पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
ʹश्रीमद् भागवत माहात्म्यम्ʹ के प्रथम अध्यायच में कथा आती हैः
एक बार नारदजी विचरण करते-करते भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली वृंदावन में जा पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक युवती के पास दो वृद्ध पुरुष अचेत से पड़े हुए हैं और वह युवती कभी उन्हें होश में लाने का प्रयत्न करती है तो कभी उनके आगे रो पड़ती है। उस युवती के चारों ओर सैंकड़ों स्त्रियाँ घेरकर बैठी हैं जिनमें से कोई तो उसे पंखा झल रही हैं और कोई उसे ढाढस बँधाने का प्रयत्न कर रही हैं। इतने में उस युवती की नजर नारदजी पर पड़ी और वह खड़ी होकर नारदजी से बोलीः
भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय।
दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्।।
बहुधा तव वाक्येन दुःखशांतिर्भविष्यति।
यदा भाग्यं भवेद् भूरि भवतो दर्शनं तदा।।
(श्रीमद् भागवतमाहात्म्यः अ. 1 श्लोक 42-43)
“हे महात्मा जी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिंता को भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसार के सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाला है।
आपके वचनों से मेरे दुःख की भी बहुत कुछ शांति हो जाएगी। मनुष्य का जो जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं।”
नारदजी ने पूछाः “तुम कौन हो ?”
युवतीः “मेरा नाम भक्ति है। द्रविड़ देश में मैं उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में अंग-भंग हुई। अब वृंदावन में आकर मैं थोड़ी पुष्ट हुई हूँ लेकिन यहाँ आकर मेरे दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य कलियुग के प्रभाव से वृद्ध होकर मूर्च्छित हो गये हैं। होना तो यह चाहिए कि माँ बूढ़ी हो और बेटे जवान, लेकिन यह तो उलटा हो गया है। बेटे वृद्ध होकर मूर्च्छित पड़े हैं। कई उपाय करने पर भी इनकी मूर्च्छा नहीं टूटती। महाराज ! आपके दर्शन से मेरे हृदय के ताप मिट रहे हैं। आप कुछ देर और ठहरिये।”
संत के दर्शन से पातक नष्ट होते हैं और पातक नष्ट होने से हृदय का ताप निवृत्त होता है। नानकजी ने भी कहा हैः
संतशरण जो जन पड़े, सो जन उधरणहार।
संत की निंदा नानका, बहुरि-बहुरि अवतार।।
नानक जी ने यह भी कहा हैः
बड़भागी ते जन जगमाहीं, सदा-सदा हरि के गुन गाहीं।
राम नाम जो करहिं विचार, ते धनवन्ता गने संसार।।
भक्ति रो रही है और हमें यही सीख दे रही है कि अगर भक्ति करनी है तो ज्ञान और वैराग्य को जागृत रखो। तुम जिसकी भक्ति करते हो, उस परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान ही न होगा तो तुम किसकी भक्ति करोगे ?ʹ भगवान क्या है ? आत्मा क्या है ? परमेश्वर क्या है ? मुक्ति कैसे होती है ? वह परमात्मा हमारी आत्मा है तो मिले कैसे ? जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ? बदलने वाले जगत को भी जो देख रहा है, वह अबदल तत्त्व क्या है ?ʹ ऐसा ज्ञान चाहिए और सुख-दुःख व संसार के राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए वैराग्य होना चाहिए। अगर जीवन में भक्ति के साथ ज्ञान-वैराग्य नहीं होंगे तो भक्ति रोती रहेगी।
भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगे न कोई।
एक बार जो भगत ठगे, अखण्ड यज्ञफल होई।।
भक्त का मतलब बुद्ध नहीं, आलसी नहीं, प्रमादी नहीं…. जिसका मन आत्मा परमात्मा में निमग्न रहता हो, उसका नाम है भक्त। नानक जी भक्तशिरोमणि थे। प्रह्लाद, मीरा, कबीरजी आदि भी भक्तशिरोमणि थे।
