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श्राद्धकर्म व उसके पीछे के सूक्ष्म रहस्य – पूज्य बापूजी


जिन पूर्वजों ने हमें अपना सर्वस्व देकर विदाई ली, उनकी सद्गति हो ऐसा सत्सुमिरन करने का अवसर यानी ‘श्राद्धपक्ष’ ।

श्राद्ध पक्ष का लम्बा पर्व मनुष्य को याद दिलाता है कि ‘यहाँ चाहे जितनी विजय प्राप्त हो, प्रसिद्धि प्राप्त हो परंतु परदादा के दादा, दादा के दादा, उनके दादा चल बसे, अपने दादा भी चल बसे और अपने पिता जी भी गये या जाने की तैयारी में  हैं तो हमें भी जाना है ।’

श्राद्ध हेतु आवश्यक बातें

जिनका श्राद्ध करना है, सुबह उनका मानसिक आवाहन करना चाहिए । और जिस ब्राह्मण को श्राद्ध का भोजन कराना है उसको एक दिन पहले न्योता दे आना चाहिए ताकि वह श्राद्ध के पूर्व दिन संयम से रहे, पति-पत्नी के विकारी व्यवहार से अपने को बचा ले । फिर श्राद्ध का भोजन खिलाते समय-

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।

नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ।। (अग्नि पुराणः 117.22)

यह श्लोक बोलकर देवताओं को, पितरों को, महायोगियों को तथा स्वधा और स्वाहा देवियों को नमस्कार किया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि ‘मेरे पिता को, माता को…. (जिनका भी श्राद्ध करते हैं उनको) मेरे श्राद्ध का सत्त्व पहुँचे, वे सुखी व प्रसन्न रहें ।’

श्राद्ध के निमित्त गीता के 7वें अध्याय का माहात्म्य  पढ़कर पाठ कर लें और उसका पुण्य जिनका श्राद्ध करते हैं उनको अर्पण कर दें, इससे भी श्राद्धकर्म सुखदायी और साफल्यदायी होता है ।

श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ?

आप श्राद्ध करते हो तो-

  1. आपको भी पक्का होता है कि ‘हम मरेंगे तब हमारा भी कोई श्राद्ध करेगा परंतु हम वास्तव में मरते नहीं, हमारा शरीर छूटता है ।’ तो आत्मा की अमरता का, शरीर के मरने के बाद भी हमारा अस्तित्व रहता है इसका आपको पुष्टीकरण होता है ।
  2. देवताओं, पितरों, योगियों और स्वधा-स्वाहा देवियों के लिए सद्भाव होता है ।
  3. भगवद्गीता का माहात्म्य पढ़ते हैं, जिससे पता चलता है कि पुत्रों द्वारा पिता के लिए किया हुआ सत्कर्म पिता की उन्नति करता है और पिता की शुभकामना से पुत्र-परिवार में अच्छी आत्माएँ आती हैं ।

ब्रह्मा जी ने सृष्टि करने के बाद देखा कि ‘जीव को सुख-सुविधाएँ दीं फिर भी वह दुःखी है’ तो उन्होंने यह विधान किया कि एक-दूसरे का पोषण करो । आप देवताओं-पितरों का पोषण करो, देवता-पितर आपका पोषण करेंगे । आप सूर्य को अर्घ्य देते हैं, आपके अर्घ्य के सद्भाव से सूर्यदेव पुष्ट होते हैं और यह पुष्टि विरोधियों, असुरों के आगे सूर्य को विजेता बनाती है । जैसे राम जी को विजेता बनाने में बंदर, गिलहरी भी काम आये ऐसे ही सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो सूर्य विजयपूर्वक अपना दैवी कार्य करते हैं, आप पर प्रसन्न होते हैं और अपनी तरफ से आपको भी पुष्ट करते हैं ।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयतन्तु वः ।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

‘तुम इस यज्ञ  (ईश्वरप्राप्ति के लिए किये जाने वाले कर्मों) के द्वारा देवताओं को तृप्त करो और (उनसे तृप्त हुए ) वे देवगण तुम्हें तृप्त करें । इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को तृप्त या उन्नत करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।’ (गीताः 3.11)

देवताओं का हम पोषण करें तो वे सबल होते हैं और सबल देवता वर्षा करने, प्रेरणा देने, हमारी इन्द्रियों को पुष्ट करने में लगते हैं । इससे सबका मंगल होता है ।

(श्राद्ध से सम्बंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘श्राद्ध-महिमा )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 32,33 अंक 345

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श्राद्ध-महिमा


एवं पितरों को तृप्त व प्रसन्न करने के उपाय

(श्राद्धपक्षः 5 सितम्बर 2017 से 20 सितम्बर 2017 तक)

श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिचक्षते।

‘श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं।’

‘पद्म पुराण’ में आता हैः ‘श्राद्ध से प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं।’

