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गोपियों की अनन्य प्रीति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

जब तक नश्वर पदार्थों में आसक्ति होती है, नश्वर चीजों में प्रीति होती है और मिटने वालों का आश्रय होता है जब तक अमिट तत्त्व का बोध नहीं होता तब तक जन्म-मरण का चक्कर नहीं मिटता। यदि हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम हो जाये तो फिर आज तक हमने जो कुछ जाना, जो कुछ पाया, हमारे लिए उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी और दूसरा कुछ जानने की या पाने की इच्छा भी नहीं रहेगी। हमें देखना यह है कि हमारी प्रीति सचमुच परमात्मा में है या परमात्मा का अवलंबन लेकर नश्वर चीजों की इच्छाएँ पूरी करने में है।

ईश्वर में यदि सच्चे अर्थ में प्रीति हो जाती है तो फिर भक्त ईश्वर से नश्वर चीजों की माँग नहीं करता, वरन् भगवान में ही अपनी इच्छाओं को मिला देता है।

श्रीकृष्ण भगवान ने भी यह बात सुन्दर तरीके से गीता में कही हैः

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।

ʹहे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उनको सुन।ʹ गीताः 7.1

ज्ञानं तेहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।

“मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता। गीताः 7.2

ईश्वरपरायण होने से, ईश्वर को अनन्य प्रेम करने से भक्त संसार की मोह-माया में से छूट जाता है और मुक्त हो जाता है।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पटरानियों का अभिमान दूर करने के लिए तथा उन्हें गोपियों की निंदा करने से रोकने के लिए एक लीला की।

श्रीकृष्ण चिल्लाने लगेः “पेट में जोरों का दर्द है…. सहा नहीं जाता… कुछ करो….”

बहुत सारे हकीम आये, उपचार हुआ लेकिन दर्द कम न हुआ। इतने में नारद मुनि वहाँ पहुँच गये। वे समझ गये कि यह भगवान की ही कोई लीला है। उन्होंने भगवान से विनम्र भाव से पूछाः

“अब आप ही बतायें कि कैसे आपका दर्द ठीक हो सकता है ?”

श्रीकृष्ण भगवानः “एक ही इलाज है… मेरे अनन्य भक्त की चरणरज दवाई के साथ लेने से ही पेट की पीड़ा दूर हो सकती है।”

नारदजी गये भगवान की पटरानियों के पास और बोलेः “आप तो भगवान की सच्ची भक्त हैं। भगवान के पेट की पीड़ा दूर करने के लिए आपमें से कोई भी अपनी चरणरज मुझे दे दीजिये।”

पटरानियों ने तुरंत ही इन्कार करते हुए कहाः “हमारी चरणरज भगवान खायें ? हमें क्या नर्क में जाना है ? नहीं, नहीं, हम अपनी चरणरज हरगिज नहीं देंगे।”

नारदजी गये वृंदावन में गोपियों के पास। उन्होंने गोपियों को भगवान के रोग की बात जैसे ही बतायी, वैसे ही ʹकैसे हुआ…. क्या हुआ.. किस तरह मिटेगा….?ʹ – ऐसे प्रश्नों की झड़ी नारदजी के ऊपर लग गई। नारदजी ने सब वृत्तान्त बताकर आखिर में कहाः “दवाई तो आप सबके पास है लेकिन देगा कोई नहीं।”

गोपियाँ- ऐसा हो सकता है कि हमारे पास इलाज हो और हम न दें ? आप शीघ्र ही बतायें कि हम हमारे प्रेमास्पद के लिए क्या कर सकते हैं ?”

