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धनवानों की दयनीय स्थिति


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भगवान बुद्ध कहते थेः ‘हे भिक्षुको ! अनन्त जन्मों में तुमने जो आँसू बहाये वे अगर इकट्ठे कर दिये जायें तो वे सरोवर को भी मात कर दें। यह बड़ा पर्वत दिख रहा है, उसके आगे यदि तुम्हारे सभी जन्मों की हड्डियाँ एकत्रित की जायें तो यह पर्वत भी छोटा-सा लगेगा। तुम इतने जन्म ले चुके हो।’

और इन जन्मों के पीछे प्रयत्न क्या है ? दुःखों को हटाना और सुखों को पाना। सुबह से शाम तक, जीवन से मौत तक, जन्म से जन्मांतर तक, युग से युगांतर तक सभी जीवों की यही कोशिश है कि ऐसा सुख मिले जो कभी मिटे नहीं। यदि किसी को कहें- ‘भगवान करे दो दिन के लिए आप सुखी हो जाओ, फिर मुसीबत आये।’ तो वह व्यक्ति कहेगाः

“अरे, बापू जी ! ऐसा न कहिये।”

“अच्छा, दस साल के लिए आप सुखी हो जाओ, बाद में कष्ट आये।”

“ना-ना।”

“जियो तब तक सुखी रहो, बाद में नरक मिले।”

“ना, ना…. नहीं चाहते। दुःख नहीं चाहते।”

प्राणिमात्र सुखाय प्रवृत्ति…. प्राणिमात्र सुख के लिए प्रवृत्ति करता  है। आप यह सिद्धान्त समझ लो कि सभी सदा सुख चाहते हैं। मिट न जाय – ऐसा सुख चाहते हैं क्योंकि सभी का मूल उद्गम स्थान वह सच्चिदानंद, शाश्वत, अमिट आत्मा है। जब तक उसमें पूरी स्थिति नहीं हुई तब तक कितना भी कुछ कर लो, पूर्ण तृप्ति नहीं होती।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

इस आत्मा के ज्ञान में विश्रान्ति पाने की व्यवस्था को प्रभु-भजन कह दो, अल्लाह की बंदगी कह दो, गॉड की प्रेयर कह दो, साधना कह दो, ये सब एक ही है। सारी साधना, सारी प्रार्थना, सारी सेवा, सारे कर्मों के पीछे उद्देश्य यही है कि हम सुखी हो जायें।

‘हमारा नाम हो जाय।’ तो क्या दुःख चाहते हो नाम से ? ना, सुखी हो जायें। ‘हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहे।’ तो क्या स्वास्थ्य से दुःख चाहते हो ? ना, सुखी हो जायें। ‘हमको कुछ नहीं चाहिए, हम मर जायें।’ तो किसलिए ? सुखी होने के लिए।

चोर चोरी करता है तो उद्देश्य सुख होता है। साहूकार साहूकारी करता है तो उद्देश्य सुख होता है। लेकिन ये कर्म क्षणिक परिणाम देने वाले हैं, दुःखरूपी वृक्ष के मूल को काटे बिना दुःख का अंत नहीं होता। डालियाँ कितनी भी काटो, पत्ते कितने भी तोड़ो लेकिन जब तक दुःखरूपी वृक्ष की अज्ञानरूपी जड़ है तब तक दुःखरूपी वृक्ष का अंत नहीं होता। फिर चाहे कितने जन्म बीत जायें….। कई जन्मों तक प्रयत्न करते-करते व्यक्ति थक जाते हैं, निराश हो जाते हैं, बुरी तरह दुःखी हो जाते हैं।

कुछ वर्ष पहले अमेरिका के आठ व्यक्तियों की सूची बनायी गयी, जो पूरी दुनिया में सबसे अधिक धनाढ्य थे, करोड़पति नहीं अरबोंपति-खरबोंपति थे। 25 साल के बाद उनकी क्या स्थिति है ? इसकी जाँच हुई। जाँच कमेटी ने बतायाः

दुनिया की सबसे बड़ी स्टील कम्पनी के मालिक अमेरिका का चार्ल्स श्काब कंगाल होकर मर गया।

