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संत सान्निध्य की महिमा


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

हे राम जी ! संत और भक्त में दोष देखना अपना विनाश करना है। साधु में एक भी गुण है तो उसको अंगीकार कीजिये। उनके अवगुण न सोचिये, न खोजिये।

अगर अवगुण देखना चाहोगे तो श्रीराम में भी दिख जायेंगे, श्री कृष्ण में भी दिख जायेंगे, बुद्ध, नानक और कबीर आदि में भी दिख जायेंगे। जैसे, बुद्ध एक नर्तकी के हाथ का बनाया हुआ भोजन करते थे… श्री कृष्ण गोपियों के साथ नाचते थे…. श्री रामजी ने सीता माता का त्याग कर दिया था…. लेकिन यह सब उनका बाह्य आचरण है। अगर इसे बाह्य दृष्टि से देखकर चलोगे तो आप गड्ढे में गिर जाओगे किन्तु यदि अन्तर्दृष्टि से उनके इन कार्यों को देखोगे तो आप तर जाओगे। बाह्य दृष्टि से ज्ञानी प्रारब्धवश व्यवहार में कुछ लेन-देन करते भले ही दिखें, परन्तु अन्तःकरण से वे कुछ नहीं करते वरन् सदा अपने-आप में तृप्त रहते हैं।

अगर ऐसे महापुरुषों को भी अवगुणी की नजर से देखोगे तो अवगुण खूब दिख जायेंगे और तुम्हारा चित्त भी अवगुणों का भण्डार हो जायेगा।

एक बार दुर्योधन के गुरुदेव द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहाः “जाओ, देखकर आओ कि नगर में कितने सज्जन लोग हैं ?”

दुर्योधन गया, दिन भर घूमा और शाम को लौटकर अपने गुरुदेव से उसने कहाः

“नगर में सारे लोग दुर्जन ही हैं।”

फिर गुरुदेव ने युधिष्ठिर को उसी नगर में भेजते हुए कहाः “जाओ, तुम देखकर आओ कि नगर में कितने दुर्जन लोग हैं ?”

युधिष्ठिर गये, दिन भर घूमकर शाम को आये एवं बोलेः

“नगर में कोई दुर्जन नहीं है। सब सज्जन ही सज्जन हैं।”

युधिष्ठिर तो दुर्योधन को भी दुर्योधन नहीं सुयोधन बोलते थे एवं दुःशासन को भी सुशासन कहकर बुलाते थे। उनके चित्त में शांति रहती थी, आनंद रहता था।

आप भी यदि एक दूसरे को दोषमय देखोगे तो आपकी शक्तियों का ह्रास होगा। उनके वे दोष आपमें भी उत्पन्न होने लगेंगे। इसके विपरीत यदि अपने बेटे-बेटी, पुत्र-परिवार, मित्र आदि में भी दोष देखने के बजाये गुण देखोगे तो उनके भी गुण बढ़ेंगे और आप में भी उन गुणों का विकास होने लगेगा।

अतः दुर्योधन की नाँईं किसी व्यक्ति में दुर्गुण मत देखो अपितु युधिष्ठिर की नाँईं सदगुण देखो। हम तो कहते हैं कि युधिष्ठिर से भी आगे श्रीकृष्ण की नाँईं सब में अपने को देखो और अपने में सबको देखो। भोले बाबा कहते हैं-

सब प्राणियों में आपको, सब प्राणियों को आप में।

जो प्राज्ञ मुनि हैं जानता, कैसे फँसे फिर पाप में ?

अक्षय सुधा के पान में, जिस संत का मन लीन हो।

क्यों कामवश सो हो विकल, कैसे भला फिर दीन हो ?

ऐसे महापुरुषों को ही ʹसाधुʹ कहा गया है। मनुष्य को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक साधु की संगत करे। साधु की संगत में अगर असाधु रहे तो वह भी साधु बन जाये लेकिन साधु अगर असाधु के प्रभाव में रहे तो वह भी असाधु हो जाये। ऐसे ही शिष्य अगर गुरु के कहने में चलता है तो एक दिन गुरु के अनुभव को वह अपना बना लेता है किन्तु गुरु यदि शिष्य के कहने में चलने लग जायें तो वे गुरु गुरु ही न रह जायें। इसीलिए असाधुओं को छोड़कर साधु का संग करना चाहिए। उनके साथ मिलकर सत्संग करना चाहिए। जो नित्य अपने-आप में तृप्त रहते हैं, मस्त रहते हैं तथा वही मस्ती सबको लुटाते रहते हैं ऐसे साधुपुरुषों का संग तो स्वयं संत भी चाहते हैं।

