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उदारात्मा जयदेव जी महाराज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

श्रीमद् भगवद् गीता में आता हैः

दुःखेश्वनुद्विमग्नाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते।।

ʹदुःखों की प्राप्ति में जिसका मन उद्वेगरहित है और सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा दूर हो गयी है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।ʹ (गीताः 2.56)

सुख में आसक्ति नहीं, वाहवाही में आसक्ति नहीं और दुःख में उद्वेग नहीं हो तो हृदय रहेगा शांत। अगर शांत रहने का विचार पक्का रखो तो फिर आपको यदि कोई सतायेगा तो कुदरत उसको ठीक कर देगी।

ʹगीतगोविंदʹ के कर्त्ता थे जयदेव जी। उनके पिता जब चल बसे तब ब्याजखोर आदमी ने जयदेव जी से कहाः “तेरे पिता जी ने हमसे बहुत कर्ज लिया है।”

जयदेवजीः “पिता संपत्ति तो ज्यादा छोड़ नहीं गये हैं। एक छोटा सा घर है जिसमें रहकर भगवान का भजन करता हूँ। आमदनी तो है नहीं, कमाऊँगा तब दे दूँगा।”

पिता ने तो लिये थे कुछ गिने-गिनाये रूपये किन्तु ब्याजखोर ने बदमाशी करके, ब्याज चढ़ाकर उसका पूरा मकान ले लेने के कागजात बनवा लिये। फिर जयदेव जी से कहाः “अगर तुम अपने पिता का कर्जा नहीं चुका सकते तो अपना मकान हमारे हवाले कर दो और इन कागजों पर हस्ताक्षर कर दो।”

जयदेव जी ने हस्ताक्षर कर दिये। ब्याजखोर ने मकान पर कब्जा कर लिया और जयदेव जी से कहाः “अब तुम बाहर निकलो। यह मकान मेरा हो गया।”

जयदेवजीः “ठीक है भाई ! मैं निकल जाता हूँ। जैसी भगवान की मर्जी।”

जयदेव जी तो हरिनाम का जप करते-करते घर छोड़कर बाहर निकल गये। जयदेव जी जा रहे थे, उस समय वह ब्याजखोर भी साथ में था। इतने में उसके नौकर दौड़ते-दौड़ते आये और बोलेः “घर में आग लग गयी है।” यह सुनकर ब्याजखोर घबरा गया।

तब जयदेवजी बोलेः “चिन्ता मत करो।”

जयदेवजी भगवान का नाम लेते हुए उस घर में घुसे तो आग शांत हो गयी। जयदेव जी पुनः बाहर निकले तो आग पुनः लग गयी।

यह देखकर उस ब्याजखोर का मन बदल गया किः ʹअरे ! मैंने जयदेव को सताया है। इसके पिता ने तो गिने-गिनाये रूपये लिये थे लेकिन मैंने जुल्म करके इसका पूरा मकान हथिया लिया फिर भी यह शांत रहा। किन्तु विधाता से नहीं सहा गया इसीलिए घर में आग लगी है….।ʹ ब्याजखोर ने जयदेवजी के पैर पकड़े और प्रार्थना करके मकान वापस देते हुए कहाः “अब आप भजन-चिंतन करें। आपके जीवन का निर्वाह भी मैं करूँगा।”

जयदेव जी ने कहाः “तुम्हारे सहारे मेरा जन्म नहीं हुआ है। जिसने मुझे जन्म दिया है, वही मेरा निर्वाह करेगा।”

कुछ समय के बाद जयदेवजी जगन्नाथपुरी के लिए रवाना हुए। मार्ग में भूख लगने पर सत्तू भिगोकर खा लेते। मार्ग में एक ऐसा स्थल भी आया कि न पीने को पानी मिले न खाने को भोजन। नंगे पैर… ऊपर धूप… पास में एक भी पैसा नहीं…. ऐसी स्थिति में चलते-चलते जयदेव जी गिर कर बेहोश हो गये।

इतने में एक ग्वाला आया। उसने मुँह पर पानी छींटा तो बेहोशी दूर हो गयी। फिर उसने खाने को फल दिये, अमृत जैसा पानी पिलाया और बोलाः “आपको जगन्नाथपुरी जाना है न ? मुझे भी वहीं जाना है। चलो, मैं आपको छोड़ देता हूँ।”

ग्वाला के वेश में भगवान उसे जगन्नाथपुरी तक छोड़ने आये। जयदेव को हुआ किः “यह अनजान ग्वाला… रोज मुझे खाने का ला देता था, इसके साथ यात्रा बड़ी सुखद रही। जीव का तो ऐसा स्वभाव नहीं होता कि किसी अपरिचित के ऊपर इतनी दया करे। ये या तो महात्मा हैं या परमात्मा हैं।ʹ आखिर उनसे रहा न गया और पूछ बैठेः “हे ग्वाला ! सच-सच बताओ कि तुम कौन हो ?”

