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सब दोषों का मूलः प्रज्ञापराध


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वदोषाणाम्…

सभी दोषों का मूल है प्रज्ञा का अपराध। इस संसार में जितने भी दुःख हैं वे सब बेवकूफी के कारण ही उत्पन्न होते हैं। जहाँ बेवकूफी है वहाँ दुःख है। जहाँ समझ है वहाँ सुख है।

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

जहाँ कुमति तहँ दु-ख निधाना।।

जितने भी दुःख हैं वे सब बुद्धि की मंदता से आते हैं। बुद्धि की मंदता के कारण ही राग-द्वेष होता है। बुद्धि की मंदता के कारण ही लोग सम्पूर्ण जीवन ʹमेरे-तेरेʹ में गँवाकर अंत में निराश होकर मर जाते हैं।

एक बहुत बड़े विद्वान पण्डित थे। उनके नाम से सब पण्डित घबराते थे। कोई भी उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तैयार नहीं होता था।

एक दिन जब सूर्य ढल गया और संध्या का समय हुआ तो वे पण्डित महाशय दही खाने लगे। उसी समय उनकी पहचान वाले एक दूसरे पण्डित मित्र वहाँ पहुँच गये। संध्या के समय उन्हें दही खाते देखकर पण्डित मित्र ने कहाः

“यह क्या कर रहे हो ?”

विद्वान पण्डितः ʹʹदही खा रहा हूँ।”

“संध्या के समय दही खा रहे हो ! क्या तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है ?”

“मेरी बुद्धि इतनी तीक्ष्ण है कि लोग मुझसे बात करने में भी घबराते हैं। मेरे साथ शास्त्रार्थ करने के लिए कोई नहीं आता। अतः मैं अपनी बुद्धि की तीव्रता को कम करने के लिए दही खा रहा हूँ।”

उनकी बात सुनकर मित्र हँसने लगा और बोलाः “बुद्धि को कम करने के लिए दही खा रहे हो ? तुम्हें दही खाने की आवश्यकता नहीं है, तुम तो ऐसे ही मूर्ख हो। संध्या के समय संध्या करनी चाहिए, प्राणायाम-जप-ध्यानादि करना चाहिए यह तुम्हें मालूम है, फिर भी अपनी बुद्धि का दिवाला निकाल रहे हो। तुमसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ?”

यह है प्रज्ञा का अपराध। बुद्धि की कमी के कारण ही व्यक्ति सब करा कराया चौपट कर देता है। मानव के पास बुद्धि तो है किन्तु वह उसका सही उपयोग नहीं करता इसी कारण आये दिन झगड़े-फसाद होते रहते हैं। जरा-जरा सी बात में हम इतने भड़क जाते हैं कि मार पीट क नौबत आ जाती है।

जहाँ राग होता है वहाँ दूसरे की कोई गलती नहीं दिखती और जहाँ द्वेष होता है वहाँ दूसरे का सदगुण नहीं दिखाई देता। दूसरों को समझकर कार्य नहीं करते तो उनकी अच्छाई भी हमें बुराई ही दिखती है। ये राग-द्वेष भी होते हैं प्रज्ञा की कमी से….. प्रज्ञा के दोष के कारण ही हमें दूसरों की कंकड़ समान कमियाँ भी पहाड़ जैसी लगती हैं और अपनी पहाड़ जैसी कमियाँ भी कंकड़ जैसी लगती है। अपनी कमी का पता चलने पर भी उन्हें निकालने के लिए उतने सजाग या उतने दृढ़ प्रयत्नशील नहीं रहते और अपने इस मिथ्या शरीर की प्रशंसा एवं वाहवाही सुनकर खुश होते हैं और खोये रहते हैं।

अरे ! वाहवाही से तो कुत्ता भी खुश हो जाता है, पुचकारने पर पूँछ हिलाता है और डण्डा दिखाने पर पूँछ दबा लेता है। फिर आप खुश या नाराज हो गये तो क्या बड़ी बात है ?