नारदजीः “नहीं, तुम नहीं दे सकोगी। यदि दोगी तो नर्क में जाना पड़ेगा।”

गोपियाँ- “हमारे इष्ट का, हमारे प्रेमास्पद का दुःख यदि मिट सकता है तो हम नर्क में जाने के लिए भी तैयार हैं, सिर्फ आप इलाज बताइये।”

नारदजीः “भगवान के भक्त की चरणरज यदि उन्हें दवाई के साथ मिलाकर पिलायी जाय तो उनके पेट का दर्द दूर हो सकता है।”

गोपियों ने पैर पसार दिये और बोलीं- “ले लो।”

नारदजीः “सोच लो, श्रीकृष्ण के लिए अपनी चरणधुलि दे रही हो, रौरव नर्क मिलेगा।”

गोपियाँ- “हमारे तो प्राण, तन, मन, धन, सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं। उनकी पीड़ा दूर करने के लिए हमें एक बार नहीं हजार बार नर्क में जाना पड़े तो भी हमें स्वीकार है।”

नारदजी ने तो खुश होते हुए चरणधूलि की पोटली बनायी और पहुँच गये भगवान के पास।

भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी से कहाः “तुमने गोपियों को बताया नहीं कि ऐसा करने से उन्हें नर्क में जाना पड़ेगा ?”

नारदजीः “मैंने तो बहुत समझाया था लेकिन वे कहती हैं कि एक क्षण के लिए भी यदि भगवान की पीड़ा दूर होती हो तो हम हजार बार नर्क में जाने के लिए राजी हैं।”

गोपियों की अनन्य प्रीति देखकर पटरानियों का मुँह लज्जा से नीचे हो गया। अनन्य भक्त के लिए तो भगवान भी अनुकूल हो जाते हैं। कहा जाता हैः

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

इस प्रकार भगवान में आसक्त होकर मिथ्या जगत की नश्वर चीजों की आसक्ति छोड़ते जाओ। जितनी नश्वर पदार्थों की इच्छा मिटाते जाओगे, उतना ही उस प्यारे परमेश्वर के करीब आते जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 10,11,12 अंक 56

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गर्भपात महापाप


परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज

जैसे ब्रह्महत्या महापाप है ऐसे गर्भपात भी महापाप है। शास्त्र में तो गर्भपात को ब्रह्महत्या से भी दुगुना पाप बताया गया है।

यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने।

प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते।।

(पाराशरस्मृतिः 4.20)

ʹब्रह्महत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है। इस गर्भपातरूपी महापाप का कोई प्रायश्चित नहीं है। इसमें तो उस स्त्री का त्याग कर देने का ही विधान है।ʹ

गर्भस्राव (सफाई), गर्भपात और भ्रूणहत्या इन तीनों को किसी भी तरह से करने पर महापाप लगता है।

एक कहावत है कि अपने द्वारा लगाया हुआ विषवृक्ष भी काटा नहीं जाता। विषवृक्षोपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्। जिस गर्भ को स्त्री-पुरुष मिलकर पैदा करते हैं, स्वयं ही उसकी हत्या कर देना कितना महान पाप है !

गर्भ में आया हुआ जीव जन्म लेने के बाद न जाने कितने अच्छे-अच्छे लौकिक और पारमार्थिक कार्य करता, समाज व देश की सेवा करता, संत-महापुरुष बनकर अनेक लोगों को सन्मार्ग में लगाता, अपना तथा औरों का कल्याण करता, परन्तु जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या कर देना कितना महान पाप है।

मनुष्यों में हिन्दू जाति सर्वश्रेष्ठ है। उसमें बड़े विलक्षण ऋषि-मुनि, संत, महात्मा, दार्शनिक, वैज्ञानिक, विचारक पैदा होते आये हैं। जब इस जाति के मनुष्यों को जन्म ही नहीं लेने देंगे तो फिर ऐसे श्रेष्ठ विलक्षण पुरुष विधर्मियों के यहाँ पैदा होंगे।