दुनिया की सबसे बड़ी गैस कम्पनी के अध्यक्ष हॉवर्ड हब्सन पागल हो गये।

एक बहुत बड़े व्यापारी आर्थर कटन दिवालिया होकर मर गया।

न्यूयार्क स्टॉक एक्स्चेंज के अध्यक्ष रिचर्ड व्हीटनी को जेल जाना पड़ा।

अमेरिका के राष्ट्रपति के कैबिनेट सदस्य अल्बर्ट फाल को जेल से इसलिए छोड़ दिया गया ताकि वे अपने जीवन के अंतिम दिन घर पर बिता सकें।

वॉल स्ट्रीट की सबसे बड़े सट्टेबाज जेसी लिवरमोर ने आत्महत्या कर ली।

संसार के सबसे बड़े एकाधिकार बाजार के अध्यक्ष लीयोन फ्रेजर ने भी आत्महत्या कर ली।

ऐसे ही जो पच्चीस साल पहले के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, अध्यक्ष रहे होंगे उनकी अभी स्थिति क्या होगी ?

क्या करिये क्या जोड़िये, थोड़े जीवन काज।

छोड़ी-छोड़ी सब जात हैं, देह गेह धनराज।।

25 वर्ष पहले जो धनाढ्यों की सूची में थे, 25 साल बाद उनकी स्थिति क्या रही ॐ धन के ऊँचे शिखरों ने भी उन्हें पूरी संतुष्टि, पूरी तृप्ति और पूरी प्रीति नहीं दी।

कितनी भी सम्पत्ति हो, मृत्यु के समय न चाहते हुए भी बैंक के गुप्त खाते दूसरे को बताने पड़ते हैं, छिपाकर रखी हुई सम्पत्ति किसी को बता कर जाना पड़ता है, नहीं तो, प्रेत होकर भटकना पड़ता है।

मुसोलिनी सन् 1942 की लड़ाई में बुरी तरह हार गया। किसी तरह जान बचा कर स्विटज़रलैंड की प्रेयसी के साथ ट्रक में छुपकर इटली से स्विटज़रलैंड की तरफ भागा। लेकिन रास्ते में पकड़ा गया। धड़…. धड़… धड़….. गोलियाँ चलीं। दोनों मारे गये और दोनों की लाश वापिस लायी गयी। जूतों के हार पड़े, बुरी तरह उनका अंतिम संस्कार हुआ।

लेकिन हीरे जवाहरात और विदेशी करेंसी से भरी ट्रक… लाख नहीं, करोड़ नहीं, अरब नहीं, खरब के मूल्य की वह ट्रक कहाँ गयी ? कई जाँच समितियाँ बैठीं, कई सरकारें आयीं और नाक रगड़कर बैठ गयीं। आज तक उसका पता नहीं चला…. 1942 से 2001, कुल 59 वर्ष हो गये।

जाँच समिति ने देखा कि गाड़ी खाली कैसे हो गयी ? क्या पुलिस के केवल दो जवान पूरी गाड़ी हड़प कर गये ? नहीं, वे भी वहाँ मरे हुए पाये गये। ट्रक ड्राइवर भी मरा हुआ।

इस मामले की जाँच कराने हेतु कमेटियों की नियुक्ति करते गये। कमेटियों पे कमेटियाँ विफल होती गयीं। उसके वरिष्ठ अधिकारियों में कोई पागल हो जाता था तो कोई अपने-आप बाथरूम  में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर लेता….1,2,3,…. करते-करते 72  वरिष्ठ अधिकारी मर गये।

एक बार मध्यरात्रि को एक वरिष्ठ अधिकारी ने देखाः ‘मुसोलिनी घूम रहा है !’

अधिकारी ने कहाः “अरे, मुसोलिन तू यहाँ ?”

मुसोलिनी का प्रेत हँसाः “हा, हा, हा….. मेरा शरीर मर गया लेकिन मेरी वासना नहीं मरी है। मैं संपत्ति सम्भालूँगा, तुम क्या करोगे ?”

