इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों के बदल जाने वाला था (भाग-3)

इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों के बदल जाने वाला था (भाग-3)


कुछ दिन पूर्व हम सभी ने यह प्रसंग पढा था कि गुरुदेव निवृति नाथ ने माडे खाने की इच्छा व्यक्त की, तब सौपान देव और ज्ञानदेव दोनों गांव में माड़े के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए गए । जहां पर विसोबा चाटी द्वारा उनको अपमान एवम् तिरस्कार सहना पड़ा और इकट्ठी की हुई सामग्री भी मिट्टी में मिल गई । ज्ञानदेव वापस आकर अपने कुटीर की फाटक का किवाड़ बंद कर लेते हैं,

तब मुक्ताबाई ज्ञानदेव को ताटी अभंग द्वारा मनाती है, समझाती है, गाते-2 मुक्ताबाई स्वयं भाव-विभोर होकर रोने लगती है । तभी एक ब्राह्मण देव गांव से आकर उन्हें आटा दे जाते हैं, परंतु दुविधा यह है कि आटा तो मिल गया परन्तु बर्तन नहीं होता है । अब माड़े कैसे बनाए जाएं गुरुदेव के लिए, जब संत ज्ञानेश्वर ने मुक्ताबाई को रोते हुये देखा तो उन्होंने उनसे कहा कि मुक्ता तुम माड़े बनाने की तैयारी करो, बर्तन की व्यवस्था मैं कर दूंगा ।

मुक्ताबाई यह सुनकर बहुत खुश हो गई और तैयारी करने लगी, उधर संत ज्ञानेश्वर ने योगसिद्धि से अपनी पीठ को तवे की तरह तपा लिया और मुक्ताबाई से कहा तुम मेरी पीठ पर माड़े सेक लो । मुक्ताबाई ने ऐसा ही किया और बर्तन के बिना माड़े तैयार हो गये, जब गुरुदेव निवृति नाथ ने ज्ञानेश्वर को योग विद्या का प्रयोग करते देखा तो उन्हें समझाया कि योग विद्या एक महान विद्या है।

जिसका असली उद्देश्य मात्र ईश्वर प्राप्ति है, लोक कल्याण है उसे भूख, प्यास जैसी शारीरिक इच्छाओं और स्वार्थपूर्ति के लिए कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए । ज्ञानदेव ने निवृतिनाथ जी की बात को गांठ बांध ली और फिर उन्होंने कभी अपनी योग विद्या का प्रयोग निजी कारणों के लिए नहीं किया । मुक्ताबाई ने अपने भाइयों को बड़े प्रेम से माड़े खिलाये, लेकिन जब उसके खाने की बारी आई तो उसकी थाली से एक काला कुता माड़े उठाकर भाग गया ।

मुक्ता भूखी ही रह गई, मगर फिर भी प्रसन्नचित, तभी गुरुदेव ने कहा अरे मुक्ता वह कुत्ता तेरा खाना उठाकर ले गया, तूने उसे डांटकर भगाया भी नहीं, ऊपर से तू खुश भी है, इस पर मुक्ता बोली किसे डराऊं, गुरुदेव विट्ठल स्वयं मेरे बनाये माड़े लेकर गये हैं, उनको मेरे बनाये माड़े इतने अच्छे लगे कि वे कुत्ते का रूप धर कर उसे खाने आ गये, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी ।

मुक्ता का जवाब सुनकर गुरुदेव निवृतिनाथ मुस्कुरा उठे, आखिर गुरू उसके भावों की परीक्षा ही तो ले रहे थे । मुक्ता की बात सुनकर संत ज्ञानेश्वर बोले मुक्ता चल मान लिया, तेरा खाना उठाकर भागने वाला विट्ठल है मगर हमें इतना तंग करने वाला विसोबा कौन है मुक्ता बोली विसोबा भी विट्ठल ही है विट्ठल के हर शरीर में अलग-2 मानव स्वभाव हैं मगर उन सभी शरीरों के अंदर चेतना तो एक ही विराजमान है गुरुदेव , गुरुदेव मुझे तो विसोबा में भी विट्ठल के ही दर्शन होते हैं ।

बाहर खड़ा विसोबा झोंपड़ी की दरार से यह सारा दृश्य देख रहा था, वह पहले ही संत ज्ञानेश्वर के योग द्वारा पीठ को तपाने का चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित, ऊपर से मुक्ता की बातें सुनकर उसका अहंकार पूरी तरह पिघलने लगा । उसे पहली बार अहसास हुआ कि वास्तव में ये कोई साधारण बच्चे नहीं बल्कि ज्ञान, योग और भक्ति की प्रतिमूर्ति हैं, इनका ज्ञान मेरी तरह किताबी नहीं है बल्कि इनके जीवन में उतर चुका है विसोबा को अपनी कुबुद्धि पर बड़ा पश्चाताप होने लगा ।

वह सोचने लगा कि मैंने ऐसे दिव्य बच्चों को सताने का पाप किया है अब इसका प्रायश्चित कैसे करूं, कैसे अपने पाप कर्मों की क्षमा मांगू । पश्चाताप के आंसू बहाता विसोबा उनकी झोंपड़ी के अंदर आया और संत के चरण पकड़ कर अपने कृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगा । उसका अहंकार पूरी तरह से चारों बच्चों के चरणों में समर्पित हो गया, विसोबा संत ज्ञानेश्वर से उसे अपनी शरण में लेने का अनुरोध करने लगा ।