जैसे, अब तक हिन्दुओं के यहाँ लगभग बारह करोड़ शिशुओं का जन्म रोका गया है। अतः वे बारह करोड़ शिशु विधर्मियों के यहाँ जन्म लेंगे तो विधर्मियों की संख्या हिन्दुओं की संख्या से 24 करोड़ बढ़ जायेगी। क्योंकि जिन व्यक्तियों ने संततिनिरोध किया है, उनके आगे होने वाली कई संतानों का भी स्वतः निरोध हुआ है। अगर प्रत्येक व्यक्ति की दो या तीन संतानों का भी निरोध माना जाय तो यह संख्या चौबीस या छत्तीस करोड़ तक पहुँच जाती है। विधर्मियों की संख्या बढ़ेगी तो फिर वे हिन्दुओं का ही नाश करेंगे। अतः हिन्दुओं को अपनी संतान-परम्परा नष्ट नहीं करनी चाहिए।

मुसलमान भाई तो कहते हैं कि संतान होना खुदा का विधान है। उसको बदलने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। जो उसको विधान को बदलते हैं वे अनाधिकार चेष्टा करते हैं। परिवार नियोजन करने वालों की संख्या कम हो जाती है। अतः मुसलमानों ने यह सोचा कि परिवार नियोजन नहीं करेंगे तो अपनी जनसंख्या बढ़ेगी और जनसंख्या बढ़ने से अपना ही राज्य हो जायेगा क्योंकि वोटों का जमाना है। इसीलिए वे केवल अपनी संख्या बढ़ाने की धुन में हैं। परंतु हिन्दू केवल अपनी थोड़ी सी सुख सुविधा के लिए नसबन्दी, गर्भपात आदि महापाप करने में लगे हुए हैं। अपनी संख्या तेजी से कम हो रही है-इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीं है और परलोक में इस महापाप का भयंकर दण्ड भोगना पड़ेगा-इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीं है। केवल खाने-पीने, सुख भोगने की तरफ तो पशुओं की भी दृष्टि रहती है। अगर यही दृष्टि मनुष्य की भी है तो यह मनुष्यता नहीं है।

लोग गर्भ-परीक्षण करवाते हैं और गर्भ में कन्या हो तो गर्भपात करवा देते हैं। क्या यह नारी जाति को समान अधिकार देना हुआ ? क्या यह उसका सम्मान करना हुआ ?

समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार हरियाणा के बीस वर्ष के बाद लड़कों को कुँवारा रहना पड़ेगा क्योंकि मादा भ्रूणहत्या से लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ कम उत्पन्न हुई हैं। वर्ष 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्रों में 6233 लड़कियाँ पैदा हुईं जबकि 10862 लड़के जन्मे। 1994-95 में 11186 लड़कों की तुलना में 8234 लड़कियाँ ही जन्मीं।

पुलिस द्वारा हरियाणा के रोहतक जिले में किये गये अध्ययन के मुताबिक वर्ष 1993-94 में 100 लड़कों के पीछे 66 लड़कियों का जन्म हुआ। इस प्रकार केवल दो तिहाई लड़के ही परिणय-सूत्र में बँध पायेंगे। शेष को कुँआरा रहने की पीड़ा भोगनी पड़ेगी।

परिवार नियोजन के कार्यक्रम से जीवन-निर्वाह के साधनों में तो वृद्धि नहीं हुई है, पर ऐसी अनेक बुराइयों की वृद्धि अवश्य हुई है जिनसे समाज का घोर पतन हुआ है।

पहले जनसंख्या कम थी तो विदेशों से अन्न मँगवाना पड़ता था, अब जनसंख्या बढ़ी तो हम निर्यात कर रहे हैं। अतः जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं वहाँ वर्षा अधिक होती है तो क्या मनुष्य अधिक होंगे तो अन्न अधिक नहीं होगा ?

