Monthly Archives: May 2000

पुदीना


चटनी के रूप में प्रयुक्त किया जाने वाला पुदीना एक सुगंधित एवं उपयोगी औषधि है।

आयुर्वेद के मतानुसार पुदीना स्वादिष्ट, रुचिकर, पचने में हल्का, तीक्ष्ण, तीखा, कड़वा, पाचनकर्त्ता, उल्टी मिटाने वाला, हृदय को उत्तेजित करने वाला, विकृत कफ को बाहर लाने वाला, गर्भाशय-संकोचक, चित्त को प्रसन्न करने वाला, जख्मों को भरने वाला, कृमि, ज्वर, विष, अरुचि, मंदाग्नि, अफारा, दस्त, खाँसी, श्वास, निम्न रक्तचाप, मूत्राल्पता, त्वचा के दोष, हैजा, अजीर्ण, सर्दी-जुकाम आदि को मिटाने वाला है।

पुदीने में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। उसमें रोगप्रतिकारक शक्ति उत्पन्न करने की अदभुत शक्ति है एवं पाचक रसों को उत्पन्न करने की भी क्षमता है। अजवायन के सभी गुण पुदीने में पाये जाते हैं।

पुदीने के बीज से निकलने वाला तेल स्थानिक एनेस्थेटिक, पीड़ानाशक एवं जंतुनाशक होता है। यह दंतपीड़ा एवं दंतकृमिनाशक होता है। इसके तेल की सुगन्ध से मच्छर भाग जाते हैं।

विशेषः पुदीने का ताजा रस लेने की मात्रा है 5 से 20 ग्राम। पत्तों का चूर्ण लेने की मात्रा 3 से 6 ग्राम। काढ़ा लेने की मात्रा 20 से 40 ग्राम। अर्क लेने की मात्रा 20 से 40 ग्राम। बीज का तेल लेने की मात्रा आधी बूँद से 3 बूँद।

औषधि प्रयोगः

मलेरियाः पुदीने एवं तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम लेने से अथवा पुदीना एवं अदरक का रस 1-1 चम्मच सुबह-शाम लेने से लाभ होता है।

वायु एवं कृमिः पुदीने के 2 चम्मच रस में एक चुटकी काला नमक डालकर पीने से गैस, वायु एवं पेट के कृमि नष्ट होते हैं।

पुराना सर्दी-जुकाम एवं न्यूमोनियाः

पुदीने के रस की दो-तीन बूँदें नाक में डालने एवं पुदीने तथा अदरक के 1-1 चम्मच रस में शहद मिलाकर दिन में दो बार पीने से लाभ होता है।

अनार्तव-अल्पार्तवः

मासिक धर्म न आने पर या कम आने पर अथवा वायु एवं कफदोष के कारण बंद हो जाने पर पुदीने के काढ़े में गुड़ एवं चुटकी भर हींग डालकर पीने से लाभ होता है। इससे कमर की पीड़ा में भी आराम होता है।

आँत का दर्दः

अपच, अजीर्ण, अरूचि, मंदाग्नि, वायु आदि रोगों में पुदीने के रस में शहद डालकर लें अथवा पुदीने का अर्क लें।

दादः

पुदीने के रस में नींबू मिलाकर लगाने से दाद मिट जाती है।

उल्टी, दस्त, हैजाः

पुदीने के रस में नींबू का रस, प्याज अथवा अदरक का रस एवं शहद मिलाकर पिलाने अथवा अर्क देने से ठीक होता है।

बिच्छू का दंशः

पुदीने का रस दंशवाले स्थान पर लगायें एवं उसके रस में मिश्री मिलाकर पिलायें। यह प्रयोग तमाम जहरीले जंतुओं के दंश के उपचार में काम आ सकता है।

हिस्टीरियाः

रोज पुदीने का रस निकालकर उसे थोड़ा गर्म करके सुबह शाम नियमित रूप से देने पर लाभ होता है।

मुख-दुर्गन्धः

पुदीने के रस में पानी मिलाकर अथवा पुदीने के काढ़े का घूँट मुँह में भरकर रखें, फिर उगल दें। इससे मुख-दुर्गन्ध का नाश होता है।

साँईं श्री लीलाशाहजी उपचार केन्द,

संत श्री आसारामजी आश्रम, जहाँगीरपुरा,

वरिवाय रोड, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 89

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जीवन्मुक्त के लक्षण


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीते जी जिन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का निश्चय हो गया है, जिन्होंने अपने साक्षीस्वरूप का अनुभव कर लिया है एवं ʹइस ब्रह्माण्ड तथा अनंत ब्रह्माण्डों में मेरे सिवा दूसरा कोई तत्त्व नहीं है….ʹ ऐसा जिन्हें बोध हो गया है, वे जीवन्मुक्त हैं। ऐसे महापुरुष समस्त व्यवहार करते हुए भी व्यवहार या कर्म से नहीं बँधते क्योंकि वे देहभाव या मनभाव से कुछ नहीं करते।

