Monthly Archives: December 2002

महानता के चार सिद्धान्त


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

महानता के चार सिद्धान्त हैं- हृदय की प्रसन्नता, उदारता, नम्रता, समता।

हृदय की प्रसन्नता- जिसका हृदय जितना प्रसन्न, वह उतना ज्यादा महान होता है। जैसे – श्री कृष्ण प्रसन्नता की पराकाष्ठा पर हैं। ऋषि का श्राप मिला है, यदुवंशी आपस में ही लड़कर मार-काट मचा रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं, फिर भी श्री कृष्ण की बंसी बज रही है…..

उदारता- श्रीकृष्ण प्रतिदिन सहस्रों गायों का दान करते थे। कुछ-न-कुछ देते थे। धन और योग्यता तो कइयों के पास होती है लेकिन देने का सामर्थ्य सबके पास नहीं होता। जिसके पास जितनी उदारता होती है, वह उतना ही महान होता है।

नम्रता- श्रीकृष्ण नम्रता के धनी थे। सुदामा के पैर धो रहे हैं श्रीकृष्ण ! देखा कि पैदल चलते-चलते सुदामा के पैरों में काँटें चुभ गये हैं, उन्हें निकालने के लिए रुक्मिणी जी से सुई मँगवायी। सुई लाने में देर हो रही थी तो अपने दाँतों से ही काँटा खींचकर निकाला और सुदामा के पैर धोये…. कितनी नम्रता !

युधिष्ठिर आते तो वे उठकर खड़े हो जाते थे। पाण्डवों के संधिदूत होकर गये और वहाँ से लौटे तब भी उन्होंने युधिष्ठिर को प्रणाम करते हुए कहाः ‘महाराज ! हमने तो कौरवों से संधि करने का प्रयत्न किया, किंतु हम विफल रहे।’

ऐसे तो चालबाज लोग और सेठ लोग भी नम्र दिखते हैं ! परंतु केवल दिखावटी नम्रता नहीं, हृदय की नम्रता होनी चाहिए। हृदय की नम्रता आपको महान बना देगी।

समता- श्रीकृष्ण तो मानो, समता की मूर्ति थे। इतना बड़ा महाभारत का युद्ध हुआ, फिर भी कहते हैं कि ‘कौरव-पाण्डवों के युद्ध के समय यदि मेरे मन में पाण्डवों के प्रति राग न रहा हो और कौरवों के प्रति द्वेष न रहा हो तो मेरी समता की परीक्षा के अर्थ यह बालक जीवित हो जाये।’ और बालक (परीक्षित) जीवित हो उठा…..

जिसके जीवन में ये चार सदगुण हैं, वह अवश्य महान हो जाता है। नम्र व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टों और क्लेशों से छूट जाता है और दूसरों के हृदय में भी अपना प्रभाव छोड़ जाता है। जबकि अहंकारी व्यक्ति बड़ी-बड़ी विघ्न बाधाओं से जूझते-जूझते थक जाता है और अपने दुश्मन बढ़ा लेता है।

नम्रता व्यक्ति को महान बनाती है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ तहाँ बदमाश, लुच्चे और ठगों को प्रणाम करते रहें। नम्रता कहाँ और कैसे दिखानी – यह विवेक भी होना चाहिए। दुष्ट के आगे नम्र बनोगे तो वह आपको बुद्धु मानेगा। अपने शोषक के आगे नम्र हो जाओगे तो वह ज्यादा शोषण करेगा, अतः विवेक का उपयोग करें।

रावण और कंस के जीवन में अहंकार था तथा श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन में प्रसन्नता, उदारता, नम्रता, समता आदि सदगुण थे। परिणाम क्या हुआ ? सारी दुनिया जानती है।

ये चारों सदगुण कैसे आते हैं ?

धर्म का आश्रय लेने से । जो अपना कर्तव्य ठीक से निभाता है, वह प्रसन्न रहता है। माता-पिता के दिल को दुःखाकर, चोरी करके, दूसरों को सताकर कोई प्रसन्न रह सकता है क्या ? नहीं सदा प्रसन्न रहने के लिए सदाचार, पवित्रता, सात्विकता आदि सदगुणों का आश्रय लेना होता है। ‘श्रीमद्भगवदगीता’ के सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पदा के प्रथम तीन श्लोकों को अपने आचरण में लाकर अपना जीवन सार्थक करें।

धर्म क्या है ? कोई आपके यहाँ चोरी करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता, इसलिए आप किसी की चोरी न करो। आपसे कोई धोखा करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता, अतः आप भी किसी से धोखा न करो। आपके कोई हाथ पैर तोड़ दे या आपका अहित करे तो आपको अच्छा नहीं लगता, इसलिए आप भी किसी का अहित न करो। लेकिन कोई आपको डण्डा मारने आये तो रक्षा के लिए आपको भी डण्डा उठाना पड़ेगा। हिंसा करना तमोगुण है, प्रतिहिंसा करना रजोगुण है और अहिंसक बनना सत्त्वगुण है।