नसबन्दी के द्वारा पुरुषत्व का अवरोध करने से, नाश करने से शारीरिक शक्ति भी नष्ट होती है और उत्साह, निर्भयता आदि मानसिक शक्ति भी नष्ट होती है।

जो नसबन्दी के द्वारा अपना पुरुषत्व नष्ट कर देते हैं, वे नपुंसक (हिजड़े) हैं। उनके द्वारा पितरों को पिण्ड-पानी नहीं मिलता। ऐसे पुरुष को देखना भी अशुभ माना गया है।

जिन माताओं ने नसबन्दी ऑपरेशन करवाया है उनमें से बहुतों को लाल एवं श्वेत प्रदर हो गया है। ऑपरेशन करवाने से शरीर में कमजोरी आ जाती है, उठते-बैठते समय आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है, छाती व पीठ में दर्द होने लगता है और काम करने की हिम्मत नहीं होती।

जो स्त्रियाँ नसबन्दी ऑपरेशन करा लेती हैं उनका स्त्रीत्व अर्थात् गर्भ-धारण करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसी स्त्रियों का दर्शन भी अशुभ है, अपशकुन है।

नसबन्दी-ऑपरेशन करना व्यभिचार को खुला अवसर देना है, जो बड़ा भारी पाप है। पशुओं की बलि देने, वध करने को ʹअभिचारʹ कहते हैं। उससे भी जो विशेष अभिचार होता है उसे ʹव्यभिचारʹ (वि+अभिचार) कहते हैं।

परिवार-नियोजन के दुष्परिणाम भुगतने के बाद अनेक देशों ने संतति-निरोध पर प्रतिबन्ध लगा दिया और जनसंख्या वृद्धि के उपाय लागू कर दिये। जर्मनी की सरकार ने संतति-निरोध के उपायों के प्रचार एवं प्रसार पर रोक लगा दी और विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए विवाह-ऋण देने शुरु कर दिये। सन् 1935 में एक कानून बनाया गया, जिसके अनुसार एक बच्चा पैदा होने पर इन्कम टैक्स में 15 प्रतिशत छूट, दो बच्चे होने पर 35 प्रतिशत, तीन पर 55 प्रतिशत, चार पर 75 प्रतिशत, पाँच पर 95 प्रतिशत और छः बच्चे होने पर इन्कम टैक्स माफ कर देने की बात कही गयी। इससे वहाँ की जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई।

फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली, स्वीडन आदि देशों ने भी संतति निरोध पर प्रतिबन्ध लगाया। इटली में तो यहाँ तक कानून बना दिया गया कि संतति निरोध का प्रचार एवं प्रसार करने वाले को एक वर्ष की कैद तथा जुर्माना किया जा सकता है। आश्चर्य की बात है कि परिवार-नियोजन के जिन दुष्परिणामों को पश्चिमी देश भुगत चुके हैं, उनको देखने के बाद भी भारत सरकार इस कार्यक्रम को बढ़ावा दे रही है। विनाशकाले विपरीतबुद्धि।

विभिन्न समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी

गर्भ निरोधक गोलियों का इस्तेमान करने वाली महिलाओं को स्तन का कैंसर होने का खतरा है।

(इम्पीरियल कैंसर अनुसंधान-लंदन)

1 जनवरी 1996 से बालिका (भ्रूणहत्या) गर्भपात पर प्रतिबंध लग चुका है। सरकार प्रसव पूर्व निदान तकनीकी (विनियमन एवं दुरुपयोग रोक) अधिनियम 1994 बालिका भ्रूण का गर्भपात कराने के लिए अमिनोसिन्थेसिस, अल्ट्रासोनोग्राफी जैसी आधुनिक निदान तकनीकियों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देती।

भारत जनगणना आयुक्त की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार 1981 से 1991 के बीच देश की मुस्लिम आबादी 2 करोड़ 80 लाख से भी ज्यादा बढ़ी। देश में मुस्लिम समुदाय की आबादी अन्य प्रमुख धार्मिक समुदायों की आबादी की तुलना में तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 1981-91 के बीच इसमें 32.76 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि इस दौरान जनसंख्या-वृद्धि का राष्ट्रीय औसत 23.79 प्रतिशत रहा।ट

(राजस्थान पत्रिका दिनांकः 8-11-1995)

गर्भपात कराने वाली लड़कियों में से एक तिहाई लड़कियाँ ऐसी बीमारियों की शिकार हो जाती हैं कि फिर कभी वे संतान पैदा नहीं कर सकतीं।

(टोरंटो, कनाडा के 70 वाले अनुसंधान के अनुसार)

