नित्य-ज्ञान में आओ!

नित्य-ज्ञान में आओ!


            आप नित्य ज्ञान का आदर करने की गाँठ बाँध लो, अपने जीवन में व्रत ले लो । मृत्यु जिसकी होती हैं वो हम नहीं हैं। जो मरनेवाला है, वह शरीर है। मरने के बाद भी जो रहनेवाला है- ‘हम’, अपने ‘आप’, हर परिस्थिति के ‘बाप’। बचपन आया, बचपन की जरा-जरा गोली-बिस्किट, लॉलीपॉप, चॉकलेट, चीज-वस्तू, खिलौनों में ओ…हो…हो…हो…बड़ी राजी-नाराजी हो जाती थी लेकिन अब ये राजी-नाराजी अनित्य है, उसको जाननेवाला नित्य है। है कि नहीं? कितना सरल है? बहुत ऊँची बात सुन रहे हैं और सरल है। फिर जवानी आई, पढना है, यह पेपर कठिन है, ऐसा है.. फलाना है, फलाना टेंशन है… पेपर अच्छे गए, हा..हा.. ये मेरे को आ गया, इसका ज्ञान हो गया, उसका ज्ञान हो गया… वो भी भूल गये।  पेपर आए, नहीं आए.. ये सब आ-आकर चला गया लेकिन उसको जानने वाला नित्य, ज्ञान-स्वरूप वो सत-चेतन मेरा आत्मा अभी भी जैसा का तैसा हैं। …तो वह है सत्-स्‍वरूप। जो सत्-स्‍वरूप है वह चेतन-स्वरूप है और जो चेतन-स्वरूप है वह आनंदरूप है, ज्ञान-स्वरूप हैं। भगवान का एक नाम हैं सच्चिदानंद, भागवत में आता है–

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयम नुमः।।  

जो सत्-स्‍वरूप हैं, चेतन-स्वरूप हैं, आनंद-स्वरूप हैं उस परमेश्वर को हम प्रणाम करते हैं!

बोले-क्यों प्रणाम करते हो?क्या चाहते हो?

बोले- तापत्रय विनाशाय… ‘आदिदैविक’, ‘आदिभौतिक’ और ‘मानसिक’… ये ताप, दुःख मिटाने के लिये…। यह जो दुःख हैं वह आदिदैविक जगत में है, आदिभौतिक में है, मानसिक जगत तक है। सच्‍च‍िदानंद-स्वरूप में दुःख की दाल नहीं गलती। अपने जीवन में अगर व्रत नहीं है तो कच्चा घड़ा है, कच्ची समझ है। शास्त्र कहते हैं कि जिनकी कच्ची समझ हैं उनके सारे जीवन की जो भी उपलब्धि हैं, जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में सब-कुछ बह जाता है ऐसे ही जीवन में सब-कुछ पा-पाकर उनका बह जाता है।  ठनठनपाल हो जाते है क्योंकि अनित्य शरीर, अनित्य मन, अनित्य बुद्धि, अनित्य इन्द्रियाँ, अनित्य वस्तुएँ और उसके अनित्य ज्ञान में रमण कर-करके जिंदगी खत्म कर देते हैं लेकिन अनित्य को जानने वाला जो है, नित्य वह सत है। बचपन बदल गया, जवानी में क्या-क्या हुआ, बदल गया। स्वप्न में क्या-क्या आया, बदल गया लेकिन उसको जाननेवाला नहीं बदला, वह सत है, वह चेतन है, वह ज्ञानस्वरूप है और वह नित्य है। शरीर की अवस्था अनित्य, मन के संकल्प-विकल्प अनित्य, बुद्धि के निर्णय अनित्य और इंद्रियों का ज्ञान अनित्य लेकिन इन सबकी गहराई में नित्य, चैतन्य, परमात्मा। उस नित्य, ज्ञान-स्वरूप की हम उपासना करते है। कल्याण हो जायेगा। बेड़ा पार हो गया। बाहर के धूम-धड़ाके, मंदिर के देवी-देवता सब अपनी-अपनी जगह पर हैं लेकिन सारे मंदिरों का, सारी तपस्याओं का फल यह है कि हम नित्य-स्वरूप, अपने सच्च्दिानंद में आएँ।


