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तब हमें पता चलेगा कि उत्तरायण कितना मूल्यवान पर्व है !


प्रकृति की हर गहरी चेष्टा तुम्हारे तन-मन से संबंध रखती है इसलिए उत्तरायण का दिन भी बहुत महत्त्वपूर्ण दिन है । इन दिन से सूर्य का रथ दक्षिण से मुड़कर उत्तर को चलता है । नैसर्गिक, पौराणिक, वातावरण और शरीर की रचनी दृष्टि से इस दिन का अपना गहरा मूल्य है । उत्तर की तरफ हमारा रथ चल जाय ( अर्थात् हमारी चित्तवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी हों, हम परमात्मप्राप्ति की यात्रा करें ) इसलिए प्रकृति की अपनी व्यवस्था है ।

कुसंग से बचो

संत कहते हैं, अनुभवी कहते हैं कि उस वातावरण से, उन व्यक्तियों से बचो जो तुमको भगवान या गुरु के रास्ते जाने से रोक रखते हैं या तुम्हारी श्रद्धा डाँवाडोल करते हैं । पैसे का नाश हो जाना कोई नाश नहीं है, श्रद्धा का नाश हुआ तो समझो तुम्हारा सर्वनाश हुआ । श्रद्धा नाश से तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा, किया कराया चौपट हो जायेगा । जो सेवा की है, जो पुण्य कमाया है जो परलोक में काम देगा वह सब चौपट हो जायेगा । अतः कुसंग से बचो । क्या पता यह किश्ती कब दरिया के हवाले हो जाय !

तुम अपना उद्धार करते हो तो 21 पीढ़ियों का भी उद्धार कर लेते हो और तुम अपना अधोगमन, सत्यानाश करते हो तो कुटुम्ब का भी करते हो और समाज को भी नीचे गिराते हो । इस देश में कई ऐसे जटिल समाज हैं कि जब-जब उनमें बुद्धपुरुष हुए और उत्तर अर्थात् सर्वांगीण उन्नति की यात्रा कराने लगे तब-तब उन जटिल समाजों ने उनसे लोगों को दूर करने की कोशिश की और जब वे बुद्धपुरुष चले गये तो समाज अभागा होकर शराब आदि नशाखोरी में, लड़ाई-झगड़ों में मरता रहा, सड़ता-गलता रहा ।

ऋषियों की अनमोल देन

प्रकृति के शरीर के साथ जुड़ा हुआ यह सूर्य उत्तरायण को अपनी दिशा बदलता है । सूर्य की दिशा बदलना हम लोगों के साथ सम्बंध रखता है । इस दिन से देवताओं का प्रातःकाल ( ब्राह्ममुहूर्त ) शुरु होता है । अतः इन दिनों में मांगलिक कार्य किये जाते हैं ।

उत्तरायण के पर्व को सिंधी में ‘तिर-मूरी’ कहते हैं । इस पर्व पर मूली खायी जाती है । बच्चे पतंग उड़ाते हैं । तिल, घी और गुड़ या शक्कर मिलाकर लड्डू बनाये जाते हैं । तिल-पापड़ी खायी-खिलायी जाती है, दी जाती है । तिल में स्निग्धता है । सर्दियों में तन में पुष्टि चाहिए, मन में मिठास चाहिए और जीवन में कुछ उत्तर की ( यानी ऊपर के केन्द्रों की ओर ) गति चाहिए । उस गति के लिए भी शक्ति चाहिए तो ऋषियों ने इस गति और शक्ति से हमारे जीवन को सम्पन्न करने के लिए उसमें तिल और मूली का प्रयोग करा दिया ।

महापुरुष हमारे लिए समाज में आते हैं

मनुष्य के तन-मन पर ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव पड़ता है । इन ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव तब तक पड़ता रहेगा जब तक तुम्हारा मन उत्तर की तरफ नहीं चला, तुम जब तक नीचे के केन्द्रों में हो । तुम्हारा चित्त कुछ ऊपर चला जाता है तो फिर कर्म-बंधन का, जन्म-मरण का चक्कर अथवा प्रकृति का प्रभाव तुम पर काम नहीं करता । उसको कहा जाता है ‘मुक्त अवस्था’, ‘आत्मसाक्षात्कार की अवस्था’ । ऐसा कोई मनुष्य नहीं मुक्ति न चाहता हो । मुक्त होना, उत्तर की तरफ जाना तुम्हारा स्वभाव है परंतु तुम मन के पंजे में आ गये इसलिए दक्षिण की तरफ ( नीचे के केन्द्रों में ) तुम्हारा रथ बार-बार चला जाता है । बार-बार चला जाता है नहीं, दक्षिण की तरफ ही रह जाता है, उत्तर भूल ही जाता है !

