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ज्ञान के चार प्रकारों को जानो – पूज्य बापू जी


ज्ञान चार प्रकार का होता हैः 1 प्रत्यक्ष 2 परोक्ष 3 अपरोक्ष 4 साक्षात् अपरोक्ष ।

जो इन्द्रियों के सम्मुख है, जो चीज वस्तु आदि इन्द्रियों से अनुभव किये जाते हैं उनको बोलते हैं प्रत्यक्ष । जो अप्रत्यक्ष हो अर्थात् वर्तमान में इन्द्रियों से जिसका अनुभव नहीं होता परंतु जिसके होने में अन्य प्रमाण हो, जैसे कोई दूरस्थ अप्रत्यक्ष स्थान, वस्तु, स्वर्ग आदि लोक, उसको बोलते हैं परोक्ष ।

सूर्य निकली हो, बत्ती जलती हो, सब हो लेकिन उसको देखने के लिए आँख चाहिए । आँख नहीं होगी तो बत्तियाँ और सूरज नहीं दिखेंगे । आँख को देखने के लिए मन चाहिए । मन सो गया हो आँख नहीं दिखेगी । मन को देखने-जानने के लिए बुद्धि चाहिए । बुद्धि से ही जाना जायेगा कि ‘हाँ, आँख देखती है, मन ठीक सोचता है ।’ मन बोलता है, ‘ठूँठा है’ तब बुद्धि निर्णय करेगी कि ठूँठा है कि चोर है । लेकिन मन और बुद्धि में उठने वाले सुख-दुःख आदि भाव, काम-क्रोधादि विकार एवं अनुभव में आने वाली जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाएँ – ये प्रत्यक्ष नहीं हैं, परोक्ष नहीं हैं बल्कि अपरोक्ष कहलाते हैं । मन के भाव, विकार, अवस्थाएँ एवं बुद्धि के अनुभव, ज्ञानेन्द्रियाँ – ये सब सामने पड़ी वस्तु की तरह प्रत्यक्ष नहीं हैं और स्वर्ग, नरक, वैकुंठ आदि की तरह परोक्ष भी नहीं हैं अपितु ये मन या बुद्धि द्वारा भीतर अऩुभव किये जाते हैं अतः अपरोक्ष कहलाते हैं । इन मन, बुद्धि को देखने के लिए स्व यानी चैतन्य आत्मा चाहिए । स्व को अर्थात् अपने मैं को देखने के लिए न सूर्य-चन्द्र का प्रकाश चाहिए, न आँख आदि कोई इन्द्रिय चाहिए, न मन-बुद्धि चाहिए, न अन्य कुछ चाहिए और न ही अपना मैं सुख-दुःख, काम-क्रोध, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन सबकी तरह आता-जाता है । इसीलिए अपना आत्मा ‘साक्षात् अपरोक्ष’ है । यह जो साक्षात् अपरोक्ष है इसी को अपने मैं के रूप में जानना इसको बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार !

जो अपरोक्ष है परंतु जब तक वृत्ति रहती है तभी तक रहता है वह केवल अपरोक्ष कहलाता है और वृत्ति के अभाव में भी उस अभाव के साक्षी के रूप भी जो विद्यमान रहता है वह साक्षात् अपरोक्ष कहलाता है । साक्षात् अपरोक्ष हम स्वयं अनुभवस्वरूप आत्मा है और हमें संकुचित करने वाला कोई नहीं है, इसलिए हम ब्रह्म हैं ।