तीन बातें पक्की कर लो- मृत्यु से डरें नही-डराएँ नहीं, दूसरे को बेवकूफ बनाएँ नहीं और खुद अनित्य वस्तुओं में, अनित्य ज्ञान में बेवकूफ बनें नहीं। मैं इतना पढ़ा हूँ, मैं उतना पढ़ा हूँ लेकिन ये तो बुद्धि में है और जरा-सा बुखार आ जाय तो भूल जाता है। मेरे पास इतना धन है, उतना धन है, जरा-सी हवा निकल गई बाहर तो धन पड़ा रह जायेगा।

पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया-सुत जाना है।

कर सतसंग अभी से प्यारे, नहीं तो फिर पछताना है।।

            उस सत्-स्‍वरूप का संग कर जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा। यह शरीर सौ वर्ष पहले नहीं था, तीस वर्ष के बाद नहीं रहेगा लेकिन मैं इसके बाद भी रहूँगा, इसके पहले भी था। आँखों की देखने की ताकत पहले जैसी बुढ़ापे में सबकी नहीं होती, मन की स्थिति भी पहले जैसी नहीं होती लेकिन उसको जाननेवाला तो वही का वही है न! वही सत्-स्‍वरूप है। ॐ… उसमें शांत होते जाओ, फिर मन इधर-उधर जाय… ॐ… । जितनी देर उच्चारण किया उतनी देर फिर शांत हो गये तो यह असत, जड़, दुःखरूप संसार में भटकने वाला मन, इन्द्रियाँ भी सत्-स्‍वरूप में विश्रांति पाकर शुद्ध हो जायेगी।  


            माया के तीन गुण है। तमस गुण से शरीर की वस्तुएँ बनती है, द्रव्य बनते है, रक्त-नस-नाडियाँ, यह-वह-सब। माया के रजस गुण से शरीर में चेतना आती है। माया के सत्वगुण से ज्ञान इंद्रियों में आता हैं लेकिन ये सब बदलने के बाद भी सच्च्दिानंद, ज्ञान-स्वरूप मेरा आत्मा ज्यौं का त्यौं। छोटी-छोटी आँखे थी, नन्ही-नन्ही नाक थी, नन्ही-नन्ही उँगलियाँ थी, वह सब बदल गई। बड़ी-बड़ी दाढ़ी, बड़ी बड़ी ऑंख… बड़े-बड़े हाथ…। यह सब माया का खेल बदलता है, दिन बदलता हैं, रात बदलती है, सुख बदलता है, दुःख बदलता है। यह सब जैसे गंगा के प्रवाह में सब बहता है ऐसे ही सब बदलने वाला है, अनित्य है। सुख भी आ-आकर चले गये, दुःख भी आ-आकर चले गये, चिंताएँ भी निगुरी आ-आकर चली गई, खुशियाँ भी आ-आकर चली गई लेकिन उन सबको जाननेवाला सच्च्दिानंद ज्यौं का त्यौं। दुःख, तब होता है जब असत शरीर में, असत व्यवहार में, असत कल्पनाओं में सत्-बुद्धि करते है और सद्चिदानंद के ज्ञान का पता नहीं अथवा अनादर करते हैं तभी आपको दुःख दबोचता है, तभी कर्म का बँधन दबोचता है, तभी ईश्वर से आप दूर फेंके जाते है।

