सुविचार आए तो पकड़ लेना चाहिए

सुविचार आए तो पकड़ लेना चाहिए





जो ऊँचे विचार आते हैं वो दुनिया के और किसी उपाय से  नहीं आते । एक नीचा विचार करोडों आदमियों को परेशान कर देता हैं । रावण का एक छोटा विचार देखो पूरे लंका को परेशान कर दिया, वानरों को परेशान कर दिया…रावण का एक नीचा विचार! ऐसे ही सिकंदर का , हिटलर का एक नीचा विचार ‘मैं बड़ा दिखूँ’…कईं लोगों की बलि ले लिया , और वो चीजें तो ले नहीं गए! हिटलर का नीचा विचार, सिकंदर का तबाही मचा देता हैं।गाँधीजी ने हरिश्चंद्र की पिक्चर देखी और ऊँचा विचार किया-झूठ नहीं बोलेंगे, परहित करेंगे, तो फायदा भी ऐसा हुआ! मेरे गुरुदेव का ऊँचा विचार कि ‘उसको खोजेंगे’ ..परमात्मा को.. तो कितने लोंगो का भला हो गया!

सिद्धार्थ ने दिल किसीको बूढ़ा.. बूढों को तो रोज देखते हैं लोग.. बीमार और मुर्दे को देखा…सिद्धार्थ को ऊँचा विचार आया कि जहाँ मौत नहीं हैं, जहाँ बुढापा नहीं हैं, जहाँ बीमारी नहीं हैं वो कौनसी  चीज हैं?एक ऊँचे विचार ने सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध बना दिया, लग गए बस! ऊँचे विचार को पकड़ के लग जाना चाहिए! नीच लोग नीचे विचार को पकड़ के लग जाते हैं। ऊँचे लोग ऊँचे विचार को पकड़ के फिर छोड़ देते हैं! उसमें महत्व बुद्धि नहीं रखते! ऊँचे विचारों में सबसे सर्वोपरि ऊँचा विचार हैं आत्मा परमात्मा को पाने का।उससे कोई और ऊँचा नहीं! परमात्मा को पाने का विचार हो तो अपनी औकात के अनुसार साधन करें।अपनी योग्यता के अनुसार साधन आदमी को पहुँचा देता हैं।


ज्ञानात ध्यानं विशिष्यते…ब्रह्म परमात्मा का ज्ञान ..उससे भी ब्रह्म परमात्मा का ध्यान ऊँचा है ।  

ज्ञानात ध्यानं विशिष्यते ध्यानात कर्म फल त्याग…ध्यान से भी कर्म का फल त्याग करके उस परमात्मा की प्रसन्नता के लिए जो प्रवृत्ति होती है… ध्यान, लगे तब आनंद आए ..लेकिन सेवा कार्य में तो – ‘ए! जरा बिछा दे, ए! ठीकसे बाँट!’ …हल्ला गुल्ला करते हुए भी आनंद! …’ ला भाई-ले भाई, ले ये खा ले, ले यह प्रसाद ले’.. ये  तू पुस्‍तक पढ़ना… तो हैं तो विक्षेप ! हैं तो खुली आँख, हैं तो बोलचाल-हिलचाल! मन तो स्थिर नहीं हैं! फिर भी सेवा कर रहें हैं न भगवान के-गुरू के दैवी कार्य की, तो उसमें आनंद आने लगता हैं। तो जो भक्ति में, साधना में, समाधि में सुख मिले वोही सुखस्वरूप ईश्वर व्यवहार में उसकी झलकियाँ आती हैं।


कैंब्रिज विश्व विद्यालय हो गया । कैंब्रिज विश्व विद्यालय के एक अब्दुल विद्यार्थी को हलकट विचार आया कि हिंदुस्तान का कुछ हिस्सा पाकिस्तान बनाया जाए। एक छोरे को विचार आया…एक छोरे के विचार ने एक करोड़ आदमियों को बेघर कर दिया! अब्दुल कॉलेज का विद्यार्थी था , उसको ये विचार आया पाकिस्तान बनावे..

एक हल्के विचार ने एक करोड़ लोगों को तो बेघर कर दिया, लाखों महिलाओं की इज्जत लूटी गई, हजारों बच्चे मारे गये, जीतू जैसे बबलु मार दिये गये । गटरों में फेंक दिए गये, पानियों में डुबा दिए गए…एक छोरे का विचार..धीरे धीरे धीरे धीरे दूसरे का, तीसरे का .. एक अब्दुल्ला के विचार से भारत  का कुछ हिस्सा पाकिस्तान बन गया। ऐसे ही गाँधी जी के विचार से ‘ अंग्रेज भारत छोड़ो’ इसी विचार ने रंग लाया तो अंग्रेजों को भगा दिया, भारत आजाद हो गया! 

तो विचारों में कितनी शक्ति हैं! गाड़ी से, मोटर से, जहाज से, एटम बम से भी विचार की शक्ति ज्यादा हैं! विचारों से अटम बम फोड़े जाते हैं और रोके जाते हैं, बनाए जाते हैं और खोजे जाते हैं। तो विचार जहाँ से उठते हैं उसके गहराई में आत्मा है, परमात्मा हैं! इसलिए विचारों का महत्व हैं! विचार में जितना भगवान का आश्रय होगा , भगवान को पाने का विचार होगा तो वो सुखदाई होगा । द्वेष का विचार अपना और दूसरे की तबाही करता हैं। राग का विचार अपने को  और दूसरे को भोगी बनाता हैं। तो राग और द्वेष से प्रेरित होकर जो भी कर्म करते हैं वे तो कुत्तों की नाई लड़-लड़ के मर जाते हैं।


