Monthly Archives: December 2011

अक्रोध और क्षमा


राजा युधिष्ठिर अक्रोध और क्षमा के मूर्तिमान स्वरूप थे । ‘महाभारत’ के वन पर्व में कथा आती है कि द्रौपदी ने एक बार युधिष्ठिर जी के मन में क्रोध का संचार करने की अतिशय चेष्टा की । उसने कहाः “नाथ ! मैं राजा द्रुपद की कन्या हूँ, पाण्डवों की धर्मपत्नी और ध्रुष्टद्युम्न की बहन हूँ । मुझको जंगलों में मारी-मारी फिरती देखकर तथा अपने छोटे भाइयों को वनवास के घोर दुःख से व्याकुल देखकर भी यदि आपको धृतराष्ट्र के पुत्रों पर क्रोध नहीं आता तो इससे मालूम होता है कि आपमें जरा भी क्रोध नहीं है । परंतु देव ! जिस मनुष्य में क्रोध का अभाव है, जो क्रोध के पात्र पर भी क्रोध नहीं करता, वह तो क्षत्रिय कहलाने योग्य ही नहीं है ।

जो उपकारी हो, जिसने भूल या मूर्खता से कोई अपराध कर दिया हो अथवा अपराध करके जो क्षमाप्रार्थी हो गया हो, उसको क्षमा करना तो क्षत्रिय का परम धर्म है, परंतु जो जानबूझकर बार-बार अपराध करता हो, उसको भी क्षमा करते रहना क्षत्रिय का धर्म नहीं है । अतः स्वामी ! जानबूझकर नित्य ही अनेकों अपराध करने वाले ये धृतराष्ट्र-पुत्र क्षमा के पात्र नहीं बल्कि क्रोध के पात्र हैं । इन्हें समुचित दण्ड मिलना ही चाहिए ।”

यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने उत्तर दियाः “परम बुद्धिमती द्रौपदी ! क्रोध ही मनुष्यों को मारने वाला और क्रोध ही यदि जीत लिया जाय तो अभ्युदय करने वाला है । उन्नति और अवनित दोनों का मूल क्रोध ही है ।

अतः हे द्रौपदी ! धीर पुरुषों द्वारा त्यागे हुए क्रोध को मैं अपने हृदय में कैसे स्थान दे सकता हूँ । क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य तो सभी पापों को कर सकता है । वह अपने गुरुजनों की हत्या भी कर सकता है । श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान भी कर देता है ।

यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पतियों को । क्रोधी पुरुष को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान बिल्कुल नहीं रहता, वह जो चाहे सो अनर्थ बात-की-बात में कर डालता है । उसे वाच्य-अवाच्य का भी ध्यान नहीं रहता, वह जो मन में आता है वही बकने लगता है । अतः तुम्हीं बतलाओ, महाअनर्थों के मूल क्रोध को मैं कैसे आश्रय दे सकता हूँ ?

आत्मानं च पराश्चैव त्रायते महतो भयात् ।

क्रध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन द्वयोरेष चिकित्सकः ।।

‘क्रोध करने वाले पुरुष के प्रति जो बदले में क्रोध नहीं करता, वह अपने को और दूसरों को भी महान भय से बचा लेता है । वह अपने और पराये दोनों के दोषों को दूर करने के लिए चिकित्सक बन जाता है ।’ (महाभारत, वन पर्वः 29.9)

द्रौपदी ! मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा तेज मानते हैं परंतु रजोगुणजनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है । क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज, तपस्वियों का ब्रह्म, सत्यवादी पुरुषों का सत्य है । क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम (मनोनिग्रह) है । जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है उसे मेरे जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है ! अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा को ही अपनाऊँगा ।”

धर्मराज युधिष्ठिर जैसे अक्रोध के उपासकों का आचार-व्यवहार उन्नति के इच्छुक व्यक्तियों, साधकों के लिए बहुत ही उपयोगी है । महर्षि दुर्वासा, ब्रह्मर्षि विश्वामित्रजी, रमण महर्षि जैसे जीवन्मुक्त महापुरुष आवश्यकता पड़ने पर क्रोध को वश में रखते हुए उसका आवाहन और विसर्जन करते हैं । रमण महर्षि के आगे तर्क-कुतर्क करके अपनी विद्वता दिखाने वाले एक पंडित पर वे से तो बरस पड़े कि डंडा उठाकर दूर तक उसका पीछा किया । वापस आये तो चेहरे पर वही परम शांति झलक रही थी । घमंडियों, दुर्जनों से पिण्ड छुड़ाने के लिए ऐसी फुफकार लगाना क्रोध नहीं कहा जाता, अतः यह वर्जित नहीं है ।