जब शिष्य या साधक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को प्रणाम करता है तो उसको शांति, शीतलता का एहसास होता है और वह उनके चरणों में बिना मूल्य बिक जाता है । मैंने जब पूज्यपाद भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज के चरणों में एक बार प्रणाम किया तो शीतलता का एहसास हुआ और बिना मूल्य उनके चरणों में सदा के लिए बिक गया ।

सद्गुरु लोग वे होते हैं जिनका रथ उत्तर की तरफ यात्रा कर चुका है, प्रकृति के बंधनों से पार है । जिन महापुरुषों को उत्तरायण का पूरा लाभ मिल जाता है वे समझते हैं कि ‘दक्षिण में ( नीचे के केन्द्रों में ) जीने वाले सब उत्तर की ओर आने वाले नहीं’, फिर भी वे हिम्मत करते हैं । वे जानते हैं कि कई महापुरुष सूली पर चढ़ गये फिर भी वे सूली को स्वीकार करके हमारे लिए समाज में आते हैं ।

जैसे सूर्य उत्तर को छोड़ के दक्षिण में आता है, दक्षिण में जी के फिर उत्तर की तरफ चलता है ऐसे ही महापुरुष उत्तर की यात्रा करते हुए भी हम लोगों के बीच दक्षिण की तरफ आते हैं । हम उनके साथ चल पड़ें और उत्तर की यात्रा कर लें तो हमें पता चलेगा कि उत्तरायण कितना मूल्यवान पर्व है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 348

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आदित्यहृदय स्तोत्र


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‘आदित्यहृदय स्तोत्र’

विनियोग

ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्यहृदयभूतो

भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास

ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।

ॐ बीजाय नमः, गुह्ये। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो:। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।

करन्यास

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्‍वते अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि अंगन्यास

ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।

ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।

 

इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

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आदित्यहृदय स्तोत्र

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ ।

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌ ।

उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥

उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌ ।

येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥

‘सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।’

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌ ।

जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌ ॥4॥

सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌ ।

चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌ ॥5॥

‘इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।’

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌ ।

पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌ ॥6॥

‘भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो।’

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: ।

एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि: ॥7॥

‘सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।’

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥

‘ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।’

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌ ।

सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌ ।

तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌ ॥11॥

हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: ।

अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: ।

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥

आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:।

कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते ॥15॥

‘इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। (इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है।’

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: ।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥

‘पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।’

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: ।

नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥

‘आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने  के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है।’

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: ।

नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥

‘(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।’

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥

‘आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।’

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे ।

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥

 

‘आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।’

नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: ।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥

‘रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।’

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: ।

एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌ ॥23॥

‘ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।’

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च ।

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥

‘(यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।’

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।

कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥

‘राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।’

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌ ।

एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥

‘इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।’

अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।

एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌ ॥27॥

‘महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।’ यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा ॥

धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌ ॥28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌ ।

त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌ ॥29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌ ।

सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌ ॥30॥

उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥

उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा ‘रघुनन्दन ! अब जल्दी करो’।

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इति श्रीवाल्मीकीये रामायणे युद्धकाण्डे अगस्‍त्‍यप्रोक्‍तमादित्‍यहृदयस्‍तोत्रं सम्‍पूर्णम् ।

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सूर्यकिरणों के विशेष रंगों द्वारा विभिन्न रोगों का उपचार


ऋग्वेद (1.115.1) में आता हैः

सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।

सूर्य स्थावर-जंगमात्मक जगत का आत्मा है।

शक्ति, सौंदर्य व स्वास्थ्य प्रदायक सूर्य की रंगीन किरणें स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। ‘सूर्यकिरण चिकित्सा पद्धति’ में इनके द्वारा रोगों का उपचार किया जाता है। इसमें जिस रंग की सूर्यकिरणों से उपचार करना हो, उस रंग के सेलोफेन पेपर (पारदर्शक रंगीन कागज) को प्रभावित अंग पर लगाया जाता है या काँच की उस रंग की बोतल में पानी या तेल आदि डालकर सूर्यकिरणों में निश्चित समय तक रख के उसका प्रयोग किया जाता है। आवश्यक रंग की बोतल उपलब्ध न होने पर उस रंग का सेलोफेन पेपर रंगहीन बोतल पर लपेटकर उसका उपयोग किया जाता है।

