Tag Archives: Shri Hanuman Jayanti

ऐसी सेवा स्वामी को वश में कर देती है – पूज्य बापू जी


(श्री राम नवमीः 21 अप्रैल 2021, श्री हनुमान जयंतीः 27 अप्रैल 2021)

उत्साही शिष्य सद्गुरु की सेवा करने का, अपने स्वामी को रिझाने का साधन खोज लेता है । भले उसको कोई सेवा बताओ नहीं, कोई सेवा दो भी नहीं, तब भी जिसको उत्साह है वह सेवा खोज लेगा । रामराज्य के बाद एक बार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने सीता माता का सहयोग लेकर प्रभु की सुबह से ले के रात्रि के शयन तक की सारी सेवाओं की सेवा-तालिका बनायी और कौन क्या-क्या सेवा करेगा इस पर राम जी से हस्ताक्षर करवा लिये ।

दूसरे दिन आये हनुमान जी, उठाया पंखा तो भरत कहते हैं- “यह मेरी सेवा है ।”

और कुछ सेवा करने गये तो सीता जी कहती हैं- “यह मेरी सेवा है ।” लखन भैया कहते हैं- “यह मेरी सेवा है ।” शत्रुघ्न ने कहाः “यह मेरे अधिकार में है ।” जिस सेवा को हनुमानजी छुएँ उसमें किसी-न-किसी का अधिकार हो । हनुमान जी व्याकुल हो गयेः “प्रभु जी ! मैं सेवा के बिना कैसे रहूँगा !”

राम जीः “हनुमान ! जो सेवा इनके ध्यान में न रही हो वह तुम ढूँढ लो ।”

हनुमान जी तो बहुत बुद्धिमान थे । भगवान को प्रेम करते-करते उन बुद्धियोगी को याद आया कि ‘और तो सारी सेवाएँ इनके अधिकार में हैं किंतु प्रभु जी को जब जम्हाई आयेगी उस समय चुटकी बजाने की सेवा इनके ध्यान में नहीं आयी । जम्हाई तो कभी भी आ सकती है तो अब सतत दर्शन होंगे ।’

हनुमान जी सामने बैठ गये । रामजी ने पूछाः “हनुमान ! क्या चाहिए बेटे ?”

“प्रभु ! कुछ नहीं चाहिए । मैं सेवा में हूँ ।”

क्या सेवा कर रहे हो ?”

“प्रभु जी को कभी भी जम्हाई आ सकती है तो मैंने चुटकी बजाने की सेवा ले ली ।” राम जी अंदर-अंदर खुश हुए कि ‘देखो ! सेवक फरियाद नहीं करता और सेवा खोज लेता है ।’

अब कहीं भी प्रभु जी जायें तो हनुमान जी हाजरा-हुजूर मिलें । रात हुई तो माँ सीता चरणचम्पी करने गयीं । हनुमान जी ने सोचा कि ‘पति-पत्नी के बीच मुझ इतने बड़े बेटे का उपस्थित रहना यह तो अमर्यादा होगी । परंतु प्रभु को दिन में जितनी जम्हाइयाँ आयीं उससे भी ज्यादा रात को शयन करते समय आ सकती हैं ।’ हनुमान जी खिसक गये कूद के छत पर और वहाँ चुटकी बजाना चालू किया । तो राम जी ने जम्हाई  ली और उनका मुँह खुला रह गया । सीता जी कहती हैं- “प्रभु ! क्या हुआ, क्या हुआ ?”

मुँह बंद हो तब तो बोलें ! सीता जी घबरायीं । कौसल्या जी आयीं, सुमित्रा, कैकेयी आयीं, मंत्री सुमंत्र आये । सुमंत्र ने वैद्यराज को बुलाया ।

दवा कान थींदी मुहिंजे दर्द जी,

हकीमनि खे कहिड़ी खबर मर्ज पी ।

‘मेरे दर्द की दवा नहीं हो सकती, हकीमों को क्या पता मेरे रोग का !’