वे अहंकार को, जो कि सब दुःखों का मूल कारण है, देह से लेकर अंतःकरण में कहीं भी नहीं रखते। वे सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से परे होते हैं। वे सुख-दुःख को सच्चा नहीं मानते। जब वे अनुभव करते हैं कि ʹमेरा जन्म ही नहींʹ तो मृत्यु को वे सत्य कैसे मानते हैं ?ट

जब तक अंतःकरण है तब तक साक्षीभाव का कथन किया जा सकता है किन्तु जहाँ अंतःकरण के भी अभाव का अनुभव होता हो तब साक्षी भी कैसे कह सकते हैं ? साक्षीभाव की संज्ञा भी मुमुक्षु को समझाने के लिए है।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में अलग-अलग प्रसंगों पर देह, मन, आत्मा को स्वयं के रूप में कहते हैं किन्तु श्रीकृष्ण परमात्मा का वास्तविक स्वरूप तो आत्मा है, साक्षी है। भक्त प्रथम देहभाव से श्रीकृष्ण परमात्मा की उपासना करता है, फिर धीरे-धीरे आत्मभाव से उपासना करता है और अंत में ʹवह आत्मा अन्य कोई नहीं वरन् स्वयं ही हूँ….ʹ ऐसे अभेद भाव से उपासना रता है। अंत में वह भेद-अभेद को भी मिटा देता है। ʹमुझमें कोई भाव ही नहीं, मुझमें द्वैतपना भी नहीं है और एकपना भी नहीं है…ʹ यह परम अवस्था है। इस स्थिति को ʹजीवन्मुक्ति की स्थितिʹ अथवा ʹब्राह्मी स्थितिʹ कहते हैं।

जब सभी मनुष्य तुमको अच्छा करने लगें तब समझना कि मुसीबत आ खड़ी हुई है। बनावटी संतों की इसी प्रकार प्रशंसा उनके ही अनुयायियों ने की थी। सभी हमें अच्छा बोलें ऐसी इच्छा न करें क्योंकि अपना वास्तविक स्वरूप जो कि मन-वाणी से परे है उसकी प्रशंसा कोई नहीं करता अपितु शरीर, मन आदि की ही लोग प्रशंसा करते हैं और ऐसी प्रशंसा हमें नीचे ले जाती है।

अध्यात्म-पथ पर चलने वालों के लिए ऐसी प्रशंसा, लोगों की बातचीत एवं अनेक प्रकार की सिद्धियों के पीछे पड़ना यह सब विघ्नरूप है, उनकी उन्नति को रोकने वाला है क्योंकि जहाँ आत्मा के सिवाय कुछ नहीं है, जहाँ शरीर को भी भूलने की बात है वहाँ यह सब अवनति की ओर ले जाने वाला है। अतः जीवन्मुक्त महापुरुष उस ओर दृष्टिपात ही नहीं करते। जीवन्मुक्त अवस्था में इस जगत को देखने पर भी, शरीर को देखने पर भी पूरा साक्षीभाव बना रहता है।

जीवन्मुक्त की पहचान इस प्रकार होती हैः उनका मन मानों ब्रह्म का ध्यान करता है, वचन मानों स्तुति करते हैं, चरण मानों ब्रह्म की प्रदक्षिणा करते हैं ऐसा लगता है। षडरिपु उनके षडमित्र बनकर रहते हैं। क्रोध क्षमा का रूप लेता है। अभिमान सम्मान का रूप लेता है। कपट सरलता का रूप लेता है। लोभ संतोष का रूप लेता है। मोह प्रेम का रूप लेता है। काम पूर्णकाम अर्थात् वासनारहित हो जाता है।

कई तत्त्वज्ञ महापुरुष कहते हैं कि मन एवं वाणी आत्मा तक नहीं  पहुँच सकते। यह सच है लेकिन मनरूपी महासागर में उठते विचाररूपी तरंगों को आत्मा जानती एवं देखती है। इसी प्रकार वाणी एवं वाणी से उत्पन्न वचनरूपी तरंगों की भी आत्मा साक्षी है।

जैसे मनुष्यादि शरीर का जीवन अन्न है, वैसे ही मनुष्य का मनुष्यत्व उसके सदाचार में निहित है। इसी प्रकार जीव का जीवन तत्त्वज्ञान है, वही उसका आहार है। परन्तु आत्मा का जीवन तो ब्रह्म का साक्षात्कार है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 20, अंक 89

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छोड़ो आशा-तृष्णा को….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्रीमद् आद्यशंकराचार्य ने कहा हैः