जो परम संत हों, साधु हों अगर उनमें एक भी गुण देखने को मिल जाये तो उसे स्वीकार कर लेना तथा अज्ञानी के, असाधु के हजार गुण भी दिखें, फिर भी उसकी धन-दौलत, मिथ्या पद-प्रतिष्ठा की वासना में नहीं पड़ना। साधु की सहजता एवं सरलता दिख जाये तो उसे यत्नपूर्वक अंगीकार करना चाहिए।

यदि आपने किसी को अमुक समय, अमुक स्थान पर मिलने का विचन दिया हो और पास में किसी ज्ञानी, संतपुरुष का सत्संग चल रहा हो तो आप उस व्यक्ति से मिलने मत जाना क्योंकि उस व्यक्ति से तो फिर कभी भी मिल सकते हो किन्तु संत पुरुष के दर्शन तथा सत्संग-सान्निध्य का लाभ बार-बार नहीं मिलता। ऐसे संत पुरुष कभी-कभी ही कहीं पर मिलते हैं अतः सब काम छोड़कर भी उनके श्रीचरणों में पहुँच जाना।

संसारी व्यक्ति दे-देकर भी क्या देगा ? संसारी तो आपको वासना पोसने की चीजें तथा वासना जगाने की बातें ही देगा, जिससे अभिमान, अहंकार पनपेगा जबकि ज्ञानवानों के संग से एवं उनके सत्संग में जाने से विवेक जगता है, वैराग्य उत्पन्न होता है, हृदय पवित्र एवं अहंकार गलित हो जाता है। उनके दर्शन मात्र से अमिट पुण्य की प्राप्ति होती है तथा मन को शांति मिलती है।

ऐसे ज्ञानवानों के लिए विरोधी, निंदक तथा कुप्रचारक कुछ का कुछ बोलते-लिखते रहते हैं किन्तु समझदार श्रद्धालु भक्त उनके इस जाल में नहीं फँसते, वरन् वे और भी अधिक दृढ़ता से अध्यात्म के मार्ग पर डट जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं-

संत न होते संसार में, तो जल मरता संसार….

….किन्तु अभागे कुप्रचारक संतों की निन्दा करके अपने कीमती मानव जीवन को नरकगामी तो बना ही लेते हैं, साथ ही साथ अपने 21 कुलों को भी ले डूबते हैं जबकि भक्त तो भक्ति के मार्ग पर दिनोंदिन उन्नति करते हुए अपना जीवन सफल कर लेते हैं।

एक तो आज कल की पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के युग में संत-भगवंत में श्रद्धा होना कठिन है और अगर थोड़ी बहुत श्रद्धा होती भी है तो कुप्रचारकों की बातें पढ़ सुनकर वह टूट जाती है। कुंठित मन-बुद्धिवाले लोग अनर्गल बातों के चलते ईश्वरतुल्य संत के दर्शन व सत्संग लाभ के लिए एक कदम भी नहीं चल पाते वरन् दूर ही भागते रहते हैं।

अगर भागना ही है तो जीवन को तबाह करने वाले जहरीले तथा जानलेवा व्यसनों से दूर भागो। विषय-विकारों में उलझाकर जीवन के ओज-तेज को नष्ट करने तथा शक्तिहीन-बुद्धिहीन बनाने वाली बुराइयों एवं चलचित्रों से दूर भागो। उन विषय विकारों का त्याग करो जो हमें अंधकार की खाई में ले जाते हैं। उस मोह माया को त्यागो जो हमें संत के द्वार तक पहुँचने से रोकती हैं। लेकिन आज के अच्छे-भले भारतवासी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपनी सभ्यता व संस्कृति के आदर्शों एवं व्यवहारों को भूल गये हैं, संत-शरण थता उनके दर्शन व सत्संग के लाभ को भूल गये हैं और दुनिया के मिथ्या व्यवहार की ओर भागे जा रहे हैं।

श्रीकृष्ण जैसे श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे श्रीराम भी जब अवतार लेकर आये तो उन्होंने भी श्रद्धा व नम्रतापूर्वक सदगुरु एवं संत-महापुरुषों के श्रीचरणों में अपने मस्तक झुकाये, उनके आश्रम में रहकर सेवा-साधना की। परन्तु आज के मानव इन सब चीजों से दूर ही भागते फिर रहे हैं।