विश्व में प्रतिवर्ष होने वाले पाँच करोड़ गर्भपातों में से करीब आधे गैरकानूनी होते हैं, जिनमें करीब 2 लाख स्त्रियाँ प्रतिवर्ष मर जाती हैं और करीब 60 से 80 लाख पूरी उम्र के लिये रोगों की शिकार हो जाती हैं। हिन्दुस्तान में अनुमानतः करीब 5 लाख औरतें प्रतिवर्ष गैरकानूनी गर्भपातों द्वारा उत्पन्न हुई समस्याओं से मरती हैं।

(हिन्दुस्तान टाइम्स दिनांकः 15-7-1990)

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अनुसार गैरकानूनी एवं असुरक्षित ढंग से कराये जाने वाले गर्भपात से लाखों महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। जो बचती है, उन्हें जीवन भर गहरी मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। साथ ही, लंबे समय तक संक्रमण, दर्द तथा बाँझपन जैसी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

स्त्रियाँ गर्भपात के बाद पूरे जीवन पीड़ा पाती हैं। उनका शरीर रोगों का म्यूजियम बन जाता है। एक तिहाई स्त्रियाँ तो ऐसी बीमारी का शिकार बनती हैं कि फिर वे कभी संतान पैदा कर ही नहीं सकतीं।

गर्भपात कराने वाली स्त्रियों में से 30 प्रतिशत स्त्रियों को मासिक की कठिनाइयाँ हो जाती हैं।

शास्त्रों में जगह-जगह गर्भपात को महापाप बताया है। कहा है कि गर्भहत्या करने वाले का देखा हुआ अन्न न खायें। (मनुस्मृतिः 4.208)

लिंग परीक्षण करवाने से अपने आप गर्भपात होने व समयपूर्व-प्रसव होने की आशंका बढ़ जाती है, तथा कूल्हों के खिसकने एवं श्वास की बीमारी की भी संभावना रहती है। बार-बार अल्ट्रासाउंड कराने से शिशु के वजन पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

(देहली मिड डे दिनांकः 17-12-1993)

विश्व में एक मिनट में एक औरत यानी एक साल में 5,25,600 औरतें गर्भावस्था से जुड़ी बीमारियों से मरती हैं।

असुरक्षित तरीके से गर्भपात कराने से प्रतिवर्ष 70000 महिलाओं की मृत्यु होती है।

गर्भपात निरीह जीव की हत्या है, महान पाप है, ब्रह्महत्या और गौहत्या से भी बड़ा पाप है। देश के साथ गद्दारी है। नियम लें और लिवायें कि गर्भपात नहीं करवायेंगे।

स्वामी रामसुखदासजी महाराज

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 25,26,27

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बड़े कृपालु होते हैं ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

योगिनामपि सर्वेषां मद् गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।

ʹसब योगियों में जो भी श्रद्धावान योगी मुझ में एकत्वभाव से स्थित होता है, वह मुझे सर्वश्रेष्ठ मान्य है।ʹ (गीताः 6.47)

अपनी-अपनी जगह पर योगियों का, उनके योगसामर्थ्य का महत्त्व तो है लेकिन भगवान के ʹमाम्ʹ के साथ जो तदाकार हो जाता है वह श्रेष्ठ योगी माना जाता है।

गंगा में स्नान करने से पाप की निवृत्ति, चंद्रमा की चाँदनी में आने से ताप की निवृत्ति और कल्पवृक्ष मिलने से दरिद्रता की निवृत्ति बतायी गयी है लेकिन कल्पवृक्ष मिलने से धन मिल जाता है, बाहर की दरिद्रता मिटती है किन्तु हृदय की दरिद्रता तो फिर भी मौजूद रहती है। जबकि सत्संग से ये तीनों काम एक साथ हो जाते हैं।