72 अधिकारियों की बलि ले ली और वह मुसोलिनी अभी भी प्रेत होकर भटकता होगा या नहीं, वह मुझे पता नहीं है। लेकिन उस सम्पत्ति का अभी तक पता नहीं चला।

जो बाहर से संतुष्ट होना चाहते हैं, बाहर से तृप्त होना चाहते हैं, वे कैसे भी क्रूर कर्म करें लेकिन अतृप्त ही रह जाते हैं।

अमेरिका के अखबारों से पता चलता है कि अभी भी व्हाईट हाऊस में कभी-कभी अब्राहम लिंकन की प्रेतात्मा दिखाई देती है। मानवतावादी लिंकन ऊँची योग्यता के धनी तो थे परंतु ऊँचे-में  ऊँचा आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार का रास्ता पकड़ा होता तो वे भी कृष्ण, बुद्ध, कबीर की नाँईं आत्मानुभव पाते।

ऐ गाफिल ! न समझा था, मिला था तन रतन तुझको।

मिलाया खाक में तूने, ऐ सजन ! क्या कहूँ तुझको ?

अपनी वजूदी हस्ती में, तू इतना भूल मस्ताना….

करना था किया वो न, लगी उलटी लगन तुझको।

जो करना था, जहाँ पूर्ण संतुष्टि थी, पूर्ण तृप्ति थी वहाँ तू न गया।

पूर्ण संतुष्ट तो केवल वे ही हैं जिन्होंने अपने स्वरूप को जान लिया है, जिन्होंने आत्मरति, आत्मप्रीति और आत्मसंतुष्टि को पा लिया है। और यह मिलती है सत्संग से, संत-शरण से जाने से, संतों द्वारा बताये गये मार्ग का अनुशरण करने से….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 110

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स्वभाव पर विजय


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री कृष्ण से उद्धवजी ने पूछाः

“बड़े में बड़ा पुरुषार्थ क्या है ? बड़ी उपलब्धि क्या है ? बड़ी बहादुरी किसमें है ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “स्वभावं विजयः शौर्यः …… विषयों के प्रति इन्द्रियों का आकर्षित होने का जो स्वभाव है उस पर विजय पाकर आत्मसुख में स्थित होना यह बड़ी शूरता है।” आँख रूप की तरफ आकर्षित करती है, जीभ चटोरेपन की तरफ हलवाई की दुकान की तरफ ले जाती है, नाम इत्र आदि सुगंधित पदार्थों की तरफ भटकाती है, कान शब्द के लिए भटकाता है तो शरीर स्पर्श के लिए, विकारी काम के लिए खींचता है।

पाँच विषयों की तरफ भटकने वाला यह जीव अपनी इस विकारी भटकान पर विजय पा ले – यह बड़ी बहादुरी है। रणभूमि में किसी को मात कर दिया अथवा कहीं बम-धड़ाका कर दिया…. यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो यह है कि जीव अपने विकारी आकर्षणों पर विजय पाकर निर्विकारी परमात्मा के सुख को, परमात्मा की सत्ता को, अपने परमात्म-स्वभाव को जान ले।

फिर भी मनुष्य अपने पुराने विकारी स्वभाव में भटककर अपने को लाचार बना देता है। फिर हे वाहवाही ! तू सुख दे… हे स्वाद ! तू सुख दे… हे इत्र ! तू सुख दे… करके स्वयं को खपा देता है।

जो बिछुड़े हैं पियारे से दरबदर भटकते फिरते हैं।

हमारा यार है हममें हमन को बेकरारी क्या ?

विषय-विकारों में जीव दरबदर भटकता फिरता है। कोई विरले संत ही होते हैं जो अपने आप में रहते हैं (अपने स्वरूप में जगे होते हैं।) और अपने आप में आये हुओं का संग ही जीव को मुक्तात्मा बना देता है। वशिष्ठजी कहते हैं- ‘इस जीव में चिरकाल की वासना और इन्द्रिय-सुखों के प्रति आकर्षित होने का स्वभाव है। इसलिए अभ्यास भी चिरकाल तक करना चाहिए।’

सारी पृथ्वी पर राज करना – यह कोई बड़ी बात बहादुरी का काम नहीं है। मौत के आगे तो किसी की दाल नहीं गलती। शूरमा तो वह है जो अपने आत्म-स्वभाव को जगाता है। स्वभावं विजयः शौर्यः …… जो अपने आत्म-स्वभाव में स्थिति करे, अपने जीवभाव पर विजय पाये, वही वास्तव में शूर है।

जो शूरवीर होता है वह दूसरों को भी शूरवीर बनाता है और जो डरपोक होता है वह दूसरों को भी डरपोक बनाता है। ‘ऐसा हो जायेगा तो ? हम मर जायेंगे तो ?….’ अरे ! आप मर सकें ऐसी चीज़ हैं क्या ? ऐसी कौन सी मौत है जो आपको मारेगी ? मारेगी तो शरीर को मारेगी और शरीर तो एक दिन ऐसे भी मरेगा ही। अतः, ऐसा हीन चिंतन करके डरना क्यों ?