भक्ति नारदजी से प्रार्थना करती हैः “महाराज ! आप मेरे दुःखों को निवृत्त कीजिये।”
तब नारदजी ने शपथ लीः “यदि मैंने तुम्हारे पुत्रों का जागृत न किया और तुझे घर-घर में, हृदय-हृदय में स्थापित न किया तो मैं भगवान का भक्त नहीं।”
देखो, सच्चे भगवद् भक्तों का कैसा निश्चय होता है ! कितनी हिम्मत होती है ! कितना सामर्थ्य होता है उनके संकल्प में ! एक सामान्य आदमी भी अगर दृढ़ संकल्प करता है कि ʹमुझे यह शुभ कर्म करना हैʹ तो ईश्वर की सत्ता उसे सहयोग देती ही है और देर-सबेर वह उसे दैवी कार्य में सफल होकर ही रहता है। जिस कार्य से बहुतों का हित होता है, मंगल होता है उस कार्य को करने का विचार यदि एक साधारण व्यक्ति भी अपने मन में ठान लेता है, तो हजारों-लाखों व्यक्ति देर सबेर उसके साथ सहयोग करने के लिए जुड़ जाते हैं।
भक्त यह सदैव याद रखे किः “मैं अकेला नहीं हूँ। सच्चिदानंद परमात्मा हमेशा मेरे साथ है। मेरे साथ उस परमेश्वर की सत्ता विद्यमान है। मैं अकेला नहीं हूँ। अनन्त-अनंत शक्तियाँ मेरे साथ हैं।ʹ
एक साधारण-सी लड़की भी यदि सत्कर्म करने की कोई बात ठान लेती है तो परिस्थितियाँ उसके अनुकूल होने के लिए बाध्य हो जाती हैं।
बुद्ध के जमाने में एक बार श्रावस्ती नगरी में अकाल पड़ा। अकाल भी ऐसा कि बालक, बूढ़े एवं कमजोर आदमी अन्न के अभाव में मरने लगे। सेठों ने अपनी तिजोरियों को ताले लगा दिये राज्यसत्ता ने भी हाथ ऊँचे कर दिये।
यह सब देखकर बुद्ध को बहुत दुःख हुआ। संत-हृदय चुप कैसे रह सकता है ? ʹमुट्ठीभर अन्न के अभाव में लोग रोज मर रहे हैं और सेठों की तिजोरियाँ खुलती नहीं। धनवानों का धन यदि ऐसे अकाल के समय काम नहीं आया तो फिर वह धन किस काम का ?ʹ
बुद्ध ने श्रावस्ती के धनवान लोगों की एक सभा बुलायी। करूणा से भरे हुए बुद्ध ने अपनी करुणायी वाणी में सेठों से कहाः “इस अकाल समय में आप सभी को कुछ सेवाकार्य करना चाहिए ताकि अन्न के अभाव में मर रहे लोगों को बचाया जा सके।”
….लेकिन करूणा से भरा हुआ, प्राणिमात्र के हित की भावना से छलकता हुआ बुद्ध का यह उपदेश भी उन लोभी सेठों के चित्त पर कोई असर नहीं कर रहा था। बुद्ध ने चारों ओर नज़र डालकर कहाः “भाइयों ! कुछ कहो।” यह सुनकर वे लोभी सेठ, धन के गुलाम सेठ एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उनमें से एक ने कहाः “महाराज ! पूरे राज्य में दुर्भिक्ष पड़ा है। हमारी तिजोरी कितने आदमियों को खिलायेगी ? यह किसी एक आदमी का काम नहीं है। यह तो राज्य का काम है।”
दूसरा बोलाः “राज्य का धन भी समाप्त जायेगा तब क्या करेंगे ? यह तो ईश्वर का काम है ईश्वर का। हम तो केवल प्रार्थना करें किः “हे भगवान ! अपने बंदों को अब तुम्हीं बचाओ।ʹ इसके अलावा हम कर ही क्या सकते हैं ?”
ऐसा कहते-कहते सब सेठ वहाँ से एक-एक करके खिसकने लगे। इतने में ही एक धनवान सेठ की कन्या सुप्रिया की आँखों से आँसू बहने लगे। बुद्ध की सभा में निराशा नृत्य करे, उसके पहले ही उसने एक आशा की किरण जगा दी। उसने कहाः “भन्ते ! जो अन्न के अभाव में मर रहे हैं, अन्न के मोहताज उन गरीबों को, उन देशवासियों को मैं खिलाऊँगी। भन्ते ! आप आशीर्वाद दें कि मैं इस कार्य में सफल हो सकूँ।”
लोग हक्के-बक्के रह गये ! ʹयह लड़की ! सुप्रिया !!ʹ वे बोलेः “तू क्या खिलायेगी ? तेरा सेठ पिता तुझे पैसे नहीं देगा तो तो तू क्या करेगी ?”