जो अति कामी हैं, विषयी-विलासी हैं, तुच्छ भोगों में आसक्त हैं वे दूसरे जन्म में को ई कीट-पतंग आदि नीची योनियों में, तो कोई शूकर – कूकर की योनि में पुण्य-पाप की तारतम्यता से कोई घोड़े-गधे आदि पशुओं की योनि में तो कोई वृक्ष आदि योनियों में जन्म लेकर बड़े कष्ट पाते हैं लेकिन जो संतों के श्रीचरणों में श्रद्धापूर्वक शीश झुकाते हैं, उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण कर सेवा-साधना करने लग जाते हैं, उनके वचनों को पचा लेते हैं वे देर-सबेर महान परमेश्वरीय भक्ति, महान् परमात्मज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं एवं भक्त परमात्मधाम को पा लेते हैं।

कबीर जी ने कहा हैः

संत मिले यह सब मिटे, काल जाल जम चोट।

शीश नमावत ढही पड़े, सब पापन की पोट।।

अतः प्रयत्नपूर्वक संत महापुरुषों में एक भी दोष न देखते हुए, उनके गुणों को अंगीकार करते हुए मानव को अपने जीवन को सार्थक करने का यत्न अभी से शुरु कर देना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 9-11, अंक 98

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रसायन चिकित्सा


रसायन चिकित्सा आयुर्वेद के अष्टांगों में से एक महत्त्वपूर्ण चिकित्सा है। रसायन का सीधा सम्बन्ध धातु के पोषण से है। यह केवल औषध-व्यवस्था न होकर औषधि, आहार-विहार एवं आचार का एक विशिष्ट प्रयोग है जिसका उद्देश्य शरीर में उत्तम धातुपोषण के माध्यम से दीर्घ आयुष्य, रोगप्रतिकारक शक्ति एवं उत्तम बुद्धिशक्ति को उत्पन्न करना है। स्थूल रूप से यह शारीरिक स्वास्थ्य का संवर्धन करता है परन्तु सूक्ष्म रूप से इसका सम्बन्ध मानस स्वास्थ्य से अधिक है। विशेषतः मेध्य रसायन इसके लिए ज्यादा उपयुक्त है। बुद्धिवर्धक प्रभावों के अतिरिक्त इसके निद्राकारक, मनोशांतिकर एवं चिन्ताहर प्रभाव भी होते हैं। अतः इसका उपयोग विशेषकर मानस विकारजन्य शारीरिक व्याधियों में किया जा सकता है।

रसायन सेवन में वय, प्रकृति, सात्म्य, जठराग्नि तथा धातुओं का विचार आवश्यक है। भिन्न-भिन्न वय तथा प्रकृति के लोगों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होने के कारण तदनुसार किये गये प्रयोगों से ही वांछित फल की प्राप्ति होती है।

1 से 10 साल तक के बच्चों को 1 से 2 चुटकी वचाचूर्ण शहद में मिलाकर चटाने से बाल्यावस्था में स्वभावतः बढ़ने वाले कफ का शमन होता है, वाणी स्पष्ट व बुद्धि कुशाग्र होती है।

11 से 20 साल तक किशोरों एवं युवाओं को 2-3 ग्राम बलाचूर्ण 1-1 कप पानी व दूध में उबालकर देने से रस, मांस तथा शुक्रधातु पुष्ट होती है एवं शारीरिक बल की वृद्धि होती है।

21 से 30 साल तक के लोगों को 1 चावल के दाने के बराबर शतपुटी लौहभस्म गोघृत में मिलाकर लेने से रक्तधातु की वृद्धि होती है। इसके साथ 1 चम्मच आँवला चूर्ण सोने से पहले पानी के साथ लेने से नाड़ियों की शुद्धि होकर शरीर में स्फूर्ति व ताजगी का संचार होता है।

31 से 40 साल तक के लोगों को शंखपुष्पी का 10 से 15 मि.ली. रस अथवा उसका 1 चम्मच चूर्ण शहद में मिलाकर देने से तनावजन्य मानसिक विकारों में राहत मिलती है। नींद अच्छी आती है। उच्च रक्तचाप कम करने एवं हृदय को शक्ति प्रदान करने में भी यह प्रयोग बहुत हितकर है।

41 से 50 वर्ष की उम्र के लोगों को 1 ग्राम ज्योतिष्मती चूर्ण 2 चुटकी सोंठ के साथ गरम पानी में मिलाकर देने तथा ज्योतिष्मती के तेल से अभ्यंग करने से इस उम्र में स्वभावतः बढ़ने वाले वातदोष का शमन होता है एवं संधिवात, पक्षाघात (लकवा) आदि वातजन्य विकारों से रक्षा होती है।