अमेरिका हमारे लिए परोक्ष है किंतु वहाँ जाकर उसे देख लें तो वह प्रत्यक्ष हो गया । इस प्रकार जगत की चीजें प्रत्यक्ष और परोक्ष होती हैं, वृत्ति से हुई अनुभूतियाँ अपरोक्ष होती हैं परंतु अपना-आपा साक्षात् अपरोक्ष है । जगत की चीजें मिलती और बिछुड़ती रहती हैं, मन-बुद्धि की अनुभूतियाँ बदलती रहती हैं परंतु अपना-आपा कभी बिछुड़ता ही नहीं, सदा मिला-मिलाया है तथा बदलता भी नहीं, सदा अबदल है । अपना-आपा तो सदा मौजूद है, साक्षात् अपरोक्ष है फिर भी अज्ञान के आवरण से ढका रहता है । पर्दा हटता है तो मिला-सा लगता है जबकि वह हमसे कभी अलग था ही नहीं ।

जो चीज अप्राप्त होती है फिर मिलती है तो उसकी उपलब्धि मानी जाती है । जो चीज प्राप्त है फिर भी वह न दिखकर कुछ और हो के दिखती है तो उसकी भ्रांति मानी जाती है ।

एक महिला अनाज पीस रही थी । अनाज पीसते-पीसते उसके गले का हार (लॉकेट ) पीठ की ओर चला गया, जिसका उसे पता न चला । अनाज पीसने के बाद वह अपना हार ढूँढने लगी । उसने अपनी तिजोरी और थैलियाँ तलाशीं किंतु हार न मिला । इतने में एक समझदार वृद्धा आयी, जिसे महिला ने यह बात बतायी । उस वृद्धा ने देखा कि हार तो इसके गले में ही है परंतु पीछे चला गया है । वृद्धा ने हार को आगे करके कहाः “यह रहा तेरा हार !”

वृद्धा हार कहीं से लायी नहीं थी, वह कहीं गया ही नहीं था, केवल खो जाने की भ्रांति हो गयी थी । वृद्धा ने जब दिखाया तो प्राप्त हार की ही प्राप्ति हुई, अप्राप्त हार की नहीं ।

वेदांत दर्शन में ईश्वर की प्राप्ति नहीं मानी गयी है । ईश्वर किसी को प्राप्त नहीं होता, ब्रह्म किसी को प्राप्त नहीं होता बल्कि प्राप्त हुआ सा लगता है । वह भी किसको ? जिसको नहीं मिला उसको लगता है कि ‘फलाने को मिला’ किंतु जिनको परमात्मानुभव हो गया है उनको नहीं लगता कि उन्हें कुछ मिला है ।

पाया कहे सो बाँवरा, खोया कहे सो कूर ।

पाया खोया कुछ नहीं, ज्यों-का-त्यों भरपूर ।।

परमात्मा कहाँ है, उसे कैसे पायें ?

परमात्मा को पाने वाले को पता नहीं चलता कि मैंने पा लिया है । कोई पूछता हैः ‘महाराज ! पाने वाले को भी पता नहीं चलता ?’ जिसने ठीक से परमात्मा को पाया है वह ऐसा नहीं कहेगा कि ‘मैंने पाया है ।’ पाया किसे जाता है ? जो बिछुड़ा हो, किन्तु कोई अपने-आपसे कैसे बिछुड़ सकता है ? इसीलिए ऐसा नहीं कहा जाता है कि ‘पा लिया’ क्योंकि परमात्मा सदा प्राप्त है ।1

1 कहीं महापुरुष ‘मैंने पाया है’ ऐसा कह भी दें तो यह लौकिक दृष्टि से एवं गौण अर्थ में कहा गया है ऐसा समझना चाहिए, वास्तविक दृष्टि से एवं मुख्य अर्थ में भीतर से वे जानते हैं कि परमात्मा न तो पाया जाता है और न ही खोया जाता है ।

जिन महापुरुषों ने परमात्मा का अनुभव कर लिया है, उनके सत्संग का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करे और उसी में स्थिति कर लें तो आपको भी परमात्मा का अनुभव हो सकता है । ….और यह कार्य कठिन नहीं है परंतु विजातीय संस्कारों को हटाना कठिन लगता है ।

विजातीय संस्कारों को कैसे हटायें ?