काम विकार में गिरना, लोभ में फँसना, मोह ममता में फँसना, अहंकार में उलझना, चिंता में चूर होना इत्यादि जीव का स्वभाव है। इन तुच्छ स्वभावों पर विजय पाकर अपने आत्म स्वभाव को जगाना यही शूरता है।

जिस स्वभाव से दुःख पैदा होता है, चिंता पैदा होती है, पाप पैदा होता है तथा आप ईश्वर से दूर होते जाते हैं उस स्वभाव पर विजय पायें। ईश्वर के निकट आयें, पुण्यमय हो जायें, निश्चिंत हो जायें, निर्दुःख हो जायें, आत्मा को जानने वाला स्वभाव हो जाय – ऐसा यत्न करना चाहिए।

अपना असली स्वभाव तो सहज में है ही, केवल अपने नीच स्वभाव पर विजय पाना है। असली स्वभाव पर विजय नहीं पाना है, नीच स्वभाव पर विजय पाना है। असली स्वभाव तो आपका अमर आत्मा है।

आप रोग छोड़ दो तो तंदुरुस्ती आपका स्वभाव है, चिंता छोड़ दो निश्चिंतता आपका स्वभाव है, आप दुःख छोड़ दो तो सुख आपका स्वभाव है।

एक होता है नश्वर सुख, दूसरा होता है शाश्वत सुख। आप नश्वर सुख के आकर्षण पर विजय पाइये तो शाश्वत सुख को कहीं ले जाना नहीं पड़ेगा। वह तो आपके पास है ही। जैसे, कपड़े का मैलापन गया को स्वच्छता तो उसका स्वभाव है ही। हमने कपड़े को सफेद नहीं किया केवल उसका मैल हटाया। ऐसे ही जीवात्मा का स्वभाव है नित्यता, शाश्वतता, अमरता और मुक्ति….

जीव का स्वभाव वास्तव में शाश्वत है, नित्य है और वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है परन्तु शरीर नश्वर है, अनित्य है और विकारों से आक्रान्त है। मन में क्रोध आया, आप क्रोधी हो गये, क्रोध चला गया तो आप शांत हो गये। मन में काम आया, आप कामी हो गये, काम चला गया तो आप शांत हो गये… तो शांति आपका स्वभाव है, निश्चिंतता आपका स्वभाव है, सुख आपका स्वभाव है।

अकेला सैनिक होता है तो उसे डर लगता है। किन्तु जब सैनिक सोचता है कि मेरे पीछे सेनापति है, सेनापति सोचता है कि मेरे पीछे राष्ट्रपति है, राष्ट्रपति सोचता है कि मेरे पीछे राष्ट्र का संविधान है तो इससे बल मिलता है। ऐसे ही साधक सोचे कि ‘मेरे पीछे भगवान हैं, शास्त्र हैं। मेरे पीछे गुरु की कृपा है, शुभ संकल्प है, गुरुमंत्र है। शास्त्र का संविधान, भगवान की नियति मेरे साथ है। मैं अपने स्वभाव पर विजय पाऊँगा। मैं अवश्य आगे बढ़ूँगा।

और आगे बढ़ने के प्रयास में एक बार नहीं, दसों बार फिसल जाओ फिर भी डरो नहीं। ग्यारहवाँ कदम फिर रखो। सौ बार गिर गये तो कोई बात नहीं, Try and try, you will be successful. स्वभाव पर विजय पाने का यत्न करते रहो, सफलता अवश्य मिलेगी। स्वभाव पर विजय पाने का दृढ़ संकल्प करो और उस संकल्प को पूरा करने का कोई न कोई व्रत ले लो। इससे सफलता शीघ्र मिलेगी।

कुछ लोग बोलते हैं कि ‘मैं कोशिश करूँगा, मैं देखूँगा हो सकता है कि नहीं…..’ ऐसे  विचार करना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।

