गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-2)

गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-2)


कल हमने जाना कि महात्मा बुद्ध का शिष्य सुदत्त, युवराज जेत की चुनौती स्वीकार करता है लेकिन कुमार जेत की चुनौती उसकी हैसियत से थोड़ी ऊंची थी। मामूली बात थोड़े न थी कई एकड़ की जमीन पर सोने के सिक्के बिछाना, खैर सुदत्त पूरी गति में था करानेवाला आप कराएगा यह सोचकर वह निमित्त बन गया।

अगले ही दिन से छकड़े के छकड़े भर-भरकर स्वर्ण मुद्राएं वन में आने लगीं वन की भूमि पीले सोने से चमक उठी। सुदत्त मुट्ठियां भर-भरकर मुद्राएं उठाता फिर जमीन को प्यार से सहलाते हुए उस पर उन्हें बिछा देता करते- करते चौथाई वन सोने से ढक गया फिर आधा वन। सुदत्त ने अपने ख़ज़ाने खाली होते देखे तो व्यापार को समेटकर पाई-पाई इकट्ठे करने लगा साथ ही अपनी अन्य जमीन जायदाद भी बेचता गया, इन हालातों में भी उसने अपने नौकरों को भी कड़ी हिदायत दी कि जो भी हो तुम लंगर बन्द मत करना वरना श्रावस्ती के गरीब इसका इल्जाम गुरुदेव पर मड़ देंगे।

धीरे-धीरे यह खबर सारे श्रावस्ती में फैल गई युवराज जेत को भी मानो तेज झटके लगे वह तुरन्त वन पहुंचे वहां आकर देखा लगभग तीन चौथाई ( 3/4 ) वन सोने की मुद्राओं से ढका जा चुका था। सोने से लदे छकड़े कतारे लगाकर खड़े थे। जेत से रहा न गया सुदत्त से बोला कि- क्यों कर रहे हो ये पागलपन आखिर किसके लिए कर रहे हो?

सुदत्त ने जेत की आंखों में आंखे डालकर देखा और बोला- उसके लिए जो इस वन का ही नही सकल जगत का स्वामी है, जिसके आने से श्रावस्थी में सौभाग्य का नया सूर्य उदय होगा, उसके लिए जिसके एक मुस्कान के आगे ये करोड़ो मुद्राएं तुच्छ है, जिसकी एक दृष्टि में तीनों लोकों के सुख समाए है।

युवराज जेत ने बीच मे ही टोका- कौन है वो?

-मेरे स्वामी मेरे गुरुदेव है।

-सुदत्त समझते क्यों नही उनके आने से पहले तुम कंगाल हो जाओगे सड़क पर आ जाओगे।

सुदत्त ने कहा- समझते तुम नही कुमार उनके आने से मैं ही नही समस्त श्रावस्थी के दरिद्रता हर जाएगी सब आत्मिक स्तर पर धनी हो जाएंगे पूर्ण आनंदित।

जेत ने लम्बी गहरी श्वांस भरी इतने में देखा कि सुदत्त पर गजब का उन्माद छा आया है कभी धरा पे लोट रहा है, कभी दौड़कर शिलाओं को सहलाता है साथ- साथ कहे जा रहा है देखो कुमार देखो !! जब मेरे प्रभु इस धरा पर चलेंगे तो यह पगली भी आनन्दित होगी, जब मेरे गुरुदेव इस शिला पर बैठकर ध्यान करेंगे तो यह पत्थर भी निर्वाण पा लेंगे, इस वृक्ष के नीचे बैठकर जब मेरे गुरुदेव दर्शन एवं उपदेश देंगे तो यह भी आनंद का धनी हो जाएगा, ये हवाएं ये पवन जब ये मेरे गुरुदेव के वचनों को पाएंगे तो अपने आपको धन्य महसूस करेंगे गुरुदेव का चीवर छुयेगी तो यह भी धन्य हो जाएगी।

बस-बस शांत हो जाओ सुदत्त कुमार जेत कह उठा कुछ मिनटो तक ठिठकी हुई आंखों से जेत सुदत्त को घूरता रहा फिर अचानक बोला- शिष्य की ऊंचाई देख ली परन्तु अब उसके भगवान की ऊंचाई देखना चाहते है सुदत्त, अब एक भी और सिक्का इस वन में मत बिछाना बची हुई जमीन हमारी ओर से उपहार समझो । हम भी तुम्हारे गुरुदेव से मिलने के लिए अधीर है ।

आखिर वह पुण्य घड़ी भी आ गईं कुछ दिनों के बाद सभी वन के बाहर फूल मालाये लेकर गुरुदेव के इंतजार में खड़े है दूर से लाल रंग का सैलाब उमड़ता दिखाई दिया इन सबके आगे चल रहे थे महात्मा बुद्ध हंसो के झुंड के बीच उनके राजा की निराली ही उड़ान थी। स्मित मन्द करुणा भरी मुस्कान बिखेरते हुए गुरुदेव बढ़े आ रहे थे उन्हें देखते ही सुदत्त तन्द्रा में उतर गया मानो बसन्त का एक ठंडा झोंका धीरे से उनके कानों में कह गया- देख श्रावस्थी के अनाथ पिंडक पूरे ब्रम्हांड को अपनी करुणा से जिलाने वाले विश्व के अनाथ