प्रसन्न वही रह सकता है, जिसके पास धर्म है, संयम है। जिसकी इन्द्रियाँ और मन जितने उसके नियंत्रण में हैं, उतना ही वह प्रसन्न, उदार, नम्र और सम रह सकता है। जिसके जीवन में ये चार सदगुण नहीं हैं, वह बाहर से कितना भी ऊँचा दिखे, अंत में थक जायेगा, हार जायेगा, निराश हो जायेगा….. जिसके जीवन में चार सदगुण हैं, वह महान होता जायेगा….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 9,10

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बंधन किसको है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में आता है कि वह आनन्दस्वरूप अपना आत्मा ही परमेश्वर है।

हम नित्य सुख चाहते हैं, सदा सुख चाहते हैं और सहज में सुख चाहते हैं। फिर भी यह मिले तो सुखी होऊँ, यहाँ जाऊँ तो सुखी होऊँ, ऐसा करूँ तो सुखी होऊँ… मन की इस बेवकूफी के पीछे सारी जिंदगी बिता देते हैं। इसलिए सदा सुख पाने के लिए जिससे किया जाता है उसी में डूबने का यत्न करें।

काहे रे बन खोजन जाई।

सर्व निवासी सदा अलेपा तोरे संग सहाई।।

राजकोट के मूल निवासी त्रिवेणीपुरी महाराज, जिनका मुंबई में बहुत बड़ा आश्रम है, वे केदारनाथ में गंगा के तट पर कुटिया बनाकर रहते थे। ‘ईश्वर से ईश्वर को ही माँगते हैं फिर भी अभी तक मुक्ति का अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ?’ ऐसा विचार कर वे रोते थे। उनकी ईश्वरप्राप्ति की प्यास बहुत बढ़ गयी थी।

एक शाम को एक बुढ़िया ने आकर कहाः

“त्रिवेणीपुरी  ! आप किससे मुक्त होना चाहते हैं ?”

त्रिवेणीपुरीः “माता जी ! मुझे मोक्ष का अनुभव करना है।”

वृद्धाः “आप किससे मुक्त होना चाहते हैं ? पत्नी से मुक्त होकर संन्यासी हो गये हैं। परिवार से मुक्त होना चाहा तो उसे भी छोड़कर आये हैं। अब किससे मुक्त होना चाहते हैं ? आपको बंधन कहाँ हैं ? खोजें। खोजते-खोजते अगर बंधन को खोज लिया तो मैं आऊँगी, अगर खोजते-खोजते बंधन नहीं मिला तो नहीं आऊँगी।”

इतना कहकर वह वृद्धा चली गयी। त्रिवेणीपुरी महाराज खोजने लगे कि बँधे हैं तो किससे बँधे हैं। मुक्ति किससे चाहिए ? अगर धन से बँधे होते तो धन हमेशा रहना चाहिए, किंतु रूपये पैसे आते हैं और चले जाते हैं। अगर सुख से बँधे होते तो सुख सदा रहना चाहिए, परंतु वह भी आता-जाता है। अगर दुःख से बँधे होते तो दुःख सदा रहना चाहिए, किंतु वह भी आकर चला जाता है। शरीर भी प्रतिदिन मृत्यु की ओर जा रहा है तो बंधन किसको है ? एकान्त में बैठकर खोजते गये तो पता चला कि अरे ! मैं तो निर्बंध नारायण था – मुझे पता न था। ऐसा करते-करते उनकी समाधि लग गयी और उन्हें ज्ञान हो गया। वे बड़े उच्च कोटि के संत हो गये। अब वे हयात नहीं हैं लेकिन मुंबई में अभी भी उनका आश्रम है। अखण्डानंदजी उनसे मिलते-जुलते रहते थे।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- ‘हे राम जी ! जैसे रण में प्राण निकलने लगें तो भी शूरवीर नहीं भागता बल्कि विजय पाने की इच्छा से शस्त्र को पकड़कर युद्ध करता ही रहता है, ऐसे ही संसार में शास्त्र का विचार ही पुरुषार्थ है। यही पुरुषार्थ करो और शास्त्रों के अनुसार विचारो कि मुक्ति क्या है ? जो विचार से रहित हैं, वे दुर्भाग्य और दीनता को प्राप्त होते हैं।’