गंगा पापं शशि तापं दैन्य कल्पतरूस्तथा।

पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति संतो महाशयाः।।

संतों के संग से पाप, ताप और दिल की दरिद्रता, सदा-सदा के लिए काफूर हो जाती है क्योंकि संत आत्मलाभ को पाये हुए होते हैं, आत्मसुख को पाये हुए होते हैं, आत्मज्ञान को पाये हुए होते हैं और आत्मज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है, आत्मसुख से बड़ा कोई सुख नहीं है, आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है।

आत्मलाभात् परं लाभ न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

दुनिया में बहुत से लोग आदर करने योग्य हैं। जैसे विद्वान, पंडित, धनवान, बलवान, यशस्वी, सदाचारी आदि-आदि। लेकिन इन सबके बीच अगर ब्रह्मवेत्ता आ जाता है तो ये सब उनके समक्ष नन्हें हो जाते हैं। जैसे अन्य प्राणियों के समक्ष हाथी बड़ा होता है किन्तु हाथी भी हिमालय के आगे तो नन्हा ही है, वैसे ही राजा-महाराजाओं के आगे इन्द्र बड़े हैं किन्तु आत्मज्ञानीरूपी हिमालय के आगे तो इन्द्र भी नन्हें ही हैं। और लोग – धऩी, तपी, जपी, विद्वान आदि तो सभा में मान करने योग्य होते हैं जबकि ब्रह्मवेत्ता महापुरुष तो पूजने योग्य होते हैं। उनकी चरणरज भी आदर करने योग्य होती है। ऐसा है ब्रह्मज्ञान।

भगवान श्री राम कितने बुद्धिमान होंगे कि जिन्होंने मात्र 16 वर्ष की उम्र में ही अपने जीवन का परमलाभ आत्मलाभ पा लिया ! उन्होंने गुरुवर वशिष्ठजी के चरणों में बैठकर ब्रह्मविद्या पा ली। रामावतार में जो ʹतत्त्वमसिʹ के रूप में सुना, वही कृष्णावतार में ʹअहं ब्रह्मास्मिʹ के रूप में छलका और श्रीमद् भगवद् गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ। अगर तीन मिनट के लिए भी इस ब्रह्मविद्या की अनुभूति हो जाये तो फिर इन्द्रपद भी तुच्छ लगने लगता है।

एक माई ने और उसके पति ने संकल्प किया कि ʹहम लोग चारों धामों की यात्रा करेंगे और चौरासी सौ ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे।ʹ किन्तु दैव योग से पति मर गया एवं मुनीमों ने बेईमानी करके उसका सारा माल हड़प कर लिया। कुछ ही वर्षों में उस माई को मजदूरी करके अपनी जीविका चलाने के लिए विवश होना पड़ा। उसको खटका रहने लगा कि ʹहमने संकल्प किया था चौरासी सौ ब्राह्मणों को भोजन करवाने का एवं चार धाम की यात्रा करने का। अब उसका क्या होगा ?ʹ

चतुर्मास आने पर उस गाँव में एक दण्डी संन्यासी आये। उस भूतपूर्व सेठ की पत्नी ने उनके सामने अपनी व्यथा कथा सुनाते हुए प्रार्थना कीः “बाबाजी ! मेरे मन में यह खटका हमेशा बना रहता है।”

दण्डी संन्यासीः “माई ! तुम्हारे गाँव में एक संतपुरुष रहते हैं, एकनाथ जी महाराज। उनका पुत्र हरिपंडित शास्त्री पढ़ा हुआ है किन्तु वह एकनाथ महाराज की महिमा को नहीं जानता है। मैं उन्हें जानता हूँ। सारे धाम जिस परमात्मा में हैं उनका उन्होंने साक्षात्कार किया है। उन महाराज की प्रदक्षिणा करने पर तुम्हारे चार धाम तो क्या, सभी धामों की यात्रा पूरी हो जायेगी एवं उनको भोजन करवाने से चौरासी सौ तो क्या चौरासी लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने का पुण्य हो जायेगा। अगर वे एकनाथ जी महाराज तुम्हारी प्रार्थना का स्वीकार कर लें तो तुम्हारे ये दोनों मनोरथ पूरे हो जायेंगे।”

माई तो बड़ी खुश हुई। दण्डी संन्यासी आगे बोलेः “किन्तु माई ! वे जल्दी नहीं स्वीकारेंगे क्योंकि उनका बेटा जरा जिद्दी है और उसने एकनाथ जी महाराज से वचन ले रखे हैं।”

माईः “कौन से वचन ?”