ग्वालाः “मुझे जो जैसा मान ले, मैं  वही हूँ।”

जयदेव जी को समझते देर न लगी किः ʹहो न हो, यही मेरे प्रभु हैं।ʹ ज्यों-ही जयदेव जी पैर पकड़ने को गये तो भगवान छटक गये और बोलेः “अभी कइयों को तीर्थ में पहुँचाना है, जयदेव !”

ऐसा कहकर प्रभु अन्तर्धान हो गये। फिर जयदेव कई वर्षों तक जगन्नाथपुरी में रहे। भिक्षा माँगकर खा लेते और भगवान का भजन करते।

जगन्नाथपुरी में ही सुशील नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसको एक कन्या थी। वह 15 साल की हो चुकी थी। एक रात्रि को उस ब्राह्मण दम्पत्ति को स्वप्न आया जिसमें भगवान जगन्नाथ ने दर्शन देते हुए कहाः “पेड़ के नीचे जो जयदेव बैठा है न, उसे अपनी कन्या का दान कर दो।”

दूसरे दिन सुबह ब्राह्मण दम्पत्ति पहुँचे अपनी कन्या को लेकर जयदेव जी के पास और कन्यादान स्वीकार करने का आग्रह करने लगे। तब जयदेव जी बोलेः “मैं अपना घर भी छोड़कर आया हूँ, कमाता भी नहीं हूँ। मैं एक गरीब ब्राह्मण…. मेरे पास कुछ भी नहीं है तो भला तुम्हारी कन्या का निर्वाह कैसे कर सकूँगा ?”

ब्राह्मणः “हे विप्र ! चाहे आपके पास कुछ भी न हो, भले एक पेड़ के नीचे बैठे हो लेकिन हमें तो भगवान ने स्वप्न में आज्ञा दी है इसलिए यह कन्या हम आपको ही अर्पण करेंगे।”

जयदेव जी के बहुत मना करने पर भी सुशील ब्राह्मण ने कन्यादान कर दिया। वह कन्या भी बड़ी सुशीला थी। उसने अपने पति की भगवद् भक्ति में कोई कमी न आने दी। बड़े प्रेम से भोजन बनाकर भगवान को भोग लगाती, पति को खिलाती, फिर स्वयं खाती। पति की सेवा करते-करते उसमें भी पातिव्रत्य का अनुपम बल आ गया।

घूमते-घामते जयदेव जी ने पुनः अपने गाँव वापस आये। कुछ समय के अंतराल से उन्हें पुनः जगन्नाथपुरी जाने  का मन हुआ। तब तक गीतगोविंद की रचना हो चुकी थी एवं उन्होंने काफी प्रसिद्धि पा ली थी। जब वे एक गाँव में पहुँचे तब गाँव वालों ने उन्हें पहचान लिया। सत्संग के बाद जब वे विदा होने लगे तो गाँववालों ने उन्हें स्वर्ण मुद्राएँ भेंट दीं।

जयदेवजी धन कमर में बाँधकर वहाँ से रवाना हुए। जंगल का रास्ता था। जिस गाँव से जयदेव जी सत्संग करके आ रहे थे, उस गाँव के चार आदमियों की नज़र जयदेव जी पर थी। बुरी नीयत थी उनकी। जरूरी नहीं कि सत्संग में सभी सज्जन ही आयें। उन चार आदमियों ने, जो वास्तव में डाकू ही थे, जयदेव जी का पीछा किया और जयदेवजी की रकम छीनकर, उनके हाथ पैर की उँगलियाँ तोड़कर उन्हें कुएँ में धकेल दिया ताकि जयदेवजी कहीं जा न सकें। डाकुओं को भय था कि यदि लोगों को पता चलेगा तो वे राजा से कहकर उन्हें पकड़वा देंगे और हमें मृत्युदंड मिल जायेगा।”

जयदेवजी फिर भी इतने शांत और मस्त थे कि कुएँ में पड़े-पड़े ही गाने लगेः “वाह प्रभु ! तेरी लीला अपरंपार है ! प्रभु ! तेरी माया अपरंपार है ! सुख आया और गया, दुःख आया है वह भी जायेगा, लेकिन तू तो सदा हमारे साथ है।” दुःख के प्रसंग में भी उन्होंने अपना सुखद भगवद् भाव बना लिया।

इतने में गौडेश्वर के राजा लक्ष्मणसेन वहाँ से गुजरे। उन्हें लगा कि ʹकुएँ में से मधुर आवाज आ रही है और यह आवाज जयदेवजी की लगती है।ʹ अंदर झाँककर देखा तो जयदेवजी ही कुएँ में बँधे पड़े हैं। राजा ने अपने सैनिकों को उतारा कुएँ में और जयदेवजी को निकलवाया। बाहर आने पर राजा ने पूछाः “जयदेवजी ! आपकी यह हालत किसने की ?”