जिसने आत्मविचार को त्यागा है समझो, उसने अपना सर्वनाश कर लिया। वह बड़ा अभागा है। वास्तविक सुखी केवल विचारवान ही होता है। विचार यही है कि सत् क्या है और असत् क्या है ? साथ क्या जायेगा और क्या छूट जायेगा ? मैं कौन हूँ और जगत क्या है ? जिसने ऐसा विचार ठीक से किया है उसका भविष्य उज्जवल है। जिसने अपना आत्मविचार नहीं किया समझो, वह मुसीबत में पड़ेगा। अगर आत्मविचार नहीं करता है तो पढ़ा लिखा व्यक्ति भी मूर्ख है और अगर आत्मविचार करता है तो अनपढ़ भी पठितों का पूजनीय है।

पैसा गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु अंतरात्मा की शांति चली गयी तो सब कुछ चला गया। इसलिए आत्मानंद, आत्मशांति पाने का ही यत्न करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8, अंक 120

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पीपल का वृक्ष


भारतीय संस्कृति में वटवृक्ष, पीपल को पूजनीय माना जाता है और बड़ी श्रद्धा से पूजा की जाती है। प्राचीन काल में लोग शांति के लिए जिस प्रकार इन्द्र, वरुण आदि देवताओं की प्रार्थना करते थे, उसी प्रकार वृक्षों की भी प्रार्थना करते थे।

वनिनो भवन्तु शं नौ। (ऋग्वेदः 7.35.5)

अर्थात् ‘वृक्ष हमारे लिए शांतिकारक हों।’ यज्ञ का जीवन वृक्षों की लकड़ी को ही माना गया है। यज्ञों में समिधा के निमित्त बरगद, गूलर, पीपल और पाकड़ (प्लक्ष) इन्हीं वृक्षों की लकड़ियों को विहित माना गया है और कहा गया है कि ये चारों वृक्ष सूर्य-रश्मियों के घर हैं।

‘एते वै गन्धर्वाप्सरसां गृहाः।’ (शत. ब्राह्मण)

औषधि प्रयोग

भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ कहकर पीपल को अपना स्वरूप बताया है।

रतौंधीः पीपल की लकड़ी के टुकड़े को लेकर गोमूत्र से शिला पर घिसना चाहिए। इसका अंजन आँखों में लगाने से रतौंधी में लाभ होता है।

मलेरिया ज्वरः पीपल टहनी का दातुन कुछ दिनों तक करने से तथा उसको चूसने से मलेरिया के बुखार में लाभ होता है।

कान का दर्द या  बहरापनः पीपल की ताजी हरी पत्तियों को निचोड़कर उसका रस कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है। कुछ समय तक इसके नियमित सेवन से कान का बहरापन भी मिटता है।

खाँसी और दमाः पीपल के सूखे पत्तों को खूब कूटना चाहिए। जब चूर्ण बन जाये, तो उसे कपड़े से छान लेना चाहिए। लगभग आधा तोला (6 ग्राम) चूर्ण में मधु मिलाकर रोज सुबह एक माह तक चाटने से दमा व खाँसी में स्पष्ट लाभ होता है।

धातु दौर्बल्य और वन्ध्यत्वः पीपल वृक्ष के फल में अदभुत गुण हैं। फलों को सुखा, कूट और कपड़ छानकर रखना चाहिए। रोज एक गिलास दूध में 3 ग्राम चूर्ण मिलाकर पीने से धातु-दौर्बल्य दूर होता है। स्त्रियों के प्रदर और मासिक धर्म की समस्याओं में तथा प्रसव के बाद दूध के साथ नियमित रूप से लेने से बहुत लाभ होता है। पुराना प्रदर जड़ से मिट जाता है और मासिक धर्म का खुलकर न आना तथा अनियमितता भी दूर हो जाती है।

सर्दी और सिरदर्दः सिर्फ पीपल की 2-4 कोमल पत्तियों को चूसने से सर्दी से होने वाला सिरदर्द कुछ ही मिनटों में छूमंतर हो जाता है।

मेधाशक्तिवर्धक व पित्तशामकः पीपल के पेड़ की लकड़ी का मेधाशक्तिवर्धक प्रभाव शास्त्रों में वर्णित है। पीपल की पुरानी, सूखी लकड़ी से बने गिलास में रखे पानी को पीने से अथवा पीपल की लकड़ी का चूर्ण पानी में भिगोकर छना हुआ पानी पीने से व्यक्ति मेधावी होता है। पित्त-सम्बंधी, शारीरिक गर्मी-सम्बन्धी तमाम रोगों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। शरबत, ठण्डाई आदि बनाते समय इस चूर्ण को कुछ समय तक पानी में भिगो दें या चूर्ण को पानी में उबालकर छान लें तथा ठण्डा कर शरबत, ठण्डाई आदि में मिलाकर पियें। पीपल के हरे पेड़ काटना अशुभ व हानिकारक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 29 अंक 120

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