सुप्रियाः “मेरे पिताजी पैसे नहीं देंगे तो कोई बात नहीं। मैं अपने हाथ में भिक्षापात्र उठाऊँगी और घर-घर भीख माँगकर भी अपने देशवासियों के मुँह में रोटी का टुकड़ा डालूँगी… उनके आँसू पोंछूंगी।”
दृढ़ निश्चय से भरी हुई उस लड़की की बात सुनकर बुद्ध के मन को संतोष हुआ। बुद्ध की आँखें चमक उठीं और करूणामयी दृष्टि बरसाते हुए वे बोल उठेः “धन्य, धन्य ! तेरे माता-पिता भी धन्य हैं। तू लोगों की भूख अवश्य मिटा सकेगी। तू देशवासियों के प्राण अवश्य बचा सकेगी।”
लोग व्यंग्य कसने लगे किः “जैसी पगली लड़की, वैसा पगला बाबा…ʹ
जैसे महात्मा गाँधी ने भी कहा था किः “अंग्रेजों ! भारत छोड़ो।” यह उदघोष करने वाले महात्मा गाँधी अकेले थे। अतः लोगों ने उनकी खूब मजाक उड़ायी और वायसराय ने तो उन्हें पागल ही कह दिया था। पूरी ब्रिटिश सरकार के आगे एक मोहनदास करमचंद गाँधी बोलता है कि ʹअंग्रेजों ! भारत छोड़ो।ʹ लेकिन शुभ संकल्प में बड़ी ताकत होती है। जितना स्वार्थरहित संकल्प होता है, उतनी ही परमात्मा की सत्ता उसके साथ जुड़ जाती है।
तुम्हारे पास चाहे कुछ भी हो, मुट्ठीभर अन्न हो या जरा सा समय हो अथवा कम योग्यता हो लेकिन यदि ईश्वर के नाते तुम उसे सत्कर्म में लगा देते हो तो वह अथाह-अगाध हो जाता है।
सुप्रिया ने दृढ़ संकल्प कर लिया था, अतः दूसरे दिन सुबह होते ही उसने अपने हाथ में एक भिक्षापात्र उठाया और अपने माता-पिता से बोलीः “मेरे हिस्से की रोटी तो आप मुझे देते ही हैं, अतः कम-से-कम वे ही रोटियाँ मुझे भिक्षा में दे दीजिये।” लड़की का दृढ़ निश्चय देखकर पिता की आँखों में आँसू आ गये। माँ का हृदय भर आया। उन्होंने थोड़ी ज्यादा भिक्षा दे दी। आठ-दस लोग भोजन कर सकें इतनी भिक्षा दे दी। सुप्रिया वहाँ से चल पड़ी और दूसरे द्वारों पर गयी। सुप्रिया को भिक्षा माँगते हुए देखकर अब सेठों का हृदय पिघलने लगा किः ʹजो हमें करना चाहिए था, वह कार्य यह एक नन्हीं सी बालिका कर रही है ! धिक्कार है हमारे लोभ को और धिक्कार है हमारे ऐसे वैभव को, जो मानव जाति के काम न आये !ʹ
तन मन धन से कीजिये, निशिदिन पर उपकार।
यह सदभाव उनके मन में जाग उठा और सब सेठ लग गये अकाल राहत कार्य में। श्रावस्ती का अकाल दूर हो गया। लाखों-लाखों जीवों को जीवनदान मिला एक सुप्रिया के संकल्प मात्र से।
एक शुभ संकल्प करो और उसमें डट जाओ।
इसी प्रकार दृढ़ निश्चय के साथ नारदजी भक्ति के दुःखनिवारणार्थ भ्रमण करने निकल पड़े। जब वे विशालापुरी से गुजरे तो उनकी भेंट सनकादि ऋषियों से हुई। सनकादि ऋषियों ने पूछाः “नारद ! उदास पुरुषों की नाईं तुम जल्दी जल्दी कहाँ जा रहे हो ?”