            एक बात और याद रखो कि ईश्वर दूर है, ऐसी बेवकूफी कभी स्वीकार ना करो। पराये है, दूर है, देर से मिलेंगे, श्रम-साध्य है.. नहीं-नहीं, सो साहेब सदा हजूरे, अन्धा जानत ता को दूरे…। वह आनंद-स्वरूप सदा हाजरा-हजूर है लेकिन उधर को बुद्धि जाती नहीं न, विचार जाता नहीं। असत में रमण कर-करके थक जाते हैं, सो गये, फिर उसी में रमण किया, फिर सो गये, ऐसे ही जीवन पूरा हो जाता है। सत में रमण करने का, सत्य की तरफ आने का पक्का इरादा कर दो। सच्चिदानंद का स्मरण करो। नित्य-ज्ञान तो है लेकिन नित्य-ज्ञान की स्मृति नहीं है। नित्य-ज्ञान की अनुभूति दुःखों से पार कर देगी, कर्म-बँधनों से पार कर देगी, चिंताओं से पार कर देगी, शोक से पार कर देगी।


            तरति शोकं आत्मवित… उस आत्मा को जानने से आप शोक से पार हो जाएँगे, आकर्षणों से पार हो जाएँगे। आप संसारी वस्तुओं से आकर्षित नहीं होंगे लेकिन संसार आपसे आकर्षित होगा क्योंकि आप नित्य-सच्चिदानंद में रमण करने लग गये। कृष्ण, वस्तुओं पर आकर्षित नहीं होते लेकिन कृष्ण को देखकर लोग और प्रकृति आकर्षित रहती है। आत्मा सबका अनन्य-स्वरूप है, मूल-स्वरूप, चैतन्य।             मृत्यु से डरें नहीं-डराऍं नहीं, बेवकूफ बने नहीं-बनाऍं नहीं, दुःखी होवे नहीं और दूसरे को दुःखी करें नहीं। कौन चाहता हैं मैं ‘दुःखी’ होऊँ? कोई नहीं चाहता। कोई एक आदमी भी बोल दे कि मैनें फलाना काम ‘दुःखी’ होने के लिए किया था अथवा करूँगा.. नहीं! फिर भी असत् शरीर में, इंद्रियों में सुखी होने की भूल से बेचारे ‘दुःखी’ होते रहते हैं। सत में आ जाएँ तो फिर दुःख यूँ मिटता है, चिंता-बँधन यूँ मिटता हैं, नहीं तो कितनी डिग्रियाँ ले लो, कितनी नौकरियाँ कर लो, कितने प्रमोशन कर लो, दुःख नहीं मिटता। कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं। सच्चिदानंद ब्रह्म-स्वरूप परमात्मा में आना ही पड़ेगा, हजार जन्म के बाद भी! जय-विजय वैकुंठ में थे, भगवान नारायण का बाहर से दर्शन करते थे लेकिन नारायण-तत्व जो नित्य-ज्ञान है, उसमें नही आए तो वैकुंठ से पतन हुआ। गोपियों को शरद-पूनम की रात को श्रीकृष्ण ने कृपा करके सान्निध्‍य दिया, आनंदित तो किया लेकिन बाद में फिर गोपियॉं इस नित्य-ज्ञान में न आई तो दुःख गया नहीं, गोपियाँ बिलख-बिलखकर रोती थी लेकिन गोपियों में खानदानी थी कि हमारे कारण श्रीकृष्ण को तकलीफ न पड़े, यह उनमें बड़ा भारी सदगुण था, नहीं तो बृज और मथुरा, क्या दूरी थी? लेकिन गोपियों ने मर्यादा तोड़ी नहीं, गयी नहीं तंग करने कृष्ण को। हम जैसा चाहें ऐसा कृष्ण करें, ऐसी गोपियों में नीच-वृत्ति नहीं थी, उनका बड़ा भारी सद्गुण था। फिर (श्रीकृष्ण ने) उद्धव को भेजा  कि नित्य का ज्ञान दे आओ। गोपियों ने प्रेमाभक्ति की बात से उद्धव को ही प्रभावित कर दिया, ऐसी पवित्र गोपियाँ थी।

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