जयदेवजीः “महाराज ! यह मत पूछो।”

राजाः “नहीं नहीं… बता दो, हम उनको ठीक कर देंगे। हम चारों और सिपाही भेजकर उऩ्हें पकड़वायेंगे। आपको दुःख देने वालों की खबर ले लेंगे।”

जयदेवजीः “खबर लेनी ही है तो अपनी खबर ले लें कि हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? अपना स्वरूप क्या है ? यह खबर लेने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। दूसरों की खबर कब तक लेंगे, राजन् ! भूल जाइये।”

राजा ने बहुत आग्रह किया फिर भी जयदेव जी अडिग रहे और उन्होंने नाम नहीं बताया। यह देखकर राजा की श्रद्धा और भी बढ़ गयी। उसने जयदेवजी को अपना गुरु बना लिया और उन्हें पंचरत्न सभा का अध्यक्ष बना दिया। कुछ समय बाद जयदेवजी की अध्यक्षता में एक ज्ञान सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें देश-देशान्तर से कई साधु-संन्यासी, विद्वान, पंडित आदि आये।

 

उन डाकूओं ने सोचा कि ʹएक जयदेव को लूटने से हमें इतना खजाना मिल गया तो इस सम्मेलन में तो कई साधू एकत्रित होंगे। उन साधुओं के बीच जाना हो तो साधु के कपड़े पहनना ठीक रहेगा।ʹ वे चार डाकू साधु के वेश में पहुँचे राजदरबार में।

उस सभा में साधुओं का तो सत्कार होता था। जहाँ साधुओं का सत्कार होता था वहाँ पहुँचने पर डाकू देखकर स्तब्ध रह गयेः “अरे ! जिसका धन छीनकर हाथ-पैर बाँधकर हमने कुएँ में फेंका था वही आज राजा से भी ऊँचे आसन पर बैठा है ! अब तो हमारी खैर नहीं। क्या करें ? वापस भी नहीं जा सकते और आगे जाना खतरे से खाली नहीं है….”

इतने में जयदेव जी की नजर उन साधुवेशधारी डाकुओं पर पड़ी। उनकी ओर निर्देश करते हुए वे राजा से बोलेः “राजन् ! ये हमारे चार मित्र हैं। इनका अच्छी तरह से स्वागत कीजिये।”

अब तो वे डाकू भाग भी नहीं सकते थे। उन्हें आगे ही आना पड़ा। वे चारों काँपने लगे।

इतने में जयदेवजी ने कहाः “राजन् ! आप मेरा सत्कार करके जो भेंट-पूजा देना चाहते हैं वह मैं तो नहीं लेना चाहता हूँ, मेरे बदले में इन्हीं को दे दीजिये।”

डाकुओं को हुआ कि ऐसा कहकर जयदेव जी हमारी पोल खोल देंगे और हमें शूली पर चढ़ना पड़ेगा।

किन्तु जयदेवजी के मन में उनके लिए सदभावना थी। राजा ने बड़े सत्कार से चाँदी के बर्तन, स्वर्ण-मुद्राएँ, वस्त्रादि प्रदान किये। जब वे विदा होने लगे तो राजा ने सैनिकों से कहाः “ये चार महात्मा जयदेव जी के पुराने मित्र हैं। इन्हें जरा गाँव के बाहर जंगल पार करवाकर उनके गाँव तक पहुँचा दो।”

सैनिक एवं वजीर आदि उन साधुवेशधारी डाकुओं को विदा करने गये। जंगल में वजीर ने पूछाः “जयदेवजी के पास इतने बड़े साधु आये, बड़े-बड़े संन्यासी आये फिर भी इतना सम्मान किसी का भी नहीं हुआ, जितना आपका हुआ। अतः आप सच बताइये कि जयदेव जी आपके क्या लगते हैं ?”