शिकागो (अमेरिका) में जंगली प्याज होती थी। वहाँ बहुत बड़ा प्याज का जंगल था। ‘प्याज के जंगल का हम लोग बढ़िया शहर बनायेंगे। We will do it.’ वहाँ के कुछ लोगों ने ऐसा संकल्प किया और प्याज का वह जंगल समय पाकर अमेरिका का प्रसिद्ध शहर शिकागो हो गया।

ऐसे ही आप परमात्मा को पाने का इरादा पक्का करो और उस  इरादे को रोज याद करो। अपना लक्ष्य सदैव ऊँचा रखो। शास्त्र और संतों के साथ कदम मिलाकर चलो अर्थात् उनके उपदेशानुसार चला तो सफलता आपके कदम चूमेगी।

लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल।

सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

परमात्म-सुख पाने का ऊँचा लक्ष्य बनायें और उस लक्ष्य को बार-बार याद करते रहें। शास्त्र और संत के उपदेश के अनुसार अपना प्रयास जारी रखें तो एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। भगवान आपके साथ हैं, सदगुरु की कृपा आपके साथ है। उनकी मदद कदम-कदम पर मिलती ही है। इसलिए आप उनसे दूर जाने के बजाय अपने स्वभाव पर विजय पा लें। यही शूरवीरता है। सारे विश्व में यही बड़ी बहादुरी का काम है।

संगी साथी चल गये सारे कोई न निभियो साथ।

कह नानक इह विपत में टेक एक रघुनाथ।।

आप जगत में जिनको संगी-साथी मानते हैं वे सभी शरीर के संगी-साथी हैं और एक दिन आपको छोड़कर अलविदा हो जाते हैं किन्तु जो वास्तव में आपके संगी-साथी हैं वे ईश्वर तो आपके रोम-रोम में रम रहे हैं।

जो जीव के पाप-तापों को हर लेते हैं और उसमें अपने सच्चे स्वभाव को भर देते हैं उन परमात्मा की शरण गये बिना इस जीव का परम मंगल नहीं हो सकता, परम कल्याण उसी से हो सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 111

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सत्संग की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

स्वाध्यायान्मा प्रमदः।

स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए।

स्वाध्याय के तीन प्रकार हैं- कर्मकाण्डपरक स्वाध्याय। उपासनाकाण्डपरक स्वाध्याय। ज्ञानकाण्डपरक स्वाध्याय।

वेदों में कुल 1,00,000 मंत्र हैं। उनमें से 80,000 मंत्र कर्मकाण्ड के हैं, 16,000 मंत्र उपासनाकाण्ड के हैं और 4,000 मंत्र ज्ञानकाण्ड के हैं। जितने विद्यार्थी बालमंदिर और माध्यमिक विद्यालय में होते हैं उतने कॉलेज नहीं होते। ऐसे ही कर्म और उपासना के जितने अधिकारी होते हैं उतने ज्ञान के नहीं होते। फिर कॉलेज के विषयों को वही समझ सकता है जो बालमंदिर और माध्यमिक विद्यालय में पढ़कर आया हो लेकिन आध्यात्मिक जगत में एक अच्छी सुविधा यह है कि यदि आपने कर्मकाण्ड एवं उपासना नहीं की हो, फिर भी आप वेदान्त का बार-बार श्रवण करते हैं तो कर्मकाण्ड का काम पूरा हो जाता है।

जैसे, आप शहद बनाने की मेहनत नहीं करते, मधुमक्खी तमाम फूलों के रस को एकत्रित करके शहद तैयार कर देती है, ऐसे ही शास्त्र और संतरूपी भ्रमर सत्संग के द्वारा आपका विवेक-वैराग्य जगा देते हैं। 80,000 वेदमंत्र जो कि कर्मकाण्डपरक हैं उनका काम बार-बार सत्संग-श्रवण से पूरा हो जाता है। यही कारण है कि सत्संग में लोगों की गढ़ाई हो जाती है, लोगों का जीवन बदल जाता है और अध्यात्म मार्ग के पथिक तैयार हो जाते हैं।

केवल कर्मकाण्ड करते-करते तो कइयों का जीवन कर्मकाण्ड के दायरे में ही पूरा हो जाता है क्योंकि उसका दायरा लंबा है। एक ओर तो शुभ कर्म करते हैं किन्तु दूसरी ओर अशुभ कर्म भी हो जाते हैं, जिससे हिसाब बराबर हो जाता है। वेदान्त के बार-बार श्रवण करने से समझ और विचार सतत बने रहते हैं उसी तरह कर्म सतत नहीं हो पाते।