51 से 60 वर्ष की आयु में दृष्टिशक्ति स्वभावतः घटने लगती है जो 1 ग्राम त्रिफला चूर्ण तथा आधा ग्राम सप्तामृत लौह गोघृत के साथ दिन में 2 बार लेने से बढ़ती है। सोने से पूर्व 2-3 ग्राम त्रिफला चूर्ण गरम पानी के साथ लेना भी हितकर है। गिलोय, गोक्षुर एवं आँवला से बना रसायन चूर्ण 3-10 ग्राम तक सेवन करना अति उत्तम है।

मेध्य रसायनः शंखपुष्पी, जटामांसी और ब्राह्मी चूर्ण समभाग मिलाकर 1 ग्राम चूर्ण शहद के साथ लेने से ग्रहणशक्ति व स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। इससे मस्तिष्क को बल मिलता है, नींद अच्छी आती है एवं मानसिक शांति की प्राप्ति होती है।

आचार रसायनः केवल सदाचार के पालन से भी शरीर व मन पर रसायनवत् प्रभाव पड़ता है और रसायन के सभी फल प्राप्त होते हैं।

सत्यवादी, क्रोधरहित, अहिंसक, उदार, धीर, प्रियभाषी, अहंकाररहित, ब्रह्मचर्य का पालन व नित्य दान करने वाला, गुरु एवं वयोवृद्ध तपस्वियों की पूजा तथा सेवा सुश्रुषा में रत, संयमी, जप तप एवं धर्मशास्त्रों का स्वाध्याय करने वाला पुरुष नित्य रसायन सेवी है – ऐसा समझना चाहिए।

संत श्री आसारामजी आश्रम संचालित धन्वन्तरि आरोग्य केन्द्र, अमदावाद।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 98

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मन बुद्धि को परमात्मा में लगायें….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से

ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में आया हैः

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।

ʹमुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।ʹ (गीताः12.2)

भगवान यहाँ जो ʹमुझमेंʹ शब्द बोलते हैं वह रथ पर विराजमान विग्रह के लिए नहीं बोलते, अपितु समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त एवं आकाश से भी सूक्ष्म जो चिदानन्द स्वरूप है, समस्त प्राणियों के अंतःकरण में जो आत्मरूप से स्थित है उसको लक्ष्य करके ʹमुझमेंʹ शब्द का प्रयोग करते हैं।

शिष्य जब गुरुदेव से कहता है किः ʹगुरुदेव ! आप कण-कण में विद्यमान हैं….ʹ तो इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरुदेव का शरीर कण-कण में घुस गया है। नहीं, जो गुरुतत्त्व है वह कण-कण में, जर्रे-जर्रे में छुपा है। जो गुरुदेव को शरीर मानेगा, वह स्वयं शरीर से पार कैसे जायेगा ? जो भगवान को देहधारी मानेगा, वह देह के बंधन से कैसे मुक्त होगा ?

भगवान और सदगुरु देह में होते हुए भी देह से परे हैं। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहा हैः

अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

भगवान कहते हैं- ʹतू मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा।ʹ वास्तव में देखा जाये तो मन और बुद्धि भगवान के सिवाय कहीं लग भी नहीं सकते हैं क्योंकि भगवान के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं। सृष्टि के आदि में भगवान, अंत में भगवान… तो अभी जो है, वास्तव में भगवान ही है लेकिन माया के कारण हम जान नहीं पाते ।

भगवान की माया विवर्त दिखाती है। जो विवर्त है उसकी को संसार बोलते हैं और संसार सरकता जाता है अर्थात् बदलता जाता है। धातु वही की वही, लेकिन नाम और और रूप बदलते जाते हैं, इसी का नाम माया है। माया में स्थिरता नहीं है, शाश्वत सुख नहीं है, नित्य परिवर्तन है।

परिवर्तन जिसके आधार पर होता है वह आधार और जिसमें परिवर्तन होता है वह है आधेय। जैसे पानी में काई जम जाती है तो काई का आधार है पानी और आधेय है काई। आधेय काई अपने पानी को ढँक देती है। ऐसे ही माया आधेय है और  परमात्मा आधार है। काई पानी से पैदा होती है, पानी को ही ढँकती है और पानी में ही रहती है तथा उसमें जन्तु भी होते हैं। जन्तुओं में भी पानी के अंश होते हैं, काई में भी पानी के अंश होते हैं और मूल में भी पानी होता है। ऐसे ही मूल में परमात्मा, माया में भी चेतना परमात्मा की और माया से उत्पन्न हुए जीव में भी चेतना परमात्मा की होती है।