प्रज्ञा के अपराध के कारण ही हम कुछ न जानते हुए भी अपने-आपको सर्वश्रेष्ठ समझने लगते हैं।

यह मूर्खता नहीं तो और क्या है ?

मनुष्य की प्रज्ञा का यह दोष दूर होता है बुद्धि का आदर करने से। बुद्धि का जितना आदर करोगे उतनी वह विकसित होगी। ….और बुद्धि की पराकाष्ठा है  ब्रह्मज्ञान। बुद्धि के विकास के लिए आत्मज्ञान से बढ़कर कोई उपाय नहीं है।

यदि सब दुःखों से सदा के लिए छूटना है तो आत्मज्ञान पा लो।

कभी न छूटे पिण्ड दुःखों से, जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं होगा, तब तक दुःखों से पिण्ड नहीं छूट सकता। फिर चाहे आप स्वयं प्रधानमंत्री ही क्यों न बन जायें। सुविधाएँ मिल जायेंगी लेकिन सब दुःखों का अंत न हो सकेगा। समस्त दुःखों का अंत तो तभी होगा जब ब्रह्म का ज्ञान पाओगे, अपने आत्मस्वरूप को पहचानोगे।

रामकृष्ण परमहंस का एक शिष्य था जो कुछ बनना चाहता था। श्रीरामकृष्ण उसको बोलते थेः

“तू चाहे डॉक्टर बन, चाहे इन्जीनियर बन, चाहे वकील बन लेकिन पहले अपने आपको जान ले। मूल को जान ले फिर चाहे किसी भी शाखा को पकड़ना। एक बार अपने आत्मदेव को पा ले फिर जो पाना चाहो पा लेना।”

ईश्वर को पाने के लिए संसार को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन संसार को पाने के लिए ईश्वर का त्याग कदापि न करना।

आज कल के माता-पिता भी बच्चों से डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि बनने की आशा तो रखते हैं लेकिन कोई भी माता-पिता यह नहीं कहते कि ʹबेटा ! तू एक बार ब्रह्मवेत्ता होकर दिखा दे।ʹ जो माता पिता ऐसा बोलें वे माता-पिता नहीं वरन् उनके रूप में साक्षात् सदगुरु ही हैं।

ऐसी महिमा है आत्मज्ञान की ! जिसने अपने आत्मस्वरूप को पाया है समझो, उसने सब कुछ पा लिया और जिसने अपने आत्मस्वरूप को नहीं पाया उसने कुछ नहीं पाया। आत्मज्ञान-प्राप्त महापुरुष की प्रज्ञा परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है…. तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। …..और जिसकी प्रज्ञा परमात्मा में प्रतिष्ठित हो चुकी है उसके सब दोष अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं।

दुनिया में जो कुछ दुःख हैं वे प्रज्ञा के दोष से हैं। बुद्धि की जितनी मन्दता, दुःख उतने ज्यादा। बुद्धि जितनी हीन, दुःख उतने ज्यादा। बुद्धि जितनी शुद्ध, दुःख उतने कम। बुद्धि अगर पूर्ण शुद्ध हो गई तो बड़ा अनुपम लाभ होगा।

बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से व्यर्थ का आकर्षण, व्यर्थ की चेष्टा, व्यर्थ के भोग और व्यर्थ का संग्रह, व्यर्थ का शोषण और व्यर्थ का पुचकार सारा का सारा खत्म होता चला जायेगा। विकल्प कम होने से आपका मन निःसंकल्प होगा। मन निःसंकल्प होने लगेगा तो सामर्थ्य बढ़ने लगेगा। मन को ज्यादा काम नहीं तो बुद्धि को ज्यादा परेशानी नहीं। बुद्धि जहाँ से स्फुरित होती है उस वास्तविक ज्ञान में बुद्धि ठहरने की अधिकारिणी हो जायेगी।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में ʹसांख्ययोगʹ नामक दूसरे अध्याय में कहते हैं-

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।57।।

ʹजो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है।ʹ (57)

यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गानीव सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58।।

ʹ…..और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है।ʹ (ऐसा समझऩा चाहिए।)(58)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61।।

ʹइसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।ʹ (61)