सत्संग सुनने से सत्संगी की सूझबूझ, विवेक और सावधानी बढ़ जाती है। सुने हुए सत्संग का असर होता ही है, फिर चाहे आप इन्कार कर दो। नकारात्मक दृष्टि से भी चिंतन होता है। वेदान्त का श्रवण करने से कर्मकाण्ड का काम पूरा हो जाता है। उसका मनन करने से उपासनाकाण्ड के 16000 मंत्रों का काम पूरा हो जाता है। जब मनन परिपक्व होता है तब निदिध्यासन होने लगता है। फिर आपको मनन करना नहीं पड़ता, वरन् आपकी समझ ‘उसीमय’ हो जाती है। जब समझ उसीमय हो जाती है तो श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण का निर्वाण प्रकरण, रामायण का आध्यात्मिकता वाला प्रकरण एवं वेदों का उपनिषद् भाग शेष कार्य पूर्ण कर देते हैं।

एक रास्ता यह है कि आप बैलगाड़ी द्वारा यहाँ (अमदावाद) से दिल्ली जाओ। दूसरा रास्ता यह है कि दिल्ली मेल (तेज गति वाले ट्रेन) से दिल्ली जाओ। तीसरा रास्ता यह है कि आप हवाई जहाज से दिल्ली जाओ। दिल्ली सब जा रहे है लेकिन वहाँ  पहुँचने में समय का फर्क है। ऐसे ही श्रवण-मनन और निदिध्यासन हवाई जहाज की यात्रा के समान हैं जो परमात्म-प्राप्ति के लक्ष्य तक जल्दी पहुँचा देते हैं।

परमात्मज्ञान साक्षात अपरोक्ष ज्ञान है।

ज्ञान तीन प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष, परोक्ष, साक्षात अपरोक्ष।

अमेरिका हमारे लिए परोक्ष है, किन्तु  वहाँ जाकर उसे देख लें तो वह प्रत्यक्ष हो गया। इस प्रकार जगत की चीजें प्रत्यक्ष और परोक्ष होती हैं परन्तु अपना-आपा साक्षात अपरोक्ष है। जगत की चीजें मिलती और बिछुड़ती रहती हैं परन्तु अपना-आपा कभी बिछुड़ता नहीं, सदा मिला-मिलाया है। अपना-आपा तो सदा मौजूद है साक्षात अपरोक्ष है फिर भी अज्ञान के आवरण से ढँका रहता है। पर्दा हटता है तो मिला-सा लगता है जबकि वह हमसे कभी अलग था ही नहीं।

जो चीज अप्राप्त होती है और फिर मिलती है, तो उसकी उपलब्धि मानी जाती है। जो चीज प्राप्त है फिर भी वह न दिखाकर कुछ और होकर दिखती है तो उसकी भ्रांति मानी जाती है।

एक महिला आटा पीस रही थी। आटा पीसते-पीसते उसका गले का हार पीठ की ओर चला गया जिसका उसे पता न चला। आटा पीसने के बाद वह अपना हार ढूँढने लगी। उसने अपनी तिजोरी और थैलियाँ तलाशीं किन्तु हार न मिला। इतने में एक समझदार वृद्धा आयी, जिसे महिला ने यह बात बतायी। उस वृद्धा ने देखा कि हार तो इसके गले में ही पड़ा हुआ है परन्तु उसका लॉकेट पीछे चला गया है। वृद्धा ने हार को आगे कर के कहाः “यह रहा तेरा हार !”

वृद्धा हार कहीं से लायी नहीं थी क्योंकि हार कहीं गया ही नहीं था, केवल खो जाने की भ्रांति हो गयी थी। वृद्धा ने जब दिखाया तो प्राप्त हार की ही प्राप्ति हुई, अप्राप्त हार की नहीं। प्राप्त चीज कहीं चली जाये और फिर मिले तो  ‘प्राप्ति’ कहलाती है और कोई चीज अपने पास नहीं हो, फिर मिले तो उपलब्धि कहलाती है।

