संतों का समय व्यर्थ न करें – पूज्य बापू जी

संतों का समय व्यर्थ न करें – पूज्य बापू जी


चाणोद करनाली में श्री रंगअवधूत महाराज नर्मदा के किनारे उसकी शांत लहरों को निहार रहे थे । एक स्टेशन मास्टर ने देखा कि जिनका नाम काफी सुना है, वे ही श्री रंगअवधूत महाराज  बैठे हुए हैं । वह उनको प्रणाम करके बोलाः “बाबा जी ! बाबा जी !! 42वाँ साल चल रहा है, अभी तक घर में झूला नहीं बँधा, संतान नहीं हुई ।”

श्री रंगअवधूत जी बोलेः “यहाँ भी संतान की ही बात करता है ! अच्छा जा, हो जायेगी ।”

अधिकारी बोलाः “लेकिन डॉक्टर लोग बोलते हैं खराबी है, ऐसा है वैसा है ।”

“अरे ! हो जायेगी । जा अब यहाँ से ।”

“बाबा जी ! बेटा होगा क्या मुझे ?”

“हाँ बाबा हाँ ! जा अब यहाँ से ।”

“किन्तु बाबा जी ! डॉक्टर तो मना करते हैं । एक बार फिर से कह दीजिये न, कि बेटा होगा !”

“जा साले ! अब कभी नहीं होगा । कितना सिर खपाया तूने संत का ! संत चुप रहते हैं तो ईश्वर के साथ रहते हैं । बोलना पड़ता है, सुनना पड़ता है तो कितना नीचे गिरा रहा है । अब कभी नहीं होगी जा !”

सत्यस्वरूप में जागे हुए महापुरुष का संकेत ही काफी होता है । जो महापुरुष सत्यस्वरूप परमात्मा में स्थित हैं, वे तो नजरों-नजरों में ही दे देते हैं । अतः एक ही बात उनसे बार-बार पूछकर उनका समय खराब करना माने अपना भाग्य ही खराब करना है । संतों के पास श्रद्धा-भक्ति से बैठकर सत्संग-श्रवन करना और उसका मनन चिंतन करना तो बढ़िया है किंतु संसार की नश्वर वस्तुओं के लिए बार-बार उनका समय लेना अपराध है ।

सूर्य को बोलेः ‘प्रकाश दो ।’ चन्द्रमा को बोलेः ‘चाँदनी दो ।’ गंगा को बोलेः ‘पानी दो ।’… यह तो उनका स्वभाव है । ऐसे ही आत्मज्ञानी संतों को बोलते हैं- ‘आशीर्वाद दो ।’ ऐसे लोग अनगढ़, नासमझ होते हैं । उसमें भी स्टेशन मास्टर ने हद कर दी नासमझी की !

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आत्मरसायन

जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है । बुराई रहित होना, चाहरहित होना और प्रेमी होना सत्संग है । बुराई रहित होने का उपाय है – किसी न किसी नाते सभी को अपना मानना । चाहरहित होने का अर्थ है – अपना कोई संकल्प न रहना और प्रेमी होने का अर्थ है – केवल प्रभु से ही नित्य एवं आत्मीय संबंध स्वीकार करना । इन तीनों बातों को करने में मानवमात्र स्वाधीन है और वर्तमान मे कर सकता है ।

सभी को अपना मानने से निर्विकारिता, किसी को अपना न मानने से निःसंदेहता और सर्वसमर्थ प्रभु को अपना मानने से निर्भयता की अभिव्यक्ति होती है । निर्विकारिता से जीवन जगत के लिए, निःसंदेहता से अपने लिए और निर्भयता से प्रभु के लिए उपयोगी होता है । यही जीवन की पूर्णता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 200

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