कबीर जी ने कहा हैः

जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलै समाना, यह अचरज है ज्ञानी।।

ईश्वर का पूर्ण ज्ञान होने पर ज्ञानी का आचरण कैसा होता है ? घड़े में पानी और पानी में घड़ा… घड़े की आकृति को विचार से तोड़ दें तो बाहर भीतर केवल पानी ही होता है। ऐसे ही देह को ʹमैंʹ मानने की मन-बुद्धि की जो बेवकूफी है उसे हटाकर, देह के भीतर और बाहर व्यापक चिदाकाश जो चैतन्य है उसमें मन-बुद्धि लगा दें तो फिर आप भगवान से अलग नहीं रहते और भगवान आपसे अलग नहीं रहते।

भगवान कहते हैं-

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

अर्थात् ʹतू मेरे में मन और बुद्धि को लगा।ʹ

जब ʹमनʹ बोलते हैं तब मन के साथ चित्त को मान लेना चाहिए। ʹबुद्धिʹ बोलते हैं तब उसके साथ अहंकार को भी समाविष्ट कर लेना चाहिए। वैसे अंतःकरण चतुष्ट्य कहा जाता हैः मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन में चित्त का समावेश और बुद्धि में अहंकार का समावेश करना। जब मन बुद्धि को भगवान में लगा देंगे तब स्वयं भगवन्नमय हो जायेंगे।

यदि मन बुद्धि नश्वर देह और नश्वर संसार में लगे हैं तो फिर कितना भी तप करें, व्रत-उपवास करें, उसका फल नश्वर ही होगा। मन-बुद्धि जहाँ से उत्पन्न होते हैं उस चैतन्यस्वरूप परमात्मा को ʹमैंʹ मानकर उसमें लगे रहे तो फल शाश्वत होगा।

नानकजी ने ठीक ही कहा हैः

देखत नैन चल्यो जग जाई। का माँगूँ कछु थिर न रहाई।।

ʹसंसार में ऐसी कोई चीज नहीं है जो स्थिर रहे, तो भगवान से क्या माँगें ?ʹ

“भगवान ! जिसमें हमारा मंगल हो और जो आपको उचित लगे, वही दीजिये।”

भगवान कहेंगे- “तुम मुझमें मन-बुद्धि को लगा दो तो तुम और हम एक हो जायेंगे। अद्वैत ज्ञान हो जायेगा।”

यह है भी आसान और शाश्वत भी है। केवल काई जहाँ से पैदा हुई है और काई ने जिसको ढाँक दिया है उसको जानना है।

किन्हीं साधु बाबा के पास आकर एक व्यक्ति ने पूछाः “महाराज ” मैं बड़ा प्यासा हूँ। थक गया हूँ। आगे पानी है ?”

महाराजः “बेटा ! पानी है। बहुत शीतल और स्वच्छ है। प्यास बुझ जायेगी।”

“बेटा ! बायें हाथ की और सौ कदम की दूरी पर है। लेकिन हरा-हरा सा दिखेगा क्योंकि काई से ढँका है। पानी शुद्ध है।”

वह व्यक्ति गया, देखा तो कहीं पानी नहीं दिखा। फिर याद आया कि काई (शैवाल) से ढँका है। कुछ हरा-हरा सा दिखा। निकट गया, काई को हटाया और चुल्लु भर पिया तो शीतल, अमृत जैसा जल ! पेट भर पिया और अपनी प्यास बुझाई। थका तो था ही। तालाब के किनारे एक वृक्ष के नीचे थकान मिटाने के लिए थोड़ी देर बैठा। जल तो पुनः काई से ढँक गया लेकिन अब उस व्यक्ति को जल का अज्ञान नहीं है क्योंकि उसने काई को हटाकर जल का अनुभव कर लिया है। ऐसे ही केवल तीन मिनट के लिए अज्ञान की काई हट जाये एवं गुरुकृपा से साधक परमात्म-तत्त्व का अनुभव कर ले तो फिर भले बाहर से अज्ञानी की नाईं संसार का व्यवहार करता दिखेगा लेकिन भीतर से उस अनुभव से तृप्त रहेगा। बाहर से ब्रह्म भले ढँका सा दिखेगा लेकिन जैसे जब चाहे तब वह काई हटा हटाकर जल पी सकता है, वैसे ही वह ज्ञानी पुरुष जब चाहे तब अंतरात्मा में गोता मारकर आत्मानुभव कर लेगा। कितना आसान है !

