Monthly Archives: July 2014

वैज्ञानिक अनुसंधानों का आधार है देवभाषा संस्कृत


(संस्कृत दिवसः 10 अगस्त)

देवभाषा संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। वेद भी इसी भाषा में होने के कारण इसे वैदिक भाषा भी कहते हैं। ‘संस्कृत’ शब्द का अर्थ होता है – परिष्कृत, पूर्ण एवं अलंकृत। संस्कृत में बहुत कम शब्दों में अधिक आशय प्रकट कर सकते हैं। इसमें जैसा लिखा जाता है, वैसा ही उच्चारण किया जाता है। संस्कृत में भाषागत त्रुटियाँ नहीं मिलती हैं।

भाषाविद मानते हैं कि विश्व की सभी भाषाओं की उत्पत्ति का तार कहीं-न-कहीं संस्कृत से जुड़ा है। यह सबसे पुरानी एवं समृद्ध भाषा है। विभिन्न भाषाओं में संस्कृत के शब्द बहुतायत में पाये जाते हैं। कई शब्द अपभ्रंश के रूप में हैं तो कई ज्यों-के-त्यों हैं। संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।

वैज्ञानिकों का भी संस्कृत को समर्थन

संस्कृत की वैज्ञानिकता बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक खोजों का आधार बनी है। वेंकट रमन, जगदीशचन्द्र बसु, आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय, डॉ. मेघनाद साहा जैसे विश्वविख्यात विज्ञानी संस्कृत भाषा से अत्यधिक प्रेम था और वैज्ञानिक खोजों के लिए ये संस्कृत को आधार मानते थे। इनका कहना था कि संस्कृत का प्रत्येक शब्द वैज्ञानिकों को अनुसंधान के लिए प्रेरित करता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने विज्ञान में जितनी उन्नति की थी, वर्तमान में उसका कोई  मुकाबला नहीं कर सकता। ऋषि-महर्षियों का सम्पूर्ण ज्ञान-सार संस्कृत में निहित है। आचार्य राय विज्ञान के लिए संस्कृत की शिक्षा आवश्यक मानते थे। जगदीशचन्द्र बसु ने अपने अनुसंधानों के स्रोत संस्कृत में खोजे थे। डॉ. साहा अपने घर के बच्चों की शिक्षा संस्कृत में ही कराते थे और एक विज्ञानी होने के बावजूद काफी समय तक वे स्वयं बच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे।

संस्कृत शब्दों द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधान

एक बार संस्कृत के महापंडित आचार्य कपिल देव शर्मा ने जगदीशचन्द्र बसु से पूछाः “वनस्पतियों में प्राण होने का अनुसंधान करने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ?”

उत्तर के बजाय बसु ने प्रश्न कियाः “आप संस्कृत का ऐसा शब्द बताइये जिससे बहुत से पेड़-पौधों का बोध हो।”

आचार्य शर्मा को ‘शस्यश्यामलां मातरम्।’ ध्यान आ गया। उन्होंने कहाः “शस्य”।

“शस्य किस धातु से बना है ?”

“शस् धातु से।”

“शस का अर्थ ?”

“हत्या करना।”

“तो शस्य का क्या अर्थ हुआ ?”

“जिनकी हत्या करना सम्भव हो।”

आचार्य शर्मा से बसु महोदय ने मुस्कराकर कहाः “यदि वनस्पतियों में प्राण न होते तो उन्हें हत्या योग्य कहा ही न जाता। संस्कृत के ‘शस्य’ शब्द ने ही मुझे इस अनुसंधान के लिए प्रेरित किया।” उन्होंने ऐसे कई संस्कृत शब्दों के बारे में आचार्य शर्मा को बताया जो उन्हें अनुसंधान में मददरूप साबित हुए।

भारतीय वैज्ञानिकों के साथ पाश्चात्य विद्वानों ने भी संस्कृत की समृद्धता को स्वीकारा है। सर विलियम जोन्स ने 2 फरवरी, 1786 को एशियाटिक सोसायटी के माध्यम से सारे विश्व में यह घोषणा कर दी थीः “संस्कृत एक अदभुत भाषा है। यह ग्रीक से अधिक पूर्ण है, लैटिन से अधिक समृद्ध और दोनों ही भाषाओं से अधिक परिष्कृत है।”

