नियत ठीक नहीं थी, उन्हें तो धन हड़पना था ।
प्रश्न सुनते ही रामराय थर-थर काँपने लगा, उसे चक्कर आने लगे । एक दिन की मोहलत माँगकर किसी तरह घर आया । सारी बात घरवालों को बतायी । सुनते ही पूरे घर में मातम छा गया । अब सबको छोटी बहू की याद आयी कि वह ठीक ही कहती थी । सासु ने रोते हुए आखिर छोटी बहू से कहाः “बेटी ! अब क्या किया जाय तू ही बता । जैसा तू बोलेगी वैसा ही हम करेंगे ।”
छोटी बहू क्षण भर के लिए शांत हुई, फिर बोलीः “आप चिंता न कीजिये, मैं उत्तर दे दूँगी ।”
बहू के आश्वासन भरे वचनों में सहानुभूति के साथ सच्चाई थी । सबको आश्वासन मिला ।
दूसरे दिन बहू ने कहाः “पिता जी ! आप राजदरबार में जाइये और राजासाहब को बोलिये कि इन प्रश्नों के उत्तर तो मेरी सबसे छोटी बहू ही दे देगी ।”
रामराय राजदरबार में पहुँचा और कहाः “राजन् ! आपके प्रश्न बहुत छोटे हैं । उनके उत्तर तो मेरी सबसे छोटी बहू ही दे देगी । अभी आती ही होगी ।”
इतने में तो वह आ गयी । उसके एक हाथ में घास का पूला था और दूसरे हाथ में दूध का प्याला था । उसने दूध का प्याला रख दिया राजा के सामने और घास का पूला रख दिया वजीर के सामने ।
राजा ने क्षुब्ध होते हुए पूछाः “यह क्या करती है ?”
बहू ने कहाः “राजन् ! आपकी बुद्धि बच्चों जैसी है, इसलिए आपको दूध की जरूरत है और जिसने आपको यह सलाह दी है उस वजीर की बुद्धि है बैल जैसी, इसलिए उसको घास खानी चाहिए ।”
राजा बड़े क्रुद्ध हो गये लेकिन बहू का आचरण वेदांती था, उसने कहाः “राजा साहब ! हम आपकी प्रजा हैं । ये सेठ जी हैं और मैं इनकी पुत्रवधू हूँ, बेटी जैसी हूँ तो आपकी भी बेटी हूँ । बेटी पर कोप करना आपको शोभा नहीं देता ।”
राजा बोलेः “तू मुझे बच्चा कहती है ?”
“जो दूसरों की सीख पर चले और अपनी प्रजा का शोषण करने को तत्पर हो जाय, उसे बच्चा नहीं तो क्या कहें पिता जी ! और आप ही बताइये, जो परिणाम का विचार बिना ऐसी सलाह दे, राजासाहब का यश, कीर्ति, नाम कलंकित करने वाले कार्य कराये, वह वजीर बैल जैसा नहीं है क्या ?
आप तो इतिहास के जानकार है । जिन राजाओं ने प्रजा का शोषण करके धनवान होने का गौरव लिया, वे राजा असुरों में गिने गये और जो राजा प्रजा के दुःख में दुःखी हुए वे पूजे गये, देवत्व को प्राप्त हुए । राजन् ! आप तो यह जानते ही हैं ।” उसकी बात सुनकर सभी ने साधुवाद दिया ।
बहू बोलीः “राजन् ! आपके दो ही प्रश्न थे- सतत् क्या बढ़ता रहता है और क्या घटता रहता है ?” तो इन प्रश्नों के उत्तर हैं कि ‘तृष्णा-वासना एक ऐसी चीज है जो सदा बढ़ती रहती है और आयु सदा घटती रहती है ।”
रामराय ने कहाः “राजन् ! मेरी बच्ची ने ही दोनों प्रश्नों के उत्तर दे दिये, अब आपकी क्या आज्ञा है ?”
राजा बोलेः “आप तो हमारे पुराने मित्र हैं । प्रजा का धन राजा का ही है । मेरी मति जरा ऐसी हो गयी थी, आप क्षमा करना । इस वजीर को मेरे राज्य में रहने की जरूरत नहीं है, इसको मैं अपने राज्य से बाहर निकालता हूँ ।”
जो तृष्णा-वासना के चक्कर में बाहर की चीजों में सुख खोजते-खोजते जीवन पूरा कर देता है, उसने कोई दुर्लभ चीज नहीं पायी लेकिन जिसने साधुपुरुषों का संग, सत्संगति और ब्रह्मविचार किया, उसी ने असली दुर्लभ चीज पायी, उसी ने प्रतिक्षण घटती आयु का पूरा लाभ लिया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 197
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