विजातीय संस्कारों को हटाने का एक तरीका तो यह है कि जैसे एक लोटे में पानी भरा है उसमें आप दूध भरना चाहते हो लेकिन पानी निकालना नहीं चाहते हो तो उसमें दूध भरते जाओ । प्रारम्भ में दूध व पानी दोनों बहेंगे पर एक समय ऐसा आयेगा कि उसमें केवल दूध का ही प्रमाण रह जायेगा । अर्थात् महापुरुषों के पास, उनके सत्संग में आते जाते रहो । ध्यान, जप, सत्संग, कीर्तन आदि करते रहो । धीरे-धीरे विजातीय संस्कार निकलते जायेंगे एवं परमात्मा प्राप्ति के प्रति रूचि बढ़ती जायेगी ।

दूसरा तरीका है कि लोटा पूरा खाली कर दो और उसमें दूध भर दो अर्थात् वैराग्य जाग जाय और आप मकान-दुकान, पुत्र-परिवार – सब छोड़-छाड़कर पहुँच जाओ किन्हीं आत्मानुभवी महापुरुष के आश्रय में । अपने सारे-के-सारे विजातीय संस्कारों को आप उलटे कर दो अर्थात् जगत के संस्कार धुल जायें और फिर आत्मानुभवी महापुरुष के वेदांती अनुभव को अपने में भरते जाओ तो ब्रह्मज्ञान हो जायेगा ।

अर्थात् हम स्वयं में यदि विजातीय संस्कार न भरें तो परमात्मज्ञान होना कठिन नहीं है, आत्मसाक्षातकार होना असम्भव नहीं है । यही कारण है कि जब राजा परीक्षित को श्राप मिला कि ‘सात दिन में मर जाओगे ।’ तब वे जागतिक संस्कारों को उँडेलकर बैठ गये शुकदेव जी महाराज के श्रीचरणों में तो 7 दिन में ही उन्हें ज्ञान हो गया । उनके साथ दूसरे लोग भी सत्संग में बैठे थे लेकिन उनको पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ जबकि राजा परीक्षित को हो गया । क्यों ? क्योंकि और सब लोग विजातीय संस्कारों का लोटा भरकर बैठे थे जबकि परीक्षित लोटा खाली करके बैठे थे । ऐसे ही खट्वांग राजा को एक मुहूर्त में ज्ञान हो गया । राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते ज्ञान हो गया । इस प्रकार जितनी जल्दी विजातीय संस्कार हट जाते हैं, उतनी ही जल्दी परमात्मज्ञान हो जाता है । यह भी कहना पड़ता है कि ‘ब्रह्म का ज्ञान होगा ।’ वास्तव में ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, तत्त्वज्ञान ही ब्रह्म है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 317

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कैसे करें ग्रीष्म ऋतु में स्वास्थ्य की रक्षा ?


ग्रीष्मकाल में सूर्य की तीक्षण किरणें शरीर में स्थित जलीय व स्निग्ध अंश को अवशोषित करती हैं, जिससे रस, रक्त व शुक्र धातुएँ क्षीण होती हैं एवं वायु का संचय तथा कफ का क्षय होता है । इससे शारीरिक बल घटता है तथा जठराग्नि व रोगप्रतिरोधक क्षमता भी घटने लगती है । सभी ऋतुओं में शरीर को सर्वाधिक दुर्बल बनाने वाली ऋतु है ग्रीष्म ऋतु । नीचे दी गयी बातों का ध्यान रखने से ग्रीष्मजन्य दुष्प्रभावों से रक्षा व बल की वृद्धि होगी ।

1 हितकारी आहारः इस ऋतु में मधुर रसयुक्त, शीतल, स्निग्ध अन्न व द्रव पदार्थों का सेवन करना हितकारी है । चावल स्निग्ध, पचने में हलके व शीतल होते हैं अतः इस ऋतु में चावल की खीर खाना स्वास्थ्यप्रद है । यथासम्भव घी का उपयोग कर सकते हैं । दूध, मिश्री के साथ साठी चावल का सेवन विशेष लाभकारी है ।