जब चाहें तब प्रधानमंत्री से मुलाकात नहीं हो सकती, जब चाहे सेठ को नौकर भी मिल सकता लेकिन वह परमात्मा सदा-सर्वत्र मिला हुआ ही है। मध्य रात्रि को शांत होकर बैठ गये तब भी उसका अनुभव, उसके रस में सराबोर…. सुबह, दोपहर, शाम को भी सराबोर… देश-परदेश में, बीमारी-तंदरुस्ती में, गृहस्थी-संन्यासी में….. जब चाहो तब उस परमात्मा के रस में सराबोर हो सकते हैं।

एक गृहस्थ संत थे। वे आस-पास के लोगों को बगीचे में बैठाकर सत्संग सुनाते थे किः ʹशरीर नश्वर है, पाँच भूतों का पुतला है। जो भी पैदा होता है वह अवश्य मरता है, किन्तु आत्मा अमर है। घड़े बनते हैं, फूटते हैं लेकिन आकाश ज्यों का त्यों रहता है। ऐसे ही शरीरर जन्मता-मरता है लेकिन आत्मा ज्यों-की-त्यों रहती है। अपने को आत्मा मानो। मन-बुद्धि को भगवान में लगाओ। संसार की मोह-माया में मत फँसो।ʹ

एक दिन उनका पोता मर गया। वे संत घर जाकर छाती कूटने लगे किः ʹबेटा ! तू क्यों चला गया ? तेरे बिना हम कैसे जियेंगे ?ʹ ऐसा कहकर वे इतना रोये, इतना रोये कि उनका बेटा एवं उनकी बहू जो पुत्र शोक से रो रहे थे, वे उन्हीं को चुप कराने लगे।

फिर बेटे की अंतिम क्रिया की, स्नानादि किया एवं पिता को खाना बनाकर खिलाया। पिता तो संत थे लेकिन वे लोग उनको नहीं जानते थे। पड़ोसी भी उन्हें अपना मित्र मानते थे। किसी ने पूछ लियाः

“भाई ! आप बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं कि ʹशरीर नाश्वान है, आत्मा अमर है।ʹ हमको तो उपदेश देते हैं और आपके पोते का देहांत हो गया तो आप इतना रोये कि आपके बहू-बेटे भी आपको चुप कराने लगे।”

संतः “अभी छोड़ो। बहू की सहेलियाँ और बेटे के मित्र सुन लेंगे। बाद में बतायेंगे।”

फिर समय पाकर सब बगीचे में मिले तब संत ने कहाः “मैं उस दिन समझकर रोया था। बेटे का इकलौता बेटा मर गया था। माँ-बाप दोनों रो रहे थे। यदि मैं उनको चुप कराने जाता तो वे और रोते कि ʹआपको क्या है ? हमारा इकलौता बेटा मर गया, हमारे तो मानों प्राण ही चले गये हैं….ʹ ऐसा करके वे ज्यादा रोते। मैंने सोचा, उनको चुप कराने के लिए रोने में अपने को घाटा भी क्या है ? मैं समझकर रो रहा था तो दुःख नहीं हो रहा था। वे मोह से रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लेते।”

रंगमंच पर कोई भिखाई की भूमिका अदा करता है किः ʹदे दो, कोई पाँच-दस पैसे दे दोઽઽઽ.. तुम्हारे बाल-बच्चे सुखी रहेंगे….ʹ वही व्यक्ति रंगमंच से उतरने के बाद आराम से चाय-नाश्ता करता है और 100 रूपयों की नोट जेब में डालकर मजे से रह लेता है। लेकिन उसका अभिनय ऐसा होता है कि दर्शक को लगता है कि ʹहम सब उसे 1-1 रूपया दे देवें।

जो समझकर रोता है उसे दुःख के समय भी कोई दुःख नहीं होता।

अष्टावक्र जी महाराज राजा जनक से कहते हैं-

संतुष्टोपि न सन्तुष्टः खिन्नोपि न च खिद्यते।

तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते।।

ʹधीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता है और दुःखी होकर भी दुःखी नहीं होता है। उसकी इस आश्चर्यमय दशा को वैसे ज्ञानी ही जानते हैं।ʹ (अष्टावक्र गीताः 18.56)