अंगं गलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्।।

ʹअंग गलित हो गये, सिर के बाल पक गये, मुँह में दाँत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा फिर भी आशा पिण्ड नहीं छोड़ती।ʹ

(चर्पटपंजरिका स्तोत्रः 6)

आशा ही जीव को जन्म-जन्मान्तर तक भटकाती रहती है। मरुभूमि में पानी के बिना मृग का छटपटाकर मर जाना भी इतना दुःखद नहीं है, जितना तृष्णावान का दुःखी होना है। शरीर की मौत की छटपटाहट पाँच-दस घंटे या पाँच-दस दिन रहती है, लेकिन जीव तृष्णा के पाश में युगों से छटपटाता आया है, गर्भ से शमशान तक ऐसी जन्म मृत्यु की यात्राएँ करता आया है। गंगाजी के बालू के कण तो शायद गिन सकते हैं लेकिन इस आशा-तृष्णा के कारण कितने जन्म हुए नहीं गिन सकते।

बुद्धिमान बुजुर्गों का कहना है कि यदि सिर के बाल सफेद होने लगें तो समझ लेना चाहिए कि शमशान में जाने की तैयारी हो रही है। यदि दाँत गिरने शुरु हो जायें तो समझ लें संसार के भोग अब आपके लिए नहीं हैं। अतः संसार के भोग भोगने की रुचि को मिटाते जाना चाहिए। बुढ़ापा आने पर लकड़ी का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगे तो समझ जाना चाहिए कि एक दिन ये ही लकड़ियाँ इस शरीर को जला देंगी।

अतः हे मानव ! अब तू सावधान हो जा। तुच्छ वासनाओं को छोड़, संसार की आसक्ति को छोड़, संसार से सुख लेने की इच्छा को छोड़ क्योंकि संसार से कोई भी व्यक्ति पूर्ण सुखी होकर नहीं गया है। जिनकी गोद में भगवान श्रीराम स्वयं खेले थे, उन राजा दशरथ को भी संसार ने रुलाया था। अतः संसार से सुख पाने की तृष्णा छोड़। अपने सुख स्वरूप परमात्मा की ओर कदम आगे बढ़ा, अपने मन को समझाः

ʹऐ मेरे मन ! आशा करनी ही है तो इस बात की आशा कर कि मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे, जब मैं अपने परम पद में विश्रान्ति पाऊँगा ? यह संसार मुझे स्वप्नवत् कब भासेगा ? कब मेरे चित्त की तृष्णाओं का नाश हो जायेगा ? कब मेरा चित्त निर्दोष नारायण के ध्यान में मग्न रहने लगेगा ? न जाने कितनी बार माताओं के गर्भों में लटकता आया हूँ। हे शिव ! हे कल्याणस्वरूप ! हे अन्तर्यामी प्रभु ! तू मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने निर्बन्ध, मुक्त स्वभाव में ले चल। हे ईश्वर ! ये बाल सफेद हो गये, लेकिन बुद्धि श्वेत नहीं हुई, शुद्ध नहीं हुई, उसका मायारूपी कालापन नहीं हटा। दाँत गिर गये, लेकिन अभी तक तुच्छ आशाएँ-तृष्णाएँ नहीं गिरीं। हाथ में डंडा आ गया लेकिन हृदय में आपका प्रेम नहीं आया। शरीर जीर्ण हो गया फिर भी मेरी तृष्णाएँ जीर्ण नहीं हुईं। हे मेरे प्रभु ! मुझमें मेरे स्वरूप को पाने की लालसा जगा दे….ʹ

इस प्रकार अपने मन को समझाते हुए प्रार्थना करते जाओ, अपने आपके मित्र बनते जाओ। जो आदमी संसार की तुच्छ वासनाओं को मिटाने का यत्न नहीं करता, वह अपने आपका शत्रु है। जो मनुष्य अपने शरीर की नश्वरता का ख्याल नहीं करता, उसकी बालबुद्धि है। वह अवश्य माया से ठगा जाता है। मृत्यु के समय पराये तो उसके पराये हैं ही, अपने भी पराये हो जाते हैं और शरीर भी अपना नहीं रहता।

जो मनुष्य ऐसे वर्त्तमान समय-परिस्थिति का दुरुपयोग करके, भविष्य की विषय-वासनाओं एवं ऐहिक सुखों की पूर्ति करने तथा इस नाशवान शरीर को सुखी करने में जीवन भर लगे रहते हैं, वे ʹपापी मनुष्यʹ के रूप में पहचाने जाते हैं। पापी मनुष्यों की यह पहचान है कि वे अपनी तृष्णा के मुताबिक जगत की परिस्थितियों को अपने अनुकूल करके सुख पाने की इच्छा में ही जुटे रहते हैं। वे क्षणभंगुर शरीर को ही सब कुछ मानने लगते हैं और आत्मा का अनादर करते हैं। वे अपनी आत्मिक शक्तियों का उपयोग भी शरीर के ऐश-आराम में करते हुए उसे बरबाद कर देते हैं।