सब्जियों में पेठा (कुम्हड़ा), लौकी, गिल्की, भिंडी, परवल, तोरई आदि का सेवन पथ्यकर है । पुदीना, चौलाई (लाल व हरी), पोई (पूतिका), धनिया व मीठे नीम का उपयोग करना हितकारी है । पुदीना भोजन के पाचन में मदद करता है व लू से भी रक्षा करता है ।

फलों में अंगूर, आम, खरबूजा, तरबूज, केला, अनार आदि तथा अनाज व दालों में गेहूँ, मूँग, मसूर, मोठ, लोबिया ले सकते हैं । कच्चे आम का पना तथा मिश्री, घी व शीतल जल मिलाया हुआ सत्तू, गुलकंद आदि का उपयोग विशेषतः दोपहर के समय करना हितकारी है ।

गुलाब, पलाश व ब्राह्मी शरबत तथा विभिन्न पेय जैसे – लीची, संतरा, अनानास, मैंगो ओज़ व सेब पेय तथा आँवला रस, आँवला चूर्ण आदि का उपयोग करना लाभकारी है ।

2 अहितकारी आहारः मिर्च, मसाले व अन्य तीखे पदार्थ एवं कच्ची इमली, कच्चा आम, अचार, दही, कढ़ी जैसे खट्टे पदार्थ तथा अधिक नमकवाले पदार्थ एवं  तले हुए व इडली व डोसा, डबलरोटी जैसे खमीरीकृत पदार्थों का सेवन न करें । बाजरा व उड़द का सेवन हानिकारक है । सहजन, बथुआ, करेला, बैंगन आदि गर्म तासीरवाली सब्जियों का सेवन अल्प मात्रा में करें, विशेषतः पित्त प्रकृतिवाले व्यक्ति इऩका सेवन न करें तो अच्छा है । मेथी व सुआ आदि का उपयोग न करें ।

3 जलपानः ग्रीष्म में पानी भरपूर पीना चाहिए । ताँबे के पात्र में रखा हुआ पानी पीने के लिए श्रेष्ठ होता है परंतु ताँबा अति उष्ण-तीक्ष्ण गुणवाला होने से ग्रीष्म व शरद ऋतु में इसके बर्तन का पानी पीना हितकर नहीं है । फ्रिज के पानी में जीवनीशक्ति कम होती है । यह वात-पित्त-कफ प्रकोपक होता है । फ्रिज का ठंडा पानी या कोल्ड ड्रिंक्स पीने से अजीर्ण, मंदाग्नि, अम्लपित्त, बवासीर तथा आमवात जैसी बीमारियाँ होती हैं ।

पानी के लिए मिट्टी के घड़े का उपयोग करना स्वास्थ्यप्रद है । इसका जल शीतल एवं तृप्तिदायक होता है । घड़े में देशी खस (गाँडर घास), गुलाब अथवा मोगरे की पँखुड़ियाँ, थोड़ा भीमसेनी कपूर अथवा शुद्ध सफेद चंदन डाल दें । इस पानी के उपयोग से शरीर की उष्णता एवं क्षारीयता (तीखा व खारापन एवं रूक्षता की अधिकता) दूर होकर शीतलता व बल की प्राप्ति होती है ।

4 विहारः ग्रीष्म ऋतु में प्रातःभ्रमण विशेष लाभदायी है । सम्भव हो तो सुबह अथवा दोपहर के समय मस्तक पर चंदन या मुलतानी मिट्टी लगा सकते हैं । दोपहर की धूप में न घूमें । अधिक तंग, पसीना न सोखने वाले व कृत्रिम वस्त्र न पहनें । हलके, ढीले, पतले तथा सूती (विशेषतः सफेद रंग के) वस्त्रों का उपयोग करें । रात को चन्द्रमा की शीतलताप्रदायक चाँदनी में सोयें ।