ऐसे महापुरुष शरीर के जीवन को अपना जीवन नहीं मानते और शरीर की मौत को अपनी मौत नहीं मानते क्योंकि उन्होंने अपने मन-बुद्धि को चैतन्यस्वरूप परमात्मा में लगा दिया है। उन्होंने समझ लिया है किः ʹजिसकी मौत होती है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।ʹ

कुछ लोग मानते हैं किः ʹइतने व्रत-उपवास करेंगे, इतने जप-तप करेंगे तब भगवान मिलेंगे…. इतने होम-हवन करेंगे तब भगवान मिलेंगे… हम मर जायेंगे तब भगवान के धाम में जायेंगे….ʹ उनकी यह धारणा ही उन्हें भगवान से दूर कर देती है।

वास्तव में भगवान मिला-मिलाया ही है किन्तु मन-बुद्धि परिवर्तनशील माया में लगे हैं इसलिए मिला-मिलाया भगवान भी पराया लगता है और पराई नश्वर चीजें अपनी लगती हैं। जिसे आप ʹमैंʹ बोलते हैं वह नश्वर शरीर भी आपका नहीं है, माया का विलासमात्र है। जिसकी सत्ता से आप ʹमैं-मैंʹ बोलते हैं उसकी गहराई में जाओ तो अपने स्वरूप का निश्चय हो जायेगा। वास्तव में निश्चय ʹस्वʹ में होता है और ʹस्वʹ शाश्वत में रहता है। दर्शनशास्त्र की यह सूक्ष्म बात है। इसको सुनने मात्र से हजारों कपिला गौदान करने का फल मिलता है।

मन ! तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।

यदि मन अपने मूल को पहचान ले तो अपने-आप भगवान में लग जायेगा। बुद्धि अपने मूल को पहचानने लगे तो अपने-आप भगवान में लग जायेगी। यह ʹमैं-मैंʹ जिस चैतन्य से उत्पन्न होता है उसका ज्ञान हो जाये तो सभी दुःखों का सदा के लिए अंत हो जाये। लेकिन होता क्या है कि, यह ʹमैंʹ मन-इन्द्रियों से जुड़कर नश्वर चीजों को ʹमेराʹ मानने लगता है। ऐसे ʹमेरा-मेराʹ करते-करते कई बदल जाते हैं लेकिन ʹमैंʹ वही का वही रहता है। जिस ʹमैंʹ से मन बुद्धि उत्पन्न होते हैं, उसी ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगा दें तो शाश्वत के द्वार खुल जायें…..

उस वास्तविक ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगाने का अभ्यास करना चाहिए, लेकिन यह अभ्यास से नहीं होता।

“बापू ! अभ्यास करना चाहिए ऐसा आप कहते हैं और फिर ऐसा भी कहते हैं कि अभ्यास से नहीं होता है ?”

शरीर को ʹमैंʹ मानने का जो उल्टा अभ्यास पड़ गया है उस उल्टे को सुलटा करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। जैसे रास्ता भूल कर आगे निकल जाते हैं तो वापस आना पड़ता है, ऐसे ही मन-बुद्धि जो नश्वर शरीर और संसार में लग गये हैं उन्हें ईश्वर में लगाना है। वैसे तो मन बुद्धि ईश्वर में ही लगे हुए हैं।

ईश्वर से ही मन बुद्धि स्फुरित होते हैं। जैसे तरंगें पानी से ही उठती हैं, ऐसे ही मन बुद्धि चैतन्यस्वरूप परमात्मा से ही उठते हैं। ये जहाँ से उठते हैं उसी को सत्य मानकर उसमें लग जायें तो काम बन जाये… लेकिन उठकर बाहर भागते हैं।

जैसे, इकलौता लड़का अपने करोड़पति पिता से अलग होकर एक दो कमरे को अपना माने, 100-200 रूपये छुपाकर रखे और कहे किः ʹये 200 रूपये मेरे हैं…ʹ तो उसे क्या कहा जाये ? अरे ! अपने को पिता माने तो उनकी करोड़ों की मिल्कियत उसी की है। ऐसे ही मन-बुद्धि को ईश्वर में लगाया तो सारा ब्रह्माण्ड आपका है, परमात्मा भी आपका है, ब्रह्माजी की ब्राह्मी स्थिति भी आपकी है….. आप ऐसे व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं ! फिर सारी सृष्टियाँ आपके ही अंदर हैं, आप इतने महान हो जाते हैं ! सारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उद्योगपति जिस परमात्मा से हैं उस परमात्मा के साथ आपका ऐक्य हो जाता है।