अमावस्या को श्राद्ध की महिमा

‘वराह पुराण’ के अनुसार एक बार पितरों ने ब्रह्मा जी के चरणों में निवेदन कियाः “भगवन् ! हमें जीविका देने की कृपा कीजिये, जिससे हम सुख प्राप्त कर सकें।”

प्रसन्न होते हुए भगवान ब्रह्मा  जी ने उन्हें वरदान देते हुए कहाः “अमावस्या की तिथि को मनुष्य जल, तिल और कुश से तुम्हारा तर्पण करेंगे। इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे। पितरों के प्रति श्रद्धा रखने वाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उस पर अत्यंत संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है।”

यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है। जिन पितरों की शरीर छूटने की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है।

अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिंडदान एवं श्राद्धादि की आशा में आते हैं। यदि वहाँ उन्हें पिंडदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलते हैं तो वे श्राप देकर चले जाते हैं। अतः श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्ध-विधि से करणीय

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में पुलस्त्य ऋषि भीष्मजी को कहते हैं- पितृकार्य में दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) को अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधे पर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध – ये सदा पितरों को तृप्त करते हैं।

चाँदी के बने हुए या चाँदी-मिश्रित पात्र में जल रखकर पितरों को श्रद्धापूर्वक अर्पित किया जाय तो वह अक्षय हो जाता है। चाँदी न हो तो चाँदी की चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। चाँदी का दर्शन उन्हें प्रिय है।

पितरों का उद्धारक तथा राज्य व आयु बढ़ाने वाला मंत्रः

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।

नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।

‘देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा और स्वाहा को मेरा सर्वदा नमस्कार है, नमस्कार है।’ (अग्नि पुराणः 117.22)

श्राद्ध के प्रारम्भ, समाप्ति तथा पिंडदान के समय इस मंत्र का समाहित (सावधान) चित्त होकर 3-3 बार पाठ करने से पितृगण शीघ्र ही वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण तुरंत वहाँ से पलायन कर जाते हैं। यह वीर्य, पवित्रता, सात्त्विक बल, धन-वैभव, दीर्घायु, बल आदि को बढ़ाने वाला मंत्र है।

पद्म पुराण में आता है कि जो भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी संतुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, संतान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही संतुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है।’

पूज्य बापू जी कहते हैं- “श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रूपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन 11.36 से 12.24 बजे के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें। चारा खरीदने को भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें- ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं। मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-कराने वाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है। इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं।’ इससे आपको मंगलमय लाभ होगा।’

(श्राद्ध से संबंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम से प्रकाशित पुस्तक श्राद्ध-महिमा)

सामूहिक श्राद्ध का लाभ लें

सर्वपित्री दर्श अमावस्या (19 सितम्बर 2017) के दिन विभिन्न स्थानों के संत श्री आशाराम जी आश्रमों में सामूहिक श्राद्ध का आयोजन होता है। आप भी इसका लाभ ले सकते हैं। इस हेतु अपने नजदीकी आश्रम में 12 सितम्बर तक पंजीकरण करा लें। अधिक जानाकारी हेतु पहले ही अपने नजदीकी आश्रम से सम्पर्क कर लें।

अगर खर्च की परवाह न हो तो अपने घर में भी श्राद्ध करा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 26 अंक 296

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श्राद्ध की महिमा


 

(संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन एवं शास्त्रों से )

जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारो से बनाता है | अत: श्राद्ध करके यह भावना की जताई है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो |श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरो की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते है | इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते है | जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते है, वे हमारे जीवन की अडचनों को दूर करने में हमारी सहायता करते है |

‘वराह पुराण’ में श्रद्धा की विधि का वर्णन करते हुए मार्कन्ड़ेयजी गौरमुख ब्राम्हणसे कहते है :’विप्रवर ! छहों वेदांगों को जाननेवाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राम्हण, पंचाग्नि में तपनेवाले, शिष्य,संबंधी तथा अपने माता-पिता के प्रेमी ब्राम्हणों को श्राद्धकर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए |’ ‘वायु पुराण’ में आता है : “मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगानेवाला, सोमरस (शराब आदि मादक द्रव्य ) बेचनेवाला,जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढानेवाला, पुनर्विवहिता स्त्री का पति, माता -पिता का परित्याग करनेवाला, हीन वर्ण की संतान का पालन – पोषण करनेवाला, शुद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलानेवाला – ऐसा ब्राम्हण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं है |” श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते है, जो शरीर कि मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते है | श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते है और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है | बूढ़े -बुजुर्गो  ने आपकी उन्नति के लिए बहुत कुछ करेंगे तो आपके ह्रदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा |

औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पिने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था | तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य है वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते है और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नही दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते है |”

भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुदुम्ब-परिवार का ही हित नहीं, अपने समाज या देश का ही हित नहीं वरन पुरे विश्व का हित चाहती है |