डाकू तो डाकू थे। उन्होंने सोचाः “अगर सच बता देंगे तो मुसीबत आयेगी।” हकीकत में सत्य बताने से मुसीबत नहीं आती है। थोड़ी बहुत आती हुई दिखती है तो पाप कटते हैं।

साधुवेशधारी उन डाकुओं ने कहाः “जयदेव तो हमारे गाँव के हैं। वे हमारे बचपन के साथी हैं। हम एक साथ हमारे नगर के राजा साहब के यहाँ जासूसी का काम करते थे, लेकिन उन्होंने तो राजा की संपत्ति हड़प कर ली। रानी पर उनकी बुरी नजर थी इसलिए राजा ने उनको मारकर कुएँ में डाल देने का आदेश हमें दिया था लेकिन ये हमारे पुराने मित्र थे। हमको दया आ गयी इसलिए हमने उनको मारा नहीं बल्कि हाथ-पैर की उँगलियाँ काटकर उन्हें जिंदा ही कुएँ में फएंक दिया और साबिती के रूप में उनकी काटी हुई उँगलियाँ राजा के पास ले गये।”

इतना ही कहना था और उस परमात्मा से सहा न गया, जहाँ वे चारों खड़े थे वहीं धरती फट गयी और चारों जमीन में बुरी तरह दब मरे।

उन लोगों ने झूठ कहा लेकिन सृष्टिकर्ता से सहन नहीं हुआ क्योंकि जो शांत है, परहितपरायण है, उसका थोड़ा भी अगर कोई बिगाड़ता है या धोखा करता है तो ईश्वर से सहन नहीं होता है।

चारों को नष्ट होते देखकर वजीर चकित हो गया। उनको दिया हुआ सामान वापस लाया और राजा के चरणों में रखते हुए पूरी घटना सुना दी।

तब राजा ने पैर पकड़े जयदेवजी के और बोलेः “जयदेव जी अब तो सच-सच बताइये ! आप तो कह रहे थे कि ʹये मेरे पुराने मित्र हैंʹ और वे आपके लिए ऐसा कह रहे थे। उनकी बात सुनकर सृष्टिकर्ता से सहन नहीं हुआ और धरती फट गयी। चारों उसमें दब मरे। आप सच बताइये कि वे कौन थे ?”

जयदेवजीः “महाराज ! आपने बहुत आग्रह करके पूछा था तब भी मैंने नहीं बताया था। मैंने सोचा था कि उनको पैसे की कमी है इसलिए डाका डालते हैं और मुझे भी लूटा है। अगर उनका धन मिल जायेगा तो उनका स्वभाव सुधर जायेगा ऐसा सोचकर मैंने आपसे उन्हें धन दिलवाया। लेकिन वे नहीं बदले, जिसके परिणामस्वरूप भगवान ने उन्हें बड़ी खतरनाक सजा दी।”

जो व्यक्ति उदारात्मा है, प्राणीमात्र का हितैषी है उससे कोई अन्याय करे, उसका अहित करे तो वह भले सहन कर ले किन्तु सृष्टिकर्ता देर-सबेर उसे अपराध का दंड देता ही है।

संत का निंदक महाहत्यारा।

संत का निंदक परमेश्वर मारा।।

संत के निंदक की पूजे न आस।

नानक ! संत का निंदक सदा निराश।।

आप निश्चिंत रहो, शांत रहो, आनंदित रहो तो आपका तो मंगल होगा लेकिन अगर आपका कोई अमंगल करेगा तो देर-सबेर कुदरत उसका स्वभाव बदल देगी, वह आपके अनुकूल हो जायेगा। अगर वह आपके अनुकूल नहीं होता तो फिर चौदह भुवनों में भी उसे शांति नहीं मिलेगी और जिसके पास शांति नहीं है, फिर उसके पास बचा ही क्या ? उसका तो सर्वनाश है। दिन का चैन नहीं, रात की नींद नहीं, हृदय में शांति नहीं तो फिर और जो कुछ भी है, उसकी कीमत भी क्या ?