फिर धनाढ्य और सुखी होने की इच्छा नहीं रहती, कुछ बनने की इच्छा और बिगड़ने की चिन्ता नहीं रहती, मौत का भय और जीने की इच्छा नहीं रहती, ऐसे निर्वासनिक पद में आपकी स्थिति हो जाती है।

फिर तो आपके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही लोगों का हित होने लगेगा लेकिन आपको करने का बोझ नहीं लगेगा। समाज की सच्ची सेवा या सच्ची उन्नति तो ज्ञानियों के द्वारा ही होती है। जिसे ज्ञान नहीं हुआ, आत्मतृप्ति नहीं मिली, स्वयं को जिसने ठीक से नहीं देखा वह औरों को क्या ठीक दिखायेगा ? सच्ची सेवा तो ज्ञानवान महापुरुष ही करते हैं, बाकी की सब कल्पित सेवाएँ हैं।

लोगों को नश्वर चीजें दिला दीं, अपने नश्वर अहं को पोष दिया तो क्या हो गया ? क्या सब लोग दुःख से मुक्त हो गये ? हजारों लोग सेवा करते हैं, हजारों लोग सेवा लेते हैं लेकिन सेवा करने वालों को कोई-न-कोई दुःख लगा रहता है और सेवा लेने वाले भी दुःखी रहते हैं। सुखी तो केवल वे ही हैं जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की शरण ली है, जिन पर ज्ञानी महापुरुष की करूणा कृपा है और जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की सेवा की है। ऐसे साधक फिर स्वयं दुःखभंजन हो जाते हैं।

अतः भगवान के वचनों को समझकर मन-बुद्धि को भगवान में लगाने का अभ्यास करना चाहिए। भगवद् प्राप्त महापुरुषों के सत्संग का श्रवण करें अथवा तो भगवान की चर्चा करें, इससे मन बुद्धि भगवान में लगेंगे।

ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ देखते हैं तो मन बुद्धि परेशानी में लगते हैं। ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ दिखेगा तो सही, लेकिन जिस परमात्मा की सत्ता से दिखता है उस पर नजर डालें तो मन-बुद्धि परमात्मा में लगने लगेंगे। फिर तो…

हरदम खुशी… हर हाल खुशी…

जब आशिक मस्त फकीर हुआ,

तो क्या दिलगीरी ? बाबा !

गुरुकृपा पचाने की कला आ जाये तो मुक्त होना बड़ा आसान है। जो पूर्ण परमात्मा है उसमें अपने मन  बुद्धि को लगा दें एवं बाकी के कार्यों को यत्न करके पूरा करें। जो भी कार्य हो, सेवा हो, उसे तत्परता से करें। सेवाकार्य तत्परता से करेंगे तो मन-बुद्धि उसी में स्थिर होंगे।

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थेः ʹʹजो अपने सेवाकार्य में तत्पर नहीं है, वह अपनी आत्मा की उन्नति कैसे कर सकता है ?”

पलायनवादिता नहीं तत्परता चाहिए। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ न बढ़ायें, व्यक्तिगत आदतें पूरी करने के पीछे न लगें। जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये तो ʹयह भी गुजर जायेगा…ʹ ऐसा करके मन बुद्धि को ईश्वर में लगायें। अन्यथा मन-बुद्धि अनुकूलता में लग जायेंगे तो थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी मुसीबत पैदा कर देगी। मन-बुद्धि वाहवाही और यश-मान में लग जायेंगे तो मान थोड़ा कम मिलने पर या अपमान होने पर परेशानी हो जायेगी। मन-बुद्धि शरीर में लगेंगे तो मरते समय शरीर में आसक्ति रह जायेगी और यह आसक्ति प्रेतयोनि में भटकायेगी। मन-बुद्धि को पुण्य-कार्य में, देवी-देवता के भजन में लगायेंगे तो पुण्य बढ़ने पर मनुष्य लोक में आयेंगे। धर्मविरुद्ध आचरण करने पर पाप बढ़ेंगे तो हल्की योनियों में जायेंगे। मन-बुद्धि ईश्वर मे लगायेंगे तो ईश्वर से मिलकर ईश्वरमय, ब्रह्ममय हो जायेंगे… मर्जी आपकी है।

इसीलिए भगवान कहते हैं-

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।

ʹमुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।ʹ

देर-सवेर मन-बुद्धि को परमात्मा में लगाना ही पड़ेगा तो फिर अभी से क्यों नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 3-7, अंक 98

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