आधुनिक विज्ञान के लिए संस्कृत बन सकती है वरदानरूप

वर्तमान समय में संस्कृत भाषा विश्वभर के विज्ञानियों के लिए शोध का विषय बन गयी है। यूरोप की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका ‘फोर्ब्ज’ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ‘संस्कृत भाषा कम्पयूटर के लिए सबसे उत्तम भाषा है तथा समस्त यूरोपिय भाषाओं की जननी है।

आधुनिक विज्ञान सृष्टि के रहस्यों को सुलझाने में बौना पड़ रहा है। अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न  मंत्र-विज्ञान की महिमा से विज्ञन आज भी अनभिज्ञ है। उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं और कहाँ गायब हो जाती हैं – इस प्रकार की कई बातें हैं जो आज भी विज्ञान के लिए रहस्य हैं। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों से ऐसे कई रहस्यों को सुलझाया जा सकता है।

विमान विज्ञान, नौका विज्ञान से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हमारे ग्रंथों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के और भी अनगिनत सूत्र हमारे ग्रंथों  में समाये हुए हैं, जिनसे विज्ञान को अनुसंधान के क्षेत्र में दिशानिर्देश मिल सकते हैं। आज अगर विज्ञान के साथ संस्कृत का समन्वय कर दिया जाय तो अनुसंधान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हो सकती है। हिन्दू धर्म के प्राचीन महान ग्रंथों के अलावा बौद्ध, जैन आदि धर्मों के अनेक मूल धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में ही हैं।

संस्कारी जीवन की  नींवः संस्कृत

वर्तमान समय में भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार होने के बावजूद भी मानव-समाज अवसाद, तनाव, चिंता और अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त है क्योंकि केवल भौतिक उन्नति से मानव का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है, इसके लिए आध्यात्मिक उन्नति अत्यंत जरूरी है।

जिस समय संस्कृत का बोलबाला था उस समय मानव-जीवन ज्यादा संस्कारित था। यदि समाज को फिर से वैसा संस्कारित करना हो तो हमें फिर से सनातन धर्म के प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का सहारा लेना ही पड़ेगा। हमारे प्राचीन ग्रंथों का सहारा लेना ही पड़ेगा। हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथ शाश्वत मूल्यों एवं व्यावहारिक जीवन के अनमोल सूत्रों के भण्डार हैं, जिनसे लाभ लेकर वर्तमान समाज की सच्ची और वास्तविक उन्नति सम्भव है।

संस्कृत के शब्द चित्ताकर्षक एवं आनन्ददायक भी हैं, जैसे – सुप्रभातम्, सुस्वागतम्, ‘मधुराष्टकम्’ के शब्द आदि। बोलचाल में यदि संस्कृत का प्रयोग किया जाय तो हम आनंदित रहते हैं। परंतु अफसोस कि वर्तमान में पाश्चात्य अंधानुकरण से संस्कृत भाषा का प्रयोग बिल्कुल बंद सा हो गया है। संस्कृत के उत्थान के लिए हमें अपने बोलचाल में संस्कृत का प्रयोग शुरु करना होगा। बच्चों को पाठ्यक्रम में संस्कृत भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ायी जानी चाहिए। और उन्हें इसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। विद्यार्थियों को वैदिक गणित का लाभ दिलायें तो वे गणित के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ सकते हैं।

संस्कृत भाषा हमारे देश व संस्कृति की पहचान है, स्वाभिमान है। हमें इस भाषा को विलुप्त होने से बचाना होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 259

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स्वास्थ्यवर्धक चोकरयुक्त आटा


प्रायः लोग खाना बनाते समय आटे को छानकर चोकर फेंक देते हैं लेकिन उन्हें यह पता नहीं कि चोकर फेंककर उन्होंने आटे के सारे रेशे (फाईबर्स) फेंक दिये हैं। चोकर स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। चोकर के संबंध में शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने पाया है कि चोकर रक्त में इम्यूनो-ग्लोब्यूलीन्स की मात्रा बढ़ाता है, जिससे शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता बढ़ती है। इससे रोगप्रतिकारक शक्ति की कमी के कारण उत्पन्न होने वाले कई कष्टदायक रोग जैसे क्षय (टी.बी.) दमा आदि भी दूर रहते हैं।

