Monthly Archives: June 2011

गुरु बिन ब्रह्मानंद तो क्या सांसारिक सुख भी दुर्लभ !


परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से सम्भव है। जब तक गुरु की कृपा से हमारी अंतःशक्ति नहीं जागती, अंतःज्योति नहीं प्रकाशती, अंतर का दिव्य ज्ञानचक्षु नहीं खुलता तब तक हमारी जीवदश नहीं मिटती। अतः अंत-विकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की यानी पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सद्गुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिन ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अंधकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं। गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पत्नी से भी अधिक है। गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है। अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं।

गुरु वे हैं जो शिष्य की अंतःशक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण कराते हैं। गुरु की व्याख्या यह है – जो शक्तिपात द्वारा अंतःशक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में पारमेश्वरी शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे शिव शक्ति, राम, गणपति, माता-पिता हैं। वे सभी के पूजनीय परम गुरु शिष्य की देह में ज्ञानज्योति को प्रज्वलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीलाराम होकर रहते हैं। गुरु के प्रसाद से नर नारायणरूप बनकर आनंद में मस्त रहता है। ऐसे गुरु महा महिमावान हैं, उनको साधारण जड़ बुद्धिवाले नहीं समझ सकते।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है। किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया तो हम उसे गुरु मान लेते हैं, किसी ने मंत्र दिया या तंत्र की विधि बतलायी तो उसे गुरु मान लेते हैं। इस तरह अनेक जनों में गुरुभाव करके अंतःसमाधान से हम वंचित रह जाते हैं। अंत में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं। पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत। गुरु की महानता तब समझ में आती है जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है। गुरु अपने शिष्यों को एक ऊँचे स्तर पर ले जा के, सत्यस्वरूप बताकर शिव में मिला के शिव ही बना देते हैं।

ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्त्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं है ! उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं। वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं। इसीलिए गुरु सहवास (सान्निध्य), गुरु-आश्रमवास, गुरु सेवा, गुरु-गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में बाहर बहने वाली चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धपद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य ! – स्वामी मुक्तानंद

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 13 अंक 222

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संत-वाणी से सहजो बनी महान


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

दिल्ली के परीक्षितपुर नामक स्थान में 25 जुलाई 1725 को चार भाइयों के बाद एक कन्या जन्मी। उसका नाम था सहजो। कन्या के पिता का नाम था हरि प्रसाद और माता का नाम था अनूपी देवी। तब बचपन में ही शादी की परम्परा थी। सहजो 11 वर्ष की उम्र में दुल्हन बनी। गहने-गाँठें, सुहाग की साड़ी आदि कुछ भी होता है सब पहनाया। दुल्हन सजी धजी है। बैंड-बाजे बज रहे हैं, विवाह के लिए दूल्हा आ रहा है। आतिशबाजी के पटाखे फूट रहे हैं।  वर-कन्या को आशीर्वाद देने हेतु संत चरणदास जी महाराज को आमंत्रित किया गया था। चरणदास जी पधारे। पिता ने प्रार्थना कीः “महाराज ! हमारी कन्या को आशीर्वाद दें।”

दुल्हन पर नज़र डालते ही आत्मस्वभाव में जगह उन त्रिकालज्ञानी संत ने कहाः “अरे सहजो ! सहज में ईश्वर मिल रहा है, पति मिल रहा है, उस पति को छोड़कर तू कौन से मरने वाले पति के पीछे पड़ेगी ! तेरा जीवन तो जगत्पति के लिए है।

चलना है रहना नहीं, चलना विश्वा बीस1

सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुथावै शीश।।

1 बीस बिस्वा- निःसन्देह।

इस सुहाग पर क्या सिर सजा रही है ! तनिक देर का सुहाग है। यह तो पति चला जायेगा या तो पत्नी चली जायेगी। यह सदा का सुहाग नहीं है। तू तो सदा सुहागिन होने के लिए जन्मी है। थोड़ी देर का सुहाग तेरे क्या काम आयेगा ?

जो विश्व का ईश्वर है वह तेरा आत्मा है उसको जान ले। जो सदा साथ में रहता है, वह दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं पराया नहीं।”

सहजो ने सुना और सुहाग के साधन-श्रृंगार सब उतारने शुरु कर दिये। वह बोलीः “मैं विवाह नहीं करूँगी।” उधर क्या हुआ कि आतिशबाजी के पटाखों से घोड़ी बिदकी और दूल्हे का सिर पेड़ से टकराया। दूल्हा वहीं गिरकर मर गया।

जो होनी थी संत ने पहले ही बता दी थी। क्या घटना है, क्या होना है यह जानकर पूरे खानदान को बचा लिया और कन्या को विधवा होने के कलंक से रक्षित कर दिया। चारों भाई और माँ-बाप उसी समय बाबा के शिष्य बन गये।

अगर चरणदास जी थोड़ी देर से आते और दूल्हा-दुल्हन सात फेरे फिर जाते तो सारी जिंदगी विधवा का कलंक लगता। लेकिन यह कन्या विधवा होकर नहीं जी, कुमारी की कुमारी रही। सदगुरु के मार्ग पर चली तो दुल्हन बनी सहजो परम पद को पाने वाली महायोगिनी हो गयी। सद्गुरु के लिए उसने अपना हृदय ऐसा सँजोया कि उसकी कविताएँ और लेखन पढ़ने से हृदय भर आता है। सहजो ने अपनी वाणी में कहाः