दण्डी संन्यासीः “बात यह है कि उनका बेटा जरा पढ़ा-लिखा है, विद्वान है। अतः एकनाथ जी के विरोधियों ने उसे उकसाया ताकि बाप-बेटे के भीतर जरा वैमनस्य हो जाये। बाप के अंदर तो वैमनस्य नहीं था किन्तु बेटा समझता था कि ʹपिताजी यह ठीक नहीं करते। हम ब्राह्मण लोग हैं फिर भी जिस-किसी के यहाँ खा लेना, यह तो धर्मभ्रष्ट होना है।ʹʹ यह सोचकर हरि पंडित काशी भाग गया। उसके भाग जाने से गिरिजाबाई दुःखी रहने लगी, तब एकनाथ जी को हुआ कि ʹइतनी साध्वी पत्नी दुःखी है !ʹ अतः बेटे को मनाने के लिए वे काशी गये और बेटे से कहाः ʹचलो, वापस घर में।ʹ तब बेटे ने पिता से वचन लियाः ʹब्राह्मण होकर किसी के भी हाथ का खा लेना उचित नहीं है। अतः आप किसी के भी हाथ का नहीं खायेंगे यह वचन दीजिये और दूसरी बातः आप संस्कृत में ही सत्संग करें। तभी मैं घर वापस आऊँगा।ʹ

एकनाथ जी महाराज वचन देकर उसे वापस घऱ ले आये है। अब उन्होंने लोकभाषा छोड़कर संस्कृत में सत्संग करना शुरु कर दिया है। जिन्हें श्रद्धा थी वे लोग तो टिके हैं, बाकी के सत्संगी कम हो गये हैं। किन्तु क्या करें ? बेटे का हठ जो है ! अब वे किसी के हाथ का भोजन भी नहीं करते क्योंकि वचन से जो बैठे हैं !”

फिर भी माई ने हिम्मत न हारी। वह गयी एकनाथजी महाराज के पास और प्रार्थना करने लगीः “दण्डी संन्यासी ने मुझे ऐसा-ऐसा कहा है। अब मेरे पास दूसरा उपाय भी नहीं है, अतः आप कृपा कीजिये।”

तब करूणा करके एकनाथ जी ने कहाः “अभी नहीं। जब मेरा बेटा उपस्थित हो तब आना और आग्रह करना किन्तु मैं मना करूँगा। तुम फिर आग्रह करना और मैं कहूँगा कि अगर मेरा हरिपंडित तुम्हारे घर आकर भोजन बनाये तो मैं भोजन करूँगा। तुम इस बात पर राजी हो जाना। वही तुम्हारे घर आकर भोजन बनायेंगा तो सीधा तो तेरा ही होगा अतः तुझे शांति मिल जायेगी।”

माईः “मेरी तो यह भावना थी महाराज ! कि मैं अपने हाथों से कुछ बनाकर खिलाऊँ।”

एकनाथ जी महाराजः “जब भोजन बन जाये, पत्तलों में परोस दिया जाय और आधा भोजन हो जाये तब तुम अपने हाथों से बनाया हुआ एकाध मिष्टान्न पत्तल पर परोस देना। पूछना मत, नहीं तो वह ʹनाʹ बोलेगा। तुम केवल परोस देना और फिर बोल देना कि ʹराम ! राम ! भूल हो गयी….ʹ फिर देखना क्या होता है।”

दयालु संत क्या करें ? युक्ति ही अजमानी पड़ती है। एकनाथ जी महाराज ने युक्ति बता दी और माई ने वैसा ही किया।

निश्चित दिवस पर दोनों गये उस माई के घर और हरिपंडित सब धो-धाकर भोजन बनाने लगा। भोजन बन जाने पर दो पत्तलें परोसी गयीं और भगवान को भोग लगाकर एकनाथ जी महाराज एवं हरिपंडित ने भोजन का आरंभ किया।

ʹआज मैं धन्य हो गयी… धन्य हो गयी। हरिपंडित जी ! आपने बड़ी कृपा की…ʹ यह कहते-कहते माई ने शीघ्रता से लड्डू रख दिये दोनों की पत्तलों पर।

एकनाथ जी महाराजः “यह क्या ? कच्चा भोजन ले आई ?”