पद्मपुराण में आता है किः ʹजिसके पास क्षमा है, उसने सब व्रत कर लिये। जिसके पास संयम है, उसने सब तीर्थों में स्नान कर लिया। जिसके पास दया है, उसने सब जप कर लिये। जिसके पास संतोष है, उसने सब धन कमा लिया।ʹ

जयदेव आध्यात्मिक धन के धनी थे। भागवत के श्रोता-वक्ता जानते हैं गीत-गोविंद के कर्त्ता जयदेवजी का नाम।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23,24 अंक 56

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तुलसी


तुलसी को विष्णुप्रिया कहा जाता है। हिन्दुओं के प्रत्येक शुभ कार्य में, भगवान के प्रसाद में तुलसीदल का प्रयोग होता है। जहाँ तुलसी के पौधे अत्यधिक मात्रा में होते हैं वहाँ की हवा शुद्ध व पवित्र रहती है। तुलसी के पत्तों में एक विशेष प्रकार का द्रव्य होता है जो कीटाणुयुक्त वायु को शुद्ध करता है। वैज्ञानिक मतानुसार तुलसी में विद्युत-शक्ति अधिक होती है जो कि ग्रहण के समय सूर्य से निकलने वाली हानिकारक किरणों का प्रभाव खाद्य पदार्थों पर नहीं होने देती। अतः सूर्य-चन्द्र ग्रहण के समय खाद्य पदार्थों पर तुलसी की पत्तियाँ रखने की परम्परा है।

तुलसी के पास बैठकर प्राणायाम करने से कीटाणुओं का नाश होकर शरीर में बल, बुद्धि व ओज की वृद्धि होती है। प्रातः खाली पेट तुलसी के 8-10 पत्ते खाकर ऊपर से एक गिलास पानी पीकर टहलने से बल, तेज, स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है व जलंदर भगंदर, कैंसर जैसी बीमारियाँ पास भी नहीं फटकती हैं।

तुलसी में एक विशिष्ट क्षार होता है। तुलसी का स्पर्श व दर्शन भी लाभदायी है। यह शरीर की विद्युत को बनाये रखती है। तुलसी की माला धारण करने वाले को बहुत-से रोगों से मुक्ति मिलती है।

तुलसीदल में एक उत्कृष्ट रसायन है। वह गर्म और त्रिदोषनाशक है। रक्तिविकार, ज्वर, वायु, खांसी, कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है। सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा व हड्डियों के रोग दूर होते हैं। काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं। तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वात-पित्त विकार दूर होते हैं व भूख खुलकर लगती है। तुलसी की चाय में तुलसीदल, सौंफ, इलायची, पुदीना, सौंठ, कालीमिर्च, ब्राह्मी, दालचीनी आदि का समावेश किया जा सकता है।

तुलसी सौन्दर्यवर्धक व रक्तशोधक है। सुबह शाम तुलसी व नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर घिसने से काले दाग दूर होते हैं व सुन्दरता बढ़ती है। ज्वर, खांसी, श्वास के रोग में तुलसी का रस 3 ग्राम, अदरक का रस 3 ग्राम व एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम लेने से फायदा होता है। तुलसी के रस से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। तुलसी का रस कृमिनाशक है। तुलसी के रस में नमक डालकर नाक में बूँदे डालने से मूर्छा हटती है, हिचकी रूकती है। यह किडनी की कार्यशक्ति को बढ़ाती है। रक्त में स्थित कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करती है। इसके सेवन से एसिडिटी, स्नायुओं का दर्द, सर्दी-जुकाम, मेदवृद्धि, मासिक सम्बंधी रोग, बच्चों के रोग, विशेषकर सर्दी, कफ, दस्त, उल्टी आदि में लाभ करती हैं। तुलसी हृदयरोग में आश्चर्यजनक लाभ करती है।

तुलसी की सूखी पत्तियों को अच्छी तरह पीसकर उसका गाढ़ा लेप चेहरे पर लगाने से त्वचा के छिद्र खुल जाते हैं। पसीने के साथ अशुद्धि निकल जाने से त्वचा स्वच्छ, दुर्गन्धरहित, तेजस्वी व मुलायम बनती है। चेहरे की कान्ति बढ़ती है।

अनेक रोगों की एक दवाः तुलसी के 25-30 पत्ते लेकर खरल में अथवा सिलबट्टे पर पीसें, जिस पर कोई मसाला न पीसा गया हो। इस पिसे हुए तुलसी के गूदे में 5-10 ग्राम मीठा दही मिलाकर अथवा 5-7 ग्राम शहद मिलाकर 30-40 दिन सेवन करने से गठिया का दर्द, सर्दी, जुकाम, खांसी (यदि रोग पुराना हो तो भी), गुर्दे (किडनी) की पथरी, सफेद दाग या कोढ़, शरीर का मोटापा, वृद्धावस्था की दुर्बलता, पेचिश, अम्लता, मन्दाग्नि, कब्ज, गैस, दिमागी कमजोरी, स्मरणशक्ति का अभाव, पुराने से पुराना सिरदर्द, बुखार, रक्तचाप (उच्च या निम्न) हृदयरोग, शरीर की झुर्रियाँ, श्वासरोग, कैंसर आदि रोग दूर हो जाते हैं।