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ।

गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।

हरि ने जन्म दियो जग माँहिं।

गुरु ने आवागमन छुटाहीं।।

सहजो भज हरि नाम कूँ, तजो जगत सूँ नेह।

अपना तो कोई है नहीं, अपनी सगी न देह।।

भगवान ने तो जन्म और मृत्यु बनायी, मुक्ति और बंधन बनाया लेकिन मेरे गुरु ने तो केवल मुक्ति बनायी। हरि ने तो जगत में जन्म दिया लेकिन गुरु ने जन्म मरण से पार कर दिया। देह भी अपनी सगी नहीं है। वह भी बेवफा हो जाती है, फिर भी जो साथ नहीं छोड़ता उसका नाम ईश्वर है।’

सहजो की वाणी पुस्तकों में छपी और लोग उसका आदर करते हैं। कई कन्याओं की जिंदगी उसने ऊँचाईयों को छूने  वाली बना दी। कई महिलाओं के पाप-ताप, शोक हर के उनके अंदर भक्ति भरने वाली वह 11 साल की कन्या एक महान योगिनी हो गयी। बस एक बार संत की वाणी मिली तो दुल्हन बनी हुई सहजो महान योगिनी बन गयी। यहाँ तो चाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुस के देखेंगे। तमाशा यही है कि ईश्वर उधर लल्लू-पंजुओं की खुशामद करके मारे जा रहे हैं। हाय राम ! कब आयेगी सूझ ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 11,16 अंक 222

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गुरु बिन ज्ञान न उपजे


गुरु साक्षात भगवान है, जो साधकों के पथ प्रदर्शन के लिए साकार रूप में प्रकट होते हैं। गुरु का दर्शन भगवद् दर्शन है। गुरु का भगवान के साथ योग होता है तथा वे अन्य लोगों में भक्ति अनुप्राणित करते हैं। उनकी उपस्थितिमात्र सबके लिए पावनकारी है।

जिस प्रकार एक दीपक को जलाने के लिए आपको दूसरे प्रज्वलित दीपक की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार एक प्रबुद्ध आत्मा दूसरी आत्मा को प्रबुद्ध कर सकती है।

सभी महापुरुषों के गुरु थे। सभी ऋषियों मुनियों, पैगम्बरों, जगद्गुरुओं, अवतारों, महापुरुषों के चाहे वे कितने ही महान क्यों न रहे हों, अपने निजी गुरु थे। श्वेतकेतु ने उद्दालक से, मैत्रेयी ने याज्ञवाल्क्य से भृगु ने वरूण से, शुकदेव जी ने सनत्कुमार से, नचिकेता ने यम से, इन्द्र ने प्रजापति से सत्य के स्वरूप की शिक्षा प्राप्त की तथा अन्य अनेक लोग ज्ञानीजनों के पास विनम्रतापूर्वक गये, ब्रह्मचर्यव्रत का अति नियम निष्ठा से पालन किया, कठोर अनुशासनों की साधना की तथा उनसे ब्रह्मविद्या सीखी।

देवताओं के भी बृहस्पति गुरु हैं। दिव्य आत्माओं में महान सनत्कुमार भी गुरु दक्षिणामूर्ति के चरणों में बैठे थे।

गुरु किसे बनायें ?

यदि आप किन्हीं महात्मा के सान्निध्य में शांति पाते हैं, उनके सत्संग से अनुप्राणित होते हैं, यदि वे आपकी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं, यदि वे काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्त है, यदि वे निःस्वार्थ, स्नेही तथा अस्मितारहित हैं तो आप उन्हें अपना गुरु बना सकते हैं। जो आपके संदेहों का निवारण कर सकते हैं, जो आपकी साधना में सहानुभतिशील हैं, जो आपकी आस्था में बाधा नहीं डालते वरन् जहाँ आप हैं वहाँ से आगे आपकी सहायता करते हैं, जिनकी उपस्थिति में आप आध्यात्मिक रूप से अपने को उत्थित अनुभव करते हैं, वे आपके गुरु हैं। यदि आपने एक बार गुरु का चयन कर लिया तो निर्विवाद रूप से उनका अनुसरण करें। भगवान गुरु के माध्यम से आपका पथ-प्रदर्शन करेंगे।

एक चिकित्सक से आपको औषधि-निर्देश तथा पथ्यापथ्य का विवेक मिलता है, दो चिकित्सकों से आपको परामर्श प्राप्त होता है और यदि तीन चिकित्सक हुए तो आपका अपना दाह-संस्कार होता है।

इसी भाँति यदि आपके अनेक गुरु होंगे तो आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। क्या कारण है, यह आपको ज्ञात न होगा। एक गुरु आपसे कहेगा – ‘सोऽहम् जप करो।’ दूसरा कहेगा – ‘श्रीराम का जप करो।’ तीसरा कहेगा – अनाहत नाद को सुनो।’ आप उलझन में पड़ जायेंगे। एक गुरु से, जो श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ हों, संलग्न रहें और उनके उपदेशों का पालन करें। वहीं आपकी यात्रा पूरी होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 10 अंक 222

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