सूर्यतप्त जल तैयार करने के लिए वांछित रंग की बोतल में 75 प्रतिशत भाग पानी भरकर ठीक से बंद करके 6 से 8 घंटे धूप में रख दें। सूर्यतप्त तेल तैयार करने हेतु बोतल को 40 दिन तक धूप में रखें।

बोतल लकड़ी के तख्ते आदि पर रखनी चाहिए। तैयार किया हुआ पानी 3 दिन बाद काम में नहीं लेना चाहिए, वह गुणहीन हो जाता है।

रोगानुसार रंगों के लाभ

लाल रंगः यह अति उष्ण प्रकृति का एवं उत्तेजक होता है। यह कफज रोगों का नाशक तथा जोड़ो का दर्द, गठिया मोच, सूजन, लकवा, पोलियो, खून की कमी आदि में अत्यंत लाभकारी है। मालिश हेतु लाल किरण तप्त तेल का प्रयोग कर सकते हैं। लाल किरण तप्त जल का प्रयोग प्राकृतिक चिकित्सक की सलाह से करें।

नारंगी रंगः यह उष्ण होता है तथा कफज रोगों का  नाशक, मानसिक शक्तिवर्धक एवं दमा, तिल्ली के बढ़ने, आँतों की शिथिलता, मूत्राशय के रोग, लकवा, उपदंश आदि में लाभकारी है।

पीला रंगः यह उष्ण होता है तथा कफज रोगों एवं हृदय व उदर रोगों का नाशक तथा पेट, यकृत (लिवर), तिल्ली  एवं फेफड़ों के रोगों, कब्ज, अजीर्ण, कृमिरोग, लकवा, गुदभ्रंश तथा वातरोगों में लाभकारी है।

हरा रंगः यह समशीतोष्ण होता है तथा वातज रोगों का नाशक, रक्तशोधक एवं आँखों व त्वचा के रोगों, फोड़े-फुंसी, दाद, खाज, कमर व मेरूदण्ड के निचले भाग के रोगों, बवासीर आदि में लाभकारी है। हरे रंग की बोतल का सूर्यतप्त तेल बालों में लगाने से असमय सफेद होने वाले बाल काले होते हैं व सिर के पिछले भाग में लगाने से स्वप्नदोष व धातु सम्बंधी रोगों में लाभ होता है।

हरा सूर्यतापित जलः यह पानी जठराग्निवर्धक, कब्जनाशक तथा शरीर की गंदगी, विजातीय द्रव्य, रक्त के दोषों को शरीर से निकाल फेंकता है। यह गुर्दों (किडनियों), आँतों व त्वचा की कार्य प्रणाली को भी सुधारता है।

हरे रंग की बोतल में तैयार जल आधा से एक कप सुबह खाली पेट तथा दोपहर व शाम को भोजन से आधा घंटा पूर्व लें। प्रयोग के दिनों में पचने में भारी खाद्य पदार्थों का सेवन न करें व भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी अवश्य पियें।

आसमानी रंगः यह शीतल होता है तथा पित्तज रोगों का नाशक, ज्वरनाशक एवं सिर की पीड़ा, संग्रहणी, पेचिश, बुखार, दमा, पथरी, अतिसार व पेशाब सम्बन्धी तकलीफों में लाभकारी है।

नीला रंगः यह शीतल होता है तथा पित्तज रोगों का नाशक, पौष्टिक, कीटाणुनाशक एवं सिरदर्द, असमय बालों का सफेद होना व गिरना, मुँह के छाले, फोड़े-फुंसी व गले के रोगों में लाभकारी है।

बैंगनी रंगः यह शीतल होता है तथा लाल रक्तकणवर्धक, क्षयरोग (टी.बी.) नाशक और हैजा, दस्त, मस्तिष्क दौर्बल्य एवं हृदय की धड़कन की अनियमितता में अत्यंत लाभकारी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 300

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