माँ बालक की और सद्गुरु शिष्य की नासमझी पर कई बार क्रोध करते दिखते हैं परंतु उससे उनके हृदय में जलन नहीं पैदा होती, अतः यह डाँटना-फटकारना भी शास्त्र-निंदित क्रोध नहीं है । इस प्रकार हृदय को उद्विग्न किये बिना शुद्ध हितभावना से फुफकार या डाँट लगाना भारतीय संस्कृति में वर्जित नहीं है, क्योंकि इसमें हित की प्रधानता है ।

भारतीय संस्कृति का क्या दिव्य ज्ञान है, क्या सुंदर उपदेश है ! कितने उच्च भाव हैं ! तेज, क्षमा, समता, विवेक, शांति, हित व व्यवस्था का कितना सुंदर सम्मिश्रण है अपनी संस्कृति में ! प्रत्येक मनुष्य इस ज्ञान को जीवन में लाकर दुःख, शोक, अशांति, उद्विग्नता से परे सुख, शांति एवं आनंदमय जीवन जी सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 228

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अनुभव का आदर कर लो तो काम बन जाय


पूज्य बापू जी की मधुमय, ज्ञानवर्धक अनुभवमय अमृतवाणी

जीवन में रस हो लेकिन रस उद्गम स्थान पर ले जाय । जीवन में रस तो है लेकिन उद्गम स्थान से दूर ले जाता है तो वह जीवन नीरस हो जाता है । जैसे पान मसाले का रस, पति-पत्नी का विकारी रस अथवा वाहवाही का रस । रावण की वाहवाही बहुत होती थी लेकिन रस के उद्गम स्थान से रावण दूर चला गया । राम जी के जीवन में रस का उद्गम स्थान था, सत्संग था । श्रीकृष्ण के जीवन में रस था लेकिन उद्गम स्थानवाला था । पत्ते हरे-भरे हैं, फूल महकते हैं तो मूल में रस है तभी पत्तों तक पहुँचा । ऐसे ही आपका मूल परमात्म-रस है तो व्यवहार रसीला हो जाता है । आपका दर्शन रसमय,  आपकी वाणी रसमय….।

प्रेम की बोली का नाम संगीत है और प्रेम की चाल का नाम नृत्य है तथा परमात्म-प्रेम से भरे हुए व्यवहार का नाम भक्ति है और परमात्म-प्रेम से भरी हुई निगाहों का नाम ही नूरानी निगाहें है । श्रीकृष्ण निकलते थे तब सब लोग काम छोड़कर ‘कृष्ण आये, कृष्ण आये’ करके देखने को भागते थे, रस आता था उनसे, लेकिन कंस आता था तो ‘कंस आया, कंस आया’ करके घर में भाग जाते थे क्योंकि वह अहंकार को पोषता था, दूसरों को शोषित करके बाहर से रस भीतर भरता था और श्रीकृष्ण भीतर से रस बाँटते थे ।

राम जी आते तो रामजी को देखने के लिए किरात, भील, ये-वो भाग-भाग के आते लेकिन रावण निकलता तो लोग अपने घरों में भाग जाते । तो जो बाहर से अंदर रस भरता है वह रावण के रास्ते जाता है और जो अंदर से बाहर रस छलकाता है वह राम जी के रास्ते है  । मर्जी तुम्हारी है, तुम बीच में हो । संसार में जाते हो तो रावण के रास्ते का रस लेने वालों में उलझ जाते हो । सत्संग में आते हो तो राम का रस लेने वालों के सम्पर्क में आते हो । तुम्हारे जीवन में दोनों अनुभूतियाँ हैं । बिना वस्तु के, बिना व्यक्ति के सुखमय, रसमय दिन बीत जाते हैं सत्संग के, यह तुम्हारा अनुभव है और घर में सारे रस के साधन होते हुए भी जीवन थकान भरा हो जाता है, बोझीला हो जाता है । बिल्कुल तुम्हारे अनुभव का तुम आदर करो ।