वेदान्त दर्शन में ईश्वर की प्राप्ति नहीं मानी गयी है। ईश्वर किसी को प्राप्त नहीं होता, ब्रह्म किसी को प्राप्त नहीं होता, बल्कि प्राप्त जैसा लगता है। वह भी किसको ? जिसको नहीं मिला उसको लगता है कि फलाने को मिला, किन्तु जिसको परमात्मा-अनुभव हो गया है उसको नहीं लगता कि उसे कुछ मिला है।

पाया कहे सो बावरा खोया कहे सो कूर।

लोग कहते हैं नानक को मिला है लेकिन जो कहता है ‘पा लिया’ वह नानक जी के मत में बावरा (पागल) है और जो कहता है ‘खो गया’ वह झूठा (कूर) है।

पाया कहे सो बावरा खोया कहे सो कूर।

पाया-खोया कुछ नहीं नित एकरस भरपूर।।

परमात्मा को पाने वाले को पता नहीं चलता कि मैंने पा लिया है। कोई पूछता हैः ‘महाराज ! पाने वाले को भी पता नहीं चलता ? जिसने ठीक से परमात्मा को पाया है वह ऐसा नहीं कहेगा कि मैंने पाया है। पाया किसे जाता है ? जो बिछुड़ा हो। किन्तु कोई अपने-आपसे कैसे बिछुड़ सकता है ? इसीलिए ऐसा नहीं कहा जाता है कि ‘पा लिया’ क्योंकि परमात्मा सदा प्राप्त है।

जिन महापुरुषों ने परमात्मा का अनुभव कर लिया है उनके सान्निध्य में आकर श्रवण-मनन-निदिध्यासन करें और उसी में स्थिति कर लें तो हमें भी परमात्मा का अनुभव हो सकता है। …..और यह कार्य कठिन नहीं है परन्तु विजातीय संस्कारों को हटाना कठिन लगता है।

विजातीय संस्कारों को कैसे हटायें ?

एक तरीका तो यह है कि जैसे एक लोटे में पानी भरा है और उसमें आप दूध भरना चाहते हो लेकिन पानी निकालना नहीं चाहते हो तो उसमें दूध भरते जाओ। प्रारम्भ में दूध व पानी दोनों बहेंगे लेकिन एक समय ऐसा आयेगा कि उसमें केवल दूध का ही प्रमाण रह जायेगा। अर्थात् महापुरुषों के पास आते-जाते रहो। जप-ध्यान-सत्संग-कीर्तन आदि करते रहो। धीरे-धीरे विजातीय संस्कार निकलते जायेंगे एवं परमात्म-प्राप्ति के प्रति रूचि बढ़ती जायेगी।

दूसरा तरीका यह है कि लोटा पूरा खाली कर दो और उसमें दूध भर दो अर्थात् वैराग्य जाग जाय और आप मकान-दुकान, पुत्र-परिवार सब छोड़-छाड़कर पहुँच जाओ किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के पास। अपने सारे-के-सारे विजातीय संस्कारों को आप उलटे कर दो अर्थात् जगत के संस्कार धुल जायें और फिर महापुरुषों के ज्ञान-संस्कार को अपने में भरते जाओ तो ज्ञान हो जायेगा।

अर्थात् हम स्वयं में यदि विजातीय संस्कार न भरें तो परमात्म-ज्ञान होना कठिन नहीं है, आत्म-साक्षात्कार होना असम्भव नहीं है। यही कारण है कि जब राजा परीक्षित को श्राप मिला कि ‘सात दिन में मर जाओगे।’ तब वे जागतिक संस्कारों को उँडेलकर बैठ गये शुकदेवजी महाराज के श्रीचरणों में सात दिन में ही उन्हें ज्ञान हो गया। उनके साथ दूसरे लोग भी सत्संग में बैठे थे लेकिन उनको पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ जबकि परीक्षित का हो गया। क्यों ? क्योंकि और सब लोग लोटा भरकर बैठे थे जबकि परीक्षित लोटा खाली करके बैठे थे। ऐसे ही खट्वाँग राजा को एक मुहूर्त में ज्ञान हो गया। राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते ज्ञान हो गया। इस प्रकार जितनी जल्दी विजातीय संस्कार हट जाते हैं उतनी ही जल्दी परमात्मज्ञान हो जाता है।

यह भी कहना पड़ता है कि ब्रह्म का ज्ञान होगा। वास्तव में ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, ज्ञान ही ब्रह्म है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 15-17, अंक 111

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