आखिर मध्यरात्रि को सुमंत्र और उनके साथी को भेजा गया कि ‘गुरु वसिष्ठजी के चरणों में जाओ ।’ गुरु वसिष्ठ जी आये । वसिष्ठजी बुद्धियोगियों में शिरोमणि थे । उन्होंने देखा कि ‘सुमंत्र, कौसल्या, सीता, लक्ष्मण, भरत… सब हैं और राम जी का मुँह खुला रह गया तो क्या बात है ?’ एक क्षण के लिए शांत हुए-न-हुए, वसिष्ठ जी को प्रकाश हुआ, ‘अरे, हनुमानजी दिखाई नहीं देते !’

बाहर निकलेः “नभचर सुन लें, भूचर सुन लें, हवाएँ सुन लें, दिशाएँ सुन लें ! पवनसुत हनुमान जहाँ भी हों आ जायें – मैं वसिष्ठ ब्राह्मण बोल रहा हूँ !”

वे छत पर थे, आ गयेः “जय श्री राम !”

‘जय श्री राम’ करते ही चुटकी बजाना बंद हुआ और वहाँ प्रभु जी का मुँह बंद हो गया । राम जी से पूछा कि “क्या बात है ?”

राम जी बोलेः “हनुमान ने चुटकी बजाना चालू रखा तो मैंने अपनी जम्हाई चालू रखी ।”

सीताजी, लक्ष्मण जी हनुमान जी को कहते हैं- “भैया ! कुछ-न-कुछ हमारी सेवा ले लो पर ऐसा दुबारा मत करना ।”

सेवा स्वामी को वश में कर देती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 340

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपने में हनुमान जी के गुण धारण करो


श्री हनुमान जयंतीः 

कर्म को, भक्ति को योग बनाने की कला तथा ज्ञान में भगवद्योग मिलाने की कला हनुमान जी से सीख लो, हनुमान जी आचार्य हैं । लेकिन जिसके पास भक्ति, कर्म या योग करने का सामर्थ्य नहीं है, बिल्कुल हताश-निराश है तो…. ? ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान की शरण हूँ….’ ऐसी शरणागति योग की कला भी हनुमान जी के पास है । हनुमान जी राम जी की तो सेवा करते हैं लेकिन रामभक्तों की भी समस्याओं का हल करने के लिए उनके सपने में जा-जाकर उनका मार्गदर्शन करते हैं । कई ऐसे भक्त हैं जो बताते हैं कि ‘हनुमान जी सपने में आये, बोलेः बापू से दीक्षा ले लो ।’

वायुपुत्र हनुमान जी, वायु देवता, अंतरात्मा देवता हमारा मंगल चाहते हैं । हम भी सभी का मंगल चाहें तो भगवान के स्वभाव से हमारे स्वभाव का मूल एकत्व हमें समझ में आने लगेगा । ऐसी कोई तरंग नहीं जो पानी न हो । ऐसा कोई घड़े का आकाश नहीं जो महाकाश से अलग हो । ऐसा कोई जीवात्मा नहीं जो परमात्मा से अलग हो । लेकिन काम, क्रोध, वासना, कर्तृत्व-अभिमान ने जीवन को भुलावे में डाल दिया ।

सेवक हो तो ऐसा

वाणी के मौन से शक्ति का संचार होता है, मन के मौन से सिद्धियों का प्रादुर्भाव होता है और बुद्धि के मौन से आत्मा-परमात्मा के ज्ञान का साक्षात्कार होता है । हनुमान जी कम बोलते थे, सारगर्भित बोलते थे । आप अमानी रहते थे, दूसरों को मान देते । यश मिले तो प्रभु जी के हवाले करते, कहीं गलती हो जाय तो गम्भीर भी इतने की सिर झुकाकर राम जी के आगे बैठते थे । प्रेमी भी इतने कि जो भरत कर सके, लक्ष्मण न कह सकें वह खारी, खट्टी-मीठी बात हनुमान जी कह देते थे ।

यदि भरत राम जी से बोलें कि “आप मेरे कंधे पर बैठिये ।” तो राम जी नहीं बैठेंगे । लक्ष्मण जी कहें कि “आपके कोमल चरण धरती पर…. एड़ियाँ फट गयीं, पैरों में काँटे चुभ रहे हैं…. आप मेरे कंधे पर बैठिये ।” तो राम जी नहीं बैठेंगे । लेकिन हनुमान जी कहते हैं कि “प्रभु जी ! आपके कोमल चरण कठोर, पथरीली धरती पर…. मैं तो पशु हूँ । आइये, आप और लक्ष्मण जी – दोनों मेरे कंधे पर बैठिये ।”

दोनों भाई बैठ गये और हनुमान जी ‘जय श्री राम !’ कह के उड़ान भरते हैं ।

हनुमान जयंती पर हनुमान जी की उपासना व स्मृति बुद्धि, बल, कीर्ति और धीरता देने वाली है । निर्भीकता, आरोग्य, सुदृढ़ता और वाक्पटुता चाहने वाले लोग भी हनुमान जयंती के दिन हनुमान जी की गुणगाथा सुनकर अपने में वे गुण धारण करने का मन बना लेंगे तो उनका संकल्प भी देर-सवेर फल दे सकता है ।

आम आदमी मन चाहे देवी देवता, भगवान की भक्ति में लगते हैं और वही भक्ति का फल उन्हें आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों तक पहुँचा देता है । सुयोग्य साधक के लिए तो

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।

राजकुमार प्रचेताओं ने ऐसी तो साधना की कि शिवजी प्रकट हो गये व शिवजी से विष्णु जी के दर्शन का विष्णु-स्तवन का साधन, मंत्र लिया ।

विष्णु जी प्रसन्न हुए, प्रकट होकर बोलेः “तुम्हें देवर्षि नारदजी का सत्संग मिलेगा ।” देवर्षि नारदजी ने उन्हें फिर आत्मसाक्षात्कार करा दिया । रामकृष्णदेव को माँ काली ने तोतापुरी गुरु के पास पहुँचाया और गुरु ने उन्हें साकार के मूल निराकार तत्त्व में, जीव-ब्रह्म के एकत्व में पूर्णता दिलायी । हमने भी बाल्यकाल से देवी-देवता, श्रीकृष्ण, हनुमान जी आदि की साधना-उपासना की । ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज  मिले तो ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ गुरुकृपा का लाभ लिया ।

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई ।

जौं बिरंचि1 संकर2 सम होई ।। (रामायण)

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। (गीताः 4.33)

सारी साधनाओं व पूजा का फल यह है कि ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु मिले । रामकृष्णदेव आत्मसिद्धि को प्राप्त हुए तोतापुरी गुरु की कृपा से । प्रचेता नारदजी की, छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदास जी की, नामदेव जी विसोबा खेचर की कृपा से और हम ‘ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः’ अपने गुरुदेव से….।

1 ब्रह्मा जी 2 शंकर जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 315

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शिक्षाप्रद है हनुमान जी का लंका-प्रवेश


हनुमान जी जब सीता जी की खोज में लंका जा रहे थे तो देवताओं ने उनकी परीक्षा करने हेतु सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। सूक्ष्म बुद्धि के धनी हनुमान जी तुरंत समझ गये कि ‘यह स्वयं मेरा  मार्ग रोकने नहीं आयी है अपितु देवताओं द्वारा भेजी गयी है।’ उन्होंने कहाः ”हे माता ! अभी मुझे जाने दो। श्री राम जी कार्य करके मैं लौट आऊँ तब मुझे खा लेना।”

हनुमान जी सोचते हैं कि ‘तू तो देवताओं की आज्ञा से आयी है और मैं तो राम जी की आज्ञा से आया हूँ। जिनकी आज्ञा से तू आयी है, मैं उनसे भी बड़े की आज्ञा से आया हूँ।’ हनुमान जी यहाँ आज्ञापालन में दृढ़ता का आदर्श उपस्थित कर रहे हैं कि सेवक को अपने स्वामी के आज्ञापालन में कितनी दृढ़ता रखनी चाहिए। विघ्न बाधाओं के बीच भी अपना मार्ग निकालकर स्वामी के सेवाकार्य में कैसे सफल होना चाहिए।

हनुमान जी ने अपने स्वामी श्रीरामजी को हृदय में रखकर लंका में प्रवेश किया। मानो, हनुमान जी ने सफलता की युक्ति बता दी कि कोई भी कार्य करें तो पहले अपने हृदय में गुरु का, इष्ट का सुमिरन, ध्यान करें। उनसे प्रेरणा लेकर कार्य करें। फिर हनुमान जी लंका में सीता जी को खोजना प्रारम्भ करते हैं। कैसे ? संत तुलसीदासजी लिखते हैं-

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।

उन्होंने एक-एक मंदिर में खोजा। रावण के महल के लिए भी मंदिर शब्द लिखा है – ‘गयउ दसानन मंदिर माहीं।’ हनुमान जी मानते थे कि ‘सीता माता मेरी इष्टदेवी है, वे लंका में हैं। अतः यहाँ का एक-एक घर मेरे लिए मंदिर है।’

हनुमान जी ने शिक्षा दी है कि हमारा भी ऐसा भाव हो कि ‘समस्त चर-अचर में परमात्म-तत्त्व, गुरु तत्त्व ही बस रहा है।’ जब हर हृदय में परमात्मा को निहारेंगे और उसी के नाते सबसे व्यवहार करेंगे तो हमारा हर कार्य पूजा हो जायेगा। और फिर नफरत किससे और द्वेष किससे होगा ? सब कुछ आनंदमय, भगवन्मय हो जायेगा।

हनुमानजी और सबके घर गये तो तुलसीदासजी ने ‘मंदिर’ लिखा पर विभीषण जी के यहाँ गये तो ‘भवन’ लिखा है।

भवन एक पुनि दीख सुहावा।

हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 4.4)

हनुमान जी देखते हैं कि ‘यहाँ भगवान का मंदिर अलग बना हुआ है।’ और एक भक्त का घर दूसरे भक्त का घर होता है क्योंकि दोनों अपना-अपना घर तो मानते नहीं, भगवान का ही मानते हैं इसलिए विभीषण जी के घर के सामने जब हनुमान जी पहुँचे तब उसमें उनको मंदिरबुद्धि करने की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसा लगा कि ‘हम तो अपने प्रभु के घर में आ गये।’

उसी समय विभीषण जी जागे तो उन्होंने राम नाम उच्चारण किया। उनके मुँह से भगवन्नाम सुनकर हनुमान जी बड़े प्रसन्न हुए। यह भक्त की पहचान है कि वह अपने इष्ट का नाम सुनकर भाव से भर जाता है।

हनुमान जी कहते हैं-

एहि रान हठि करिहउँ पहिचानी।

साधु ते होइ न कारज हानी।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 5.2)

‘इनसे यत्नपूर्वक परिचय करूँगा क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती।’ हनुमान जी यहाँ सीख दे रहे हैं कि संत का संग प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। इससे हानि न होकर हमेशा लाभ ही होता है। हनुमान जी को विभीषण जी से बहुत सहयोग मिला।

माँ सीता को खोजने के लिए जब हनुमान जी निकले तो उनके मार्ग में अनेक बाधाएँ आयीं पर बुद्धि, विवेक व प्रभुकृपा का सम्बल लेकर उन्होंने हर परिस्थिति का सामना किया। हनुमान जी ने रावण के भाई (विभीषण जी) से ही सीता जी का पता लिया और सीता माता तक स्वामी का संदेश पहुँचाया। इस प्रकार सीता जी को खोजने का सेवाकार्य पूरा किया और आदर्श उपस्थित किया कि स्वामी की सेवा को कैसे कुशलता, दृढ़ता, तत्परता व सावधानी का अवलम्बन लेकर सुसम्पन्न करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 293

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