तुम शास्त्र की बात न मानो, गुरु की बात न मानो, धर्म की बात न मानो, केवल अपना अनुभव मान लो तो भी तुम्हारा जीवन धन्य हो जायेगा । संसार के सुख में दुःख छुपा है, हर्ष में शोक छुपा है, जीवन में मृत्यु छुपी है, संयोग में वियोग छुपा है, मित्रता में नफरत, शत्रुता और एक दूसरे का त्याग छुपा है लेकिन भगवान में नित्य नवीन रस छुपा है… । उसमें भी थोडी चरपराहट आती है लेकिन प्रेम में कमी नहीं होती । शुद्ध प्रेम नित्य नवीन रस देता है । काम दिन-दिन क्षीण होता है और विकृतरूप होता है और प्रेम दिन-दिन बढ़ता है, सुकृतरूप होता है ।

संसारी विकार भोगने के बाद आप थक जाते हैं, हताश हो जाते हैं, असारता लगती है । श्मशान में जाते हैं तो लगता है कि ये सब मर ही गये, अपन भी मरने वाले हैं ।

तो शरीर मर जायेगा यह भी अपना अनुभव है और विकार भोगने के बाद जीवन नीरस हो जाता है शरीर थक जाता है यह भी अनुभव है । तो इस अनुभव का आदर करके संयम और सत्य रस पाने का इरादा कर लो । आपका तो काम बन जायेगा, आपकी आँखों से जो तन्मात्राएँ निकलेंगी, आपको छूकर जो हवामान में, वातावरण में तरंगे निकलेंगी वे कइयों को सुख, शांति और आनंद बख्शेंगी । इसको बोलते हैं ‘चिन्मय रस’ । ऐसा आपका आत्मा-परमात्मा का रस है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 11, 17 अंक 228

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भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानो


(आत्मनिष्ठ बापू जी के मुखारविंद से निःसृत ज्ञानगंगा)

भगवान कहते हैं-

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युजन्मदाश्रयः ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।

‘हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन ।’ (गीताः 7.1)

अब यहाँ ध्यान देने योग्य जैसी बात है कि भगवान बोलते हैं, ‘मुझमें….’ । अगर भगवान का ‘मैं’ हमने ठीक से समझा और हमारे में आसक्ति का जोर है तो हम भगवान के किसी रूप को भगवान समझेंगे तथा हमारे चित्त में द्वेष है तो कहेंगे कि भगवान कितने अहंकारी हैं, कहते हैं कि मेरे में ही आसक्त हो ।

श्रीकृष्ण का ‘मैं’ जब तक समझ नहीं आता अथवा श्रीकृष्ण के ‘मैं’ की तरफ जब तक नज़र नहीं जाती, तब तक श्रीकृष्ण के उपदेश को अथवा श्रीकृष्ण के इस अदभुत इशारे को हम समझ नहीं सकते । मय्यासक्तमनाः पार्थ…. मुझमें आसक्त…. मेरे में जिसकी प्रीति है । हमारे में राग है तो श्रीकृष्ण के साकार रूप में ही प्रीति होगी और हमारे में द्वेष है तो कहेंगे श्रीकृष्ण बोलते हैं, ‘मेरे में ही प्रीति….’ यह तो एकदेशीयता हुई । सच पूछो तो श्रीकृष्ण का जो ‘मैं’ है, वह एकदेशीयता को तोड़कर व्यापकता की खबरें सुनाने  वाला है ।

श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ कही नहीं, श्रीकृष्ण के द्वारा ‘गीता’ गूँज गयी । हम कुछ करते हैं तो या तो अनुकूल करते हैं या प्रतिकूल करते हैं । करने वाले परिच्छिन्न जीव रहते हैं । श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो परिच्छिन्नता को मौजूद रखकर कुछ कहें । श्रीकृष्ण का तो इतना खुला जीवन है, इतनी सहजता है, स्वाभाविकता है कि वे ही कह सकते हैं कि मेरे में आसक्त हो । आसक्ति शब्द, प्रीति शब्द…. शब्द तो बेचारे नन्हें पड़ जाते हैं, अर्थ हमें लगाना पड़ता है । जो हमारी बोलचाल की भाषा है वही श्रीकृष्ण बोलेंगे, वही गुरु बोलेंगे ।

