उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !

उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

भगवान जैसा सेवक त्रिलोकी में मिलना असम्भव है। भगवान हमारे स्वामी तो हैं ही हैं, लेकिन भगवान जैसा सेवक भी हमारा दूसरा कोई नहीं हो सकता। कितनी सेवा करते हैं हमारी ! माँ हमारे शरीर की जन्मदात्री तो है लेकिन माँ  जैसी हमारी देखभाल करने वाली कोई सेविका नहीं मिल सकतीतत। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक दूसरा नहीं मिल सकता है। भगवान इतने सामर्थ्यवान होते हुए भी ऐसी सेवा करते हैं कि आपको क्या बतायें !

भगवान सेवक बनने को भी तैयार, सखा बनने को भी तैयार, माता बनने को भी तैयार, पिता बनने को भी तैयार। कैसे हैं भगवान ! हे प्रभु ! तू तो तू ही है ! भगवान की सर्वव्यापकता, भगवान की सहजता, सुलभता, भगवान की परम सुहृदता, भगवान का परम स्नेह, भगवान की परम रक्षा और भगवान का परम प्रेम… मैं कितना बोलूँगा ! एक आसाराम नहीं, हजार आसाराम हें और एक-एक आसाराम  की हजार हजार जिह्वाएँ हो, फिर भी भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान की उदारता का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते।

मेरी चार दिन की भक्ति और मैं सब कुछ फेंककर बैठ गया और जोर मारा कि

सोचा मैं न कहीं जाऊँगा,

यहीं बैठकर अब खाऊँगा।

जिसको गरज होगी आयेगा,

सृष्टिकर्ता खुद लायेगा।।

ऐसा सेवक को कहा जाता है, स्वामी को थोड़े ही कहा जाता है – सृष्टिकर्ता खुद लायेगा। साधनाकाल की यह बात याद आयी तो मैंने अपने आपको प्यार से थोड़ा कोसा। सब कुछ फेंककर मैं बैठ गया और सृष्टिकर्ता को चैलेंज किया तो कैसे भी करके उसने खिलाया। यह तो उसकी उदारता है, सज्जनता है। अगर कोई एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन नहीं लाता और उसी जगह पर गुंडें को भेजता, साँपों को भेजता तो हम क्या करते ? अपने आपको ही पूछा और मैं खूब हँसा कि उसकी कितनी उदारता है ! वह कितना कितना ख्याल रखता है ! बच्चा बोल देता है माँ को कि ‘मैं नहीं खाऊँगा…. जिसको गरज होगी खिलायेगा…..’ तो माँ क्या डंडा लेकर उसको पीटेगी अथवा भूखा रखेगी ?

‘मेरे बाप ! खा ले’ ऐसा करके खिलायेगी। तो माँ जैसी सेविका मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक मिलना सम्भव नहीं है। भगवान हमारे रक्षक हैं, पोषक है, समर्थ हैं – सब कुछ कर सकते हैं और प्राणिमात्र के सुहृद हैं। सुहृद सर्वभूतानाम्। इस बात को आप जान लो, हृदयपूर्वक मान लो तो आपको शांति हो जायेगी। भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं – दुश्मन देकर हमारा अहंकार और असावधानी मिटाते हैं, मित्र और सज्जन देकर हमारा स्नेह और औदार्य बढ़ाते हैं…. न जाने कैसी कैसी लीला करते करते सदगुरु के द्वारा ज्ञान का उपदेश दे के हमको ब्रह्म बना देते हैं, जीवन्मुक्त बना देते हैं। कहाँ तो एक बूँद वीर्य से जीवन की शुरुआत होती है और कहाँ ब्रह्म बना देते हैं ! यह उनकी करुणा कृपा नहीं है तो क्या किसी की चालाकी है ? एक बूँद से शुरुआत हुई शरीर की, कैसे-कैसे पढ़ाया, कैसा-कैसा संग, कैसा कैसा सत्संग दिया, कैसा कैसा मौका दिया, कैसे भी करके हमकोक यहाँ तक पहुँचाया कि हम भगवान से दादागिरी भी कर सकते हैं ! दादागिरी की लाज रखने वाला तू कैसा है ! तेरी कैसी करुणा है!! कैसी कृपा है !!!

भगवान सेवक भी हैं, सखा भी हैं, नियंता भी हैं, समर्थ भी हैं और असमर्थ भी हैं। अहं भक्तपराधीनः….. ‘मैं भक्तों के अधीन हूँ।’ ऐसा कहने वाला भगवान विश्व के किसी मजहब में हमने नहीं देखा, नहीं सुना। भगवान ने अर्जुन को कहाः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से (कर्तृभाव से) मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

(गीताः 18.66)

जिम्मेदारी भी उठायी। ये कैसे हैं भगवान कि अपने सिर पर जिम्मेदारी भी ले लेते हैं !

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

शबरी के जूठे बेर खाने में संकोच नहीं ! द्रौपदी की जूतियाँ अपने दुशाले में उठायीं, भक्त प्रह्लाद की सेवा की – अनेक विघ्नों में उसकी रक्षा की और भी अनेकों नामी-अनामी भक्तों के, संतों के जीवन में भगवान की सेवा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। हमारे-आपके जीवन में भी जो कुछ सुख-शांति, माधुर्य, औदार्य है वह उस दयालु प्रभु की ही सेवा का प्रभाव है। उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 17,30

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