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68।।

ʹइसलिए हे महाबाहो ! जिस परुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।ʹ(68)

इन्द्रियगत ज्ञान अति तुच्छ है। जो लोग इन्द्रियगत ज्ञान को सर्वस्व मानते हैं उन लोगों के जीवन में बस, भोग…. भोग…. भोग…। पाश्चात्य जगत के लोग परलोक को नहीं मानते, श्राद्ध आदि को नहीं मानते। वे लोग इन्द्रियगत ज्ञान को ही सर्वस्व मानते हैं। इस शरीर को खूब खिलाओ-पिलाओ और भोग भोगो। इन्द्रियगत ज्ञान का आदर है इसलिए इन्द्रियों को खूब भोग चाहिए। इन्द्रियाँ चंचल हैं इसलिए भोग भी बदलते रहते हैं।

पाश्चात्य जगत की क्या परिस्थिति है ? बड़ी दयनीय स्थिति है उन लोगों की। वे लोग समय-समय पर फैशन बदलते हैं, कपड़े बदलते हैं, फर्नीचर बदलते हैं, घर बदलते हैं, कार बदलते हैं और यहाँ तक कि पत्नी भी बदलते हैं।

कहीं-कहीं तो ऐसी जगहें हैं जहाँ लोग अपनी-अपनी पत्नी ले जाते हैं। सब लोग नाचते हैं, झूमते हैं, दारू पीते हैं और पत्नियाँ बदल कर उपभोग करते हैं। फिर भी बेचारों को सुख नहीं है… दिनों दिन अशान्ति के, बरबादी के रास्ते चले जा रहे हैं।

पत्नी बदलो, परिवार बदलो, घर बदलो, गाड़ी बदलो, कपड़े बदलो, यह बदलो, वह बदलो फिर भी शांति नहीं। जब अमेरिका में 25 करोड़ की जनसंख्या थी तब वहाँ 20-25 हजार लोग हर साल आत्महत्या करते थे और अब 27 करोड़ 3 लाख से अधिक की आबादी हो गई है तो फिर क्या हाल होगा ? हालाँकि वहाँ की आर्थिक स्थिति बड़ी अच्छी है, खाने-पीने की प्रचुर चीजें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, उनमें कोई मिलावट नहीं है, लोग खूब काम करते हैं… अपनी डयूटी बजाते हैं लेकिन मशीन की तरह काम किये जा रहे हैं। भोग में अपने को गिराये जा रहे हैं।

भारत का अभी भी सौभाग्य है कि हजारों की संख्या में आप लोग आत्मशांति की जगह पर बैठ सकते हो।

भारत के युवक जब विदेशों में जाते हैं तब वहाँ उनका ब्रेनवाश अर्थात् बलात मतपरिवर्तन या मतारोपण किया जाता है कि जिस भूमि में वे पैदा हुए, जो ऋषियों की भूमि है, भगवान ने भी कई अवतार जिस भूमि पर लिये हैं, कई संत-महात्मा, ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष जिस भूमि पर अवतरित होते रहते हैं ऐसी अपनी मातृभूमि भारत के लिए उनमें घृणा और नफरत पैदा हो जाती है।

स्वामी रामतीर्थ के कथनानुसार और रशिया के कई विद्वानों के लेखों के अनुसार ईसा मसीह सत्रह साल भारत में रहे थे। उन्होंने कश्मीर के योगियों से योग सीखा। बाद में वहाँ जाकर चमके थे। ऐसी दिव्य भारत भूमि के लिए ही वे युवक बोलने लगते हैं- ʹIndia is nothing. India is very poor. भारत कुछ नहीं है। भारत बहुत गरीब है।ʹ

मैं अमेरिका गया था तो वहाँ के लोगों ने पूछाः “आप आध्यात्मिकता की बात करते हैं… तो भारत में आध्यात्मिकता है फिर भी भारत इतना गरीब क्यों है ?”

मैंने कहाः “हमारा भारत गरीब क्यों है यह आपको बता दूँगा लेकिन पहले आप यह बताओ कि आपके पास सब कुछ भौतिक सुविधाएँ होने के बावजूद दिल की दरिद्रता क्यों नहीं मिटती ? पति कमाता है, पत्नी कमाती है, बच्चे कमाते हैं फिर भी जैसे बूढ़े पशुओं को गोशाला में भेज देते हैं, ऐसे ही आप अपने माँ-बाप को नर्सिंग होम (सरकारी अनाथाश्रम) में क्यों भेज देते हो ? दिल के इतने दरिद्र क्यों हो ?

अब मैं यह बताता हूँ कि भारत दरिद्र क्यों हुआ। वह जमाना था कि भारत के लोग सोने के बर्तनों में भोजन करते थे। युधिष्ठिर महाराज ने यज्ञ किया था तब प्रतिदिन एक लाख लोगों को भोजन कराते थे। दस हजार साधू-ब्राह्मणों को सुवर्णपात्रों में भोजन परोसा जाता था। उन्हें हाथ जोड़कर विनती करते थे किः ʹभोजनोपरान्त कृप्या सुवर्णपात्र को स्वीकार करके अपने घर ले जाइये।ʹ कुछ लोग ये बर्तन ले जाते और कुछ लोग ऐसे भी थे जो कहतेः ʹहम ये सोने के ठीकरे सँभालेंगे कि अपने आत्मधन का ख्याल करेंगे ?ʹ सोने के बर्तन वहीं छोड़कर वे चले जाते थे। ऐसा हमारा भारत था !

हमारे भारत के एक साधू स्वामी रामतीर्थ अमेरिका पहुँचे तो वहाँ का राष्ट्रपति मि. रूजवेल्ट उनका दर्शन करके बोलता हैः “आज मेरा जीवन धन्य हुआ। अब तक तो ईसा मसीह के बारे में केवल सुना था। आज जिन्दा ईसा मुझे इन साधू में दिखाई दे रहा है।ʹ

भारत में ऐसे मोती पकते हैं। भारत आध्यात्मिक औऱ भौतिक दोनों संपत्तियों से समृद्ध था। फेरी-वाले पुकार लगाते थे) ʹदेना चाहो तो सोने-चाँदी के टूटे-फूटे बर्तन….ʹ

जमाना बदला। विदेशी लुटेरों ने देश पर आक्रमण किया। भारतीयों में संकीर्णता और दुर्बलता घुस गई। ʹसबमें भगवान हैं…ʹ की भावना से सब विदेशियों को आत्मसात कर लिया लेकिन लुटेरों ने भारत का सब माल हड़प कर लिया। फिर अफगानिस्तान आये, हूण आये, शक आये, ग्रीक (यूनानी) आये, फिरंगी (अंग्रेज) आये। सदियो तक भारत पराधीन बना रहा। शोषकों ने भारत की आर्थिक स्थिति सब गड़बड़ कर दी। शोषक लोग बढ़ गये, कंस और रावणों का प्रभाव बढ़ गया। समाज का खून चूसने वाले दुष्टों का बोलबाला होने लगा। लोगों में सावधानी नहीं रही। उन्होंने अपनी बलवान संकल्प-शक्ति खो दी। वे अपनी हिम्मत और प्राणशक्ति को भूलते गये। आध्यात्मिकता का, वेदान्त का, उपनिषदों का अमृतोपदेश गिरि-गुफाओं तक ही सीमित होने लगा। लोग हिम्मत, साहस, प्रसन्नता और सतर्कता भूलते गये। भय, लाचारी, खुशामदखोरी, पलायनवाद….ʹ अपना क्या ? करेगा सो भरेगा….ʹ इस प्रकार की धारणा से समाज पिछड़ गया। इसका फायदा शोषकों ने लिया।

…..ओर इस समय भारत में अमेरिका की अपेक्षा भूमि कम है, अमेरिका की अपेक्षा तीसरा हिस्सा भी नही है और जनसंख्या तीन गुनी से भी अधिक है। इस प्रकार देखा जाये तो अमेरिका में भारत की अपेक्षा करीब साढ़े नौ गुनी अधिक भौतिक सुविधाएँ हैं। फिर भी हमें रंज नहीं है।

आपके यहाँ भले ही इतनी सुविधाएँ हों लेकिन भारत आध्यात्मिक सपूतों के प्रसाद से प्रेम और सहनशक्ति, सहानुभूति और स्नेह, सदभाव और सामाजिक जीवन में आपसे अभी भी कहीं ऊँचा है। भले ही सिनेमा और टी.वी के माध्यम से पाश्चात्य जगत की गन्दगी भारत में आ रही है फिर भी आध्यात्मिक सुवास, हृदय की शांति कोई लेना चाहे तो, मिलेगी तो भारत से ही मिलेगी, आपके यहाँ मिलनी मुश्किल है।”

हे भारतवासियों ! आत्मशांति, आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम और सदाचार बढ़ाकर अपना आत्म-साक्षात्कार…. अपना जन्मसिद्ध अधिकार पा लो। कब तक विलासियों का अनुकरण करते-करते अपने को अशांति और उद्वेग में खपाते रहोगे ?

उठो… जागो… कमर कसो। सनातन धर्म के सर्वोपरि सिद्धान्तों को अमल में लाओ और यहीं, इसी जन्म में आत्मा-परमात्मा का अनुभव, अपनी अमरता का अनुभव कर लो।

हे परमेश्वर के अति निकटवर्ती मानव ! बहकावे में आकर विलासिता में फिसलने से अपने को बचा।

मानव ! तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है।

कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, तू ब्रह्म का ही वंश है।।

हे स्थितप्रज्ञ ! हे ऋषियों की संतान ! अपनी प्रज्ञा को ऊँची उठाओ… ब्रह्म में स्थिर करो। यही तुम्हारा वास्तव में मुख्य कर्तव्य है। फिर पूरा संसार तुम्हें खिलौन लगेगा।

ૐ….ૐ….ૐ…जागो….जागो…

ऐसे पुरुषों को खोज लो जो तुम्हारी प्रज्ञा को परमात्मा में प्रतिष्ठित कराने की क्षमता रखते हों।

उत्तिष्ठित….जाग्रत…. प्राप्य वरान्निबोधत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 9-13, अंक 89

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वाणी ऐसी बोलिये….


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।

वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।।

पारूषष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।

असंबद्ध प्रलापश्च वाङमयं साच्चतुर्विधम्।।

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

(मनुस्मृतिः 12.5,6,7)

मनुस्मृति में मनु महाराज कहते हैं कि मानव को सदैव दस दोषों से बचना चाहिए। दस दोषों में तीन मन के, तीन तन के एवं चार वाणी के दोषों का उल्लेख किया गया है।

मन के तीन दोषः पराये धन का चिन्तन, दूसरे की हानि करने का चिंतन, मन की मान्यता को महत्ता देना।

तन के तीन दोषः लोभकृतः धन हड़पना, क्रोधकृतः हिंसा करना, कामकृतः परस्त्रीगमन।

वाणी के चार दोषः कटु भाषण, असंबद्ध प्रलाप, झूठ बोलना, पैशुन्य यानी चुगली करना।

साँप का दंश तो एक बार मारता है किन्तु वाणी का दंश तो मरने के बाद भी एक-दूसरे का वैर ले लेता है। पिछले जन्म का शत्रु इस जन्म में किसी भी रूप में वैर ले ही लेता है। इसलिए बोलने में हमेशा सावधानी बरतनी चाहिए। चार बातों का आदर करने से दुश्मन भी मित्र हो जाते हैं-

घर में कलह के समय क्रोध करने वाले पर क्रोध न करें, वरन् चुप्पी साध लें।

किसी का अपमान न करें। यदि किसी की निंदा हुई हो तो उसकी गैरहाजिरी में उसकी प्रशंसा कर दें।

जो कुटुम्बी आपसे नहीं बोलता हो, उससे प्रयत्नपूर्वक बोलें।

बोलने से पहले हृदय को मधुरता से भर दें।

ये चार बातें जिसके जीवन में हैं उसके शत्रु भी मित्र बन जाते हैं और जो जरा-जरा बात में क्रोध करता है, जरा-जरा बात में रूठ जाता है, वाद-विवाद करता है एवं तिरस्कार करता है उसके मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।

इसलिए इस बात का खूब ख्याल रखना चाहिए कि कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना और कहाँ बोलना।

बोलने की जगह पर बोलो, चुप रहने की जगह पर चुप रहो, कम बोलने की जगह पर कम बोलो, सुनने की जगह पर सुनो और सुनाने की जगह पर सुनाओ।

जो सुनने की जगह पर सुनता है उसकी अक्ल का दीदार होता है। जो मौन की जगह पर बोलता है उसकी बेवकूफी का प्रदर्शन होता है और जो बोलने की जगह पर चुप हो जाता है वह मार खाता है। ऐसे मूर्ख लोग फिर ʹराम-रामʹ कहें चाहे ब्रह्मज्ञान सुनें, उन्हें कोई विशेष फायदा नहीं होता।

बहुत बोलने से, संसार की बातें बोलने से मौन रहना अच्छा है। यदि बोलना ही हो तो सत्य बोलें, एवं धर्मानुकूल बोलें। बोलते-बोलते सामने वाले में परमात्मप्रीति जगाना, सामने वाले को ब्रह्मविद्या में जगाने के लिए बोलना यह तो सर्वश्रेष्ठ है।

शुकदेवजी महाराज मुनि थे, एकांत में मौन रहते थे लेकिन वे जब बोले तब तमाम श्रोताओं सहित परीक्षित श्रीमद् भागवत रस में सराबोर हो गये, भगवद्-ज्ञान में जाग गये। अष्टावक्रजी महाराज बोले तो ʹअष्टावक्र संहिताʹ बन गयी। श्रीकृष्ण जी बोले तो ʹश्रीमद् भगवद् गीता बन गयी। बोले तो ऐसा बोलें कि जिससे बोला जाता है, उसकी खबर मिल जाये।

दत्तात्रेय जी महाराज अपने भक्तों से कहते हैं कि जिसकी वाणी में कोई सारगर्भित बात नहीं है अथवा किसी को आश्वासन देने की बात नहीं है, प्रेम नहीं है, आदर नहीं है, मधुरता नहीं है बल्कि कर्कश वाणी है वह तो मानों, बोझा उठाकर घूमता है।

एक थे हसन मियाँ। उन्होंने देखा कि उनका पड़ोसी शहद बेचक बड़ा पैसे वाला हो गया है। अतः उन्होंने अपनी बीवी को कहाः “मैं भी अब शहद बेचने का धंधा करूँगा।”

बीबी ने कहाः “शहद का धंधा बाद में करना। पहले शहद जैसा बोलना, मधुर बोलना तो सीख लें ! नहीं तो गड़बड़ हो जायेगी।”

हसन मियाँ बोलेः “अरे ! तू मुझे क्या समझाती है ?”

इस प्रकार बीवी को डाँट-फटकार कर निकल पड़ा शहद बेचने। पड़ोसी शहद बेचने जाये उसके पहले ही उठकर शहद बेचने चला जाता। वह ʹशहद लो शहद….ʹ की आवाज तो लगाता लेकिन कर्कश वाणी के कारण कोई उससे शहद लेने को तैयार न होता। यदि कोई उससे शहद लेने के लिए मटका उतरवाता भी तो चखकर मुँह मोड़ लेता। जब घूम-घामकर वह घर लौटा तो उसकी बीबी ने पूछाः

“क्यों मियाँ ! शहद कितना बिका ?”