विसोबा का पश्चाताप देखकर सबने उसे क्षमा कर दिया । आगे चलकर निवृतिनाथ ने उन्हें उपदेश दिये और मुक्ताबाई विसोबा की गुरू हुईं । संत संतानों के बताए वास्तविक धर्म के मार्ग पर चलते-2 विसोबा ज्ञान और भक्ति में डूब गये । उनकी चेतना इतनी उच्च हो गई कि आगे चलकर वे संत विसोबा खेचर कहलाए गए । उन्होंने महाविष्णु-चा-अवतार, श्री गुरूमाझा-चा-ज्ञानेश्वर जैसे अभंग भी बनाकर गाये, इस कहानी में आयी तीन महत्वपूर्ण बातें अध्यात्मिक दृष्टि से मनन करने योग्य हैं,

पहली कि संसार में उपस्थित हर इंसान, जीव, वनस्पति और वस्तु में मूल रूप से उसी एकमय को देखना । दूसरी बात कि कभी भी अपनी शक्ति का स्वार्थ के लिए प्रयोग ना करना और तीसरी बात कि हमसे नफरत करने वाले, बुरा बर्ताव करने वाले को भी क्षमा करना, उसे भी भक्ति-युक्त प्रतिसाद देना । निवृतिनाथ परम सिद्ध योगी थे, उन्होंने अभावों को सहना मंजूर किया, मगर अपनी सिद्धियों का कभी भी स्वार्थपूर्ति के लिए दुरूपयोग नहीं किया ।

उन्होंने संत ज्ञानेश्वर के साथ-2 संसार को भी कितनी बड़ी शिक्षा दी कि शक्ति का प्रयोग भक्ति बढ़ाने के लिए हो, जन-कल्याण के लिए हो, स्वार्थपूर्ति और व्यक्तिगत महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए न हो वरना लोग जरा सी शक्ति पाकर उसका दुरूपयोग करने लगते हैं, अपने लाभ के लिए तो बहुत छोटी बात है मगर वे उनका दूसरों के नुकसान के लिए भी प्रयोग कर डालते हैं ।

शक्ति मिलने पर लोग अहंकारी, स्वार्थी और असहनशील भी हो जाते हैं जबकि ज्ञान और शक्ति का प्रयोग सत्यप्राप्ति एवम् लोक-कल्याण के लिए ही होना चाहिए । संत ज्ञानेश्वर और उनके छोटे संघ ने सदैव ऐसा ही किया और लोगों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा दी । यहां पर देखा जाए तो दोनों ही सदगुरु और संसार, दोनों ही अपने सिद्धांतों से एक-दूसरे के विपरीत हैं जहां सदगुरु का सिद्धांत स्व से पर कल्याण है वहीं संसार का सिद्धांत पर से स्वार्थ की पूर्ति है ।

प्रबुद्ध ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु कभी भी चमत्कार दिखाकर या योगसिद्धि का प्रयोग कर लोगों को आकर्षित या भ्रमित नहीं करते, परन्तु यहीं संसार की धारणा क्या है कि वह चमत्कार को ही नमस्कार करना चाहती है हम अपने ही प्यारे गुरुदेव के जीवन पर दृष्टि डालें तो हम सभी ने देखा है कि पूज्यश्री शक्तियों के स्वामी होते हुए भी उन्होंने कभी भी उनका प्रदर्शन किसी को प्रभावित करने के लिए नहीं किया।

अपितु हम सभी साधकों के कल्याण के लिए ही किया है फिर चाहें वो ध्यानयोग शिविर में एक-साथ लाखों लोगों को उस महामाया की अधरामृत चखाने के लिए किया हो या फिर हम प्रत्येक साधक को संरक्षित करने के लिए किया हो । ऋद्धि-सिद्धि उसकी दासी, यदि वह संकल्प चलाए मुर्दा भी जीवित हो जाए, मृत गाय दिया जीवन दाना, सबका योग क्षेम वे रखते यह सभी बातें बापूजी के जीवन में मात्र परहित के लिए हैं,

यह हमारे पूज्य पुराण पुरुष हमारे गुरुदेव इन सिद्धियों का उपयोग तो स्व के लिए करने से भी परहेज रखते हैं क्यूं ! क्योंकि मेरे बापू का हृदय ही ऐसा है कि उन्होंने अपना सर्वस्व हमें ही समर्पित कर रखा है, उनके पास जो कुछ है वह सब उन्होंने हम साधकों को दे रखा है, हम साधकों के लिए सुरक्षित कर रखा है ।

कैसा अनौखा समर्पण होता है सदगुरु का अपने शिष्यों के लिए, कई बार हम सभी ने सुना है, पढ़ा भी है कि जैसे नाई अपने बाल स्वयं नहीं काटता, डॉक्टर अपना इलाज स्वयं नहीं करता वकील अपना केस स्वयं नहीं लड़ता, वैसे ही मैं भी अपने प्यारे साधकों के संकल्प से ही बाहर आऊंगा । इस वाक्य में स्वार्थ की दूषित गंध नहीं, परहित की पोषित सुगंध है । कहां तो समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी परन्तु आज अपने जीवन से पूज्य श्री हम सभी को यह सीख दिए जा रहे हैं कि औरों के लिए जियो सबके लिए जियो और अपने जीवन को सार्थक करो ।

बड़ा ही सुन्दर सूत्र है कि सबका मंगल सबका भला ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *