Monthly Archives: August 2012

विश्व संस्कृति का उदगम स्थानः भारतवर्ष


भारतीय संस्कृति से विश्व की सभी संस्कृतियों का उदगम हुआ है क्योंकि भारत की धरा अनादिकाल से ही संतों-महात्माओं एवं अवतारी महापुरुषों की चरणरज से पावन होती रही है। यहाँ कभी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अवतरित हुए तो कभी लोकनायक श्रीकृष्ण। संत एकनाथ जी, कबीर जी, गुरुनानकजी, स्वामी रामतीर्थ, आद्य शंकराचार्य जी, वल्लभाचार्यजी, रामानंदचार्यजी, भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाहजी महाराज आदि अनेकानेक संत-महापुरुषों की लीलास्थली भी यही भारतभूमि रही है, जहाँ से प्रेम, भाईचारा, सौहार्द, शांति एवं आध्यात्मकिता की सुमधुर सुवासित वायु का प्रवाह सम्पूर्ण विश्व में फैलता रहा है।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “भारतीय संस्कृति ने समाज को ऐसी दिव्य दृष्टि दी है, जिससे आदमी का सर्वांगीण विकास हो। मनुष्य कार्य तो करे लेकिन कार्य करते-करते कार्य का फल पशु की तरह भोगकर जड़ता की तरफ न चला जाय, इसका भी ऋषियों ने खूब ख्याल किया है।”

जर्मनी के प्रख्यात विद्वान मैक्समूलर भारतीय संस्कृति को समझने के बाद इस संस्कृति के प्रशंसक बन गये। सन् 1858 में महारानी विक्टोरिया से उन्होंने कहा थाः “यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश में मानव-मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा।

यदि कोई पूछे कि किस राष्ट्र के साहित्य का आश्रय लेकर सैमेटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते यूरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही सम्बद्ध न हो अपितु शाश्वत एवं दिव्य भी हो, तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूँगा।”

फ्राँस के महान तत्त्वचिंतक वोल्तेयर ने गहन अध्ययन के बाद लिखा हैः ʹमुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है, चाहे अवकाश-विज्ञान या ज्योतिष-विज्ञान या पुनर्जन्म-विषयक ज्ञान आदि, वह हमें गंगा-तट (भारत) से ही प्राप्त हुआ है।ʹ

अपनी ज्ञान-पिपासा को परितृप्त करने भारत ये लॉर्ड वेलिंग्टन ने लिखा हैः ʹसमस्त भारतीय चाहे राजकुमार हो या झोंपड़ों में रहने वाले गरीब, वे संसार के सर्वोत्तम शीलसम्पन्न लोग हैं, मानो यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।ʹ

भारतीय सस्कृति के प्रति विदेशी विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं है। विश्व में ज्ञान-विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ दिखाई पड़ रही हैं, उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान भारत का ही रहा है। इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।

ऐसा उल्लेख है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और निकटवर्ती अन्य द्वीपों में जाकर बस गये थे। चौथी शताब्दी के पूर्व ही अपनी विशिष्टता के कारण यह संस्कृति उन देशों की दिशा-धारा बन गयी। जावा के बोरोबुदुर स्तूप और कम्बोडिआ के शैव मंदिर, राज्यों की सामूहिक शक्ति के प्रतीक-प्रतिनिधि थे। राजतंत्र इन धर्म-संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है।

पश्चिमी विचारकों ने भी भारत के तत्त्वज्ञान का प्रसाद लेकर महानता की चोटियों को छूने में सफलता प्रदान की है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ लेथब्रिज ने कहा हैः “पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरु भारतीय ऋषि हैं, इसमें सन्देह नहीं।”

गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित थे। सर मोनियर विलियम्स कहते हैं- “यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पाइथागोरस दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था।”

ʹयह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में लेने लायक है कि 2500 साल पूर्व समोस से गंगा-तट पाइथागोरस ज्यामिती सीखने के लिए गये थे और यदि उस समय से पूर्वकाल से यूरोप में ब्राह्मणों की विद्या की महिमा फैली नहीं होती तो वह इतनी कठिन यात्रा नहीं करता।ʹ (वोल्तेयर के दिनांक 15-12-1775 के पत्र से उद्धृत)

वास्तव में जो आज के विद्यार्थी पाइथागोरस के प्रमेय के नाम से सीखते हैं, वह महर्षि बोधायन लिखित ग्रंथ ʹबोधायन श्रौतसूत्रʹ के अंतगर्त शुल्ब सूत्रों में से एक है।

गेटे ने महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित ʹअभिज्ञानशाकुन्तलम्ʹ नाटक से प्रेरणा पाकर ʹफॉस्टʹ नाटक की रचना की। दार्शनिक फिटके तथा हेगल, वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर पाये। अमेरिकी विचारक थोरो तथा इमर्सन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी भाषा में किया।

गणित विद्या का आविष्कारक भारत ही रहा। शून्य तथा संख्याओं को लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिह्नों से व्यक्त किया जाता था। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज पूरे विश्व में प्रचलित हैं।

विश्व के महान भौतिक वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाईन ने कहा हैः “हम भारतीयों के अत्यन्त ऋणी हैं कि उन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकती।”

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे क्योंकि उऩ्होंने अंक विद्या भारत से अपनायी थी। इनसे फिर पश्चिमी विद्वानों ने सीखी। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह खोजा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इसी देश की देन है। जर्मनी के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। उनमें वर्णित कितनी ही गुह्य विधाओं पर वहाँ के वैज्ञानिक खोज में लगे हुए हैं। भारत की महिमा सुनकर चीन के विद्वान फाह्यान, ह्युएनसांग, इत्सिंग आदि भारतभूमि के दर्शन-स्पर्श के लिए यहाँ आये और वर्षों तक ज्ञान अर्जित करते रहे।

कम्बोडिया तीसरे से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य था। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ऋषि कौण्डिय के नाम पर पड़ा। इंडोनेशिया वर्तमान में तो मुस्लिम देश है किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी छाप यहाँ मौजूद है। ʹइंडोनेशियाʹ युनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ʹभारतीय द्वीपʹ।

जावा के लोगों का विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा वेदव्यास ऋषियों ने वहाँ विकसित सभ्य बस्तियाँ बसायी थीं। सुमात्रा द्वीप में हिन्दू राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई थी। यहाँ पाली एवं संस्कृत भाषा पढ़ायी जाती थी।

बोर्नियो में हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गयी थी। यहाँ भगवान शिव, गणेष जी, ब्रह्माजी तथा अगस्त्य आदि ऋषियों व देवी देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई। कितने ही पुरातन हिन्दू  मंदिर आज भी यहाँ मौजूद हैं।

इतिहासकारों के अनुसार थाइलैंड का पुराना नाम ʹश्याम देशʹ था। यहाँ की सभ्यता भारत की संस्कृति से मेल खाती है। दशहरा, अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह यहाँ भी उत्सव मनाये जाते हैं। थाई रामायण का नाम ʹरामकियेनʹ है, जिसका अर्थ है ʹरामकीर्तिʹ।

ऐसे अनगिनत प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यही बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के सागर से विश्व-वसुन्धरा को अभिसिंचित करता रहा है, अब  भी कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 236

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

वर्षा ऋतु में लाभदायी अजवायन


अजवायन उष्ण, तीक्ष्ण, जठराग्निवर्धक, उत्तम वायु व कफनाशक, आमपाचक व पित्तवर्धक है। वर्षा ऋतु में होने वाले पेट के विकार, जोड़ों के दर्द, कृमिरोग तथा कफजन्य विकारों में अजवायन खूब लाभदायी है।

अजवायन में थोड़ा-सा काला नमक मिलाकर गुनगुने पानी के साथ लेने से मंदाग्नि, अजीर्ण, अफरा, पेट का दर्द एवं अम्लपित्त (एसिडिटी) में राहत मिलती है।

भोजन के पहले कौर के साथ अजवायन खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है। संधिवात और गठिया में अजवायन के तेल की मालिश खूब लाभदायी है।

तेल बनाने की विधिः 250 ग्राम तिल के तेल को गर्म करके नीचे उतार लें। उसमें 15 से 20 ग्राम अजवायन डालकर कुछ देर तक ढक के रखें फिर छान लें, अजवायन का तेल तैयार ! इससे दिन में दो बार मालिश करें।

अधिक मात्रा में बार-बार पेशाब आता हो तो अजवायन और तिल समभाग मिलाकर दिन में एक से दो बार खायें।

मासिक धर्म के समय पीड़ा होती हो तो 15 से 30 दिनों तक भोजन के बाद या बीच में गुनगुने पानी के साथ अजवायन लेने से दर्द मिट जाता है। मासिक अधिक आता हो, गर्मी अधिक हो तो यह प्रयोग न करें। सुबह खाली पेट 2-4 गिलास पानी पीने से अनियमित मासिक स्राव में लाभ होता है।

उलटी में अजवायन और एक लौंग का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटना लाभदायी है।

सभी प्रयोगों में अजवायन की मात्राः आधा से दो ग्राम।

सावधानीः शरद व ग्रीष्म ऋतु में तथा पित्त प्रकृतिवालों को अजवायन का उपयोग अत्यल्प मात्रा में करना चाहिए।

स्वास्थ्य वर्धक ʹजौʹ

आयुर्वेद ने ʹजौʹ की गणना नित्य सेवनीय द्रव्यों में की है। जौ कफ-पित्तशामक, शक्ति व पुष्टिवर्धक है। यह पचने में थोड़ा भारी, वायुवर्धक, मलवर्धक वे पेशाब खुलकर लाने वाला है। जौ चर्बी व कफ को घटाता है। अतः सर्दी, खाँसी, दमा आदि कफजन्य विकार, दाह, जलन, रक्तपित्त आदि पित्तजन्य विकार, मूत्रसंबंधी रोग व मोटापे में जौ खूब लाभदायी है। यह जठराग्नि व मेधा को बढ़ाने वाला तथा कंठ को सुरीला बनाने वाला है। इसके सेवन से उत्तम वर्ण की प्राप्ति होती है। जौ कंठ व चर्म रोगों में लाभदायी है।

कोलेस्ट्रोल व एलडीएल की वृद्धि, हृदयरोग, उच्च रक्तदाब, किडनी फेल्युअर व कैंसर में गेहूँ के स्थान पर जौ का उपयोग हितकारी सिद्ध हुआ है। जौ की  पतली राब बनाकर ठंडी होने पर शहद मिला के पीने से उलटी, पेट का दर्द, जलन, बुखार में राहत मिलती है। पित्तजन्य विकारों में जौ का भात घी व दूध मिलाकर खाना लाभदायी है।

80 प्रतिशत गेहूँ के आटे में 20 प्रतिशत जौ का आटा मिलाकर बनायी गयी रोटी  पौष्टिक, स्वास्थ्य-प्रदायक व बड़ी हितकारी होती है। जौ का मीठा या नमकीन दलिया भी बना सकते हैं।

अदरक व सोंठ

यह तीखी, उष्ण, कफ-वातशामक एवं जठराग्निवर्धक है। यह जुकाम, खाँसी, श्वास, मंदाग्नि आदि वर्षा ऋतु जन्य अनेक तकलीफों में लाभदायी व हृदय की क्रियाशक्ति को बढ़ाने वाली है।

औषधि-प्रयोगः दूध में 1-2 चुटकी सोंठ मिलाकर पीना हृदय के लिए बलदायी है अथवा तज का छोटा टुकड़ा डालकर उबाला हुआ दूध पी जायें (तज का टुकड़ा खाना नहीं है)।

ताजी छाछ में चुटकीभर सोंठ, सेंधा नमक व काली मिर्च मिलाकर पीने से आँव, मरोड़ तथा दस्त दूर होकर भोजन में रूचि बढ़ती है।

10 मि.ली. अदरक के रस में 1 चम्मच घी मिलाकर पीने से पीठ, कमर व जाँघ के दर्द में राहत मिलती है।

अदरक के रस में सेंधा नमक या हींग मिलाकर मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।

घृतकुमारी रस

घृतकुमारी (ग्वारापाठा) के विषय में सभी धर्मग्रन्थों में सम्मानपूर्वक विवरण मिलता है। प्राचीन काल से भारतीय इसे औषधि के रूप में उपयोग में ला रहे हैं। यह स्वास्थ्य-रक्षक, सौंदर्यवर्धक व रोगनिवारक गुणों के कारण विख्यात रही है। यह आश्चर्यजनक औषधि 220 से भी अधिक रोगों में उपयुक्त सिद्ध हुई है।

घृतकुमारी शरीरगत दोषों व मल के उत्सर्जन के द्वारा शरीर को शुद्ध व सप्तधातुओं को पुष्ट कर रसायन का कार्य करती है। यह जंतुघ्न (एंटीबायोटिक) व विषनाशक भी है। यह स्वस्थ कोशिकाओं का निर्माण कर रोगप्रतिरोधक प्रणाली को मजबूत करने में अति उपयोगी है। आयुर्वेद के अनुसार ग्वारपाठा वात-पित्त-कफशामक, जठराग्निवर्ध, मलनिस्सारक, बल, पुष्टि व वीर्य़वर्धक तथा नेत्रों के लिए हितकारी है। यह यकृत (लीवर) के समस्त दोषों  निवारण कर उसकी कार्यप्रणाली को सशक्त बनाता है, अतः यह यकृत के लिए वरदानस्वरूप है।

विविध त्वचाविकार, पीलिया, रक्ताल्पता, कफजन्य ज्वर, जीर्ण ज्वर (हड्डी का बुखार), खाँसी, तिल्ली की वृद्धि, नेत्ररोग, स्त्रीरोग, हर्पीज(Herpes), वातरक्त(gout), जलोदर(Ascitis), घुटनों व अन्य जोड़ों का दर्द, जलन, बालों का झड़ना आदि में उपयोगी है। पेट के पुराने रोग, चर्मरोग, गठिया व मधुमेह (डायबिटीज) में यह विशेष लाभप्रद है।

रस की मात्राः बच्चों के लिए 5 से 15 मि.ली. तथा बड़ों के लिए 15 से 25 मि.ली.) सुबह खाली पेट।

नीता वैद्य, वंदना वैद्य

(टिप्पणीः यह सभी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर सेवाभाव से सस्ते में मिलेगी।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 236

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

वास्तविक उन्नति


(पूज्य बापूजी की अमृतवाणी)

लोग बोलते हैं, ʹउन्नति-उन्नति…..ʹ लेकिन अपनी-अपनी मान्यता और कल्पना की उन्नति एक बात है। वास्तविक उन्नति कौन सी है ? बढ़िया फर्नीचर है, बढ़िया खाने-पीने की चीजें बहुत हैं, घूमने के साधन बहुत हैं अर्थात् जिसमें भोग-सामग्री बढ़ाने की वृत्ति हो, वह समझो पैशाचिक उन्नति है। भोग-सामग्री बढ़ाकर जो अपने को बड़ा मानता है, समझो वह पिशाच-योनि की वासना वाला व्यक्ति है।

जो धन बढ़ाकर अपने को बड़ा मानता है वह राक्षसी वृत्ति का है। राक्षसों के पास खूब धन होता है। रावण के पास देखो, सोने की लंका थी। ʹमैं रावण हूँ, बड़ा धनी हूँ….ʹ जो दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मानना चाहता है उसकी दानवी उन्नति है। दानव लोग दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मनाने में ही खप जाते हैं। जो सदभाव का विकास करके बड़ा बनना चाहते हैं, सत्संग में जाकर, जप-ध्यान करके, दीक्षा ले के अपनी उन्नति करना चाहते हैं, उनका असली बड़प्पन का रास्ता अच्छी तरह से खुलने लगता है। वे ज्ञान-विज्ञान से तृप्त होकर असली पुरुषार्थ, ʹपुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।ʹ परमात्मा के अर्थ में शरीर को रखेंगे, खायेंगे-पियेंगे, देंगे-लेंगे लेकिन महत्त्व भगवान को देंगे। उनमें सागर जैसी गम्भीरता आ जाती है। सागर की ऊपर की तरंगें खूब उछलती-कूदती हैं लेकिन गहराई में बड़ा शांत पानी, ऐसे ही वे नींद में से उठेंगे तो उनकी बुद्धि भगवान की गम्भीर उदधि की गहराई जैसी अवस्था में होगी। जैसे श्रीरामचन्द्रजी को राज्याभिषेक होने की खबर मिली तो भी उछल कूद नहीं। सागर की गहराई में जैसे पानी गम्भीर रहता है, ऐसे ही रामचन्द्र जी का स्वभाव शांत व गम्भीर रहा। वनवास मिला तो श्रीरामचन्द्रजी के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी, ʹहोता रहता है, संसार है।ʹ