हसन मियाँ- “ग्राहक नालायक हैं, बेवकूफ हैं। पहले मटका उतरवाकर शहद चख लेते हैं फिर नहीं लेते।”

बीबी समझदार थीष उसने कहाः “गुस्ताखी माफ हो, बड़े मियाँ ! जो खुशमिजाज हैं, प्रसन्नता एवं मधुरता से बोलते हैं उनकी मिर्च भी बिक जाती है लेकिन बदमिजाज एवं कटु वाणी वालों से लोग शहद भी नहीं लेते हैं।”

कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः

वाणी ऐसी बोलिये, जो मनवाँ शीतल होये।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।।

किसी को और कुछ न दे सकें तो कम-से-कम दो मधुर शब्द से, आत्मभाव से सामने वाले का सत्कार कर दें। इससे उसको भी प्रसन्नता होगी एवं आपका अंतःकरण भी शुद्ध होगा।

यह समझ लें कि मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनंद, शांति एवं प्रेम का दान करती है और स्वयं आनंद, शांति एवं प्रेम को खींच लाती है। मधुर एवं हितकर वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन को पवित्र शक्ति प्राप्त होती है एवं बुद्धि निर्मल बनती है। ऐसी वाणी में भगवान का आशीर्वाद उतरता है और इससे अपना, दूसरों का, सबका कल्याण होता है। इससे सत्य की रक्षा होती है और इसी में सत्य की शोभा है।

मुख से ऐसा कटु शब्द कभी मत निकालें जो किसी का दिल दुखावे और अहित करे। कभी असत्य मत बोलें, किसी की चुगली न करें और असंबद्ध प्रलाप न करें। असंबद्ध प्रलाप अर्थात् समय परिस्थिति के विपरीत बातें न करें। जैसे, किसी की मृत्यु का अवसर हो और वहाँ करने लगे किसी की शादी की बात। ऐसा नहीं होना चाहिए। सही बात भी असामयिक होने से प्रिय नहीं लगती।

नीकी पै फीकी लगे, बिन अवसर की बात।

जैसे बीरन में युद्ध में, रस सिंगार न सुहात।।

बातें करते समय दूसरों को मान देना और आप अमानी रहना यह सफलता की कुंजी है। जो बात-बात में दूसरों को उद्विग्न करता है, वह पापियों के लोक में जाता है।

मुँह से बात बाहर निकालने से पहले ही उसके परिणाम की कल्पना कर लें ताकि बाद में पछताना न पड़े।

बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जानि।

हिये तराजू तौलि के, फिर मुख बाहर आनि।।

हुक्म चलाते हो ऐसा बोलना, आवश्यकतानुसार बोलना, चिल्लाते हुए बोलना, अश्लील शब्द बोलना और कटु बोलना ये चार संभाषण के दोष हैं।

हितकर बोलना, आवश्यकतानुसार बोलना, मधुर बोलना, प्रिय बोलना एवं सत्य बोलना ये वाणी के गुण हैं।

जैसे रूखा भोजन मनुष्य को तृप्ति प्रदान नहीं कर सकता, वैसे ही मधुर वचनों के बिना दिया हुआ दान भी प्रसन्नता नहीं उपजाता।

लोगों से मिलते वक्त जो स्वयं बात आरम्भ करता है और सबके साथ प्रसन्नता से बोलता है, उस पर सब प्रसन्न रहते हैं।

आवश्यकता पड़ने पर किसी को दण्ड देते समय भी सांत्वनापूर्ण वचन ही बोलना चाहिए। इस प्रकार आप अपना प्रयोजन तो सिद्ध कर ही लेते हैं और कोई मनुष्य उद्विग्न भी नहीं होता।

यदि सुन्दर रीति से, सांत्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचन सदैव बोले जायें तो इसके जैसा वशीकरण का साधन संसार में कोई नहीं है। परन्तु यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि अपने द्वारा किसी का शोषण न हो। मधुर वाणी उसी की सार्थक होती है जो प्राणिमात्र का हितचिंतक होता है। गरीब, अनपढ़, अबोध लोगों की नासमझी का गैरफायदा उठाकर उनका शोषण करने वाले शुरुआत में तो सफल दिखते हैं किन्तु ऐसे लोगों का अंत अत्यन्त खराब होता है। सच्चाई, स्नेह और मधुर व्यवहार करने वाला कुछ गँवा रहा है, ऐसा किसी को बाहर से शुरुआत में लग सकता है किन्तु उसका अंत अनंत ब्रह्माण्डनायक ईश्वर की प्राप्ति में परिणत होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2000, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 89

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