ध्यान का रहस्य

ध्यान का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ध्यान माने क्या ? हमारा मन नेत्रों के द्वारा जगत में जाता है, सबको निहारता  है तब जाग्रतावस्था होती है, ʹहिताʹ नाम की नाड़ी में निहारता है तब स्वप्नावस्था होती है और जब हृदय में विश्रांति करता है तब सुषुप्तावस्था होती है। ध्यानावस्था न जाग्रतावस्था है, न स्वप्नावस्था है और सुषुप्तावस्था है वरन् ध्यान चित्त की सूक्ष्म वृत्ति का नाम है। सूक्ष्म वृत्ति हो जाने पर शरीर से ʹमैं पनाʹ हट जाता है।

इसका मतलब यह नहीं कि जब ध्यान करते हो तब जड़ हो जाते हो या तुमको कुछ पता नहीं चलता। तुम नाचते हो, गाते हो, रोते हो… उसका ऊपर-ऊपर से पता नहीं चलता है लेकिन अंदर से सब पता चलता है। तुम्हारी ताल से विपरीत कोई ताल देता है तो ध्यान का ताल टूट भी जाता है। ध्यान करने वाला ध्यानावस्था में जड़ नहीं होता है, बेवकूफ नहीं रहता है वरन् उसकी चित्त की वृत्ति सूक्ष्म और आनंद-प्रेमप्रधान हो जाती है। वही वृत्ति जब जाग्रत में आ जाती है तो जाग्रत के व्यवहार में भी ठीक से सँभलकर रहती है।

परमात्म-ध्यान से अंतरात्मा की शक्ति जागृत होती है एवं स्मृतिशक्ति बढ़ती है। ध्यान करने से दुर्गुण दूर होते हैं एवं सदगुण बढ़ते हैं। ध्यान करने से पाप नष्ट होते हैं, निर्भयता बढ़ने लगती है, परमात्मा का सुख उभरता है, परमात्मा का ज्ञान निखरता है। ध्यान करने से परमात्मा का आनन्द आता है और ध्यान दृढ़ होने से  परमात्मा स्वयं प्रगट हो जाते हैं।

चंचल-दुर्बल रहने से भगवान नहीं मिलते, न ही बड़े छोटे होने से भगवान मिलते है। चिंता करने से भी भगवान नहीं मिलते, न ही ʹहा-हा…ही-ही….ʹ करने से भगवान मिलते हैं। भगवान तो मिलते हैं जप-ध्यान से, भक्ति-ज्ञान से।

हम जैसे रोज-रोज खाते हैं, रोज-रोज सोते उठते हैं, रोज-रोज जगत का व्यवहार करते हैं वैसे ही रोज-रोज परमात्मा का ध्यान भी करना चाहिए। रोज-रोज परमात्मा का जप सुमिरन करना चाहिए। रोज-रोज सत्संग-स्वाध्याय करना चाहिए एवं अपने आपको अंतर्मुख करने का यत्न करना चाहिए।

कई लोग ध्यान के समय आँखें खोलकर इधर-उधर देखते रहते हैं, वे उस समय चूक जाते हैं। आँखें खोलकर इधर-उधर निहारने से वृत्ति बहिर्मुख रहती है।

जिसकी वृत्ति अंतर्मुख हो गयी है उसको जप से क्या लेना-देना ? जिसकी वृत्ति शांत हो गयी है, उसको स्वाध्याय के लिए भी वृत्ति को बाहर लाने की जरूरत नहीं है। स्वाध्याय और जप, वृत्ति को अंतर्मुख करने के लिए हैं। कीर्तन भी वृत्ति को अंतर्मुख करने के लिए  है।

जब स्वरूप में निष्ठा हो जाये तो फिर खुली आँख भी समाधि है। जब तक स्वरूप में निष्ठा नहीं हुई, तब तक इष्ट में, भाव में, प्रेम में निष्ठा करके अंतर्मुख होना चाहिए। इष्ट में, भाव में, प्रेम में निष्ठा करके अंतर्मुख हुआ जाता है तो अंतर्मुखता में जो आनंद आता है, वही आत्मा का आनंद है।

ऐसा नहीं है कि भगवान बाद में मिलेंगे। जब-जब मन अंतर्मुख हो जाता है तब-तब आत्मा में लीन हो जाता है, आनंद आता है। जब आनंद आये तो समझो आत्मा के नजदीक हो किन्तु मनोराज हो गया, निद्रा आने लगे तब चित्त को सावधान करना चाहिए। मनोराज, निद्रा या तंद्रा में चित्त न जाये इसके लिए स्वाध्याय, जप, कीर्तन करो एवं आत्मारामी सच्चे महापुरुषों के सान्निध्य में बैठकर ध्यान करो।

चित्त को अंतर्मुख करने के लिए निष्ठा की जरूरत है। छोटे-मोटे विघ्न तो आयेंगे-जायेंगे। फिर चाहे हिमालय की गुफा में जाकर ही क्यों न बैठो ? जीव-जन्तु, पशु आदि तो वहाँ भी तंग करेंगे ही, किन्तु उनकी वजह से हलचल करोगे तो फिर चित्त को शांत कब करोगे ? अतः एकनिष्ठ होकर बैठना चाहिए और एकनिष्ठ भी बोझ बनकर नहीं कि ʹमैं शांत बैठा हूँ।ʹ

कोई आया तो क्या ? कोई गया तो क्या ? किसको कब  तक निहारते रहोगे ? ….और बाहर जो दिखेगा उसका अर्थ तुम अपनी समझ के अनुसार लगाओगे। सही देखना है, सच्चा देखना है तो एकनिष्ठ होकर अंतर्मुख होना चाहिए।

हम जितने अंतर्मुख होते हैं उतनी शक्ति बढ़ती है। जितने संकल्प कम होते हैं उतना सामर्थ्य बढ़ता है। जैसे, जितने बादल हट जाते हैं उतना सूर्य का प्रभाव दिखता है। जितने बादल अधिक आ जाते हैं उतन सूर्य का प्रभाव कम हो जाता है। ऐसे ही आत्मसूर्य है। जितने स्पंदन ज्यादा हैं बादलों की नाईं, उतना आत्मसूर्य का प्रभाव कम दिखता है और जितने संकल्प कम होते हैं उतना प्रभाव ज्यादा दिखता है। वास्तव में आत्मा का तेज घटता बढ़ता नहीं है लेकिन संकल्पों के कारण घटता हुआ लगता है। अतः एकनिष्ठ होकर ध्यानस्थ होना चाहिए।

चाहे भक्ति हो, योग हो या ज्ञान हो, आपकी निष्ठा आपके काम आयेगी। यदि निष्ठा नहीं होगी तो भक्त की भक्ति अधूरी रह जायेगी, योगी का योग अधूरा एवं ज्ञानी का ज्ञान अधूरा रह जायेगा। एकनिष्ठा…. जैसे पतिव्रता स्त्री की पति में निष्ठा होती है वैसे ही साधक की अपने साधन में निष्ठा होनी चाहिए, नहीं तो संसार की माया ऐसी है कि फँसा देती है। भगवान से भी बढ़कर भगवत्प्रीति के साधन में आदरबुद्धि होनी चाहिए। आदरबुद्धि के अभाव में ही साधन में रुचि नहीं होती।

चातक मीन पतंग जब, पिय बिन नहीं रह पाय।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय ?

ध्यान का आस्वादन भी वही ले सकता है जिसकी निष्ठा दृढ़ हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 90

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