कैंसर जैसे कष्टप्रद रोग में इस दवा को दो या तीन बार सेवन कर सकते हैं।

इसके सेवन से विटामिन ʹएʹ तथा ʹसीʹ की कमी दूर हो जाती है। खसरा निवारण के लिए यह रामबाण इलाज है।

किसी भी प्रकार के विषविकार में तुलसी का स्वरस यथेष्ट मात्रा में पीना चाहिए।

20 तुलसी पत्र एवं 10 कालीमिर्च एक साथ पीसकर हर आधे से दो घंटे के अंतर से बार-बार पिलाने से सर्पविष उतर जाता है। तुलसी का स्वरस लगाने से जहरीले कीड़े, ततैया, मच्छर का विष उतर जाता है।

तुलसी के स्वरस का पान करने से प्रसव-वेदना कम होती है।

स्वप्नदोषः 10 ग्राम तुलसी के बीज मिट्टी के पात्र में रात को पानी में भिगो दें व सुबह सेवन करें। इससे लाभ होता है।

तुलसी के बीजों को कूटकर व गुड़ में मिलाकर मटर के बराबर गोलियाँ बना लें। प्रतिदिन सुबह शाम दो-दो गोली खाकर ऊपर से गाय का दूध पीने से नपुंसकत्व दूर होता है, वीर्य में वृद्धि होती है, नसों में शक्ति आती है, पाचन शक्ति में सुधार होता है। हर प्रकार से हताश पुरुष भी सशक्त बन जाता है।

जल जाने परः तुलसी के स्वरस व नारियल के तेल को उबालकर, ठण्डा होने पर जले भाग पर लगायें। इससे जलन शांत होती है तथा फफोले व घाव शीघ्र मिट जाते हैं।

विद्युत का झटकाः विद्युत के तार का स्पर्श हो जाने या वर्षा ऋतु में बिजली गिरने के कारण यदि झटका लगा हो तो रोगी के चेहरे और माथे पर तुलसी का स्वरस मलें। इससे रोगी की मूर्च्छा दूर हो जाती है।

जलशुद्धिः दूषित जल की शुद्धि के लिए जल में तुलसी की हरी पत्तियाँ डालें। इससे जल शुद्ध व पवित्र हो जाएगा।

शक्ति की वृद्धिः शीतऋतु में तुलसी की 5-7 पत्तियों में 3-4 काली मिर्च तथा 3-4 बादाम मिलाकर, पीसकर सेवन करने से हृदय को शक्ति प्राप्त होती है।

छोटे बच्चों के रोगों में सेवन विधिः सूखी खांसी में तुलसी की कोंपलें व अदरक समान मात्रा में लेकर पीसकर शहद के साथ चटाएँ। दाँत निकलने से पहले यदि बच्चों को तुलसी का रस पिलाया जाये तो उनके दाँत सरलता से निकलते हैं। दाँत निकलते समय बच्चे को दस्त लगे तो तुलसी की पत्तियों का चूर्ण अनार के शरबत के साथ पिलाने से लाभ होता है। तुलसी की पत्तियों को नींबू के रस में पीसकर लगाने से दाद-खाज मिट जाती है। तुलसी की पत्तियाँ तथा सूखे आँवलों को पानी में भिगोकर रख दीजिये। प्रातःकाल उसे छानकर उस पानी से सिर धोने से सफेद बाल भी काले हो जाते हैं तथा बालों का झड़ना रूक जाता है।

सावधानीः तुलसी निषेध

उष्ण प्रकृति वाले, रक्तस्राव व दाहवाले व्यक्तियों को ग्रीष्म व शरद ऋतु में तुलसी का सेवन नहीं करना चाहिए। तुलसी के सेवन के डेढ़-दो घंटे तक दूध नहीं लेना चाहिए। अर्श-मस्से के रोगियों को तुलसी व काली मिर्च का उपयोग एक साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि इनकी तासीर गर्म होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 56

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परमात्मप्राप्ति के सात सचोट उपाय


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कथा कीर्तन कलियुगे, भवसागर की नाव।

कह कबीर भव तरन को और नाहि उपाय।।

कलियुग में परमात्म-प्राप्ति के लिए वे साधन, वातावरण अथवा शरीर अभी आपके पास नहीं है जो अन्य युगो थे जिससे तप करके समाधि करके परमात्म-प्राप्ति की जा सके। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कलियुग में परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही परमात्म-साक्षात्कार कर मुक्ति प्राप्त करना है। इस कलिकाल में भी परमात्म-प्राप्ति के कुछ सचोट उपाय हैं।

प्रथम उपायः परमात्म तत्त्व की कथा का श्रवण करें।

कथा कीर्तन जा घर भयो, संत भयो मेहमान।

वा घर प्रभु वासा कीन्हा, वो घर है वैकुण्ठ समान।।

एक पंडित जी कथा कर रहे थे। कथा के बीच में उन्होंने कहाः राम नाम भव सिंधु तरहि। राम नाम ऐसा है कि वह भवसिंधु से तार देता है।

एक ग्वालिन दूध बेचकर वहाँ से गुजर रही थी। उसके कान में कथा की यह बात आ गई कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है।ʹ वह ग्वालिन दो घड़े सिर पर रखकर दूध बेचने जाती और लौटते समय उन खाली घड़ों में सामान भर लेती थी। उस दिन लौटते समय नदी के किनारे पर पहुँच कर वह सोचने लगीः “आज नाव वाला नहीं है और पंडित जी ने कहा था कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है…. राम नाम से तो पत्थर भी तैरते हैं।ʹ दूध बेचने वाली उस ग्वालिन ने आगे सोचाः ʹपत्थर भी तैर सकते हैं, फिर मैं तो मनुष्य हूँ। पानी में पत्थर जितना भार तो मनुष्य का होता भी नहीं।ʹ

ʹजय श्रीरामʹ करके वह तो चल पड़ी नदी में। ऐसी चली ऐसी चली कि जाकर दूसरे किनारे लगी। उसने सोचाः ʹहाय राम ! रोज-रोज इतना पैसा मैं नाव वाले को देती थी ! अब वे पैसे पंडित जी की कथा में चढ़ाऊँगी।ʹ अब वह ग्वालिन नाव के बजाय रोज रामनाम के बल पर नदी पार करके दूध बेचने जाने लगी। नाव के पैसे बचने लगे। आने का पैसा और जाने का पैसा दोनों इकट्ठा करते-करते जब एक महीना बीत गया, तब वह पोटली भरकर पंडित जी के पास गई। पंडित ने कहाः “इतना सारा पैसा !ʹʹ ग्वालिन बोलीः “पंडितजी ! आपके वचन से मुझे लाभ हुआ है।”

पंडित जीः “कैसे वचन ?”

माई बोलीः “पंडित जी ! आपने कथा में कहा था कि राम नाम भवसिंधु तरहिं।

राम नाम से मनुष्य भव-सागर तर जाता है। आपके ये वचन मैंने सुने तब से मैं नाव में नहीं बैठती। रोज पानी पर चलकर नदी पार कर लेती हूँ। नदी में डूबती नहीं हूँ। पानी तो लोगों को दिखता है पर मेरे लिए तो मानो…. बस, क्या कहूँ… महाराज !” इतना कहकर माई गदगद हो गई।

पंडित ने सोचाः ʹअरे ! मेरी कथा से ग्वालिन का रोज आने-जाने का खर्च बच रहा है ! मुझे भी उस गाँव में जाना है।ʹ दो दिन बाद पंडितजी नदी किनारे पहुँच गये।

इतने में माई आयी और जय श्री राम कहकर चल पड़ी। माई को देखकर पंडित के आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! उन्होंने अपने दो चार आदमियों को बुलाकर कहाः “देखो राम-नाम में शक्ति तो है। मैं भी राम-नाम लेकर तर तो जाऊँगा लेकिन यदि गड़बड़ हो तो मेरी कमर में तुम रस्सी बाँध दो, अगर डूबने लगूँ तो तुम मुझे खींच लेना।”

पंडित और मसालची दोनों बूझे नाहिं।

औरों को उजाला करे आप अंधेरे माहिं।।

वह माई पंडित के वचन पर श्रद्धा करके बिना नाव के नदी पार कर जाती थी लेकिन पंडित वर्षों से भागवत की कथा करता था पर भगवत्तत्त्व का, रामतत्त्व का ज्ञान नहीं था। उसमें संशय था।

ʹराम-रामʹ कहकर नदी में उतरते ही वह तो डूबने लगा। लोगों ने रस्सी खींचकर उसे बाहर निकाला।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की जो फाकी करे वा ना फकीर।।

दूसरा उपायः परमात्मप्राप्ति के लिए दूसरी बात है सत्पुरुषों के सान्निध्य में रहें। जैसा संग वैसा रंग। संग का रंग अवश्य लगता है। यदि सज्जन व्यक्ति भी दुर्जन का अधिक संग करे तो उसे कुसंग का रंग अवश्य लग जायेगा। इसी प्रकार यदि दुर्जन से दुर्जन व्यक्ति भी महापुरुषों का सान्निध्य ले तो देर-सबेर वह भी महापुरुष हो जायेगा। वालिया लुटेरे ने नारदजी का संग किया और महर्षि वाल्मीकि बन गया।

तीसरा उपायः प्रेमपूर्वक नामजप-संकीर्तन करें। तुलसीदासजी कहते हैं-

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

यदि मंत्र किसी ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा प्राप्त हो और नियमपूर्वक उसका जप किया जाय तो कितना भी दुष्ट अथवा भोगी व्यक्ति हो, उसका जीवन बदल जायेगा। दुष्ट की दुष्टता सज्जनता में बदल जायेगी। भोगी का भोग योग में बदल जायेगा।

चौथा उपायः प्रसन्न चित्त से सुख-दुःख को भगवान का विधान समझें। परिस्थितियों को आने जाने वाली समझकर बीतने दें। घबड़ाये नहीं या आकर्षित न होवें।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

समदुःखसुखः क्षमी।

जिनको अपने आत्मा का प्रकाश नहीं है ऐसे मनुष्य सुख में भी स्वस्थ नहीं रहते और दुःख में भी स्वस्थ नहीं रहते। सुख आये तो उसे टिकाये रखना चाहते हैं और दुःख को दूर करना चाहते हैं। इसलिए सुख और दुःख दोनों में अस्वस्थ रहते हैं लेकिन जिनको आत्मा का प्रकाश मिला है वे सुख-दुःख में स्वस्थ रहते हैं। जो स्वस्थ है उसको दुःख भयभीत नहीं कर सकता। जो संपूर्ण स्वस्थ है, वह जहर को भी पचा लेता है। भीम को जहर दिया गया तो उसकी शक्ति और बढ़ गयी।

जो स्वस्थ है उनको संसार में जहर के कड़वे घूँट मिलें तो भी उऩकी योग्यता बढ़ती है और संसार का प्यार मिलें तो भी वे आनंद में रहते हैं। भक्तिमति मीरा को जहर का प्याला मिला फिर भी वे स्वस्थ रहीं तो जहर भी उनके लिए अमृत बन गया और वे ʹमेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई…ʹ कहकर कन्हैया के प्रेम में ही मस्त रही।

प्रसन्नचित्त से सुख-दुःख को भगवान का प्रसाद समझते हुए सम रहना योग है।

मुस्कुराकर गम का जहर, जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

पाँचवाँ उपायः सबको भगवान का अंश मानकर सबके हित की भावना करें। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है इसलिए कभी शत्रु को भी बुरा नहीं सोचना चाहिए बल्कि प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उसे सदबुद्धि दे, सन्मार्ग दिखायें। ऐसी भावना करने से शत्रु की शत्रुता भी मित्रता में बदल सकती है।

छठा उपायः ईश्वर को जानने की उत्कण्ठा जागृत करें। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके हृदय में ईश्वर के लिए चाह होगी, उस रसस्वरूप को जानने की जिज्ञासा होगी, उस आनन्दस्वरूप के आनंद के आस्वादन की तड़प होगी, प्यास होगी वह अवश्य ही परमात्म-प्रेरणा से संतों के द्वार तक पहुँच जायेगा और देर-सबेर परमात्म-साक्षात्कार कर जन्म–मरण से मुक्त हो जायेगा।

सदगुरु की सेवा किये, सबकी सेवा होये।

सदगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय।।

सातवाँ उपायः एकान्त में प्रार्थना और ब्रह्माभ्यास करें। यदि इन सात बातों को जीवन में उतार लें तो अवश्य ही परमात्मा का अनुभव होगा।

यदि आप चाहो कि सब आपको प्यार करें तो आप दूसरों के काम आओ, दूसरे तुम्हें स्नेह करेंगे और भगवान के, गुरु के दैवी कार्य में भागीदार होंगे तो वह भजन हो जायेगा। कुछ पाने की आशा नहीं रखोगे तो मुक्ति मिल जायेगी। रूचिपूर्ति के चक्कर में न पड़कर रूचि की निवृत्ति करना चाहिए। इच्छाओं की पूर्ति में तो बँधन है, इसके लिए अनेक लोगों की गुलामी भी करनी पड़ती है। लेकिन इच्छाओं की निवृत्ति कर, ईश्वर में विश्रांति पाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने में आप स्वतंत्र हैं। अनुकूलता की लालच  न रखें तो दोनों आपके दास हो जायेंगे और आप सच्चे सुख के स्वामी बन जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 6,7,20 अंक 56

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