ग्रीष्मकाल में स्वाभाविक ही शुक्र का क्षय होता है इसलिए इन दिनों में संसार-व्यवहार करने से ओज-तेज का नाश हो के वार्धक्य के लक्ष्ण जल्दी दिखाई देते हैं । अतः चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करें । अधिक परिश्रम व व्यायाम न करें । अन्य ऋतुओं में दिन में सोना निषिद्ध माना गया है परंतु गर्मियों में दिन में थोड़ी देर नींद लेने से बल की रक्षा होती है ।

धूप में से आने के तुरंत बाद स्नान करना या सिर पर पानी डालना अथवा जलाशय आदि में डुबकी लगाना हानिकारक है । थोड़ा रुक के, पसीना सूख जाने के बाद और शरीर का तापमान सामान्य होने पर स्नान करें ।

नींद गहरी व पर्याप्त मात्रा में लें । इस हेतु रात्रि को जल्दी (9 बजे) सोयें । जिन्हें नींद ठीक से न आती हो वे सोने के आधा-पौना घंटे पहले 150-200 मि.ली. दूध मिश्री मिलाकर ले सकते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 33 अंक 317

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दोषहर, सप्तधातुवर्धक व स्वास्थ्यप्रद फलः आँवला


आँवले को धात्रीफल भी कहा जाता है । यह त्रिदोषशामक, विशेषकर पित्त व कफ शामक है । आँवला शुक्रवर्धक, रुचिकर, भूखवर्धक, भोजन पचाने में सहायक, मलमूत्र को साफ लाने वाला व शरीर की गर्मी को कम करने वाला है । यह शरीर की रस, रक्त आदि सप्तधातुओं के दोषों को दूर करता है ।

आँवले के सेवन से शरीर में धातुओं का निर्माण होता है, इस प्रकार यह युवावस्था को बनाये रखने में सहायक है । जिन्हें अधिक पसीना आता हो, मुँह में छाले हों, नकसीर फूटती हो या जलन हो उन्हें इसके रस अथवा चूर्ण का उपयोग करना चाहिए ।

गुणकारी आँवले के कुछ औषधीय प्रयोग

1 जिन्हें भोजन में अरुचि हो या भूख कम लगती हो उन्हें भोजन से पहले 2 चम्मच आँवला रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर लेना लाभकारी है ।

2 नाक, मूत्रमार्ग, गुदामार्ग से रक्तस्राव, योनिमार्ग में जलन व अतिरिक्त रक्तस्राव, पेशाब में जलन, रक्तप्रदर, त्वचा विकार आदि समस्याओं में आँवला रस अथवा आँवला चूर्ण दिन दो बार लेना लाभदायी है ।

3 आँवला रस में 4 चुटकी हल्दी मिलका दिन में दो बार लें । यह सभी प्रकार के प्रमेहों में श्रेष्ठ औषधि है ।

4 अम्लपित्त, सिरदर्द, सिर चकराना, आँखों के सामने अँधेरा छाना, उलटी होना आदि में आँवला रस या चूर्ण मिश्री मिलाकर लेना फायदेमंद है ।

5 रक्ताल्पता या पीलिया जैसे विकारों में आँवला चूर्ण का दिन में 2 बार उपयोग करने से रस-रक्त का पोषण होकर उन विकारों में लाभ होता है ।

6 आँवला एवं मिश्री का मिश्रण घी के साथ प्रतिदिन सुबह लेने से असमय बालों का सफेद होना व झड़ना  बंद हो जाता है तथा सभी ज्ञानेन्द्रियों की कार्यक्षमता बढ़ती है ।

सेवन मात्राः आँवला चूर्ण – 2 से 5 ग्राम, आँवला रस – 15 से 20 मि.ली.

ध्यान दें- रविवार व शुक्रवार को आँवले का सेवन वर्जित है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 31 अंक 317

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