पिंडक अनाथों के नाथ आ रहा है…

तुमको जो छू करके आती है हवाये,

महका दे तन मन ये महक फिजायें।

न जाने किस ऋतु की बारिश थी यह जो सुदत्त की आंखों से बरस उठी भव्य स्वागत के बीच महात्मा बुद्ध और उनके संघ ने वन में प्रवेश किया कुछ क्षणों के बाद सुदत्त अपने गुरुदेव के सामने था कुमार जेत भी पास खड़ा था ।

महात्मा बुद्ध ने कहा- सुदत्त तूने तो मुझे सिर से पांव तक सोने में मढ दिया रे।

सुदत्त ने कहा- गुरुदेव! आपका दिया आपको दिया, मेरा क्या था भगवान?

बुद्ध मुस्कुराए फिर पूछे- तूने इस वन का क्या नाम रखा है सुदत्त?

सुदत्त हाथ जोड़ते हुए बोला- प्रभु! यह शुभ कार्य आप ही की प्रतीक्षा कर रहा था, वैसे भगवन युवराज जेत ने हमे इस वन का बहुत बड़ा भाग बेमोल दान में दिया है क्यों न उन्ही के नाम पर वन…..।

– ठीक है ठीक है सुदत्त आज से यह वन “जेत वन” कहलायेगा।

कुमार जेत नम्र शाखा की तरह बुद्ध के चरणों मे झुक गए अरदास की प्रभु सिर्फ एक चौथाई ( 1/4 ) भूमि अर्पित करने वाले को आपने इतना सम्मान दे डाला कि इतिहास में मेरा नाम उज्ज्वल हो गया ये वन जेत वन के नाम से प्रसिद्ध होगा परन्तु प्रभु क्या अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस सुदत्त को कुछ न दोगे।

बुद्ध बोले- सुदत्त तो लेन- देन के व्यापार से बहुत ऊंचा उठ चुका है इसने अपना सबकुछ मुझे दे दिया है अब मेरा सबकुछ इसीका तो है। क्या पिता को अपने पुत्र को कुछ देने की आवश्यकता है ? पिता का सबकुछ पुत्र का ही तो है। सच मे यह सौदा हर सौदे से बढ़कर था खरे से भी खरा, सुदत्त ने खुद को देकर अपने गुरुदेव को ले लिया था।

धन्य है ऐसे शिष्य जिनकी जीवन गाथा, जिनका जीवन चरित्र पढ़ने के लिए इतिहास में हमे लौटने का मन करता है। अपने लिए तो हर कोई कमाता है धन इक्कठे करता है समाज मे दानियों की भी कमी नही मगर कितने ऐसे है जो अपने गुरुदेव अपने प्रभु के लिए सर्वस्व अर्पण कर जाते है ।

एक शिष्य के लिए सच्ची लक्ष्मी तो उसके गुरु के प्रति की हुई सेवा उसका गुरु चिंतन है। इस सच्ची लक्ष्मी तो हमारे भाग्य में है लेकिन हम उसे कितना बटोर पाते है.. सच्ची लक्ष्मी तो हमारे जोगी की प्रसन्नता है, उनकी एक मीठी मुस्कान है, उनकी एक दृष्टि है जिसे हमे खूब यत्न पूर्वक अर्जित करना चाहिए यह सच्ची लक्ष्मी की प्राप्ति मात्र और मात्र गुरुदेव के सिद्धांतों के सूत्र को पकड़ने से ही प्राप्त होती है इसलिए कहते है कि-

जब जन प्रभु से प्रभु को मांगे, उसे प्रार्थना जानो।

धन संसार पदार्थ मांगे, तो उसे गोखर मानो।

लोग कहे हम तो मांगेंगे, है अधिकार हमारा।

उससे नही तो किससे मांगे,

उस बिन कौन हमारा।

माना उस पे हक है सबका,

है अधिकार हमारा।

पर फर्ज हमारा प्रति क्या उसके,

ये तो कभी न जाना।

अधिकार संग फर्ज जुड़ा है,

ये जन उसको जानो।

गर चाहते हो हिस्सा उससे,

तो फर्ज निभाना जानो।

दाता ने मानव तन देकर,

हम पर एक उपकार किया।

तत्व रूप से जाने उसको,

मोक्ष मार्ग यह प्रदान किया।

इसलिए इस तन को पाकर,

ईश्वर से ईश्वर को मांगो।

धन संसार न मांगो उससे,

भक्ति शक्ति सेवा मांगो।

ईश्वर की इच्छा को जिसने,

तन मन से स्वीकार किया।

गुरु प्रेम तब बरसा उन पर भक्ति का रंग खूब चढ़ा,

गुरु प्रेम तब बरसा उन पर भक्ति का रंग खूब चढ़ा

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