सेवा का रहस्य – स्वामी अखंडानंदजी

सेवा का रहस्य – स्वामी अखंडानंदजी


अपने हितैषी के प्रति जो श्रद्धा, विश्वास अथवा सेवा है, वह उनका उपकार करने के लिए नहीं है । ‘मैं अपनी सेवा के द्वारा उनको उपकृत करता हूँ या सुख पहुँचाता हूँ’ – यह भावना भी अपने अहंकार को ही आभूषण पहनाती है । विश्वास या श्रद्धा दूसरे को अलंकृत करने के लिए नहीं होती, अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए होती है । सेवा जिसकी की जाती है उसकी तो हानि भी हो सकती है, लाभ उसको होता है जो सद्भाव से सेवा करता है । अतएव सेवा करते समय यह भाव होना चाहिए कि ‘सेवा के द्वारा हम अपना स्वभाव अच्छा बना रहे हैं अर्थात् अपने स्वभावगत आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता आदि दोषों को दूर कर रहे हैं । यह सेवा हमारे लिए गंगाजल के समान निर्मल एवं उज्ज्वल बनाने वाली है ।

सेवा स्वयं में सर्वोत्तम फल है

वस्तुतः सेवा का फल कोई स्वर्गादि की प्राप्ति नहीं है और न धन-धान्य की । सेवा स्वयं में सर्वोत्तम फल है । जीवन का ऐसा निर्माण जो अपने में रहे, सेवा ही है । सेवा केवल उपाय नहीं है, स्वयं उपेय भी है । उपेय माने प्राप्तव्य । यदि आपकी निष्ठा सेवा हो गयी तो कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा । जिनके मन में ‘सेवा का कोई फल नहीं मिला’ ऐसी कल्पना उठती है, वे सेवा का रहस्य नहीं जानते । उनकी दृष्टि अपने प्राप्त जीवन, शक्ति एवं प्रज्ञा के सदुपयोग पर नहीं है, किसी आगंतुक पदार्थ पर है ।

सेवा कभी अधिक भी नहीं हो सकती क्योंकि जब तक अपना सम्पूर्ण प्राण सेवा में समा नहीं गया तब तक वह पूर्ण ही नहीं हुई, अधिकता का तो प्रश्न ही क्या है ? सच कहा जाय तो सेवा ही जीवन का साधन है और वही साध्य भी है । विश्व को सेवा की जितनी आवश्यकता है उसकी तुलना में हमारी सेवा कितनी छोटी है । यदि विश्व की सेवा के क्षीरसागर के समान सेवाभाव की आवश्यकता है तो हमारी सेवा एक सीकर (बूँद) के बराबर भी नहीं है । सेवक के प्राण अपनी सेवा की अल्पता देख-देखकर व्याकुल होते हैं और उसकी वृद्धि के लिए अनवरत प्रयत्नशील रहते हैं । जिसको अपनी सेवा से आत्मतुष्टि हो जाती है वह सेवा-रस का पिपासु नहीं है । पिपासा अनंत रस में मग्न हुए बिना शांत नहीं हो सकती । वह रस ही सेवक का सत्य है । सेवा इसी सत्य से एक कर देती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 337

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