परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से सम्भव है। जब तक गुरु की कृपा से हमारी अंतःशक्ति नहीं जागती, अंतःज्योति नहीं प्रकाशती, अंतर का दिव्य ज्ञानचक्षु नहीं खुलता तब तक हमारी जीवदश नहीं मिटती। अतः अंत-विकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की यानी पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सद्गुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिन ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अंधकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं। गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पत्नी से भी अधिक है। गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है। अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं।
गुरु वे हैं जो शिष्य की अंतःशक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण कराते हैं। गुरु की व्याख्या यह है – जो शक्तिपात द्वारा अंतःशक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में पारमेश्वरी शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे शिव शक्ति, राम, गणपति, माता-पिता हैं। वे सभी के पूजनीय परम गुरु शिष्य की देह में ज्ञानज्योति को प्रज्वलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीलाराम होकर रहते हैं। गुरु के प्रसाद से नर नारायणरूप बनकर आनंद में मस्त रहता है। ऐसे गुरु महा महिमावान हैं, उनको साधारण जड़ बुद्धिवाले नहीं समझ सकते।
साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है। किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया तो हम उसे गुरु मान लेते हैं, किसी ने मंत्र दिया या तंत्र की विधि बतलायी तो उसे गुरु मान लेते हैं। इस तरह अनेक जनों में गुरुभाव करके अंतःसमाधान से हम वंचित रह जाते हैं। अंत में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं। पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं।
साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत। गुरु की महानता तब समझ में आती है जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है। गुरु अपने शिष्यों को एक ऊँचे स्तर पर ले जा के, सत्यस्वरूप बताकर शिव में मिला के शिव ही बना देते हैं।
ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्त्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं है ! उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं। वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं। इसीलिए गुरु सहवास (सान्निध्य), गुरु-आश्रमवास, गुरु सेवा, गुरु-गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में बाहर बहने वाली चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धपद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य ! – स्वामी मुक्तानंद
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 13 अंक 222
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