नारदः “भगवन ! मैं काशी, मथुरा, रंगक्षेत्र, रामेश्वरम्, द्वारिका, हरिद्वार आदि क्षेत्रों में गया किन्तु कहीं भी, किसी भी तीर्थ में शांति देने वाले महापुरुषों के दर्शन मुझे नहीं हुए। कलियुग के मित्र अधर्म ने तीर्थों को भी बिगाड़ दिया है। धूर्त लोग तीर्थों एवं मंदिरों पर अधिकार करने लग गये हैं। जीवन को शांति मिले, ऐसी कोई जगह न दिखी। भूमण्डल पर घूमते-घूमते, पुष्कर और प्रयाग में घूमते-घूमते मैं वृन्दावन आया जहाँ मुझे एक युवती अपने दो वृद्ध एवं मूर्च्छित पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के पास बैठकर विलाप करती हुई दिखी, जो चारों ओर से अपनी सखियों से घिरी हुई थी। उऩका नाम भक्ति है। प्रभो ! “मैंने शपथ ली है कि उस भक्ति के दुःख को दूर करूँगा और उसके पुत्रों, ज्ञान-वैराग्य को जागृत करूँगा। मैंने कई मंत्रोच्चारण किये, वेद-पाठ किया, कई बार उन्हें जगाया लेकिन वे पुनः मूर्च्छित हो जाते थे। फिर आकाशवाणी हुई किः “हे नारद ! तुम उद्योग करो, तब तुम सफल होगे।ʹ किन्तु महाराज ! मैं कौन-सा उद्योग करूँ ? आकाशवाणी ने कुछ स्पष्ट नहीं बताया। ज्ञान-वैराग्य को जागृत करने के तरीके जानने के लिए मैं मठों, मंदिरों एवं आश्रमों आदि में घूमा लेकिन उसका उपाय कोई नहीं बता सका।”
तब सनकादि ऋषियों ने कहाः “भक्ति का दुःख दूर करने का एक ही उपाय है कि कलियुग के दोषों को दूर करने वाली भगवत्कथा सुनायी जाये, तभी ज्ञान और वैराग्य पुष्ट हो सकेंगे।”
अतः जो लोग भक्ति का रसपान करना चाहते हैं, उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कलियुग के दोषों को दूर करने के लिए भगवत्कथा सुनें जिससे ज्ञान-वैराग्य पुष्ट हो सकें। सनकादि ऋषियों ने आगे कहाः “श्रीमद् भागवत का पारायण किया जाय। उसके शब्द सुनने से ही ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा। इससे उऩका कष्ट मिट जायेगा अर्थात् उनकी मूर्च्छा टूट जायेगी और साथ ही भक्ति भी पुष्ट होगी। जैसे सिंह की गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद् भागवत की अनुगूँज से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जायेंगे। तब प्रेमरस प्रवाहित करने वाली भक्ति ज्ञान और वैराग्य को साथ में लेकर प्रत्येक घर और व्यक्ति के हृदय में क्रीड़ा करेगी।”
सनकादि ऋषियों की आज्ञा को शिरोधार्य करके देवर्षि नारद ने हरिद्वार में गंगातट पर ʹश्रीमद् भागवतʹ कथा का आयोजन किया जिसके फलस्वरूप ज्ञान-वैराग्य जाग उठे एवं भक्ति पुष्ट हो गयी। इतनी महत्ता है ʹश्रीमद् भागवतʹ के कथामृत का पान करने की ! तभी तो ʹश्रीमद् भागवत माहात्म्य के विषय में स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से ब्रह्मजी को कहा हैः
श्रीमद् भागवतं पुण्यमायुरारोग्य पुष्टिदम्।
पठनाच्छ्रवणाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
ʹयह पावन पुराण ʹश्रीमद् भागवतʹ आयु, आरोग्यता और पुष्टि देने वाला है। इसका पाठ अथवा श्रवण करने मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।ʹ
इस पवित्र पुराण का पाठ स्वयं करें या पवित्र, सात्त्विक, व्यसनमुक्त, संत-हृदय वक्ता के मुख से सुनें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 7-11, अंक 77
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