राग और द्वेष से प्रेरित होकर जो भी कर्म करते हैं वो कुत्तों की नाई लड़-लड़ के एक दूसरे की निंदा , एक दूसरे के वीक पॉइंट खोज-खोज के दिमाग खाली करके अकाल मृत्यू की गोद में सो जाते हैं।   हिटलर, सिकंदर और भी कईं जो हैं राग-द्वेष से.. मुसोलिनी, कई कम्युनिस्ट…

राग भी बाँधता हैं, द्वेष भी बाँधता हैं। ईश्वर प्रीति अर्थ करने से राग और द्वेष शिथिल हो जाते हैं । जो लोग उपासना नहीं करते उनका राग-द्वेष मिटता नहीं। ‘मेरे को द्वेष नहीं हैं, शिवशंकर साक्षी हैं।’ फिर भी द्वेष रहता हैं पता ही नहीं चलता! लेकिन भगवान रक्षा करें  सबकी ।


विचारों की कैसी बलिहारी हैं! एक विचार मित्रता बना देता है, एक विचार शत्रुता और कलह बना देता हैं। एक विचार साधक को गिराकर संसारी बना देता हैं, एक विचार संसारी को संयमी बनाकर भगवान बना देता हैं। सिद्धार्थ के विचार ने उनको संयमी बनाकर भगवान बना दिया। इसलिए सुविचार की बलिहारी हैं और सुविचार आए तो पकड़ रखना चाहिए।

उदयपुर का राजा सत्संग सुनता और धीरे से चुपके से खिसक जाता।उदयपुर के राणा को ऐसा करते महाराज ने देख लिया और एक दिन पूछा उनसे कि तुम सत्संग में तो श्रद्धा से बैठते हो राणा चतुरसिंग । चतुर भी हो फिर भी सत्‍संग में से खिसक जाते हो । बोले- बापजी! मेरे को कोई बढ़िया विचार मिलता हैं न सत्संग में तो फिर वो चला न जाये कहीं तो उठ जाता हूँ और उधर वो पक्का करता हूँ जाके। घर पर जाकर उसी विचार का मनन करके उसको पक्का करता हूँ।

जिन लोगों को सत्संग की कदर हैं उनका तो भला हो जाएगा , जिनको सत्संग की कदर नहीं हैं और सुविचार की जगह पर कुविचार को ही पकड़के बैठे रहते हैं, वे अपना दूसरों का बहुत अहित करते हैं। तो सत्संग कराने का एक सुविचार हजारों लाखों आदमियों को सुख शांति दे देता हैं। झगड़े करने का कुविचार अशांति पैदा कर देता हैं, हड़ताल पैदा कर देता हैं। अलगसे फ़ौज, अलगसे मिसाइले, अलगसे जहाज लड़ाई से एक ही हिंदुस्तान में द्वेष हो के लड़ के अपनी शक्ति का ह्रास हो रहा हैं न!कितने अरबों खरबों रुपये चट हो गए और लाखों करोड़ों आदमी बेघर हुए… सिर्फ एक विचार!

सनकादि ऋषियों के ब्रह्मज्ञान के विचार ने तो नारदजी को श्रीमद्भागवत की तरफ प्रेरित कर दिया। वो भागवत का एक विचार शुकदेवजी का राजा परीक्षित का कल्याण करने के निमित्त करोडों लोगों का भला किया भागवत ने!और अब्दुल के विचार ने करोड़ो लोगों की तबाही की तो शुकदेव और व्यासजी के विचार ने करोड़ों लोगों को भला किया। तुलसीदास के विचार ने करोड़ों लोगों को शांति दी, रामायण के रस से आनंदित कर  दिया। रामानंद सागर के विचार ने घर बैठे लोगों को रामायण दी..

विचारों की बड़ी भारी महत्ता हैं। जिसमें द्वेष विचार आ जाता हैं तो उसके दुर्गुण ही दिखते हैं। राग विचार आया तो सद्गुण दिखेंगे लेकिन श्रद्धा का विचार आया तो उसमें परमात्मा दिखेगा! नामदेव को भूत में परमात्मा दिखा। हमको गुरू में भी परमात्मा नहीं दिखता कैसे हम लोगों के विचार हैं! भूत ने भयंकर रूप दिखाया… नामदेव कहते हैं-

धरती पर चरण आकाश में माथ

भले पधारो लंबकनाथ ,

योजन भर के लंबे हाथ
भले पधारो लंबकनाथ
सुर सनकादि गीत तुम्हारे गाए
नामदेव को करो सनाथ
भले पधारो लंबकनाथ!
नारायण… नारायण… नारायण… नारायण…

द्वेष से प्रेरित होकर कोई किसीसे व्यवहार करता हैं तो वो मंदिर में होते हुए भी अपने लिए नरक बना रहा हैं, आश्रम में होते हुए भी अपने लिए नरक बना रहा हैं, अपने लिए अशांति और नालते पैदा करवा रहा हैं, द्वेष से प्रेरित जो  भी व्यवहार करेगा। ऐसे ही राग से प्रेरित होकर भी जो भी व्यवहार करता हैं वो अपने  लिए मुसीबत का कुँआ खोद रहा हैं। राग नहीं द्वेष नहीं , ईश्वर प्रीत्‍यर्थ तटस्थ कर्म करने वाला अपने विचार को ब्रह्ममय बनाएगा ।  नारायण… नारायण… नारायण… नारायण… लेकिन राग-द्वेष से युक्त हैं तो सियार हैं सियार… बुद्धिमान भी हैं, शास्त्र का ज्ञाता भी हैं लेकिन राग-द्वेष से भरा हैं तो सियार हैं सियार! रामजी को वसिष्ठजी बोल रहे हैं! देखो विचारों की बलिहारी हैं।

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