शंकराचार्य हमें सचेत करते हुए कहते हैं- “तू तुच्छ तृष्णा को, देहाध्यास को, वासनाओं को पोस मत। विषयो के संग से अपना सत्यानाश मत कर। तू तो निर्विषयी, निर्लोभी, निरहंकारी एवं निर्द्वन्द्व पद में स्थित महापुरुषों के वचनों को विचार।”

हे मानव ! कभी-कभी शमशान में जा और अपने मन को दिखा किः ʹदेख ! आखिर तेरा भी यही हाल होने वाला है। हे मेरे मन ! तेरा यह हाल हो जाये, उसके पहले तू विषय  वासना के पाश को विवेक-बुद्धि से काट दे। संसार के विषयों से वैराग्य कर और परमात्मरस पाने का अभ्यास कर।ʹ

बुद्ध अपने प्रिय शिष्यों से कहते थेः “यदि मेरा शिष्य बनना  चाहते हो, भिक्षु बनना चाहते हो, तो पहले छः महीने तक शमशान में निवास करो। वहाँ जितने मुर्दे जलाये जाते हों, उनके साथ अपना सादृश्य स्थापित करो कि ʹमैं ही जल रहा हूँ। ये सब भी पंचभूतों के बने हैं और मेरा शरीर भी पंचभूतों का ही बना है।ʹ इससे विवेक-वैराग्य जागृत होगा।”

विवेकवान विरक्त मनुष्य को यदि कोई कहे किः ʹतुम बड़े ही सुन्दर दिख रहे हो….ʹ तो यह सुनकर उसे सुन्दरता का अभिमान नहीं होता क्योंकि सुन्दरता का परिणाम क्या है, यह उसे पता होता है।  उसे सदा ऐसा स्मरण रहता है कि यह सुन्दर चेहरा भी एक मुट्ठी राख बनने की ओर ही जा रहा है। अतः सुन्दरता का गर्व करने से क्या लाभ ?

मानव कितना महान है ! …लेकिन इस अभागी तृष्णा ने ही उसे भटका दिया है। अभागी आशा-तृष्णा ही उसे जन्म-मरण के चक्र में फँसाती है।

आज की इच्छा कल का प्रारब्ध बन जाती है इसलिए भोगने की, खाने की, देखने की आशा करके अपने भविष्य को नहीं बिगाड़ना चाहिए। हे मानव ! जीते-जी आशा-तृष्णारहित होकर परमात्म-साक्षात्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

संसार की वस्तुओं को पाने की तृष्णा में हम दुःखद परिस्थितियों को मिटाने की मेहनत और सुखद परिस्थितियों को थामने का व्यर्थ यत्न करने में ही उलझ गये हैं। अज्ञान से यह भ्रांति मन में घुस गई है किः ʹकुछ पाकर, कुछ छोड़कर, कुछ थामकर सुखी होंगे।ʹ हालांकि सुख के संबंध क्षणिक हैं, फिर भी उसी को पाने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं और जो शाश्वत संबंध है आत्मा-परमात्मा का, उसको जानने का समय ही नहीं है। कैसा दुर्भाग्य है ! ऐसी उलटी धारणा हो गई है, उलटी बुद्धि हो गयी है।

ईश्वर हमसे तसू भर भी दूर नहीं है। जरूरत है तो केवल उसे प्रगट करने की। जैसे लकड़ी में अग्नि छुपी है, किन्तु उस छुपी हुई अग्नि से भोजन तब तक नहीं पकता, जब तक दियासिलाई से अग्नि को प्रकट नहीं करते। जैसे विद्युत्तार में विद्युत्शक्ति छुपी है, किन्तु उस छुपी हुई शक्ति से विद्युत्तार संचारित होकर बल्ब से तब तक प्रकाश नहीं फैलाता जब तक स्विच चालू नहीं करते। ऐसे ही परमात्मा अव्यक्त स्वरूप में सबमें छुपा हुआ है किन्तु जब तक जीव की सारी तुच्छ वासनाएँ ज्ञानरूपी दियासिलाई से जल नहीं जातीं, चित्त वासनारहित नहीं हो जाता तब तक अन्तःकरण में ईश्वरत्व का प्रागट्य नहीं होता।

अतः देर न करो। उठो… अपने-आप में जागे हुए निर्वासनिक महापुरुषों के, सदगुरुओं के चरणों में पहुँच जाओ…. अपनी तुच्छ इच्छाओं को जला डालो…. अपने ज्ञानस्वरूप में जाग जाओ…. ऐसे अजर-अमर पद को पा लो कि फिर तुम्हें दुबारा गर्भवास का दुःख न सहना पड़े।

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स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 89

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