भाषा तो बेचारी अधूरी है, अर्थ भी उसमें हमारी बुद्धि के अनुसार लगता है लेकिन हमारी बुद्धि जब हमारे व्यक्तित्व का, हमारी देह के दायरे का आकर्षण छोड़ दे तो फिर कुछ समझने के काबिल हो पाते हैं और समझने के काबिल  होते-होते यह समझा जाता है कि हम जो कुछ समझते हैं वह कुछ नहीं । आज तक जो हमने समझा है, जाना वह कुछ नहीं । जिसको जानने से सब जाना जाता है वह हमने नहीं जाना, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया, जिसको समझने से सब समझा जाता है उसको नहीं समझा । तो बुद्धि में यदि अकड़ है तो तुच्छ-तुच्छ जानकारियाँ एकत्रित करके हम अपने को विद्वान या ज्ञानी या जानकार मान लेते हैं । अगर बुद्धि में परमात्मा के प्रति प्रेम है, आकांक्षाएँ नहीं हैं तो फिर हमने जो कुछ जाना है उसकी कीमत हमको नहीं दिखती, जिससे जाना जाता है उसको समझने की हमारे क्षमता आती है ।

भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तमनाः पार्थ…. अर्थात् मेरे में जिसकी प्रीति है… उपवास में पानी पीने में, न पीने में, खाने में अथवा न खाने में, मिठाई में अथवा तीखे में – यह खण्ड-खण्ड में प्रीति नहीं, मुझ अखण्ड में जिसकी प्रीति हुई है ऐसे अर्जुन ! मैं तेरे को अपना समग्र स्वरूप सुनाता हूँ । और जिसने भगवान के समग्र स्वरूप को जान लिया, उसको और कुछ जानना बाकी नहीं बचता । जिसने उस एक को, समग्र स्वरूप को न जाना और बाकी सब कुछ जाना, हजार-हजार, लाख-लाख जाना तो उसका लाख-लाख जानना सब बेकार हो जाता है ।

जिसने एक को जान लिया उसने और किसी को नहीं जाना तो भी चल जाता है । रामकृष्ण परमहंस ने एक को जाना, बाकी का न जाना तो भी काम चल गया । हिटलर ने बाकी बहुत कुछ जाना, एक को नहीं जाना तो मरा मुसीबत में । विश्वामित्र जी ने एक को जाना तो भगवान राम और लक्ष्मण पैरचम्मी कर रहे हैं । रावण ने एक को नहीं जानकर बहुत-बहुत जाना तो हर बारह महीने में दे दियासिलाई !

अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में जो फैल रहा है वही तुम्हारे हृदय में बस रहा है लेकिन हमारी संसार की जो आसक्तियाँ हैं, मान्यताएँ हैं उनको छोड़ने की युक्ति हमको नहीं है ।

श्वास छोड़ते समय भावना करें कि ‘मेरी इच्छाएँ, अहंकार, वासना अलविदा…. अब तो सर्वत्र मेरा परमात्मा है, मेरा आत्मा ही रह गया है । इच्छाएँ-वासनाएँ चली गयीं तो ईश्वर ही तो रह गया । मैं ईश्वर में डूब रहा हूँ, मेरा आत्मा ही परमात्मा है । ॐ आनंद आनंद….’ इस प्रकार का भाव करके जो ध्यान करता है, चुप होता है वह भगवान में प्रीतिवाला हो जाता है । रस आने लगेगा तो मन उस तरफ लगेगा । मन को रस चाहिए । इस ढंग से यदि तुम मन को रस लेना सिखा दो तो भगवान में प्रीति हो जायेगी और भगवान का समग्र स्वरूप संत जब बतायेंगे और भगवान के वाक्य जब तुम सुनोगे तो समग्र स्वरूप का साक्षात्कार हो जायेगा ।

जितना हेत हराम से, उतना हरि होये ।

कह कबीर ता दास, पला न पकड़े कोय ।।

फिर यमदूत की क्या ताकत है कि तुम्हें मार सके, मौत की क्या ताकत है कि तुम्हें आँख दिखा सके ! वह तो तुम्हारे शरीर से गुजरेगी लेकिन तुम उसके साक्षी होकर अपने स्वरूप में जगमगाते रहोगे ।

भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तामनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः । जो मेरे में… ‘मेरे में’ माना रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण अपने को उस रूप में ‘मैं’ नहीं कह रहे थे । श्रीकृष्ण का ‘मैं’ तो समग्र ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है, सबके दिलों में फैला हुआ है । हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमे आसक्तचित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, सम्पूर्ण  बल, सम्पूर्ण ऐश्वर्य आदि जिसकी सत्ता से चमक रहा है, जिसका है उसको जान ले तो तेरा बेड़ा पार हो जायेगा ।

यह कठिन नहीं है, बड़ा आसान है । इसको जानने अथवा परमात्मा को पाने जैसा दुनिया में और कोई सरल कार्य नहीं लेकिन मनुष्य इतना छोटी बुद्धि का हो गया कि थोड़ी-थोड़ी चीजों में उलझ जाता है । ईंट, चूना, लोहा, लक्कड़ के मकान में जिंदगी खो देगा, मिटने वाले मित्रों में समय खो देगा, जलने वाले शरीर में समय खो देगा इसलिए ज्ञान दुर्लभ हो जाता है, वरना यह दुर्लभ नहीं ।

तुम्हें कोई सम्राट दिखता है, कोई शहंशाह दिखता है, कोई धनवान दिखता है तो उसके धन को और शहंशाही को अपने से पृथक नहीं मानकर उस धन और शहंशाही की इच्छाओं और वासनाओं को बढ़ाकर नहीं लेकिन उस धन और शाहाना नज़र को अपनी नज़र समझकर तुम मज़ा लूटो । किसी का धन देख के, किसी का सौंदर्य देख के, किसी की सत्ता देख के तुम वैसा बनने की कोशिश करोगे तो बनते-बनते युग बीत जायेंगे, वह रहेगा नहीं लेकिन जो धनवान है, सत्तावान है, ऐश्वर्यवान है उसमें भी मैं ही उस रूप में मज़ा ले रहा हूँ – ऐसा सोचोगे तो बेड़ा जल्दी पार हो जायेगा ।

समग्र ऐश्वर्य, समग्र सत्ता, समग्र रूप सच पूछो तो उस तुम्हारे चैतन्य के ही हैं । जैसे रात्रि के स्वप्न में तुम देखते हो कि कोई कनाडा का प्रधानमंत्री है, कोई भारत का राष्ट्रपति है लेकिन वे सब स्वप्न में तुम्हारे बनाये हुए हैं । तुम्हीं ने सत्ता दी है उनको । स्वप्न में तो तुम्हारी चैतन्य सत्ता ने स्वप्न समष्टि को सत्ता दी, ऐसे ही जाग्रत में तुम तो लगते हो व्यष्टि…. ‘मैं एक छोटा व्यक्ति और ये बड़े-बड़े ।’ तुम अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हो तब तुम छोटे दिखते हो और वे बड़े-बड़े दिखते हैं । तुम अपने को जानो तो तुमको पता चलेगा कि ये सब मेरे बनाये हुए पुतले हैं ।

संसार तजल्ली1 है मेरी….. अंदर-बाहर मैं ही हूँ ।

सब मुझी से सत्ता पाते हैं….. हर हर ॐ हर हर ॐ…

1 प्रकाश, प्रताप

ऐसा अनुभव करने के लिए भगवान में प्रीति हो जाय, भगवान में अनन्य भाव हो जाय । मूर्तियाँ अन्य-अन्य, रूप अन्य-अन्य, रंग अन्य-अन्य, भाव अन्य-अन्य… उन सबको देखने वाला एक अनन्य आत्मा मैं ही तो हूँ । जैसे तुम्हारे शरीर में अन्य-अन्य को देखने वाले तुम अनन्य हो, अन्य नहीं हो ऐसे ही सबकी देहों में भी तुम्हीं हो । इस प्रकार का यदि तुम्हें अनुभव होने लगे, अरे महाराज ! फिर तो तुम्हारी जिस पर नज़र पड़े न, वह भी निहाल हो जाय, वह भी खुशहाल हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 228

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