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

संसार है, बीतने दो। गम्भीरता से इसको देखो। ऐसा करने वाला व्यक्ति परमार्थ के रास्ते अच्छी तरह से तरक्की करता है। उसमें विनयी स्वभाव भी आ विराजता है। ʹमैं ऐसा हूँ…. मैं वैसा हूँ….ʹ यह मान्यता उसकी क्षीण हो जाती है।ʹमैं भगवान का हूँ, चेतनस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ और सदा मेरा साथ निभाने वाला अगर कोई है तो भगवान ही है।ʹ – ऐसी उसकी ऊँची सूझबूझ हो जाती है। ʹपिछले जन्म की माँ नहीं है, बाप नहीं है, मित्र नहीं है लेकिन अंतरात्मा तो वही का वही। बचपन के मित्र नहीं हैं, सखा नहीं हैं, स्नेही नहीं हैं। बचपन में जो मेरी तोतली भाषा के समय थे अथवा किशोर अवस्था में थे, वे न जाने कहाँ चले गये ! उनको जानने वाला अभी भी मेरा परमात्मा मेरे साथ है।ʹ – ऐसी सूझबूझ उसकी बढ़ती जाती है। उसका अहं अन्य वस्तु, अन्य व्यक्ति के फंदे में नहीं फँसता, उसका ʹमैंʹ मूलस्वरूप परमात्मा के ʹमैंʹ से स्फुरित होता है और उसी में शांति पाता है। उसमें तुच्छ अहंकार का अभाव हो जाता है।

ऐसे जो वास्तविक उन्नति के रास्ते चलते हैं, उसको ʹसाधकʹ कहते हैं। वे परम पद की साधना में ही उन्नति मानते हैं। चाहे रहने-खाने की सुविधा अच्छी हो या साधारण, लेकिन चिंतन भगवान का, शांति भगवान में, चर्चा भगवान की, आनंद  भगवान का, विनोद भगवान से, माधुर्य भगवान का…. तो वे वास्तविक उन्नति के धनी साधक आत्मसुख में, आत्मचर्चा में, आत्मज्ञान में, परमात्मरस में रसवान हो जाते हैं। ऐसे लोगों को कुछ बातों का ध्यान रखना होता है।

पहला, अपने कर्म जाँचें कि हम दूषित कर्म तो नहीं करते अथवा दूषित कर्मवालों के प्रभाव में तो हम नहीं खिंच जाते हैं। दूसरा, हमारे में धैर्य है कि नहीं। जरा जरा बात में हम चिढ़ जाते हैं या प्रभावित हो जाते हैं, ऐसा तो नहीं है। तीसरा, आत्मनिरीक्षण करके महापुरुषों के वचनों को आत्मसात् करने की तत्परता रखनी चाहिए। ऐसे लोगों को भगवान की प्राप्ति सुगम हो जाती है। उनमें भगवान के दिव्य गुण आने लगते हैं। प्रशान्त चित्त, दयालु स्वभाव, स्वार्थरहित प्रेम, सदा सत्यचिंतन, सत्य में विश्रान्ति, साधननिष्ठा में दृढ़ता, सहृदयता, आस्था और श्रद्धा-विश्वास, प्रभुप्रीति, पूर्ण आत्मीयता, ʹप्रभु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ और प्रभु के नाते सब मेरे हैं, मैं सबका हूँʹ – ऐसे दिव्य गुणों में वे अपनी उन्नति मानते हैं। सचमुच यही उन्नति है। राजा भर्तृहरि लिखते हैं कि ʹमनुष्य जीवन में गुणी जनों का संग, संतजनों का संग, संतजनों का सत्संग और उनके मार्ग से परमात्मा में शान्ति, प्रीति – वास्तविक उन्नति यही है।ʹ

सत्संग से राक्षसी उन्नति, मोहिनी उन्नति, तामसी उन्नति, राजसी उन्नति इनका आकर्षण छूटकर असली उन्नति होती है। सत्संग के बिना की ये सब उन्नतियाँ अपनी-अपनी जगह पर व्यक्ति को उन्हीं दायरों में लगा देती हैं लेकिन सत्संग के बाद पता चलता है कि वास्तविक उन्नति प्रजा की, राजा की और मानव की किसमें हैं ?

ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ के मुख्य श्रोता हैं भगवान रामजी और वक्ता हैं भगवान राम के गुरु वसिष्ठजी। वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे तो वह भी श्रेष्ठ है पर मूर्खता से जीवन व्यर्थ है।”

संसार को सत्य मानना, देह को ʹमैंʹ मानना, मिलने-बिछुड़ने वाली चीजों के लिये सुखी-दुःखी होना – यह मूर्खता है। तुच्छ मतिवाले प्राणी इसी में उलझते, जन्मते-मरते रहते हैं। मनुष्य भी ऐसे ही जिया और ऐसे ही मरा, प्रकृति के प्रभाव में परेशानीवाली योनि में भटकता रहा तो धिक्कार है उन उन्नतियों को !

आत्मलाभात् न परं विद्यते। आत्मज्ञानात् न परं विद्यते। आत्मसुखात् न परं विद्यते। – इन वचनों की तरफ ध्यान देकर वास्तविक उन्नति की तरफ चलना चाहिए। इंद्रियशुद्धि, भावशुद्धि और आत्मज्ञान देने वाले महापुरुषों का मार्गदर्शन सच्ची उन्नति और शाश्वत उन्नति देता है, बाकी सब नश्वर उन्नतियाँ नाश की तरफ घसीट ले जाती है। अतः जहाँ सत्संग मिलता है उस स्थान का त्याग नहीं करना चाहिए।

वास्तविक उन्नति अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से, आत्मा-परमात्मा की प्रीति से, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाने से होती है। जिसने सत्संग के द्वारा परमात्मा में आराम करना सीखा, उसे ही वास्तव में आराम मिलता है, बाकी तो कहाँ है आराम ? साँप बनने में भी आराम नहीं, भैंस बनने में भी आराम नहीं है, कुत्ता या कलंदर बनने में भी आराम नहीं, आराम तो है अंतर्यामी राम का पता बताने वाले संतों के सत्संग में, ध्यान में, योग में। वहाँ जो आराम मिलता है, वह स्वर्ग में भी कहाँ है !

संत तुलसी दास जी कहते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 4)

सत्संग की बड़ी भारी महिमा है, बलिहारी है। ʹमैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। संसार और शरीर पंचभौतिक हैं लेकिन जीवात्मा चैतन्य है, परमात्मा का है। परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध है। शरीर के साथ हमारा काल्पनिक संबंध है।ʹ

पक्का निश्चय करो कि ʹआज से मैं भगवदरस पिऊँगा। वास्तविक उन्नति का मर्म जानकर तुच्छ उन्नति को उन्नति मानते गलती निकाल दूँगा।ʹ वास्तविक उन्नति जिसकी होती है, उसे तुच्छ उन्नति करनी नहीं पड़ती, अपने आप हो जाती है।

गहरा श्वास लो और सवा मिनट श्वास रोककर जितना हो सके ૐकार का जप करो, वास्तविक उन्नति बिल्कुल हाथों-हाथ ! दस बार रोज करो, चालीस दिन के अनुष्ठान, मौन व एकांत से आपको चमत्कारिक अनुभव होने लगेंगे। मुझे हुए हैं, तुमको क्यों नहीं होंगे ! मुझे मिला है तुम्हें क्यो नहीं मिलेगा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 4,5,30 अंक 236

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