चोकरयुक्त आटा खाने के लाभ

गेहूँ का चोकर कब्ज हटाने में रामबाण का काम करता है। इसके प्रयोग से आँतों में चिपका हुआ मल साफ होता है, गैस नहीं बनती, आँते सुरक्षित वे पेट मुलायम रहता है।

चोकर आमाशय के घावों को ठीक करता है।

रक्तवसा (कोलेस्ट्रॉल) को संतुलित करके हृदयरोग से भी रक्षा करता है।

आंत्रपुच्छशोथ (अपेंडिसाइटिस), अर्श(बवासीर) तथा भगंदर से बचाता है। बड़ी आँत एवं मलाशय कैंसर से भी रक्षा होती है।

मोटापा घटाने तथा मधुमेह निवारण में भी अचूक कार्य करता है।

अतः अति लाभकारी चोकरयुक्त आटे को ही प्रयोग करें, भूलकर भी इसे न फेंके।

सरल प्रयोग

भगवान धन्वन्तरि सुश्रुत जी से कहते हैं- “मनुष्य को सदा ‘हिताशी’ (हितकारी पदार्थों को ही खाने वाला), ‘मिताशी’ (परिमित भोजन करने वाला) तथा ‘जीर्णाशी’ होना चाहिए अर्थात् पहले खाये हुए अन्न का परिपाक हो जाने पर ही पुनः भोजन करना चाहिए।

बेल के पत्ते, धनिया व सौंफ को समान मात्रा में लेकर कूट लें। 10 से 20 ग्राम यह चूर्ण शाम को 100 ग्राम पानी में भिगो दें और सुबह पानी को छानकर पी जायें। इसी प्रकार सुबह भिगोकर शाम को पियें। इससे स्वप्नदोष कुछ ही दिनों में ठीक हो जायेगा। यह प्रमेह एवं स्त्रियों के प्रदर में भी लाभदायक है।

घी तथा दूध से शिवलिंग को स्नान कराने से मनुष्य रोगहीन हो जाता है।

खाँडयुक्त दूध पीने वाला सौ वर्षों की आयु प्राप्त करता है।

दीर्घजीवी होने की इच्छावाले को सुबह खाली पेट 10 से 15 ग्राम त्रिफला घृत के साथ 5 से 10 ग्राम शहद का सेवन करना चाहिए।

आरोग्य के मूलभूत सिद्धान्त

मीठे से कफ उपजे, खट्टे रस से पित्त।

कटु उपजावे वात को, याद रखिये नित्त।।

खट्टा खारा औ मधुर, करे वायु का ह्रास।

कटुक कसैला चरपरा, कफ का करे विनाश।

कोप बढ़ावे वात को, तीखा, कड़वा, कषाय।

मधुर, शीत, लघु1 आदि से, पित्त शमन हो जाय।।

वात कोप गति बारिश में, पित्त शरद ऋतु माय।

कफ गति बढ़े बसंत में, कीजे शमन उपाय।।

  1. पचने में हलका

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 30, अंक 259

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संसाररूपी हाथी को विदीर्ण करने वाले सिंह एवं भवरोग निवारक धन्वंतरि


संत एकनाथ जी महाराज जीव का भवरोग निवारनेवाले सदगुरु की अनुपम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं- “सदगुरुरूपी धन्वंतरि को मैं प्रणाम करता हूँ। इस संसार में भवरोग की बाधा दूर करने में उनके सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है। भवरोग के संताप से लोग आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक इन त्रिविध तापों से झुलस रहे हैं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ जैसे संकल्पों से वे सदा बड़बड़ाते रहते हैं। चित्त में द्वैतभावना आने से उनका मुँह कड़वा हो जाता है इसीलिए वे मुँह से विष की तरह कड़वी बातें करते रहते हैं। व्याधि से पीड़ित होने के कारण वे विवेक को लात मार देते हैं और धैर्य को झटककर वासनारूपी जंगल में भटकने लगते हैं तथा महत्त्वाकांक्षाओं के दलदल में धँसते जाते हैं। भवरोग के भ्रम में वे कैसा पागलों जैसा आचरण करते हैं ! जो नहीं खाना चाहिए उसे खाने लगते हैं, जो नहीं करना चाहिए वह करते दिखाई देते हैं और स्त्रियों के पीछे पागलों की तरह दौड़ते रहते हैं। उनकी ज्ञानशक्ति क्षीण हो जाती है। इस प्रकार सदा कुपथ्य करते रहने के कारण उनमें विकाररूपी जीर्ण ज्वर व क्षयरोग उत्पन्न होने लगता है।

इन विकारों के कारण जीव में चिंता उत्पन्न हो जाती है और सुख नष्ट हो जाता है। इस रोग का ज्वर इतना विचित्र रहता है कि जो मधुर परमार्थ है वह तो कड़वा होने लगता है और विषैले विषय मधुर लगते हैं ! इस रोग को निर्मूल करने के लिए सत्कथारूपी काढ़ा दिया जाये तो उसको रुचता ही नहीं। इस प्रकार वह पूरी तरह रोगग्रस्त होकर रहता है।

ऐसा यह जबरदस्त रोग देखकर सदगुरुरूपी चतुर वैद्य आगे बढ़ते हैं और कृपादृष्टि से उसकी ओर देखकर उसका रोग तत्काल ठीक कर देते हैं।

रोगी का महान भाग्य उदित तब होता है, जब वह गुरुकृपा का कूर्मावलोकन (कछुए की तरह दूर से ही गुरुकृपा को प्राप्त करते रहना) करने लगता है और यह रोगी के लिए अमृतपान की तरह सिद्ध होकर उसे तत्काल सावधान कर देता है। सावधान होने पर वह रोगी नित्य-अनित्य विवेकरूपी पाचन अत्यन्त सावधानी से करने लगता है। किंतु इतने से उसका जीर्ण ज्वर व क्षयरोग पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसीलिए सदगुरु वैद्य उसका रसोपचार शुरु करते हैं। रोगी को (ॐकार की) अर्धमात्रारूपी अक्षर-रस देते ही उसका क्षयरोग दूर होकर वह पहले जैसा अक्षय (अविनाशी) हो जाता है।

रोगी कहीं फिर से भीषण कुपथ्य न कर दे इसलिए सदगुरुरूपी वैद्य उस पर वैराग्य की चौकीदारी रखते हैं और निरन्तर आत्मानुसंधान का पथ्य देकर संसाररूपी रोग का निवारण करते हैं। रोगी के पूरी तरह ठीक हो जाने पर उसे तेज भूख लगती है। इसलिए वह  मानसिक चिंता की लाई बनाकर भुक्खड़ की तरह एक ही क्षण में खा जाता है। गुड़ और चीनी की चाशनी की तरह कर्म-अकर्म के लड्डू, मीठे या कड़वे कहे बिना, अपनी इच्छा से खाने लग जाता है।

‘ब्रह्मास्मि’ की चरम प्रवृत्ति के सुंदर पकवान जैसे ही दिखाई पड़ते हैं, उऩ्हें तत्काल खाकर वह माया के पीछे पड़ जाता है। तब माया उसके डर से भागकर अपने मिथ्यात्व में विलीन हो जाती है। सदगुरुकृपा से उसका ‘स्व’ आनंद पुष्ट होता है और संसार-रोग बिल्कुल नष्ट होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। किंतु जो सदगुरु की महिमा को भूलकर मोक्ष को गुरु-भजन से श्रेष्ठ मानते हैं, वे मूर्ख हैं क्योंकि मोक्ष तो गुरुचरणों का सेवक है।

हमें तो सदगुरु-दृष्टि से ही परम स्वास्थ्य-लाभ होता है। हम सदगुरु-स्तुति से ही संसार में पूजनीय होते हैं। गुरुसेवा के कारण ही हम भाग्यवान हैं और हमारा सामर्थ्य हमें गुरु-स्तुति से ही प्राप्त हुआ है। सदगुरु का नाह ही हमारे लिए वेदशास्त्र है, सारे मंत्रों की अपेक्षा सदगुरु का नाम ही हमें अधिक श्रेष्ठ मालूम होता है। एकमात्र सदगुरु-तीर्थ सारे तीर्थों को पवित्र करता है।

हे गुरुदेव ! आपके उदार गुणों का वर्णन करते-करते मन को तृप्ति नहीं हो पाती। हे संसाररूपी हाथी को विदीर्ण करने वाले सिंह सदगुरु ! आपकी जय हो !”

(श्री एकनाथ भागवत, अध्यायः 10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 259

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