माईः “ऩहीं नहीं महाराज ! यह कच्चा नहीं है। इसमें मैंने पानी नहीं डाला। दूध में ही यह बनाया है। महाराज ! यह पक्का भोजन है।”

एकनाथ जी महाराजः “हरिपंडित ! यह तो पक्का भोजन है। खा लें ?

हरिपंडितः “अब तो खाना ही पड़ेगा पिताजी ! आप भी खा लें और मैं भी खा लेता हूँ।”

लोभी को धन से वश किया जाता है, अहंकारी को प्रशंसा करके वश किया जाता है, मूर्ख को उसकी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ मिलाकर वश में किया जाता है जबसि संत और भगवान को सच्चाई और श्रद्धा से वश किया जाता है। देखो, हम सब कुँजियाँ आपको बता रहे हैं। अपने को फँसाने की चाबी भी खुद ही आपको दे रहे हैं। सत्संग जो है !

भोजन हो गया। हरि पंडित को मन में जरा क्षोभ तो हुआ किन्तु क्या करे ? उठाई दोनों पत्तलें। तब एकनाथ जी ने कहाः “अरे, संकल्प तो कर जिसके घर का भोजन किया है उसकी मनोकामना तृप्त हो।”

अब संकल्प क्या करना ? हरि पंडित ने तो उठायी पत्तलें। एकनाथ जी की पत्तल साफ थी, किन्तु हरि पंडित की पत्तल पर भोजन बचा था। अतः एकनाथ जी की पत्तल पर अपनी पत्तल रखी तो देखता है कि एकनाथ जी की पत्तल अपनी पत्तल के ऊपर आ गई। वह दंग रह गयाः ʹअरे ! मेरी पत्तल नीचे कैसे ! फिर से उसने एकनाथ जी की पत्तल नीचे रखी किन्तु फिर वही पत्तल ऊपर ! ऐसा दो-चार बार हुआ।

कथा कहती है कि यह देखकर हरिपंडित का हृदय बदल गया। गिर पड़ा पिता के चरणों में। उसने पिता से माँगे हुए दो वचनों के बारे में आग्रह छोड़ दिया। तब से एकनाथ जी महाराज लोकभोग्य शैली में, आम जनता समझ सके ऐसी भाषा में सत्संग करने लगे।

कैसी है करूणा संतों की ! कितनी दयालुता है ब्रह्म-परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों की ! यदि सीधे-सीधे लोग नहीं समझ पाते तो युक्तियाँ-प्रयुक्तियाँ लड़ाकर भी वे समझा देते हैं और करूणा-कृपावश अपना पूरा जीवन लोकसेवा में बिता देते हैं। ʹलोकसेवा… लोकसेवा…ʹ का ढोल तो खूब बजता है लेकिन सच्ची सेवा तो सत्पुरुषों के द्वारा ही होती है। नहीं तो उन्हें क्या जरूरत कि अपने एकान्त की, ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर लोगों के बीच आयें ? ʹकाश कोई लग जाये, कोई चल पड़े इस ब्रह्मविद्या के पथ पर और बना ले अपना काम….ʹ यह सोचकर वे भी अहर्निश लगे रहते हैं लोककल्याण में। धन्य हैं ऐसे एकनाथ जी महाराज जैसे महापुरुष और धन्य हैं उन्हें पहचानकर अपना आध्यात्मिक काम लेने वाले साधक और भक्त !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 8,9,10 अंक 56

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